शनिवार, 23 अगस्त 2014

मस्ती की पाठशाला: रचनात्मक शिक्षण की खोजपूर्ण यात्रा - प्रवीण कुमार




पुस्तक ‘मस्ती की पाठशाला’ लीक से हटकर कुछ बात कहने की कोशिश करती है। जैसे यह विद्यालय में प्रतियोगिता, पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ छात्र जैसी अवधारणा को एक सिरे से खारिज करती है। इसके अनुसार आज विद्यालय मूल्य चेतना की शिक्षा की जगह अहंकार तथा प्रतिस्पर्धा को तरजीह देता है। जब बच्चों के दिमाग में स्पर्धा (Competition) और महत्वाकांक्षा (Ambitition) का जहर भरा जाता है तो उससे दुनिया अच्छी कैसे हो सकती है? किसी को पीछे करके आगे होने से बड़ा हिंसा का कोई काम नहीं है, लेकिन यह वायलेंस हम ही अपनी नयी पीढ़ियों को सिखा रहे हैं और इसको हम कहते हैं कि यह शिक्षा है। अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में रोज लड़ाई होती है, हत्या होती है तो आश्चर्य कैसा?

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित कमलानंद झा की पुस्तक मस्ती की पाठशाला’ (रोचक रचनात्मक शिक्षणः एक खोज) शिक्षाशास्त्र से संबद्ध है और उसके सभी तत्वों तथा महत्वपूर्ण आयामों को खोलती है। शिक्षा क्या है? शिक्षण-अधिगम क्या है, उसकी पद्धतियां क्या होती है और उसमें शिक्षकों की क्या भूमिका हो सकती है एवं बच्चों का भविष्य कैसे निर्धारित किया जा सकता है, इन सारी संभावनाओं तथा पहलुओं से यह पुस्तक आत्मसाक्षात्कार कराती है। यह पुस्तक शिक्षा और शिक्षण को अधिक से अधिक रोचक और अर्थवत्तापूर्ण बनाने की जद्दोजहद से गुजरती है। मस्ती की पाठशालाअधिगम और शिक्षक की पारंपरिक अवधारणा में हस्तक्षेप कर पढ़ने-पढ़ाने की सर्वथा नयी दिशा की विनम्र मांग करती है तथा यह मानकर चलती है कि सिर्फ किताबों को पढ़ा देने और परीक्षा पास कर नौकरी प्राप्त कर लेना ही शिक्षा का लक्ष्य नहीं है।
यह किताब शिक्षा के व्यावहारिक पहलुओं को उजागर करती है और शिक्षण की पद्धति एवं लक्ष्य के सकारात्मक पक्षों के सरोकार को दर्शाती है। किताब दो भागों में विभाजित है- प्रथम खंड शिक्षा के सरोकार, शिक्षा के सैद्धांतिक पक्षों से संबद्ध है। पाठ्यपुस्तक की सामाजिक भूमिका, प्रश्नोन्मुखी शिक्षा की पड़ताल, वर्तमान शिक्षा का नचिकेता, छात्र और अध्यापक की आत्मछवि, आधुनिक शिक्षा का सांस्कृतिक संदर्भ, बाल शैक्षणिक साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं एवं हाशिये को केंद्र में लाने की जद्दोजहद आदि अध्यायों के शीर्षक ही लेखक की शैक्षिक चिंता के वृहत्तर सरोकार को स्पष्ट कर देता है। वहीं दूसरा खंड अध्यापन के व्यावहारिक पक्षों से रू-ब-रू होता है, जिसमें समाज विज्ञानः पढ़ओ तो जानें, गृहकार्य की चुनौतियां, कविता अध्यापनःएक कला, कहानी अध्यापनः खेल नहीं, नाट्य अध्यापन की बारीकियां, निबंध शिक्षण की कठिनाइयां और व्याकरण-अध्यापन की मान्यता आदि विधाओं के शिक्षण पर ठोस चर्चाएं की गई हैं।
किताब में शिक्षा विमर्श की शुरुआत पाठ्यपुस्तक की सामाजिक भूमिका  से होती है, जिसमें शिक्षण में पाठ्यपुस्तक की अहमियत और उसके स्वरूप पर सारगर्भित बहस प्रस्तुत की गयी है। विभिन्न आयोगों की रिपोर्टों के माध्यम से लेखक ने पाठ्यपुस्तक की प्रकृति तथा उसके सीमित औचित्य पर प्रकाश डाला है। साथ ही पुस्तक 21वीं सदी की शिक्षा के मिजाज, उसके लिए बनायी जा रही योजनाओं तथा उसके लाभांश एवं परिणाम की ओर भी इशारा करती है। इसी क्रम में पुस्तक शिक्षा के प्रति बच्चों की अरूचि के कारणेां को भी स्पष्ट करती है। लेखक का मानना है कि शिक्षा के प्रति बच्चों की रूचि के कम होने के मूल में बच्चों के सामने पेश की गई सामग्री, परिस्थितियों और शिक्षण की व्यावहारिकता में तालमेल का अभाव है। बकौल लेखक, ‘‘अगर बच्चे के सामने पेश की गई स्थितियां, सामग्री या सवाल उसे रोचक न लगें तो उसका ध्यान फिसलता है और वहां जा अटकता है जो उसे रोचक लगता है। तब न हमारा उपदेश, न ही धमकी उसे लौटाकर वापस ला सकती है। (भूमिका से) लेखक के अनुसार शिक्षक को कक्षा में किए जाने वाले हरेक काम को भरसक रोचक, जोश जगाने वाला बनाना चाहिए। केवल इतना भर करना काफी नहीं कि स्कूल को हम एक सुखद जगह बना दें, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वह एक ऐसी जगह हो जहां बच्चे अपनी बुद्धि को काम में लेने की आदत डाल सके। जो बात स्कूल में ऊब के विरुद्ध कही जा सकती है, वही भय के विरुद्ध भी कही जा सकती है। भय से भी बच्चे बेवकूफों- सा व्यवहार करते हैं। बच्चों के परिप्रेक्ष्य तथा जीवन से विषय वस्तु के न जुड़ने का एक सामान्य कारण यह है कि पुस्तकों में केवल उच्च वर्ग की जीवनशैली और जीवनदर्शन के बारे में बताया जाता है।
राजनीतिक परिवर्तन के साथ शैक्षिक ढांचे विशेषकर पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तक में परिवर्तन की कवायद पुस्तक की महत्वपूर्ण चिंताओं में एक है। पुस्तक इस मुद्दे पर सहमत है कि शिक्षा तथा पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तक का ढांचा किसी राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा की बुनियाद पर ही खड़ा हो सकता है किंतु किसी खास विचारधारा के प्रसार के लिए इसके उपयोग पर जबर्दस्त असहमति है।
पुस्तक ‘मस्ती की पाठशाला’ लीक से हटकर कुछ बात कहने की कोशिश करती है। जैसे यह विद्यालय में प्रतियोगिता, पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ छात्र जैसी अवधारणा को एक सिरे से खारिज करती है। इसके अनुसार आज विद्यालय मूल्य चेतना की शिक्षा की जगह अहंकार तथा प्रतिस्पर्धा को तरजीह देता है। जब बच्चों के दिमाग में स्पर्धा (Competition) और महत्वाकांक्षा (Ambitition) का जहर भरा जाता है तो उससे दुनिया अच्छी कैसे हो सकती है? किसी को पीछे करके आगे होने से बड़ा हिंसा का कोई काम नहीं है, लेकिन यह वायलेंस हम ही अपनी नयी पीढ़ियों को सिखा रहे हैं और इसको हम कहते हैं कि यह शिक्षा है। अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में रोज लड़ाई होती है, हत्या होती है तो आश्चर्य कैसा? शिक्षा के पूर्व स्वरूप पर किताब में लंबी जिरह की गई है। लेखक आज तक की शिक्षा को विश्वास और श्रद्धा की शिक्षा मानते हैं। लेखक के अनुसार श्रद्धा और विश्वास की शिक्षा मनुष्य को बांधती है और उसे कभी मुक्त नहीं होने देता। संदेह ही मनुष्य को मुक्त करता है। संदेह की आग में ही विचार का जन्म होता है और विचार ही मनुष्य को निर्मित करता है, उसके व्यक्तित्व को ज़मीन प्रदान करता है। जहां विश्वास और श्रद्धा है वहां विचार का पनपना असंभव सा हो जाता है। वैचारिकता के लिए पुरानी रूढि़यों से मुक्त चित्त आवश्यक है। शिक्षा को प्रश्नोन्मुखता का जरिया होना चाहिए न कि इंफारमेशन फीडिंग का। शिक्षालय की सारी परीक्षाएं नए की खोजबीन के लिए होनी चाहिए न कि स्मृति की। वस्तुतः स्मृतिपरक परीक्षाएं मूल की खोज के दरवाजे को बंद कर देती हैं।
भारत की विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी सीमा है जातिगत विद्वेश की भावना। पुस्तक अंतस गहराई में जाकर कुछ ऐसे सवाल खड़ी करती है जिससे बच निकलता कठिन प्रतीत होता है। शिक्षक और छात्र की आत्मछवि में कहीं न कहीं अध्यापकों को अपने उच्च जाति का बोध तथा कई छात्रों को अपने निम्न होने का बोध रहता है। असंवैधानिक होते हुए भी जाति के आधार पर ऊंच-नीच का फर्क भारतीय समाज की क्रूरतम सचाई है। लेखक ने उदाहरण स्वरूप 22 मार्च 1999 के टाईम्स आफ इंडिया की एक विचलित करने वाली खबर का हवाला देते हुए लिखा है कि यूनिवर्सिटी कॉलेज आफ मेडिकल सांइस में उच्च वर्ण के छात्रों ने भोजन की मेज पर निम्न जाति के छात्रों को भद्दी- भद्दी गालियां दीं, उन दलित छात्रों को सामान्य पंक्ति में बैठकर खाने से मना किया और उन्हें अपने पारंपरिक कार्यों की याद दिलाई। इसी संदर्भ में लेखक प्रसिद्ध मराठी साहित्यकार शरणकुमार लिंबाले को याद करते हुए लिखते हैं कि लिंबाले जी ने अपनी आत्मकथा ‘अक्करमासी’ में इन पीड़ाओं को अद्भुत रूप से व्यक्त किया है। आज की तारीख में ये से सारी बातें अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकती हैं लेकिन आज से 20-25 साल पहले की ऐसी स्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता है। आज भी गावों में निम्नजाति के विद्यार्थी अपने-अपने वर्ग में सबसे पीछे बैठते हैं।
‘मस्ती की पाठशाला’ शिक्षकों को आत्मालोचन से गुजरने की सिफारिस करती है। लेखक अत्यंत सिद्दत से यह सवाल उठाता है  कि आज के शिक्षक से  जो सबसे महत्वपूर्ण अपेक्षा है, वह यह है कि उन्हें शिक्षक की पुरानी परिकल्पनाएं छोड़ कर नई परिकल्पनाएं विकसित करनी हैं। उन्हें विनम्रता का परिचय देना होगा। बच्चों की समस्याओं को समझने की कोशिश करनी होगी। तभी यह सहजता आ सकती है कि जिस दिन सिखानेवाला विनम्र हो जायेगे उसी दिन सीखनेवाला  आप  से आप विनम्र हो जाएगा। लेखक के अनुसार समाज में अध्यापक की गरिमा का ह्रास हुआ है। है। वे लिखते हैं कि बिहार में पांच, छः और सात हजार मासिक मानदेय पर दो लाख से अधिक शिक्षकों की बहाली हुई। सोचने की बात है कि इतने कम पैसे से कोई अपने परिवार और बच्चों के साथ सम्मान की जिंदगी कैसे जी सकता है?
पुस्तक के दूसरे खंड में शिक्षण के व्यावहारिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। समाजविज्ञान तथा हिंदी शिक्षण की कई रोचक गतिविधियों से इस खंड की संपन्नता जाहिर होती है। टाल्सटाय के स्कूली शिक्षण के हवाले इतिहास, भूगोल, नागरिक अध्यापन की बारीकियों और जटिलताओं को रेखांकित किया गया है। जोर देकर कहा गया है कि इतिहास के अच्छे शिक्षक को इतिहास-दृष्टि से संपन्न होना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही किसी को इतिहास बोध से लैस कर सकता है।
लेखक गांधी की बुनियादी तालीम वाली अवधारणा से अत्यधिक प्रभावित जान पड़ता है और यह मानता है कि इसके माध्यम से जातिगत भेदभाव को समाप्त किया जा सकता है। बुनियादी शिक्षा के प्रति लेखक का यह अतिरिक्त अनुराग ही कहा जायेगा है क्योंकि गांधी दर्शन मूलत:  वर्ण-जाति की ईश्वरवादी मान्यता पर आधारित है। जब तक धर्मशास्त्र प्रश्रायित वर्णजात वाली संरचनागत व्यवस्था समाप्त नहीं होगी तब तक भेदभाव, असमानता, विषमता, सांप्रदायिकता आदि का समूल नष्ट होना संभव नहीं है और समता एवं सौहार्द्र तो दिवास्वप्न ही होगा। समाजशास्त्री टी.बी.बांटमार के अनुसार भारत में प्राथमिक शिक्षा की पूरी अवधारणा गांधी के सामाजिक दर्शन पर आधारित है जो स्वंय हिंदुवाद से प्रेरित है, और तकरीबन सभी शिक्षा से संबंधित विचारों में वर्तमान को शिक्षा की पारंपरिक हिंदू व्याख्या से जोड़ा जाता है।
प्रारंभिक शिक्षा में गृहकार्य एक बड़ी चुनौती होती है। लेखक ने गृहकार्य को अत्यंत गंभीरता से लिया है। गृहकार्य की रचनात्मक पक्ष से लेकर उसकी सामाजिक भूमिका पर भी विचार किया गया है। गृहकार्य से संबंधित एक मजेदार बात लेखक ने यह कही है कि शिक्षकों को बालस्वभाव का उपयोग गुहकार्य में करना चाहिए। जैसे अपने मित्र की शिकायत करना बच्चों का स्वभाव होता है। शिक्षक ऐसे गृहकार्य दे सकते है जिसमें उनसे कहा जाए कि वे अपने पांच मित्र के पांच-पांच गुणों को लिखें, इस गृहकार्य से जहां एक ओर उनमें लिखने का उत्साह बढ़ेगा वहीं अपने मित्र के प्रति सकारात्मक भावना भी विकसित होगी। उसी तरह आया, धोबिन या रिक्सावाले अंकल से साक्षात्कार लेना या उनके परिवार के बारे में लिखने को कहना सामाजिक सरोकार जनित रचनात्मकता को बढ़ावा देनेवाला होता है।
किताब के दूसरे खंड में अध्यापन के पक्ष में साहित्य की सभी विधाएं मसलन कविता, कहानी, नाटक, निबंध एवं व्याकरण आदि को पढ़ाने के अपने रचनात्मक अनुभवों को लेखक ने पाठकों से शेयर करना चाहा है। यह सही है कि आज की तारीख में लेखक कमलानंद झा उच्च शिक्षा के अंतर्गत हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे हैं किंतु स्कूल अध्यापन और पाठ्यपुस्तक तैयार करने के उनके अपने गहरे अनुभव और सरोकार रहे हैं। इन्हीं अनुभवों को उन्होंने अत्यंत व्यस्थित, सुगठित और रोचक ढंग से एक मुकम्मल पुस्तक का रूप दिया है। स्कूल शिक्षण में रूचि रखनेवालों, अपनी शिक्षण दक्षता को रोचक-रचनात्मक बनाने के लिए आतुर शिक्षकों, अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति सचेत अभिभावकों,  बीएड-एमएड करने वाले विद्यार्थियों तथा इस तरह की शैक्षणिक संस्थाओं के लिए मस्ती की पाठशालाएक अत्यंत जरूरी, लाभदायक और उपयोगी पुस्तक साबित हो सकती  है।

संपर्कः प्रवीण कुमार, 054 ताप्ती छात्रावास, जे.एन.यू, नयी दिल्ली-67, ई-मेल: pravinkmr05@gmail. Com

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