शनिवार, 23 अगस्त 2014

रपट: विमर्शों के दौर में भक्ति साहित्य - छोटूराम





हमें मंदिरों में दलितों के प्रवेश के विरोध की तरह पाठ्यक्रमों में अस्मितापरक विमर्शों के प्रवेश के विरोध को समझना चाहिए! सांस्कृतिक विविधता वाला मामला पश्चिमी समाजों में जगह-जगह से आए लोगों के अपने सांस्कृतिक स्वरूप को व्याख्यायित करने वाली पदावली के रूप में विकसित हुआ; लेकिन जिस तरह से उसे उत्सवीकृत किया जा रहा है, उससे उनके यहां भी अनुदारवाद तेजी से बढ़ रहा है। जो लोग समूह के तौर पर अपनी अस्मिता निर्मित करते है, उसमें प्रत्येक निर्माण के अपने महत्त्व के साथ परंपरा को अधिग्रहित करने की अपनी रणनीति काम करती है, जिसके लिए मार्क्स ने बहुत पहले कहा था कि कई बार संघर्षरत शक्तियों को अपनी ही ताकत पर भरोसा नहीं रहता और अपनी सहायता के लिए वे अतीत के प्रेतों को बुलाते हैं। अस्मिता-निर्माण का यह कार्य ऐतिहासिक चेतना के क्षरण के बिना असंभव है। इसलिए एक विशेष माहौल में पैदा हुए भक्ति साहित्य को एक पाठ में बदलने के लिए सबसे पहले उसे संदर्भविहीन करना होता है, ताकि अनेक तरह के पाठों की अनेक तरह की व्याख्याएं करना संभव हो सके और इन नयी व्याख्याओं में हम भी अपना स्थान बना सकें।


ध्यकालीन साहित्य को समकालीन साहित्यिक विमर्शों के आलोक में देखना कोई नयी बात नहीं है पर पूर्ववर्ती साहित्य को आज के विमर्शों के आलोक में देखने से क्या नया अर्जन होता है या उसमें कौनसी समस्याएं आती हैं, इसे ध्यान में रखते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु महाविद्यालय में विमर्शों के दौर में भक्ति साहित्य विषय पर एक विचार-गोष्ठी आयोजित हुई। 6 नवम्बर 2013 को हुई इस विचार-गोष्ठी की अध्यक्षता नामवर सिंह ने की और अब्दुल बिस्मिल्लाह और गोपाल प्रधान मुख्य वक्ता थे।
औपचारिक स्वागत के पश्चात विचार-गोष्ठी के पहले वक्ता गोपाल प्रधान ने कहा कि हमारा अकादमिक जगत, विशेष रूप से हिंदी, अभी भी पश्चिम की 10-15 साल पहले की बहसों के अनुकरण पर चलता है। आर्थिक मंदी और कई अन्य परिघटनाओं के बाद से जब पश्चिम में ही विमर्शों का दौर प्रश्नांकित हो रहा है तो हम विमर्शों के दौर पर ही क्यों, संघर्षों के दौर पर बात क्यों नहीं करें? मानव सभ्यता जिस दौर में प्रवेश कर चुकी है, उसके प्रति संदेह के कारण धीरे-धीरे कुछ पुरानी चीजें लौट रही है। इसलिए विमर्शों के बारे में बात करने से पहले पूर्व की मान्यताओं के अनुसार हमें यह जान लेना चाहिए कि यथार्थ कहीं और नहीं बल्कि विमर्श या भाषा के भीतर मौजूद है, जिसे भाववादी परंपरा (विशेष रूप से क्रोचे) के अभिव्यञ्जनावाद का विरोध करते हुए रामचंद्र शुक्ल ने अपने दौर में चिह्नित किया था। जब दमन भाषा के भीतर है तो उसका विरोध भी भाषा के भीतर ही होना चाहिए।
विमर्शों की राजनीति एक हद तक यथार्थ के वस्तुगत अस्तित्व के नकार पर, यथार्थ को भाषा में सीमित कर देने पर, यहां तक कि विरोध को भी भाषा के भीतर सीमित कर देने पर आधारित है। अगर आप दलित विमर्श और स्त्रीविमर्श के भीतर देखेंगे तो पायेंगे कि दलित लेखक अपने लेखन को ही आंदोलन मानकर चलता है। इसतरह वह खुद अपनी भूमिका को सीमित कर लेता है। ऊपरी स्तर पर हमें लगता है कि विमर्शों के आने से बड़े सामाजिक प्रश्नों पर बात होने लगी है पर यह सही नहीं है। पश्चिम की अकादमिक दुनिया में स्त्रीलेखन या ब्लैक साहित्य तब स्वीकृत हुआ, जब वास्तविक समाज में वह आंदोलन के रूप में समाप्त हो गया। कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि इसतरह उन आंदोलनों को समाप्त करके उनकी ऊर्जा को एक तरह से अधिग्रहित कर लिया गया, लेकिन ऐसा कहना सही नहीं होगा। आज 80% विश्वविद्यालयीय शोध विमर्शों पर हो रहे हैं। अगर हम अकादमिक जगत में षड्यन्त्रवादी प्रक्रिया में यकीन न भी करें तब भी हम सब फण्डिंग के लिए तरह-तरह की परियोजनाएं बनाते रहते हैं (यह जानते हुए कि फण्डिंग करने वाली संस्थाएं अपनी पारिभाषिक शब्दावली के हिसाब से ही फण्डिंग करती हैं)।
नयी सदी में प्रवेश के बाद एन.आर.आई. और दोहरी नागरिकता की संकल्पना ने विमर्श के बाहर प्रवासी साहित्य को जन्म दिया। संभव है कुछ समय बाद यहां भी उसका असर दिखायी पड़े। यह एक तरह का फैशन है। इसलिए विमर्शो की मौजूदगी के बावजूद हमारे अकादमिक जगत को उसके प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए। इसमें हमें उसकी राजनीति और एक समय विशेष में हुए उसके उभार को भी ध्यान में रखना चाहिए। सामान्य बातचीत की दुनिया से मार्क्सवाद के तिरोहित हो जाने और पूंजीवाद पर सीधी बात न करने की जिस प्रवृत्ति ने जन्म लिया है, उसके कारण दमन और विरोध दोनों को एक ही संस्कृति के हिस्से के रूप में रखकर देखने के पीछे के निहितार्थों को समझा जाना चाहिए। हमें मंदिरों में दलितों के प्रवेश के विरोध की तरह पाठ्यक्रमों में अस्मितापरक विमर्शों के प्रवेश के विरोध को समझना चाहिए! सांस्कृतिक विविधता वाला मामला पश्चिमी समाजों में जगह-जगह से आए लोगों के अपने सांस्कृतिक स्वरूप को व्याख्यायित करने वाली पदावली के रूप में विकसित हुआ; लेकिन जिस तरह से उसे उत्सवीकृत किया जा रहा है, उससे उनके यहां भी अनुदारवाद तेजी से बढ़ रहा है। जो लोग समूह के तौर पर अपनी अस्मिता निर्मित करते है, उसमें प्रत्येक निर्माण के अपने महत्त्व के साथ परंपरा को अधिग्रहित करने की अपनी रणनीति काम करती है, जिसके लिए मार्क्स ने बहुत पहले कहा था कि कई बार संघर्षरत शक्तियों को अपनी ही ताकत पर भरोसा नहीं रहता और अपनी सहायता के लिए वे अतीत के प्रेतों को बुलाते हैं। अस्मिता-निर्माण का यह कार्य ऐतिहासिक चेतना के क्षरण के बिना असंभव है। इसलिए एक विशेष माहौल में पैदा हुए भक्ति साहित्य को एक पाठ में बदलने के लिए सबसे पहले उसे संदर्भविहीन करना होता है, ताकि अनेक तरह के पाठों की अनेक तरह की व्याख्याएं करना संभव हो सके और इन नयी व्याख्याओं में हम भी अपना स्थान बना सकें। दलित-अस्मिता-निर्माण की इसी प्रक्रिया के साथ भक्ति-साहित्य पुनः चर्चित हुआ।
प्रतीकों का निर्माण एक हद तक अस्मिता के निर्माण के लिए जरूरी होता है, जिसमें स्त्री विमर्श के भीतर मीरा का अधिग्रहण हुआ और एक सीमा तक उसने मीरा के जरिए पितृसत्ता को प्रश्नांकित करना शुरू किया। मीरा को आध्यात्मिकता से मुक्त करके प्रेम की स्वतंत्रता पर बल देने से आधुनिक समय के सवालों को उठाना आसान हो गया। इसी तरह कबीर बनाम तुलसी विवाद में एक ने कबीर और तुलसी में स्त्री के प्रति गड़बड़ी दिखाई तो दूसरे ने दोनों को अपना आदर्श माना। ऐसे असमाधेय विवादों के मूल में सिर्फ विद्वता नहीं बल्कि राजनीति भी जुड़ी होती है जो उसे अपनी तरह से अधिग्रहण करती है। इसलिए अगर आप विमर्शों के पूरे दायरे पर प्रश्न खड़ा करना चाहते है (जो कि किया जाना चाहिए) तो आपको समूचे भक्ति साहित्य को सामंतवाद के विरोध के संघर्षशील परंपरा के रूप में देखना चाहिए, जैसा कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान बाबा रामचंद्र द्वारा तुलसी और महात्मा गांधी द्वारा नरसी मेहता के रचनात्मक प्रयोगों में भी दिखाई देता है। ऐसा तभी संभव हो पाएगा जब हम (सामाजिक तबकों की साहित्यिक भागीदारी की चिंता को) विमर्शों के पूरे जाल से बाहर खड़े होकर प्रश्नांकित करेंगे।
विचार-गोष्ठी के दूसरे वक्ता अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा कि आज जब एक ओर विमर्शों के दौर में मध्ययुगीन कविता और उसके संकटों की चर्चा की जा रही है तो दूसरी ओर हमारे लोकवृत्त से मध्यकालीन कविता लगातार गायब होती जा रही है। एन.सी.आर.टी. की स्कूली किताबों में मध्यकालीन कवि नहीं पढ़ाए जा रहे। अपवादन एकाध कवि रख दिए गए हैं। जब बच्चा स्कूल से ही मध्यकालीन कविता पढ़ ही नहीं रहा तो महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में क्या पढ़ेगा? इसका सबसे बड़ा कारण भक्ति विश्लेषण लगाए बिना पूरी न होने वाली चर्चाएं है। भक्ति और कविता तथा कवियों और विमर्शों के बीच मध्यकाल, ये दोनों ऐसे तत्व हैं जो कविता को कविता नहीं रहने देते। पहले तो कवियों को संत और भक्त बनाया और फिर उन्हें विमर्श में ले आएं। फिर हम अध्यापक लोग भक्ति और नौकरी, दोनों एक साथ करना चाहते हैं। इस सोच ने कविता का बहुत नुकसान किया है। सारा मध्यकालीन काव्य या तो अवधी में है या ब्रज में और आज के विद्यार्थी के लिए ब्रज और अवधी, जर्मन और फ्रैंच की तरह है। दिक्कत यह है कि उन्हें ये भाषाएं समझायी भी नहीं जाती। अगर दो ही कवियों – कबीर और तुलसी की बात करें तो कबीर को पहले तो ब्राह्मणों ने कब्जाने की कोशिश की, अब दलित विमर्श से जुड़े लोग यही कर रहे हैं। वे रचनाकार को उसके समय से निकाल, अपने समय में लाते है और फिर एक को उठाते और दूसरे को गिराते हैं। जबकि दोनों अपने युग के अनुसार कविताएं कर रहे थे। जब कबीर और तुलसी के जमाने में कार्ल मार्क्स पैदा ही नहीं हुए तो फिर उन पर मार्क्सवादी सोच का प्रभाव कहां से पड़ता!
कबीर और तुलसी पर बात करते समय तमाम दर्शनों का उल्लेख किया जाता है, लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि कबीर इतने गुस्से में क्यों है? कबीर गुस्से के कवि हैं और गुस्सा विचार या व्यक्तित्व को नापसंद करने से आता है। मध्यकाल के इतिहास पर लिखते समय इतिहासकार अक्सर कहते हैं कि भारत पर मुसलमानों ने आक्रमण किया, शासन किया; लेकिन आधुनिक काल के बारे में वे यह क्यों नहीं कहते कि ईसाइयों ने आक्रमण किया? वे अंग्रेजों ने शासन/राज किया कहते है। यहां उनके लिए राष्ट्र महत्त्वपूर्ण हो गया जबकि मध्यकाल में उनके लिए धर्म महत्त्वपूर्ण था। इस तरह जब आप धर्म को लाएंगे तो उसे सांप्रदायिक होना ही होना है। अगर मुसलमानों ने शासन किया पढ़ते-सुनते हुए यदि हिंदुओं को कष्ट हो रहा है तो इसमें दोष इतिहासकारों का है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मध्य एशिया से जब मुसलमान यहां आए, तब वे भी नये-नये (धर्म-परिवर्तित) मुसलमान हुए थे। बाबर अरब (जहां इस्लाम पैदा हुआ) का नहीं, फरगना (उजबेकिस्तान) का था। इस्लाम अरब से ईरान और वहां से उत्तरी अफ्रीका से होते हुए से मध्य एशिया में और वहां से भारत में प्रवेश करता है। इस ऐतिहासिक सच्चाई के अभाव में मध्यकालीन कविता को समझना मुश्किल है। खुद बाबर और उनके साथी धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरे थे और यहां आकर वे दूसरों का धर्म बदलने लगे। नमाज, रोजा और खुदा - ये तीन शब्द ऐसे हैं, जिनके बगैर भारतीय मुसलमानों का काम नहीं चलता, लेकिन आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि ये तीनों शब्द कुरान में नहीं है। ये शब्द धर्म परिवर्तन का नतीजा है। इस्लाम के जात-पांत न मानने के कारण भारत में ज्यादातर धर्म परिवर्तन तथाकथित निम्न जातियों में हुए। खुद कबीर धर्म परिवर्तित मुसलमान थे। वे कहते है – कोली का मर्म न जाना। इसी गुस्से के कारण वे हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों को लताड़ रहे है। कबीर के पूर्वज संस्कृत में कविता किया करते थे।
बनारस के जुलाहे खुद को बड़ा सिद्ध करने के लिए अपने नाम के आगे अंसारी लगाते हैं– जुलाहे बेगुनाहे पचास जूता।अंसारी लगाने का कारण यह है कि अपने जीवन पर खतरा मंडराते देख जब हजरत मोहम्मद मक्का छोड़ मदीना चले जाते है तो मदीने में उन्हें अंसार कबीले वाले शरण देते हैं। इसीतरह गोश्त बेचने वाले हिंदुस्तानी कसाई खुद को कुरैशी कहते है क्योंकि मोहम्मद साहब कुरैश कबीले में पैदा हुए थे। इस्लाम ने हमारे देश में अरब के जिस मसावाद (यानी समानता) नाम का झुनझुना बजाया, कार्ल मार्क्स ने उससे साम्यवाद ले लिया। धर्म-परिवर्तित भारतीयों का धर्म तो बदल गया, लेकिन पेशा नहीं बदला। पेशे का संबंध जाति से है। मुसलमान होने पर भी नाई बाल ही काटेगा और धोबी अब भी कपड़े ही धोएगा। धर्म बदल गया पर पुश्तैनी कारोबार नहीं बदला, जाति नहीं बदली। न तो रामचंद्र नाई ठाकुर साहब की चारपाई पर बैठ सकता है और न रहमान नाई खान साहब की चारपाई पर। धर्म परिवर्तित ठाकुर खुद को खान लिखने लगे तो धर्म परिवर्तित ब्राह्मण खुद को सैयद कहने लगे। ब्राह्मणों की तरह वहां भी सैयद से ऊंचा कोई नहीं। धर्म-परिवर्तित जुलाहे, नाई, धोबी अब भी वही रहे। हिंदुओं की तरह मुस्लिम समाज में भी इनकी कोई इज्जत नहीं। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच चक्की की तरह पिसते कबीर में इसीलिए इतना गुस्सा मिलता है। वे गुस्से के, पीड़ा के, दुख के कवि हैं।
कहा जाता है कि काशी में मरने से स्वर्ग मिलता है तो कबीर ने कहा कि हम काशी में नहीं, मगहर में मरेंगे और वे मगहर में मर गए। इसका कारण बनारस में जुलाहों का शोषण था, इसलिए वे बनारस छोड़ मऊ, मगहर या खलीलाबाद चले गये, लेकिन वहां जाकर वे खुश नहीं थे- “तजे बनारस मति गई मारी।” लाख शोषण को बावजूद वहां (बनारस में) उनके अपने लोग तो थे, परदेश (मगहर) में तो अपना कोई नहीं। मगहर उस जमाने में कपड़ा बुनाई का सबसे बड़ा केंद्र था। बनारस में कबीर दो चीजों, चूहों और चोरों से बड़े परेशान थे–ताना लीन्हा बाना लीन्हा, लिन्ह गौड़ पठवा, जित उत चितवत कठवत लिन्हा मान सलौना डउवा ओ राम। इसलिए पूरा जीवन शिव की नगरी में बिताने के बाद अंतिम समय एक पराए नगर वाले कबीर को पढने की दृष्टि बदलनी होगी। जब आप उन्हें समाज सुधारक, संत, दलित विमर्श से मुक्त करके जुलाहे की दृष्टि से पढेंगे तो उनके मर्म को समझेंगे।
“ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी” को लेकर यह कहना कि तुलसी शुद्रों और स्त्रियों के विरोधी थे, घिसी-पिटी बातें है। ताड़ना का मतलब सिर्फ मारना ही नहीं देखना भी होता है। फूल, गंवार, पशु और नारी देखने योग्य है। शरारतन ढोल रह गया है। तुलसी नारी विरोधी होते तो सबसे ज्यादा सीता का विरोध करते, लेकिन नहीं, वे तो सीता के सौंदर्य का वर्णन ही नहीं कर पा रहे हैं – “सब उपमा कवि रहे जुठारी।” जुठाना शब्द सांस्कृतिक है और हमारे यहां तो छूने और सूंघने पर भी झूठा हो जाता है। स्त्री विमर्श वाले मीरा के पास तो जाते हैं, लेकिन तुलसी पर नजर नहीं डालते, जिनके यहां अपने अधिकार के लिए लड़ने वाली कैकेयी नाम की एक चेतना संपन्न स्त्री ने राजा और समाज की हालत खराब कर रखी है। राम को जब यह खबर मिलती है कि तुम्हारे माता-पिता में झगड़े जैसा कुछ हो गया है तो वे देखते हैं – “जाई देखि रघुवंशमणि नरपति तिपट कुसाजु, सांझ परे उलझे सिंघनी मानहुं वृद्ध गजराज।” कैकेयी शेरनी की तरह तन कर खड़ी है कि मुझे मेरा हक चाहिए – “आनि मोल विसाह कि मौहि।”
तुलसी के साहित्य में राम के लिए कृपालू और दयालू के साथ-साथ गरीबनवाजू जैसे फारसी शब्दों को प्रायः फारसी प्रभाव कहकर किनारा कर लिया जाता है, लेकिन वे भूल जाते हैं कि उस जमाने में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती (अजमेर में जिनकी दरगाह है) इतने लोकप्रिय थे कि वे कहीं आते-जाते नहीं थे। लोग स्वयं उन्हें खाना पहुंचा जाते थे। उनके आगे भूखे-नंगे लोगो की भीड़ जमा रहती थी और वे अपना खाना सबको दे देते और खुद भूखे रह जाते थे। इसलिए सामान्य जनता ने उन्हें सम्मानस्वरूप गरीबनवाज की उपाधि दी। तुलसी राम को गरीबनवाज कर रहे हैं तो क्या ऐसे ही नहीं कह रहे हैं? आजकल अल्पसंख्यक विमर्श नाम का एक और विमर्श हमें अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहा है, लेकिन जब इन सभी साहित्यकारों के नाम के आगे हिंदी के मुसलमान लेखक लिखा जाता है तो बहुत तकलीफ होती है। जब आप प्रेमचन्द को हिंदी का कायस्थ लेखक या रामचंद्र शुक्ल को हिंदी का ब्राह्मण आलोचक नहीं कहते तो फिर हमें हिंदी के मुसलमान लेखक क्यों कह रहे हैं? इस तरह आप हमारा सम्मान नहीं, अपमान कर रहे हैं। मध्यकालीन दृष्टि मुस्लिम लेखक को लेखक के रूप में नहीं स्वीकार पाती। आजकल के विद्यार्थी कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा को नहीं पढ़ रहे हैं तो इसके जिम्मेदार अध्यापक भी हैं। अध्यापक लोग कविताओं को नोच-नोचकर उसमें से दर्शन, विमर्श आदि निकालते हैं। ऐसें में विद्यार्थियों का मन इसमें रमेगा कैसे? विषय को कुछ इस तरह पढाएं कि उसमें उन्हें अपना परिवेश दिखाई दें। दर्शन से काम नहीं चलने वाला।
वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि भक्ति भाव है, विमर्श नहीं। विमर्श की प्रकृति बौद्धिक है, जिसे हम लोग विचार-विमर्श कहते है, इसलिए जब विमर्श अधिक होगा तो भाव गायब हो जाएगा। फिर चाहे वह दलित विमर्श हो या स्त्री विमर्श। अखिल भारतीय स्तर पर रूप ग्रहण करने वाला भक्ति आंदोलन एक दौर की मांग थी। यह तब शुरू हुआ जब संस्कृत साहित्य पराकाष्ठा पर था। बाल्मीकि, कालिदास के समानांतर बोलियों का साहित्य लिखा जा रहा था, और लिखने वालों में दलित और स्त्रियां भी थे। यह वही दौर था जब हिंदी में कबीर, रैदास हुए तो मराठी में तुकाराम, जनाबाई, मुक्ताबाई और तमिल में तो अक्क महादेवी, अंडाल आदि; सूची लंबी है। कवियों की इतनी बड़ी संख्या उस दौर में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश की अपेक्षा जनभाषाओं में दिखी। उसी अनुपात में आज दलित लेखकों की लंबी सूची मिलती है। कोई लंबा दर्शन दे, जरूरी नहीं वह अच्छा भक्त होगा। पर इसके अपवाद भी मिलते है, जैसे - हिंदी में तुलसीदास। भक्ति को चिंतामणि और ज्ञान को दीपक कहाने के पीछे का तर्क यह है कि चिंतामणि की रोशनी बराबर बनी रहती है, लेकिन दीपक में बीच-बीच में तेल डालना पड़ेगा, नहीं तो बुझ जाएगा। इसलिए ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को बड़ा माना गया। तमाम बहसों के बावजूद रामचरितमानस गाया जाता है तो इसीलिए कि भक्ति भाव है, विमर्श नहीं है।
हमारे यहां अभी दो ही प्रमुख विमर्श है – एक दलित विमर्श, दूसरा स्त्री विमर्श। आज का रचनाकार अगर दलित और स्त्री समस्याओं से उदासीन होकर लिखता है तो वह बड़ा साहित्य नहीं लिख पाएगा। लेकिन जो दलित विमर्श बहुत करता है वो कहानियां-उपन्यास नहीं लिखता। दलित साहित्य को मान्यता बहसों के कारण नहीं बल्कि दलित लेखकों द्वारा लिखी कविता-कहानी-उपन्यास के कारण मिल रही है। साहित्य के क्षेत्र में रचना का उत्तर रचना से देना होगा। इसलिए कबीर और रैदास पूजे गए हैं। तुलसीदास रैदास को बड़ा मानते थे और उनका उल्लेख बार-बार करते हैं। आश्चर्य है कि कठमुल्ला पंडितों का गढ़ समझी जाने वाली काशी नगरी में कबीर-रैदास-तुलसीदास तीनों हुए। पंडितों से शास्त्रार्थ करने वाले विद्या के केंद्र में भाखा में लिखने वाले पैदा हुए और आज वही याद किए जाते हैं, शास्त्रज्ञ पंडित नहीं। इसलिए हमलोग विमर्श के चक्कर में न पड़ें, क्योंकि विमर्श के लिए ज्ञान की जरूरत है और ज्ञान का रास्ता दूसरा है। भक्ति साहित्य में विमर्श कम हुए, इसलिए बड़े कवि उभर कर आये। सूर किसी दर्शन में नहीं पड़ें। उनके काव्य के केंद्र में गोपियां हैं, कृष्ण नहीं, लेकिन स्त्री विमर्श करने वाले उनका नाम ही नहीं लेते। मीराबाई का जपना ठीक है, लेकिन सूरसागर से बढ़कर स्त्री विमर्श का कोई दूसरा काव्य नहीं है। सूर की गोपियां उस समय के पढे-लिखे पंडित उद्धव को नाक रगड़वाकर वापस भेज देती है। सर्जनात्मक होने के कारण प्रेम और भक्ति बहस की चीज नहीं है।
आचार्य क्षितिमोहन सेन को इसका श्रेय देना चाहिए कि उन्होंने अब्राह्मणों का सारा साहित्य इकट्ठा किया। एक दौर में रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर को आदर्श मानकर गीतांजलि में कबीर का अनुवाद किया। हमें दिव्यप्रबन्धम् का हिंदी में अनुवाद करना चाहिए। तुकाराम का संपूर्ण साहित्य हमारे बीच आना चाहिए। अंग्रेजी जानने वालों ने अपने प्रिय कवियों का अंग्रेजी में अनुवाद किया है, लेकिन हम लोग इस मामले में अभागे हैं। रवींद्रनाथ के कबीर अनुवाद की तरह हम लोग सूर-तुलसी-मीरा का अनुवाद करें, जिसे अन्य भारतीय भाषाओं के लोग भी देखें और जाने कि यह वही विशाल देश है, जहां राम-कृष्ण और कबीर-सूर-मीरा-तुलसी हुए। इस दिशा में यदि हम लोग कुछ काम करें तो वह ज्यादा सृजनात्मक और रचनात्मक होगा। इससे दलित शक्ति और स्त्री शक्ति को बल मिलेगा और हम लोग इस दिशा में पहल करते रहें। आज के जो ज्वलंत विषय हैं, उसके लिए बजरंग बिहारी से कहूंगा कि ऐसे विषयों पर गोष्ठी होती रहे, दिल्ली विश्वविद्यालय नहीं करेगा, तुम ही करोगे। वो बड़ा है, वहां तक आवाज नहीं पहुंचेगी। गोष्ठी में प्राचार्य अजय कुमार अरोड़ा के साथ-साथ मंजु दीवान, शशि मेहरा, विक्रम सिंह, बजरंग बिहारी तिवारी, विभास वर्मा, संजीव कुमार, ललित मोहन, मनोज सिंह, अनुज कुमार रावत, राकेश सिंह, नविता चौधरी और प्रेमप्रकाश शर्मा उपस्थित थे।

प्रस्तुति : छोटूराम, सहायक अध्यापक, देशबंधु महाविद्यालय, दिल्ली विश्विद्यालय, दूरभाष – 9968619551, ईमेल पता chhoturam.india@gmail.com



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