जूते की जिंदगीजूते की जिंदगी - रमेश संभाजी कुरे
-रमेश संभाजी कुरे
सही देखा जाये तो क्या है चमार की जिंदगी? जूते ही तो
जिंदगी है, जूते नहीं तो पेट का क्या होगा? दूसरे के पैरों को आराम
देकर पेट की आग बुझानी होती है। जूतों के सिवाय और सहारा ही क्या है? किसी के
गोबर-मिट्टी से संधे हुए, किसी के कीचड़ से, किसी के गंदगी से, तो किसी के पैखाने के मैल से लिथड़े हुए जूतों को साफ करना, टाकड़ा-टुकड़ा जोड़ना, फटे हुए में नया जोड़ लगाकर दो-चार कीलें मारकर तैयार करना।
और फिर तैयार जूते को मालिक के घर लेकर जाना। दूर से ही जूते डालकर सहायता के लिए
याचना करना और रूखी-सूखी रोटी, बचा हुआ अचार, साग-सब्जी, किलो आध किलो
ज्वार पर अपना घर चलाना ही तो चमार की नियति है।
महामंडल की बस भरर...रर... करके आयी
और रास्ते की उड़ती हुई धूल हरिया चमार के शरीर को अपने आगोश में लेते हुए आगे चली
गयी। हरिया बस स्टैंड पर फटी छतरी के नीचे जूते पॉलिस और जूते मरम्मत करने वाला एक
गरीब चमार। दिन भर लोगों के जूते साफकर उन्हें चमकाकर तीन बच्चों और पत्नी का पेट
जैसे-तैसे भरने वाला बेबस इंसान। बस रूकने पर उड़ती हुई धूल के बीच से बस की पाटी
पढ़ने की कोशिश करती कमजोर आंखे जैसे जिंदगी की कई
समस्याओं की धूल के बीच जीने का रास्ता ढूंढ़ रही हो। शरीर पर पॉलिस के रंग रंगी
धोती और इंसान के शरीर में हड्डियां होती हैं, यह दिखाने वाली काली मटमैली बनियान। वह दिखने में हड्डियल
पहलवान होते हुए भी अंदर से मजबूत। दायां हाथ आंखों पर रखते हुए ग्राहक को कहता
हैः
‘‘“पाटील गाडी अं...वं...जार...वा...डी, हूं बराबर वंजारवाडी की है, तुम्हारे गांव की नहीं है। अब आराम से बैठो। आपके जूते को
चिट्ठी लगाकर मस्त पालिस से चमकाता हूं।”
तब पाटील पड़े पत्थर पर बैठते हुए कहते हैं ‘‘“क्या बात है हरिया, जना नहीं आयी? फिर
भी बैठता हूं। पर तू तो काम करने वाला आदमी, मुझसे बातें कौन करेगा? अगर जना होती तो बैठता घंटा दो
घंटा...”
जना यानी हरिया के संसार की गाड़ी का दूसरा पहिया। हरिया का
शरीर निसर्गशापित पर जना गोरी चिट्टी मजबूत देह की जैसे कि हरिया के संसार का
सुंदर फूल हो। बेचारी घर का सारा काम निपटा अपने पति संग पॉलिस करती। पेट के लिए
धूप और बारिस में रास्ते पर बैठकर समाज की गंदगी साफ करने में पति का हाथ बंटाती।
भले घरों की बहुओं की जैसे वह थोथी इज्जत का शौक नहीं रख सकती थी। इज्जत की ओढ़नी
संभालने में ही लगी रहती तो खाती क्या? वह सुबह घर-गृहस्थी के कामकाज से फारिग हो
पति का खाना लेकर आती तो फिर दिन ढले ही वापसी हो पाती। यही उसकी दिनचर्या थी।
उतने में फटी साड़ी पहन जना सिर पर रोटी की पोथली, हाथों में पाडे का चमड़ा, टायर पट्टी और कीलें लेकर तेजी से आयी। जना को देखते ही
नारायण पाटील की नजर बदल गई। वे जना से नजदीकी बढ़ाने का प्रयास करते हुए बोले:
“क्या जना! आज तो
बहुत देर की तूने।”
धूप में तेज चलने से फूल गई सांस को थामते हुए जना सिर और
हाथों का सामान नीचे रखने लगी। पसीने से लथपथ माथे को साड़ी से साफ करते हुए बोली:
“क्या है पाटील? घर में तीन बच्चे, उनकी ईस्कूल, खाना बनाना, ई सब काम को देर होती ही है। उस पर आज घर में जवार का दाना
भी नहीं। इसलिए नागोराव साहूकार के पास गई, मगर उसने पयले
मेरे सामने बहोत सारे जूते डाल दिये। मैंने कहा –
‘आज जवार दे दो, कल जूते लेकर जावूंगी और सींकर
परसों लाऊंगी।’ उस पर कहने लगा- ‘जूते आज ही उठाओ और जवार कल लेकर जाओ।’ उसके हाथ
पैर पकड़कर जूते और जवार आज ही लेकर आई। देखो, इसीलिए थोड़ी देर हो गई।”
इतना कहकर जना ने अपनी राम कहानी पर लगाम लगा दी और
जूतागिरी के काम पर टूट पड़ी। सही देखा जाये तो क्या है चमार की जिंदगी? जूते ही
तो जिंदगी है, जूते नहीं तो पेट का क्या होगा? दूसरे के पैरों को आराम
देकर पेट की आग बुझानी होती है। जूतों के सिवाय और सहारा ही क्या है? किसी के
गोबर-मिट्टी से संधे हुए, किसी के कीचड़ से, किसी के गंदगी से, तो किसी के पैखाने
के मैल से लिथड़े हुए जूतों को साफ करना, टाकड़ा-टुकड़ा
जोड़ना, फटे हुए में नया जोड़ लगाकर दो-चार कीलें मारकर तैयार करना।
और फिर तैयार जूते को मालिक के घर लेकर जाना। दूर से ही जूते डालकर सहायता के लिए
याचना करना और रूखी-सूखी रोटी, बचा हुआ अचार, साग-सब्जी, किलो आध किलो
ज्वार पर अपना घर चलाना ही तो चमार की नियति है।
पति के नजदीक ही जना ने अपना बस्तान बिठाया और जूतें पॉलिस करने लगी। पेट के
लिये इस औरत ने रास्ते पर दूकान फैला ली। तेजी से उसके हाथ जूते चमकाने लगे। हिलते
हुये हाथ के साथ सिर की साड़ी कंधे पर, कंधे की नीचे सरकने लगी। मगर काम करती हुई
जना को इसकी परवाह नहीं थी। वह अपने काम में ही मग्न। इधर पाटील की नज़र गिरती हुई
साड़ी से अंदर की कल्पना करने लगी। कभी उसका सुंदर चेहरा, कभी चौड़ा सीना, तो कभी
नुकीले स्थानों पर नज़र रूकने लगी। जना काम के साथ ही पाटील से बात भी कर रही थी।
पाटील उसके चेहरे को एकटक देखते बोले:
“जना जवार कि क्या बड़ी बात? मेरे पास बहुत है बहुत।
तेरे पति को मेरा सालभर का काम करने कह दो और तू जितनी जवार चाहिए उतनी लेती जा।
अच्छा है कि नहीं?”
“पाटील बहुत अच्छा होगा, देखो”। जना पति से कहने लगी: “इनका हाटकी (सालभर ग्राहक के परिवार के जूतें और
चमड़े की वस्तुओं की मरम्मत करने का काम) का काम लेलो। नहीं तो अपने गांव के लोग
सालभर काम तो करा लेते हैं लेकिन जब मुबदले की बारी आती है तो उनकी जान चली जाती
है।”
हरिया पाटील कि हाटकी लेता है मतलब कि उनके सारे
परिवार की गंदगी सालभर साफ करना और साल के बाद खलिहान में जाकर सहायता के लिये
अपना आंचल पसारना। जितना अनाज, धान देंगे उस पर सबर करना। इसी को हाटकी कहते हैं।
नारायण का जूता तैयार करके हरिया बोलता है:
“ले लो पाटील, आपका बहुत-बहुत अहसान होगा। कल जना आयेगी
आपके घर। अब जरा दे दो बड़े हाथ से। आप ही हमारे मां-बाप हैं। सरकार आपके हाथ में
ही है हम गरीबों की जिदंगी।” किंतु पाटील जूता लेकर रूपये दिये बगैर चले गये।
दूसरे दिन सुबह जना ने घर का काम
जल्दी किया और पाटील के दरवाजे पर जाकर खड़ी रही। उतने में अपने बहुत बड़े
खानदानी और रईसी अंदाज के घर से पाटील नाश्ता करके बाहर निकले। फूले हुये पेट पर
हाथ फेरते-फेरते जना की ओर देखकर चौंक गए –
“अरे आ गई, यही-यही देखो ... तुम गरीबों की जात। इतनी
जल्दी, सिर्फ एक बार कह क्या दिया आओ और आ गयी। पहले कुछ काम-धाम, फटा- पुराना जूता
दूरूस्ती और उसके बाद अनाज।”
जना शरम
और अपमान से पानी-पानी हुई गरदन नीचे धूकाकर कहने लगी- “ प...पर पाटील आपने कहा इसलिए चली आई। गलती हुई, गंवार हूं
ना, मुझे माफ कर दो।”
“ठीक है, ठीक है जूते उपर हैं, चलो ऊपर तुझे जूतें देता हूं।
जना के ऊपर जाते ही पाटील भी पीछे-पीछे गये। जना के शरीर को स्पर्श करने की कोशिश
करने लगे। उसका हाथ पकड़ने ही वाले थे कि जना नीचे भाग आई।
“अरे रुक ..., रुक इधर हैं जूतें।
लेती जा बहुत सारे जूतें हैं, लेती जा।” पाटील ने अपने बेटे
को आवाज़ दी: “माधव इसे किलो भर
जवार और सबके जूतें और औरतों के चप्पल, बैलों के पट्टे और खेती का बारदाना दे दो।
जना ये सब लेती जा और दुरूस्त करवाकर ले आ। फिर एक किलो जवार और दूंगा। खाओ, खूब
खाओ। तुम हमारा नहीं तो किसका खाओगी, खाओ।” जना जवार और जूतें का बहुत बड़ा बोझ लेकर कड़ी धूप में अपने
घर आयी।
हरिया कि बड़ी लड़की सुनंदा घर और
खेत की मजदूरी के लिए घर से बाहर जाती थी। आठ साल का लड़का श्याम तीसरी कक्षा में
तो छह साल की लड़की क्षमा पहली कक्षा में पढ़ते थे। जब सोलह साल की सुनंदा काम के
लिए घर से बाहर जाती तो मां को चिंता खाती। खेत- खलिहान में काम करते समय जवान लड़के
सुनंदा का हाथ पकड़ने लगते तो जना घबरा जाती। सुनंदा सुबह पानी लाने कुंए पर गई।
गांव के आवारा लड़को ने उसका रास्ता रोका।
“अरे वा कितना अच्छा है गंवार कबूतर।”
“जाने दे, हरिया चमार की लड़की है।”
“चमार की है तो क्या
हुआ ऐश के निए चलेगी मुझे।”
“राजा की खेती में
चल, दिन भर मजा भी करूंगा और फौकट की मजदूरी भी दुंगा।”
“खुबसूरत हाथों से काम क्यों करती हो रानी?”
सुनंदा ने रोते हुए अपनी मां को बताया। इससे मां की चिंता
और बढ़ गई। कहने लगी कि कोई सुनंदा को जबरदस्ती उठा ले जाए तो बिरादरी में नाक कट
जाएगी। अपने आगे-पीछे कोई नहीं। गरीब आदमी की जवान लड़की पर सबकी निगाहें होती है।
जना को इसका डर सताने लगा। शाम को बेसन रोटी खाकर सारा परिवार फटे-पुराने बिस्तर
में घुसा। बच्चों को जल्दी ही नींद ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। मगर मां को नींद
नहीं आयी। सुनंदा की छेड़छाड़ का प्रसंग उसे सताने लगा। वह हरिया से कहती है:
“अजी ... अजी आंख लग
गई क्या?”
“क्या है?”
“आज सुबह सुन्नी को
लड़कों ने छेड़ा, कल कोई और हाथ पकड़ेगा, परसों कोई जोर जबरदस्ती से उठा ले जायेगा।
हम ठहरे गरीब, किसी की नज़र का क्या पता कुछ हो हुआ गया तो? मुझे बहुत डर लगता है।”
“फिर क्या करूं?”
“सुन्नी की शादी करेंगे, अपने जैसा ही एक-आध पालीस करनेवाला
गरीब लड़का देख कर शादी कर देंगे। गरीब के घर जवान लड़की रखना आग से खेलना है।”
“पैसा- रूपया तो लगेगा शादी को। क्या है हमारे पास? दिनभर की आमदानी में इतने लोंगों
का पेट ही तो मुश्किल से भरता है।”
“साहूकार से कर्जा लेंगे, कुछ रूपये अपने बीमा
के भी जमा हुये होंगे।”
इधर सुनंदा भी सोई नहीं। उसे कैसे नींद आ सकती है? सुबह के लड़कों का आंख मारना,
रास्ता रोककर चलने का इशारा करना। उसे बार-बार याद आने लगा। मां-बाप की बातें
सुनकर वह मन ही मन रोने लगी। मां-बाप की निर्धनता पर, छोटे भाई श्याम और बहिन
क्षमा के भविष्य पर। वह मटमैली गुदड़ी में सिसक-सिसक कर रोने लगी। घर में चमड़े की
गंदगी से उठने वाली बू, पॉलिस की डिब्बियां, रबर और फटे पुराने जूतें, इन सबकी
गंदी बास ने घर को नरक बनाया हुआ था। एक कोने में आरी, रापी, मोम, सूत आदि की गठरी
रखी हुई थी। नीचे की सारी जमीन पानी से गीली होने से मच्छरों की बड़ी हुई आबादी।
बिस्तर में छुपकर भूखे बच्चों का खून चूसते हुये खटमल। फिर भी इन सबके बीच हरिया
का परिवार भविष्य की ओर आंख लगाकर सो गया।
शनिवार का दिन गांव का बाज़ार लगता था। बाहरी गांवों से आने
वाले लोगों के कारण बस स्टैंड पर बहुत भीड़ होती थी। आज धंधा अच्छा होगा, यह सोचकर
हरिया सुबह ही बस स्टैंड पर पहुंच गया था। फटी छतरी के नीचे रास्ते के किनारे
दुकान लगाकर उसने अपना काम शुरू किया। सामने से बीमा एजेंट शिवा जाता दिखाई दिया।
हरिया झुककर:
“राम-राम शिवा, मेरा कुछ काम है।”
“कैसा काम, बाद में देखेंगे, अभी मुझे लातूर जाना है।”
“रूपये कितने जमा हुए? देख लेते तो
अच्छा होता।”
“मैं तेरे रूपए नहीं खाऊंगा, सब
वापस करूंगा मुझ पर भरोसा नहीं है क्या? अनपढ़ कहीं का।”
“विश्वास की बात नहीं, लड़की जवान
हो गई है, शादी ब्याह की सोच रहा हूं।”
“ठीक है, ठीक है,
तेरे पास अकाउंट है, तू कर ले हिसाब।” हरीया हर दिन की कमाई में से पांच रूपए बचाकर बीमा में जमा
करता था। कभी-कभार पड़ोस के पढ़े लिखे युवक रमेश से उसका हिसाब कर फटे हुये कपड़े
में बांधकर रखता।
इसप्रकार पेट काटकर बचाए हुये बीमा के रूपये
और साहूकार से कर्ज लेकर सुनंदा का ब्याह किया गया। नजदीकी रिश्ते के ही मजदूरी
करने वाले लखन को दामाद बनाया। लेकिन सुनंदा के लिए कुछ भी नया नहीं हुआ।
ढलती उमर के साथ हरिया की तबीयत बिगड़ने लगी।
खांसी की बिमारी हद से बढ़ गई। मटमैले कपडे, बिखरे हुए बाल, एक आंख बागी, दो दांत
बाहर, निस्तेज चेहरा, सिर पर सामान की गठरी, गोद में छाता, हाथ में लाठी, मुंह में
जलती हुई आधी बीड़ी को पीता हुआ हरिया काम पर जाता। रूक-रूक कर खांसी का दौरा आता
और वह रास्ते में ही बैठ जाता। फिर ... फिर उठता। बड़ा लड़का श्याम कक्षा छोड़कर
पिता के काम में सहायता करने आता और दूसरे दिन कक्षा में शिक्षक से मार खाता।
सरकार की तरफ से
चमारों को धंधे के लिए लोहे की टपरी मिलने की चर्चा गांव भर में फैल गई। जना को
लगा कि वे भी प्रयास करके देखें। वैसे भी अब हरिया से काम नहीं हो रहा था। टपरी
मिल जाती तो उस में रेडिमेट जूते-चप्पल रखे जा सकते थे। वह हरिया से कहने लगी:
“हम भी लोहे की टपरी के लिए फारम भरें? हम से गरीब कौन है?
चमारों में हमें मिलेगी टपरी।”
“हमें कौन देगा, सब
मुखिया, पंच के आदमियों को मिलेगी। अपना कौन है मामा मौसा?”
“भर कर तो देखेंगे।”
“बहुत प्रमाणपत्र
लगते हैं, कहां से लाओगी उसके लिए पैसे? टपरी की बात ही निकाल दो दिमाग से ।”
“मैं लावूंगी सबसे हाथ पैर जोड़कर।”
“जैसे तेरी मर्जी।”
जना प्रमाणपत्र के लिए मुखिया, तलाठी, ग्रामसेवक के ऑफिस
में चक्कर काटने लगी। पढ़े-लिखे लोगों को पूछ-पूछकर एक-एक कागज इकठ्ठा करने लगी।
ये कैसा देश जहां गरीब को गरीब होने का प्रमाणपत्र देना पडता है, भले ही उसका
चुल्हा दो बार ना जले! वह तलाठी कार्यालय पहुंची-
“अरे जना तू कैसे?
क्यों आयी?”
“साब प्रमाणपत्र
चाहिए।”
“तुझे क्या जरूरत है
टपरी की, तुझे तो दुकान बांधनी चाहिए।”
“हम गरीब हैं साब।
दुकान तो आप जैसे लोग बांधेगे।”
“यहां ज्यादा जुबान
नाहीं चलाने की, नीच जाती की आदत यहां नहीं चलेगी। आखिर रास्ते पर ही तो काम करती
हो। प्रमाणपत्र को सौ रूपए लगते हैं”
“हां जी, है मेरे
पास, लीजिए।”
किसी को दो सौ, किसी को सौ तो किसी को पचास रूपये की रिश्वत
देकर जना ने सभी प्रमाणपत्र इकठ्ठा किये।
मगर लोहे की टपरी
हरिया को नहीं मिली। गांव के जिन चमारों की पक्की दुकाने हैं और जो मुखिया, पंच
आदि लोगों के चमचे हैं, उन्हें तो लोहे की टपरियां मिल गईं। किंतु हरिया के नसीब
में रास्ता और रास्ते की धूल ही रह गई।
पति की बीमारी बढ़ने लगी। किंतु घर में दवा-पानी के लिये
रूपया नहीं। बाल-बच्चों का पेट काटकर बचाया हुआ रूपया तो जना ने टपरी के लालच में
दलालों के मुंह में डाल दिया था। चार आदमियों का पेट पालना मुश्किल हुआ। हरिया
बात-बात पर चिड़ने लगा। उसके हाथ पैर थर-थराने लगे। अपना गुस्सा वह जना पर उतारता।
“अरी ओ रांड क्या हो
गया टपरी का? चार- पांच सौ रूपये
भी गये, और टपरी भी गई। मना
किया मगर मानी नहीं। मेरा ये पहचान का है, वो पहचान का है! अब कहां गये तेरे टपरी
देने वाले यार?”
“अब बस भी करो”।
“बस
करो! मुझसे
जुबान लड़ाती है रांड कहीं की। कौन तेरा
बाप था टपरी देनेवाला?”
वह जोर– जोर
से खांसने लगा। उसकी सांस फूलने लगी।
“चुप हो जाव, तबीयत
अच्छी नहीं।”
“मरने
दो मुझे, जीकर
भी हम क्या खाक जी रहे हैं। ऐसे तो कुत्ते ही जीते हैं। इस दुनिया में कोई किसी का
नहीं है। सरकार भी गरीबों की नहीं, दलालों की है। गरीबों का खून चूस रहे हैं। सब
भडवे हैं, भडवे।”
हरिया ने कोने में
पड़ी लाठी उठायी और गुस्से में जना की पीठ पर दो-चार मार दीं। जना रोने लगी उसे
समझ नहीं रहा था कि क्या करे। घर में अनाज नहीं, बीमार पति, दवा-पानी
को पैसे नहीं, सरकारी
अस्पताल में अच्छा इलाज नहीं होता। पड़ौसियों के यहां से मटन लाने पर बच्चे मुंडिया
चुल्हे में भुनकर खा लेते। बाद में जना पैरों की का रस्सा बनाती। पति को पीने
देती। ऐसे ही दिन पर दिन गुजरने लगे।
बीमारी से परेशान हरिया का काम-धंधा बंद, घर
में रूपये आना बंद। श्याम पढ़ाई छोड़कर गांव भर में घूमकर पॉलिस करने लगा। जना ने बस
स्टैंड पर छतरी के नीचे दुकान लगाई। कई डॉक्टरों से मिलकर पति का इलाज कराने लगी।
फिर भी कुछ फायदा नहीं हुआ। उसे आंबाजोगाई के बहुत बड़े सरकारी अस्पताल लेकर जाना पड़ा।
डॉक्टर ने जांच करने के बाद कहा :
“इसे जल्दी से जल्दी
घर लेकर जाइए।”
“क्यों साब? नहीं साब
इलाज करो, मैं
लावूंगी रूपये, भीख
मांगूगी,
पर मेरे
पति की जान बचाओ डाक्तर।”
“इसका इलाज नहीं होगा, बीमारी
हद से ज्यादा बढ़ गई है। सारा गुर्दा खराब हो गया है।”
जना रोने लगी: “मेरे
पति को बचाओ। मुझे किसी का सहारा नहीं है। मैं निराधार हूं। मैं क्या करूं......”
उसी दिन हरिया को
गांव वापस लाया गया। उसका खाना-पीना बंद हुआ, बोलना- फिरना बंद
हुआ। बिस्तर पर लेटकर निराशा भरी नज़रों से टुकर-टुकर चारों तरफ देखता। आंखे आंसुओं
से भर जातीं। श्याम और क्षमा के हाथ अपने हाथों में लेकर रोने लगता। जना दिन-रात
उसी के पास बैठी रहती। कभी पानी तो कभी दूध का चम्मच पिलाती।
अचानक जना की आंख लग
गई और हरिया को काल निगल गया। वह जूतों के बीच पैर रगड़-रगड़कर हमेंशा के लिए सो
गया। जना की आंख खूली तो पति को देख वह जोर-जोर से रोने लगी। आकाश–पाताल
एक करने लगी। ईश्वर को गालियां देने लगी: “मैं
बरबाद हो गई, जो
भगवान उसे लेकर गया, उसका
सत्यानास हो।” श्याम
और क्षमा भी मां के साथ रोने लगे।
हरिया शांत सोया था, चारों
ओर जूतें बिखरे पड़े थें। जूते की ज़िंदगी
से हरिया मुक्त हुआ। बस
स्टैंड पर पिता की फटी-पुरानी छतरी के नीचे पढ़ाई छोड़कर श्याम जूता पॉलिस करता हुआ
अपने दादा-परदादा की परंपरा को ढोने लगा। चमार की एक जूते की पीढ़ी दूसरे जूते के
रूप में जीने लगी।
संपर्क: रमेश संभाजी कुरे, प्राध्यापक
कॉलोनी,
मराठवाड़ा (महाराष्ट्र),
दूरभाष – 9423738424
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