आज जबकि सारा समाज ही कारोबारी होता जा रहा है, ग्लैमर की तरफ खिंचा जा रहा है और चकाचैंध को ही प्रकाश मान
बैठा है, ऐसे में हाशिये पर जी रहे लोगों के लिए देश के लिए कुछ करने की बात करने वाले भी कुछ नहीं कर
रहे हैं। इस प्रकार के हालात में अंबेडकरवादी पत्रिकाओं के प्रकाशन ने आशा की किरण
जगा कर समाज को सचेत होने और पुनः सोचने का एक अच्छा मौका दिया है। उनकी पत्रिकाओं
के हर अंक में एक नई चेतना, एक नई बहस की गुंजाइश की आशा रहती
है जो आज के इस चकाचैंध भरे दौर में जरूरी है। आदिवासियों, बुनकरों, दलितों, और भूख से जूझ रहे निम्न वर्ग के लोगों की बात, उनकी आवाज, उनकी समस्याओं व सुझावों पर चर्चा
ही अंबेडकर का मुख्य कार्य था। वे चाहते थे कि दलित अपनी समस्याओं का समाधान तलाश
करे, उसके लिए सोचे और आगे बढ़ने, अच्छा करने का प्रयास करें। उन्होंने दलित समाज में जबरदस्त
उलट-पुलट और उथल-पुथल मचा दी, आज वर्तमान में भी डॉ. अंबेडकर
किसी एक व्यक्ति का नाम न होकर एक विशाल विद्रोही सांस्कृतिक आंदोलन का नाम हो गया
है।
पत्रकारिता
में संस्कृति, सभ्यता और
स्वतंत्रता का समावेश है। भावों की अभिव्यक्ति, सद्भावों की
उद्भूति को ही पत्रकारिता कहा जाता है। पत्रकारिता यथार्थ का ही एक प्रतिबिंब होती
है। पत्रकारिता के द्वारा ही हम अपने बंद मस्तिष्क को जानकारी के माध्यम से खोलते
हैं। सत्य का अन्वेषण और समय की सहज अभिव्यक्ति ही पत्रकारिता का कार्य है।
स्वाधीनता से पूर्व पत्रकारिता का स्वरूप सीमित था, साधन भी
सीमित थे लेकिन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श बड़े थे। आज साधन तो असीमित है लेकिन
पत्रकारिता का आदर्श अस्पष्ट हो गया है। पत्रकारिता एक व्यवसाय बनता जा रहा है।
स्वतंत्रता से पूर्व पत्रकारिता का उद्देश्य था गुलामी से मुक्ति, पर आज पत्रकारिता स्वयं समाज की गुलाम बन गई है। समाज जो चाहता है,
पत्रकारिता वही देती है। दूसरी ओर देश विकास के मार्ग में दिनोंदिन तरक्की कर रहा
है। विकास की अंधी दौड़ में सफलता के पैमाने बदलते जा रहे हैं, जो व्यक्ति जितना अधिक धन कमाता है वह उतना ही अधिक उपभोग करता है,
उसकी उपभोग की वृद्धि ही सफलता की प्रतीक मानी जा रही है। समाज
धीरे-धीरे सिमटता जा रहा है और बाजार का दायरा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। सड़कों
का फैलाव बढ़ रहा है तथा खेतों में सिकुड़न आ रही है। मुनाफे की होड़ ने महंगाई को
आसमान तक पहुंचा दिया है, अमीर और अमीर होते जा रहे हैं गरीब
और गरीब। गैरबराबरी की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है। हाशिया केन्द्र से दूर,
बहुत दूर होता जा रहा है। ऐसा लगता है कि मुनाफाखोरी के इस बाजार
में शिष्टाचारी ताबीज़ गुम हो गई है, इस ताबीज़ को तलाशने की जरूरत है। जो हमें
अंबेडकर के बताये हुए मार्ग पर चलने से मिल सकती है। उनके द्वारा बनाई गई नीतियों
पर अमल करके ही हाशिए को केन्द्र तक ऊंचा उठाया जा सकता है।
भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में बाबा
साहब डॉ. अंबेडकर का विशेष योगदान है। अंबेडकर ने दलित समाज के विकास को ध्यान में
रखते हुए दलित समाज की मुक्ति के लिए सेवाभाव से पत्रकारिता को आगे बढ़ाया, समाज सुधारक, समाज
चिंतक, पत्रकार, संविधानशिल्पी के रूप
में अंबेडकर की पहचान आज सारी दुनिया में है। अंबेडकर की पत्रकारिता का स्वतंत्रता
आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। हिन्दी पत्रकारिता में भी दलित वर्ग का
अपना एक अलग स्थान रहा है तथा दलित वर्ग ने भी पत्रकारिता के माध्यम से अपने
विभिन्न लक्ष्यों को पूरा किया है। इस पत्रकारिता का लक्ष्य रहा है- दलित वर्ग की
विभिन्न समस्याओं से लड़ना। दलित वर्ग ने पत्रकारिता में पूरा सहयोग दिया है जिसके
परिणामस्वरूप दलित पत्रकारिता ने आज अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है।
आज जबकि सारा समाज ही कारोबारी होता जा रहा है, ग्लैमर की तरफ खिंचा जा रहा है और
चकाचैंध को ही प्रकाश मान बैठा है, ऐसे में हाशिये पर जी रहे
लोगों के लिए देश के लिए कुछ करने की बात करने वाले भी कुछ नहीं कर रहे हैं। इस
प्रकार के हालात में अंबेडकरवादी पत्रिकाओं के प्रकाशन ने आशा की किरण जगा कर समाज
को सचेत होने और पुनः सोचने का एक अच्छा मौका दिया है। उनकी पत्रिकाओं के हर अंक
में एक नई चेतना, एक नई बहस की गुंजाइश की आशा रहती है जो आज
के इस चकाचैंध भरे दौर में जरूरी है। आदिवासियों, बुनकरों,
दलितों, और भूख से जूझ रहे निम्न वर्ग के
लोगों की बात, उनकी आवाज, उनकी
समस्याओं व सुझावों पर चर्चा ही अंबेडकर का मुख्य कार्य था। वे चाहते थे कि दलित
अपनी समस्याओं का समाधान तलाश करे, उसके लिए सोचे और आगे
बढ़ने, अच्छा करने का प्रयास करें। उन्होंने दलित समाज में
जबरदस्त उलट-पुलट और उथल-पुथल मचा दी, आज वर्तमान में भी डॉ.
अंबेडकर किसी एक व्यक्ति का नाम न होकर एक विशाल विद्रोही सांस्कृतिक आंदोलन का
नाम हो गया है। अंबेडकर के विचारों से ही एक नयी सांस्कृतिक क्रांति का परिचय हुआ,
दलित वर्ग परिवर्तन अरैर गतिशीलता के साथ समाज में अपनी पहचान के
लिए जाग्रत हुआ। अंबेडकर का विचार इस भूमि पर एक विस्फोट था। इस विस्फोट से नीचे
के तबकों में विद्रोह की आंधियां चलने लगी। शोषितों में समता, स्वतंत्रता, और न्याय की मांग उठने लगी।
भारतीय समाज हिंदू समाज से बना है, अब तक यही धारणा मिलती
है। पर यह एक मूर्खतापूर्ण विचार लगता है क्योंकि भारत एक समाज में नहीं, विभिन्न समाजों में बसता है। वह
विभिन्न समाजों से बना एक विभाजित भारत है। संतोष के लिए हम यह भी कह सकते हैं कि
राजनीतिक दृष्टि से तो भारत अविभाजित भारत है लेकिन सामाजिक दृष्टि से वह पूर्णतया
विभाजित भारत है। भारत में विभिन्न समाजों, धर्मों और
संस्कृतियों तथा विभिन्न संप्रदायों के करोड़ों लोग एक साथ रहते हुए भी एक साथ
नहीं रहते हैं। कहीं ब्राह्मण समाज, कहीं क्षत्रिय समाज तो
कहीं वैश्य समाज अपनी-अपनी संस्कृति की बात करता है, अपनी
संस्कृति के फैलाव को लेकर ही कार्य करता है। इन सबके पीछे अंतिम सीढ़ी पर खड़ा है-
शूद्र समाज जो आज विखंडित होकर अपना अस्तित्व खोता जा रहा है। एक राष्ट्रवाद का
नारा लगाते हुए भी देश राष्ट्रवाद की भावना से दूर है क्योंकि राष्ट्रवाद वह है
जिसका अर्थ है एक जन, एक राष्ट्र और एक संस्कृति। पर इस एक
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना भी तो हिंदुत्ववादियों द्वारा ही चलाई गई है। इन
भावनों से शूद्र समाज एकजुट नहीं हो सकता, भारत नाम का यह
देश विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और पंथों में ही नहीं बंटा हुआ है बल्कि विभिन्न
वर्णों और जातियों में भी बंटा हुआ है। भारतीय समाज में एकता तभी सम्भव है जब
भारतीय समाज में आजादी, भाईचारा और बराबरी जैसे जनवादी
मूल्यों का समावेश हो। अंबेडकर मानते थे कि जाति एक विचार है, मन की एक स्थिति है। अतः जाति के विनाश के लिए वैचारिक परिवर्तन, मानसिक क्रांति आवश्यक है। वास्तविक उपचार की शुरुआत शास्त्रों में लोक
आस्था को खत्म करने से होनी चाहिए, लोगों को समतामूलक
दृष्टिकोण अपनाने के लिए तैयार करना होगा।
डॉ.अंबेडकर ने सन् 1920 के मार्च महीने में कोलागांव इस्टेट
के मानगांव और बाद में नागपुर में दलित-शोषितों का सम्मेलन आयोजित किया। उन्होंने
यह प्रयास शुरू किया कि दलितों का आपसी वैषम्य, विभाजन कम हो। उनकी अपनी महार जाति में ही 18 भेद थे। उनकी इन
कोशिशों से दलित वर्ग एक होने लगा। सन् 1924 में दलितों में आपसी विभाजन कम करने के
लक्ष्य को सामने रखकर उन्होंने एक संस्था स्थापित की-‘बहिष्कृत
हितकारिणी सभा’। इसके सभापति चिमनलाल शीतलवाद थे। ‘इस संस्था की तरफ से जुलाई में आयोजित सम्मेलन में कई सूत्री कार्यक्रम की
घोषणा गई, “जिसमें स्कूल, लाइब्रेरी
खोलने, विचार-गोष्ठियां, अध्ययन के लिए
सामूहिक विचार-विमर्श शुरु करने का कार्यक्रम शामिल था। इसके अलावा जीविका के
विकास में वृत्तिमूलक (उद्योग, कृषि आदि) विशेष शिक्षा के
लिए आर्थिक मदद करना, दलितों पर किए जानेवाले जुल्म, अत्याचार की रोकथाम और विरोध करने और अपने पक्ष में प्रचार करने के
कार्यक्रम भी तय किए गए, उस वक्त उन्होंने जिस संघर्ष का
सूत्रपात किया उसका सन्देश था- शिक्षित बनो, आंदोलन करो,
और संगठन निर्माण करो।’’[1]
दलितों के इस आंदोलन ने मजबूत संगठन का रूप ले लिया, दलित धीरे-धीरे एक होने लगे। उन्होंने शहर-शहर, गांव-गांव
घूमकर शिक्षा का सन्देश दिया। दलितों में दृढ़ विश्वास की भावना जगाई। संस्था की
ओर से एक मासिक पत्रिका ‘विद्या विलास’ भी चलाई गई जिसमें दलित विद्यार्थियों के लेख ही अधिकांश प्रकाशित होते
थे। डॉ.अंबेडकर चूंकि साहित्य ओर उसके महत्त्व को भली-भांति समझते थे इसलिए उन्होंने
समय-समय पर अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। डॉ.अंबेडकर ने 1920 में ‘मूकनायक’ के माध्यम से पत्रकारिता का देश में
पर्दापण किया। यह दलित समाज का पहला पाक्षिक पत्र माना जाता है। इस पत्र ने दलित
प्रबोधन, दलित शिक्षण, दलित जागृति और
दलित संगठन के बीज बो दिए थे, और दलित पत्रकारिता को मार्ग
दिया। 3 अप्रैल 1927 को डॉ.अंबेडकर के सम्पादन में मराठी पत्रिका ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन हुआ। ‘‘इसमें दलित समाज के सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक, धार्मिक आदि अनेक पहलुआंे पर प्रकाश
डाला। ‘बहिष्कृत भारत’ की पत्रकारिता
विचारपक्ष को समग्रता में जीवित रखने, विरोधी पक्ष के साथ
बौद्धिक, तार्किक व प्रमाणिक संवाद स्थापित करने और
प्रतिक्रियाओं का संतुलित विवेक से उत्तर देने का ऐतिहासिक दस्तावेज है।’’
(हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास- मीनाक्षी सिंह, प्रथम संस्करण 2009, पृ. 114) 4 सितम्बर 1927 को
डॉ.अंबेडकर ने समाज समता संघ के मुख्यपत्र ‘समता’ का सम्पादन किया। इस पत्रिका के माध्यम से वे मानव अधिकार और समता का
प्रचार करते रहे। 24 नवम्बर, 1930 को ‘जनता’
नामक साप्ताहिक पत्र की स्थापना की। इस पत्र के प्रधान सम्पादक
देवराज विष्णु नाईक थे। ‘जनता’ का
प्रकाशन काल डॉ.अंबेडकर के जीवन की सर्वाधिक जिम्मेदारियों का काल रहा है।
डॉ.अंबेडकर
के समय-समय पर प्रकाशित अखबार ‘मूकनायक’ ‘बहिष्कृत भारत’, ‘जनता’
और ‘बुद्ध और उनका धम्म’ उनके विविधतापूर्ण व्यक्तित्व का एक नमूना है। उन्होंने पूरी निम्न जाति
को शोषण, अत्याचार, असम्मान से बाहर
निकाल सम्मान, समानता की राह पर अपने विविध जीवन दर्शन और
बौद्ध धर्म से प्रभावित किया।
बाबासाहेब के अनुसार ‘हिंदू धर्म तो प्रारंभ से ही एक खोटा सिक्का जैसा रहा है।
हिंदू धर्म द्वारा निर्धारित आदर्शों ने समाज पर सबसे अधिक भ्रष्ट तथा विकृत करने
वाले प्रभाव के रूप में काम किया है। डॉ.अंबेडकर मानते थे कि हिंदू दार्शनिकों ने
अपने दर्शन तथा मनु दोनों को अलग-अलग हाथों में रखा, दाएं को
यह पता नहीं कि बाएं के पास क्या है? जातिप्रथा चातुर्वण्य
का, जो कि हिंदू का आदर्श है, एक
भ्रष्ट रूप है। व्यक्तिगत तथा सामाजिक रूप से यह एक मूर्खता या अपराध है। केवल एक
वर्ग को ही शिक्षा तथा ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी होना, केवल
एक वर्ग को ही व्यापार करने का अधिकारी होना, केवल एक वर्ग
को ही सेवा करने के लिए नियुक्त होना, व्यक्ति और समाज के
लिए इसके दुष्परिणाम परिणाम स्पष्ट व प्रत्यक्ष हैं। नब्बे प्रतिशत हिंदू-ब्राह्मण,
वैश्य और शूद्र हिंदू सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत शास्त्र धारण
नहीं कर सकते थे। यह आरोप लगाया जाता है कि बुद्ध ने हिंदू समाज को अपने अहिंसा के
सिद्धांत से कमजोर बनाया। बाबा साहब अंबेडकर स्पष्ट रूप से मानते थे कि हिंदू समाज
को कमजोर बनाने वाले बुद्ध नहीं, बल्कि चातुर्वण्य का वह
सिद्धांत है जो न केवल हिंदू, अपितु हिंदू समाज के अपकर्ष के
लिए भी उत्तरदायी है। डॉ.अंबेडकर बताते हैं कि स्वशासन किसी भी अच्छे शासन से
बेहतर होता है। यह एक सुविदित नारा है। लेकिन लोकतंत्रात्मक शासन के लिए
लोकतंत्रात्मक समाज का होना बहुत आवश्यक होता है। लोकतंत्र शासनतंत्र नहीं है
अपितु यह वास्तव में समाज तंत्र है। लोकतंत्रात्मक समाज के लिए यह आवश्यक नहीं है
कि उसमें एकता, सामुदायिक उद्देश्य, लोकहित
के प्रति निष्ठा तथा पारस्परिक सहानुभूति जैसी विशेषताएं हों, परन्तु उसके लिए दो बातें तो सुस्पष्ट रूप में आवश्यक होती हैं। पहली,
अपने साथियों के प्रति समानता तथा आदर का भाव। दूसरी, एक सामाजिक
संगठन जो कठोर सामाजिक बंधनों से मुक्त हो। 1943 में बाबासाहब द्वारा दिए गए
दिशा-निर्देश आज भी प्रासंगिक हैं और हम सबको भारतीय समाज की विषमताओं को समझने की
चेतना प्रदान करते हैं। साथ ही उसे दूर करने की महत्त्वपूर्ण चुनौती हमारे समक्ष
रखते हैं।
राजा राममोहन राय ने बंगाली भाषा में ‘ब्राह्मनिकल’ मैगजीन
नामक पत्रिका निकाली जिसके साथ ही भारतीय पत्रकारिता के प्रकाशन का कार्य शुरू हो
गया। 4 दिसंबर 1821 को ‘संवाद कौमुदी’ नाम से साप्ताहिक निकाला। ‘मीरातउल’ अखबार
फारसी में निकाला। 10 मई 1829 में बंगला और हिन्दी में साप्ताहिक बंगदूत और
अंग्रेजी में ‘इंडिया हेराल्ड’ प्रकाशित हुआ। भारत में 30 मई 1826 को सर्वप्रथम देवनागरी लिपि में ‘उदंड मार्तड’ नामक
समाचार पत्र प्रकाशित हुआ जिसके सम्पादक श्री युगलकिशोर शुक्ल है। 1877 में
कृष्णराव भालेकर जी ने महात्मा ज्योतिबा फूले की प्रेरणा से ‘दीनबन्धु’ नामक पत्रिका निकाली। और 31 जनवरी 1920
में ‘मूकनायक’ नामक मराठी पाक्षिक पत्र
डॉ.अंबेडकर ने आरंभ किया। इस पत्र में अछूतों ओर शोषित वर्ग की समस्याओं का उल्लेख
किया जाता था। 1920 में ‘मूकनायक’ के
आरंभ के साथ ही दलित पत्रिका का प्रारंभ हुआ। महात्मा फूले, सावित्रीबाई
फूले, छत्रपति साहू महाराज जी के विचारों को जन-जन तक
पहुंचाने के लिए अंबेडकर ने पत्रिकाओं का सहारा लिया। उन्होंने समय-समय पर दलित
समाज को दलितपन और छूआछूत की बेड़ियों को तोड़ने के लिए प्रेरित किया। 1920 में ‘मूकनायक’, 1927 में ‘बहिष्कृत
भारत’, 1930 में ‘जनता’, और 1956 में ‘प्रबुद्ध भारत’ पत्रों
के माध्यम से ही उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की मशाल जलाई।
सन् 1920 में जब मराठी में दलित पत्रकारिता काफी प्रभावित
हो रही थी तो हिन्दी में ‘सेनापति (1920),
‘विशाल भारत’ (1928), ‘विप्लव’
(1928), ‘समय’ (1927),
‘जीवन’ (1932), ‘आनंद’
(1934), ‘विजय पाक्षिक’ (1938) और ‘कल्याण’ (1939) जैसे
दलित पत्र प्रकाशित हुये, इन पत्रों ने दलितोद्धार व समाज
परिवर्तन को अपना ध्येय बनाकर राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी आहूति दी। दलित सेवा के
माध्यम से राष्ट्र सेवा का व्रत लेकर पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरने वाले
स्वतंत्रता पूर्व के दलित पत्रों में, नारायण हरिवेत का ‘दलित सेवक’ (1941), मा कुरणे
का ‘दलित निनाद’ (1947) व ‘अरुण’ (1947) प्रमुख है। अंबेडकर युग में सर्वाधिक
दलित पत्र महाराष्ट्र से निकले जिनमें बम्बई व नागपुर दो मुख्य केन्द्र थे।[2]
डॉ.अंबेडकर ने महात्मा बुद्ध के क्रांतिकारी विचारों के
सिद्धान्तों को अपने चिंतन का आधार बनाया और ब्राह्मणवादी विचारधारा की गुलामी से
मुक्ति के लिए मानसिक स्वतंत्रता को महत्वपूर्ण माना क्योंकि विचारों की
स्वतंत्रता ही व्यक्ति की सबसे बड़ी स्वतंत्रता है। 31 मई 1936 को बंबई में
धर्मांतरण के प्रश्न पर विचार करने के लिए आयोजित महार परिषद् के अधिवेशन में
डॉ.अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मणवादी विचारधारा से मुक्ति के लिए कहा कि
शारीरिक स्वतंत्रता के साथ-साथ मानसिक स्वतंत्रता भी जरूरी है। वह मानसिक
स्वतंत्रता को ही मनुष्य के लिए वास्तविक स्वतंत्रता मानते थे। विचारों की
स्वतंत्रता न होने पर मनुष्य की हालत एक गुलाम के समान ही होती है, अंबेडकर ने हिंदू धर्म को गुलामी के
दायरे में रखा है क्योंकि जो व्यक्ति हिंदू धर्म में जन्म लेता है उसे हिंदू धर्म
के विचारों को स्वीकार करना होगा। उसे धर्मग्रंथों, वेदों
आदि की दासता भी अपने सिर पर रखनी होगी जिस कारण हिंदू धर्म का व्यक्ति अपने
स्वतंत्र विचारों को समाज के समक्ष नहीं रख सकता। यदि वह समाज में स्वतंत्र होकर
जीना चाहता है और अपनी मानसिकता का विकास करना चाहता है तो उस व्यक्ति को हिंदू
धर्म को त्यागना होगा और अपने विचारों को मुक्ति देनी होगी। इसप्रकार डॉ.अंबेडकर
की दृष्टि में विचार स्वातंत्र्य ही व्यक्ति स्वातंत्र्य है। अंबेडकर के शब्द,
कर्म, चेतना, और चिंतन
का केन्द्र महात्मा बुद्ध जी की शिक्षा ही रही है। वह महात्मा बुद्ध की बताई
नीतियों द्वारा ही समाज को चलने का मार्ग दिखाते हैं।
डॉ.अंबेडकर ने अपनी पत्रकारिता में भी महात्मा बुद्ध की
नीतियों की चर्चा की है। अपने ‘मूकनायक’ पत्र में बाबा साहब डॉ.भीमराव अंबेडकर कहते
हैं कि ‘‘हमारे बहिष्कृत, दलित,
पिछड़े, समाज के ऊपर हो रहे अन्याय, अत्याचार पर उपाय एवं सुझाव देने के लिए और समाज की उन्नति के लिए ही जो अच्छा
मार्ग है, वह है समाचारपत्र। समाज से सच्चाई सामने लाने के लिए समाचार जैसी कोई
भूमि नहीं है।’’ मूकनायक का बंबई से प्रकाशन शुरू हुआ था। इस
पत्र में जाति व्यवस्था और वर्णव्यवस्था, दोनों के खिलाफ लिखा जाता था। हिंदुत्व
के खिलाफ भी टिप्पणियां की जाती थी। अंबेडकर ने ‘जनता’
पत्र में कहा कि अछूतों का हिंदुओं से अलग अस्तित्व है और अछूतों
में नई मानवी चेतना पैदा करने का प्रयास पत्रकारिता के माध्यम से किया गया। बाबा
साहब अंबेडकर ने 13 अक्टूबर 1935 में एक महत्त्वपूर्ण घोषणा की थी- ‘‘मैं हिंदू परिवार में पैदा हुआ हूं जो मेरे बस में नहीं था, पर मैं हिंदू धर्म में मरूंगा नहीं। मरने से पहले हिंदू धर्म त्याग दूंगा।
यह मेरे बस में है।’’ उन्होंने मनुस्मृति को भी निर्दयता और
अन्याय का ग्रंथ बताया है। उसे जलाना उचित कहा है।
डॉ.अंबेडकर ने दलित जातियों के साथ होने वाले अन्यायों को
उदाहरण सहित समझाया ओर उसके परिणामों के लिए भी सचेत किया। पत्रिकाओं के माध्यम से
दलितों में समाज को ठीक से समझने की सोच विकसित हुई। दलित कविताओं से दलित
आंदोलनों को बल मिला ओर पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से दलित आंदोलन पनपा और फैला।
भारत देश में दलित मुक्ति के संघर्ष में सभी लेखकों, विचारकों, पत्रकारों
तथा साहित्यकारों ने अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वाह किया है। देश की चेतना को
जगाने, निराश हृदयों में आशा का संचार करने तथा जड़ में
भावनाओं की क्रांति के बीज अंकुरित करने में दलित पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका
महत्वपूर्ण रही है। स्वतंत्रता पूर्व के दलित-पत्रों का गहनता से विवेचन करने पर
पता चलता है कि इन पत्रों का मुख्य स्वर सामाजिक समरसता, समाज-परिवर्तन
व दलितोद्धार था। इन पत्रकारों का मानना था कि बिना समाज परिवर्तन के
सत्ता-परिवर्तन करना बेकार है। इसीलिए स्वतंत्रता पूर्व की दलित पत्रकारिता ने
अपना पूरा ध्यान सामाजिक पुनर्जागरण और सामाजिक समरसता पर केन्द्रित किया।
डॉ.अंबेडकर किसी भी राजनीतिक क्रांति, राजनीतिक स्थायित्व या राजनीतिक
प्रगति के लिए सामाजिक क्रांति को प्राथमिकता प्रदान करते थे। इसी वैचारिक व
व्यावहारिक सामाजिक क्रांति की अनिवार्यता को समझते हुए उन्होंने राजनीतिक मोर्चा
की अपेक्षा सामाजिक मोर्चा संभालना ज्यादा उचित समझा। वह सामाजिक समानता के भी
प्रबल समर्थक थे। उनकी मान्यता थी- ‘‘राजनीतिक क्रांतियां
हमेशा धार्मिक क्रांतियों के बाद हुई थी। लूथर द्वारा आरंभ किया गया धार्मिक सुधार
यूरोप के लोगों की मुक्ति का अग्रदूत था। इंग्लैंड प्यूरिटनवाद के कारण राजनीतिक
स्वतंत्रता की स्थापना हुई। प्यूरिटनवाद धार्मिक आंदोलन था। यही बात अरबों के बारे
में भी सत्य है। अरबों के राजनीतिक सत्ता बनने से पहले वे पैगम्बर मुहम्मद साहब
द्वारा संपूर्ण धार्मिक क्रांति से गुजरे थे। चंद्रगुप्त द्वारा संचालित राजनीतिक
क्रांति से पहले महात्मा बुद्ध की धार्मिक व सामाजिक क्रांति हुई थी।”[3]
अंबेडकर ने नारी की हमेशा हिमायत की है कि महिलाओं को
स्वच्छ रहना चाहिए, बच्चों को शिक्षा
दिलानी चाहिए और हीन भावना का त्याग करना चाहिए।
जुलाई 1942 में अमरावती की श्रीमती सुलोचनाबाई डोंगर की अध्यक्षता में
आयोजित दलित जातीय सम्मेलन में उन्होंने कहा था ‘‘मैं किसी
समाज की प्रगति का अनुमान इस बात से लगाता हूं कि उस समाज की महिलाओं की कितनी
प्रगति हुई है।’’ मुख्य रूप से देखा जाए तो अंबेडकर ने
अछूतों के उद्धार और अस्पृश्यता निवारण के लिए ही दलित पत्रकारिता की थी। जिसमें
वह सफल भी रहे हैं और दलित उत्थान में उनकी पत्रकारिता का उल्लेखनीय योगदान रहा
है।
अतः हम अंबेडकर को एक महान पत्रकार और साहित्य शिल्पी, संविधान निर्माता कह सकते हैं
जिन्होंने अछूत उद्धार और अस्पृश्यता निर्मूलन के उपचार के लिए मूकनायक, बहिष्कृत भारत, जनता, समता,
प्रबुद्ध भारत पत्रिकाएं प्रकाशित की। निम्न वर्ग की समस्याओं पर
प्रकाश डाला, सामाजिक न्याय के लिए प्रेरित किया। उनकी
पत्रकारिता आज भी प्रेरणादायक और प्रासंगिक है।
संपर्क - रविन्दर कौर, पीएच.डी. शोधार्थी, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
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