बुधवार, 27 अगस्त 2014

उत्तर आधुनिकता - डॉ. आशीष सिसोदिया



 
तार्किकीकरण’ (Rationalization) का विरोध उत्तर आधुनिकता इसकी वर्चस्ववादी, शोषणकारी, सर्वसत्तावादी और जीवन रस को सोखने वाली प्रवृत्ति के कारण करती है। उत्तर आधुनिकता ऐसी व्यवस्था का विरोध करती है जो शोषणया केंद्रीयतापर आधारित हो। यही कारण है कि ल्योतार ऐसे बड़े वृत्तान्तों (महावृत्तान्तों) को स्वीकार नहीं करते जो अभी तक हमारे जीवन को संगठित करते आए हैं।
आधुनिकतावादी वास्तविक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विभिन्नताओं का ख्याल भी नहीं रखते। इस प्रकार उत्तर आधुनिकता उन पक्षों की चिंता करती है जिन्हें आधुनिकता ने तार्किक सभ्यता, व्यवस्था या विकास के नाम पर या तो समाप्त कर दिया या विकृत कर दिया या फिर अप्रस्तुति योग्यघोषित कर दिया।


  त्तर आधुनिकता में आधुनिकता के साथ उत्तर उपसर्ग लगाकर उत्तर आधुनिकता शब्द बना है। इसकी व्याख्या दो अर्थों में की जा सकती है। एक तो है, आधुनिकता का उत्तर अर्थात विरोध तथा दूसरा है आधुनिकता का उत्तर पक्ष। यदि इसे आधुनिकता की अगली कड़ी या अगला सोपान कहें तो अनुचित न होगा। आप उत्तर आधुनिकता को आधुनिकता की पुनर्परिभाषा भी कह सकते हैं- उत्तर आधुनिकता में आधुनिकता के अनेक तत्त्वों को खारिज किया गया और बदलती सामाजिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक स्थितियों के प्रकाश में कुछ अन्य आधुनिक मान्यताओं को पुनर्परिभाषित किया गया है।[1]   
आधुनिकता को यदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में लें तो यह ऐसी जीवन दृष्टि है जो औद्योगिक युग, पूंजीवाद, ज्ञानोदय, वैज्ञानिक क्रांति, प्रोटेस्टेंट आचार पद्धति, तार्किकीकरण तथा विचारों की सार्वभौमिकता पर टिकी थी। ‘उत्तर आधुनिक’  युग को डेनियल बेल ने ‘उत्तर औद्योगिक युग’ कहा है, हां पर उद्योग अर्थ व्यवस्था के केंद्र में नहीं रहा। उद्योगों के विकास के कारण उत्पादन में वृद्धि होने लगी किंतु वस्तुओं के उपभोग हेतु उपभोक्ता कम होने लगे। उत्तर आधुनिक युग में उपभोक्ता को केंद्र में रख कर एक कृत्रिम मांग पैदा की जाने लगी। अब उपभोक्ताओं को बहलाया फुसलाया जाने लगा ताकि वे अधिकाधिक उपभोग करें। इसके लिए विज्ञापनबाजी का सहारा धड़ल्ले से लिया जाने लगा।
डेनियल बेल ने 1973 में दावा किया कि आने वाले तीस या पचास वर्षों में हम उत्तर औद्योगिक समाज को उभरता देखेंगे। बेल का यह भी मानना था कि उत्तर औद्योगिक अवस्था उत्तर औद्योगिक समाज का सहज परिणाम नहीं है परंतु वह संयोगवश इसके साथ है। बेल के अनुसार पूंजीवाद के विकास में प्रोटेस्टेंट विचारों का योगदान था जिसमें अधिकाधिक अर्जन एवं न्यूनतम उपभोग दो विरोधी मूल्यों का संतुलन था। आधुनिकता के अंतिम दौर में न्यूनतम उपभोग की अवधारणा समाप्त हो गई और एक नई तरह की सुखवादी प्रवृत्तियों का विकास हुआ। इसप्रकार पंजीवाद में लोभ और लाभ का दौर अंधे उपभोगवाद के साथ पनपने लगा और पूंजीवाद की लोकोत्तर नैतिकता नष्ट हो गई। बेल की अवधारणा है कि उत्तर आधुनिकता में इस परवर्ती सुखवादी आधुनिकता की प्रवृत्तियों का ही विकास हुआ है।
इसप्रकार उत्तर आधुनिक युग में बोद्रीलां का उपभोक्ता समाजअस्तित्व में आया, जहां पर हर व्यक्ति केवल सतत असंतुष्ट उपभोक्ता बनकर रह गया जो नित नई वस्तुओं की खोज में भटकने लगा। प्रो.चमनलाल गुप्त के अनुसार पूंजीवाद का आधुनिकतावादी स्वरूप अब बदल गया क्योंकि इस युग में विक्रयकी अपेक्षा विपणन’, आवश्यकतापूर्ति की अपेक्षा मुक्त उपभोगऔर वस्तु उत्पादनकी अपेक्षा सेवा क्षेत्रका महत्त्व बढ़ गया। इस दृष्टि से उत्तर आधुनिक युग पूंजीवादसे वृद्ध पूंजीवादकी यात्रा पर चल पड़ा।[2] 
वृद्ध पूंजीवाद में इच्छाओं और विलासिताओं को आवश्यकता में बदल दिया जाता है। अब पूंजीवाद का चेहरा बदल गया है। पूंजीपतियों ने प्रचार माध्यमों की सहायता से उपभोक्ता की चेतना को बंदी बना लिया है। इसप्रकार उत्पादक जो बनाता है, उपभोक्ता उसी की मांग करने लगता है।[3] उपभोक्ता सर्वोपरि हो गया है।
उत्तर आधुनिकता, आधुनिकता से ज्ञानोदय’ (Enlightenment) के बिंदु पर भी अलग हुई। ज्ञानोदय एक पश्चिमी वैचारिक आंदोलन था जिसका आधार था तार्किकीकरण।फ्रांसिस बेकन को तार्किकीकरण का पिता माना जाता है। आधुनिक युग में तर्कवाद ने मनुष्य के अनेक भ्रमों को दूर किया। तर्क केवल मनुष्य कर सकता है इसलिए सृष्टि में मनुष्य को केंद्रीय स्थान मिल गया। इसप्रकार मनुष्य (पुरुष) के वर्चस्ववाद को बढ़ावा मिला और शोषणकारी व्यवस्था को जन्म मिला- तर्कवाद ने पुरुष को वर्चस्व प्रदान किया और स्त्री को हाशिए पर डाल दिया। तर्क यह था कि पुरुष तर्कशील है इसलिए श्रेष्ठ है और नारी भावनापरक है इसलिए पुरुष से हीन है। नारी शोषण का आधार यही तर्कवाद बना।[4]      
उत्तर आधुनिक विचारक मानते हैं कि तर्कवाद एक शोषणकारी व्यवस्था को जन्म देता है। तर्कवाद के कारण मनुष्य वर्चस्ववादी हो गया। प्रकृति पर वह अधिकार करने की होड़ करने लगा। इससे शोषणकारी व्यवस्था पनपी। एडार्नो और होर्खीमर लिखते हैं -ज्ञानोदय वस्तुओं के साथ वैसे ही व्यवहार करता है जैसे तानाशाह व्यक्तियों के साथ करता है।
‘तार्किकीकरण’ (Rationalization) का विरोध उत्तर आधुनिकता इसकी वर्चस्ववादी, शोषणकारी, सर्वसत्तावादी और जीवन रस को सोखने वाली प्रवृत्ति के कारण करती है। उत्तर आधुनिकता ऐसी व्यवस्था का विरोध करती है जो शोषणया ‘केंद्रीयतापर आधारित हो। यही कारण है कि ल्योतार ऐसे बड़े वृत्तान्तों (महावृत्तान्तों) को स्वीकार नहीं करते जो अभी तक हमारे जीवन को संगठित करते आए हैं।[5] 
आधुनिकतावादी वास्तविक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विभिन्नताओं का ख्याल भी नहीं रखते। इस प्रकार उत्तर आधुनिकता उन पक्षों की चिंता करती है जिन्हें आधुनिकता ने तार्किक सभ्यता, व्यवस्था या विकास के नाम पर या तो समाप्त कर दिया या विकृत कर दिया या फिर अप्रस्तुति योग्यघोषित कर दिया।
ल्योतार के अनुसार उत्तर आधुनिकता अप्रस्तुति योग्य को छिपाने के स्थान पर उसे प्रस्तुतियोग्य बनाती है। उत्तर आधुनिकता ज्ञानोदयमें अप्रस्तुतियोग्य अथवा गौण मानकर साहित्य से बहिष्कृत किए गए विषयों को पुनः प्रस्तुतियोग्यघोषित करती है। इनमें नारीवाद, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों के आंदोलन प्रमुख हैं।[6] 
आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता में तकनीक को लेकर भी मूलभूत अंतर है। आधुनिकता में तकनीक का सीधा और अनिवार्य संबंध विज्ञान से जोड़ा जाता था। उत्तर आधुनिकता में तकनीक का वर्चस्व अर्थ-व्यवस्था, राजनीति, विज्ञान आदि में एकमत से स्वीकार कर लिया गया।
डॉ. चमन लाल गुप्त के अनुसार उत्तर आधुनिकता की भारतीय चिन्तन धारा से विकेंद्रीकरण या बहुलवाद की दृष्टि से संगति बैठती है। जगत् को माया समझना और वस्तुओं का चेतना पर हावी होना भारतीय विचारधारा और उत्तर आधुनिकता में समान रूप से स्वीकार्य है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि उत्तर आधुनिकता भारत के लिए नई विचारधारा अवश्य है परंतु उसके अनेक तत्त्व हमारी विचारधारा में पहले से मौजूद रहे हैं।[7]    
समकालीन यथार्थ को समझाने वाले दूसरे बड़े विचारक मार्शल मैक्लूहान हैं। उन्होंने सूचना प्रौद्योगिकी में आ रहे परिवर्तनों के आधार पर मीडिया युग की कल्पना की थी जो आज साकार हो रही है। उन्होंने सर्वप्रथम भूमण्डलीय ग्राम’ (Global Village) तथा ‘माध्यम ही संदेश है (Medium is the Message) जैसे मुहावरे गढ़े जो उत्तर आधुनिक विमर्श के मुख्य (अभिन्न) अंग हैं।
मार्शल मैक्लूहान ने भी डेनियल बेल की तरह उत्तर आधुनिकतापर सीधे बहस नहीं की है, बल्कि उन स्थितियों का अध्ययन किया है जिन्होंने अपने परिणाम के तौर पर वैचारिक प्रणाली के रूप में उत्तर आधुनिकता को प्रतिष्ठित करने में सहायता की है। बेल ने बदलते युग की आर्थिक स्थितियों पर विचार किया था जबकि मार्शल मैक्लूहान ने इस युग के एक अन्य पहलू सूचना क्रांतिपर विचार किया है।
मीडिया अथवा माध्यमों का युगीन संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इसका विश्लेषण वर्तमान में मार्शल मैक्लूहान ने किया है। उन्होंने आने वाली सूचना क्रांति की पदचाप सुन ली थी और ऐसी भविष्यवाणियां की थी जो उनके समकालीन विद्वानों को सनक मात्र लगीं। उनकी पहली पुस्तक अंडरस्टैंडिंग मीडिया1964 में और दूसरी पुस्तक मीडियम इज द मैसेज1967 में प्रकाशित हुई। पहली पुस्तक में मीडिया संबंधित जिन प्रश्नों से वे जूझ रहे थे दूसरी पुस्तक में पहुंचते-पहुंचते उनके उत्तर खोज चुके थे। यह एक रोचक तथ्य है कि ‘Medium is the Massag   शीर्षक टाईपिस्ट की गलती से बना था जब कि होना चाहिए था ‘Medium is the Message’. मैक्लूहान ने रफ प्रूफ में गलती देखकर कहा कि इसे रहने दो, यही ठीक है क्योंकि इसके तीनों अर्थ लगते हैं अर्थात् मसाजमालिश करना - उपभोक्ता को सुखद अहसास देना, दूसरे मॉस एज’ (Mass age) - समूह या जनयुगतथा मेसेज(संदेश) के अर्थ में भी इसे समझा जा सकता है।
मार्शल मैक्लूहान ने अपनी पुस्तक अंडरस्टैंडिंग मीडियामें स्पष्ट किया है कि सामाजिक परिवर्तनों में विचारों की अपेक्षा उन माध्यमों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है जो विचारों के संप्रेषण में प्रयुक्त होते हैं। इसका हाल में ताजा उदाहरण निर्भयाकेस में देखा जा सकता है। मात्र मैसेज के द्वारा दिल्ली के इंडिया गेट पर लाखों नौजवान सरकार का विरोध करने के लिए आ डटे थे। इसीप्रकार कहा जाता है कि हाल ही नवोदित आपपार्टी के उदय में भी मीडिया का महत्त्वपूर्ण योगदान था। कहा जाता है कि आपपार्टी के कार्यकर्ताओं ने अपने संदेश को जन-जन तक पहुंचाने में मीडिया का सही तरीके से उपयोग किया था।
आइए उत्तर आधुनिकता को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझने का प्रयास करें-
(क) ल्योतार का विकेंद्रीकरण एवं उत्तर आधुनिक समाज - ल्योतार उत्तर आधुनिकता के प्रमुख व्याख्याता के रूप में उभरे। बर्साईल में जन्में ल्योतार दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर थे। वामपंथी विचारधारा से जुड़े ल्योतार का मार्क्सवादी सर्वसत्तावादी (Totalitarian) विचारों से मोहभंग हुआ और 1980 तक आते-आते उत्तर आधुनिकता के व्याख्याता बन गए। ल्योतार ने क्यूबेक सरकार के आग्रह पर अति विकसित समाजों में विज्ञान और तकनीक की भूमिका का अध्ययन द पोस्ट मॉडर्न कंडीशन: ए रिपोर्ट ऑन नॉलेजपुस्तक में किया। ल्योतार की प्रसिद्ध पुस्तकों में दि डिफरेंड-फ्रेजिज इन डिस्प्यूट’, ‘जस्ट गेमिंग’, ‘पोस्ट मॉडर्न एक्सप्लेंड’, तथा नोट्स ऑन दी मीनिंग ऑफ पोस्टहै।
ल्योतार का मानना है कि उत्तर आधुनिक स्थितियों में ज्ञान और सूचनाएं ही शक्ति का केंद्र हैं इसलिए ज्ञान पर आधिपत्य के लिए वैसे ही युद्ध होंगे जैसे कि धरती पर अधिकार करने के लिए युद्ध होते थे। ज्ञान उत्तर आधुनिक युग में शक्ति का स्रोत है।
ल्योतार मानते हैं कि उत्तर आधुनिकता के युग में ज्ञान का व्यापारीकरण एक नग्न सच्चाई है। अब उपभोगवाद के चलते यह नहीं पूछा जाता कि ‘क्या वह सत्य है? अब पूछा जाता है कि इसका उपयोग क्या है?’ जो उपयोग है उसे सत्य की तरह प्रचारित किया जाता है। इस तरह ज्ञान उत्तर आधुनिक युग में सही अर्थों में खतरे में है। ज्ञान की रक्षा वैयक्तिक स्तर पर स्थानीय प्रतिरोधों के माध्यम से ही होगी इसीलिए आधुनिकता के सर्वसत्तावादी, सार्वभौमिक सत्य माने जाने वाले महावृत्तांतों, महान कथनों, मिथकों के प्रति उत्तर आधुनिकता अविश्वास व्यक्त करती है। महावृत्त सांस्कृतिक विकास में बाधक होते हैं क्योंकि ये सत्य के विविध रूपों को सामने नहीं आने देते। 
आधुनिकता ने तर्कवाद को जन्म दिया किंतु उत्तर आधुनिकता में तर्कवाद का अंधानुकरण नहीं है, इसी सोच का परिणाम है कि मार्क्सवाद, उपयोगितावाद, अस्तित्ववाद जैसे अनेक महावृत्तांत उत्तर आधुनिकतावादियों के लिए अधिक सार्थक नहीं हैं।
ल्योतार ने महावृत्तांतों और आधुनिकता निर्मित महावृत्तांतों की मृत्यु की भी घोषणा की। महावृत्तांतों (Grand Narratives) के विरोध का एक कारण तो वे यह मानते हैं कि ये अर्द्धसत्य, एकांगी सत्य और असत्य पर आधारित होते हैं तथा मानव के बौद्धिक विकास में बाधक बनते हैं। दूसरे यह कि महावृत्तांत सत्ताधारी, शक्तिशाली वर्ग में स्वजाति केंद्रवादको जन्म देते हैं। इन महावृत्तांतों को शासक वर्ग अपने अधीनस्थों और कमजोर वर्गों पर सार्वभौम रूप से थोपता है और उन्हें श्रेष्ठ सिद्ध करता है। फलस्वरूप औपनिवेशिक स्थितियों में शासकों के महावृत्तांत उपनिवेशितों के लिए अनुकरणीय और आदर्श बना दिए जाते हैं। तीसरे ये महावृत्तांत एक ऐसी वर्चस्ववादी व्यवस्था को जन्म देते हैं जिसमें कमजोर वर्गों का शोषण वैध हो जाता है। तर्कको सर्वोपरि कसौटी मानने के कारण इसका प्रयोग वॉल प्लमवुडके अनुसार शोषण का आधार बन गया है।
महावृत्तों के टूटने का परिणाम उत्तर आधुनिक जीवन दृष्टि पर क्या पड़ा यह आधुनिकता की विभिन्न अवधारणाओं की मृत्यु की घोषणाओं में देखा जा सकता है। उत्तर आधुनिकता ने निम्नलिखित घोषणाएं की हैं जो ल्योतार की विकेन्द्रित सोच के प्रभाव का परिणाम है -
1.विचारधारा का अंत
2. ईश्वर का अंत
3मानव का अंत
4. इतिहास का अंत
5.  साहित्य, साहित्यकार, आलोचना की मृत्यु
विचारधाराओं का अंत - 19-20 वीं शताब्दी में पश्चिम में विकासवाद, प्रजातंत्रवाद, समाजवाद, पूंजीवाद जैसी अनेक विचारधाराएं विकसित हुईं जो कि महावृत्तांतों के रूप में उपनिवेशित देशों पर लादी गईं। विकास की पश्चिमी अवधारणा को पूरे विश्व पर लादने का प्रयास किया गया और पश्चिमीकरण ही आधुनिकता का पर्याय बना दिया गया। ल्योतार ने प्रगति और विकास में अंतर स्पष्ट करते हुए कहा कि आधुनिकता के दौर में विकास तो बहुत किया, परंतु मानवता का एक बड़ा हिस्सा उसके लाभों से वंचित रहा। सारी विचारधाराएं किसी न किसी के पक्ष में थी और दूसरे के विरोध में। समाजवाद में सर्वहारा वर्ग की पक्षधरता थी परंतु अन्य को जीने का अधिकार भी नहीं दिया गया। उत्तर आधुनिक स्थितियों में विचारधाराओं के अंत की घोषणा कर दी गई है, इसका अर्थ यह नहीं है विचारधाराओं का अस्तित्व समाप्त हो गया है बल्कि इसका अभिप्राय यह है कि विचारधाराओं का सापेक्षिक महत्त्व ही रहेगा, निरपेक्ष सत्य के रूप में उनकी पूजा नहीं होगी।
       ईश्वर का अंत - आधुनिक युग में बौद्धिकता और भौतिकता पर अत्यधिक बल देने के कारण ईश्वर को नकार दिया गया था। ईश्वर की मृत्यु की घोषणा नीत्शे कर चुके थे। उत्तर आधुनिकतावादियों ने भी ईश्वर की उपस्थिति को स्वीकार नहीं किया क्योंकि ईश्वर भी एक महावृत्त है, जिसके आधार पर जीवन के अधिकांश क्रिया व्यापारों को वैध या अवैध सिद्ध किया जाता रहा है। अब तक का धर्म तंत्र और शासन तंत्र ईश्वर को अंतिम प्रमाण मानता रहा। ईश्वर की अनुपस्थिति में मानव के लिए जरूरी है कि वह नई संभावनाओं की स्वयं तलाश करे। इसी धारणा से नीत्शे की अतिमानवकी धारणा पुष्ट होती है। ईश्वर की अनुपस्थिति को मानते हुए ज्यां पाल सार्त्रने कहा कि मनुष्य को अपना सार स्वयं में खोजना चाहिए। इसी तरह आधुनिकता की ईश्वर के अंत संबंधी धारणा उत्तर आधुनिकता में और अधिक पुष्ट हुई। ईश्वरीय अनुपस्थिति की यह धारणा विकेंद्रीय सोच के लिए भी आवश्यक मानी गई।
       मानव का अंत - आधुनिकता की पूरी धारणा ही मनुष्य की श्रेष्ठता पर आधारित थी। सभी धर्मों में, दर्शनों में मनुष्य की श्रेष्ठता को एकमत से स्वीकार कर लिया गया। मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार उसकी तर्क शक्ति थी। आधुनिकतावादियों ने मनुष्य को सृष्टि का केंद्र मान लिया। श्रेष्ठता की भावना ने मनुष्य को उच्छृंखल बना दिया। अब वह प्रकृति और दूसरी-तीसरी दुनिया को अपना दास समझ उन पर अधिकार करने की होड़ में लग गया। इसी से विश्व युद्ध हुए और मनुष्य की श्रेष्ठता का भ्रम टूट गया। मनुष्य पशुतुल्य बन गया। अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग ने मनुष्य के विवेकशील और सत्य होने का भ्रम तोड़ दिया। यही कारण है कि उत्तर आधुनिकता में मनुष्य की श्रेष्ठता के महावृत्त को भी केंद्रीयता का ही रूप मानकर उसे तोड़ डाला। जाक देरिदा ने द एण्ड ऑफ मेन इन मार्जिन्स ऑफ फिलासफीमें मानव की श्रेष्ठता की विचारधारा को पूर्णतः नकार दिया।
       दूसरी बात यह है कि मानव की श्रेष्ठता का एक आधार यह था कि मानव ईश्वर की संतान है। यहां तक कि ईश्वर भी मनुष्य रूप में पृथ्वी पर अवतार लेता है। परंतु जब ईश्वर की मृत्यु ही स्वीकार कर ली गई तो मनुष्य भी सामान्य अन्य प्राणियों की तरह नाशवान और लघु बन गया। सब जीवों में मनुष्य ही श्रेष्ठ है और उसके कर्मों का फल उसे हर योनि में भोगना पड़ता है, यह मिथक भी टूट गया। जब ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग गया तो ईश्वर की श्रेष्ठ कृति (मानव) की श्रेष्ठता पर भी प्रश्न चिह्न लगना तो स्वाभाविक ही था। अतः उत्तर आधुनिकता में मानव का अंतघोषित कर दिया गया।
       तीसरी बात यह कि उत्तर आधुनिकता में मानव की श्रेष्ठता में सबसे बड़ी बाधक तकनीकी बनी। आधुनिकता के दौर में तकनीकी मशीन पर आधारित थी और मशीन अपने निर्माण और उत्पादन के लिए मनुष्य पर आधारित थी। किंतु उत्तर आधुनिकता के दौर में कम्प्यूटर तकनीक के विकास से बौद्धिक कार्य (जो पहले मनुष्य किया करते थे) भी मशीन से किया जाने लगा है। डीप ब्ल्यू कम्प्यूटर ने गैरी कॉस्पोरोव को शतरंज में हरा दिया। इसके बाद से मनुष्य की श्रेष्ठता की धारणा ही बदल गई। कम्प्यूटर अनेक बौद्धिक क्रियाएं कर सकता है जो मनुष्य के तीव्र मस्तिष्क से ही संभव है। कम्प्यूटरों के आने से मनुष्य का बौद्धिक वर्चस्व समाप्त सा होने लगा है, अतः तकनीक के आने से मनुष्य की श्रेष्ठता पर भी प्रश्न चिह्न लग गया। पांचवीं-छठी पीढ़ी के कम्प्यूटर तो अब मनुष्य से आगे की सोचने लगे हैं। अब वह तकनीक को संचालित नहीं करता, वह तकनीक से नियंत्रित हो रहा है।
       इतिहास का अंत - फ्रांसिस फुक्यामा ने दि एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड दी लास्ट मैनपुस्तक में इतिहास के अंत की घोषणा की। इतिहास भी अपने आप में महावृत्तांत है। उत्तर आधुनिकता इस महावृत्तांत को अस्वीकार करती है। इतिहास का अर्थ है ऐसा ही थाअर्थात् जो घटित हुआ उसका प्रामाणिक वृत्त ही इतिहास है। किंतु इतिहास लेखन भी वर्चस्व प्राप्ति का साधन बन गया। इतिहास हमेशा सत्ताधारियों, बाहुबलियों और विजित वर्ग का ही होता है,  निर्बलों, शोषितों, वंचितों का या तो इतिहास होता ही नहीं है या उनके इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता रहा है। अतः सत्ताधारियों, ताकतवरों द्वारा लिखा गया इतिहास कभी पूर्ण सत्य नहीं हो सकता। इतिहास लेखक निस्पृह ढंग से पूर्ण सत्य का उद्घाटन नहीं करता है। यदि ऐसा होता तो चन्द्रशेखर, भगतसिंह जैसे राष्ट्रभक्त अंग्रेजों के लिए केवल आतंकवादी न होते। अधिकांश इतिहास में तथ्योंऔर वस्तुपरकताका महत्त्व नहीं रहता, बल्कि वह कल्पनामूलक अधिक बन जाता है। उत्तर आधुनिकता इतिहास को (थ्पबजपवद) कल्पनामिश्रित साहित्य से भिन्न मानता है।
       इतिहास में अविश्वास पैदा होने का दूसरा कारण है बौद्धिक क्षेत्र में पश्चिम का एकाधिकार टूटना। 19 वीं शती बौद्धिक क्षेत्र में पश्चिम की एकाधिकार की सदी है। पश्चिमी देशों ने आधुनिक विचारधारा (पश्चिमी) को श्रेष्ठ बताते हुए उसे कल्याणकारी सिद्ध करने का प्रयास किया। भारत सहित उपनिवेशित देशों पर पश्चिमी श्रेष्ठता का बखान करते हुए स्थानीय वैचारिक तत्त्वों को निकृष्ट घोषित करने का प्रयास किया गया। किंतु स्वतंत्रता के पश्चात बौद्धिक एकाधिकार टूटा और यह प्रश्न उठा कि किस का लिखा इतिहास अधिक प्रामाणिक है, उपनिवेशकों का या उपनिवेशितों का? अतः स्वाधीन राष्ट्र अपनी विरासत की खोज कर ऐसा इतिहास रचने में जुटे जिस पर वे गर्व कर सकें। आज इतिहास के स्तर पर भी केंद्रीयता टूट रही है। विविधता और बिखराव का महत्त्व बढ़ रहा है। आज हर देश, हर परंपरा, हर जाति और हर स्थानीयता का अपना इतिहास लिखा जा रहा है।
       साहित्य की मृत्यु की घोषणा - आल्विन कार्नान ने 1990 में पूरे साहित्य की मृत्यु की घोषणा की। विभिन्न वृतान्तों एवं स्थापित धारणाओं के अंत के साथ ही विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ती रही। साहित्य जो युगीन संवेदना, संवाद और संप्रेषण का वाहक होता है, उत्तर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ज्यों का त्यों कैसे बना रह सकता था। साहित्य की विभिन्न विधाओं की मृत्यु की छुटपुट सूचनाएं आधुनिकतावादी युग में ही आने लगी थी।
       इलियट ने उपन्यास की मृत्युकी घोषणा कर दी थी। एडमंड विलसनने कविता को एक मरती हुई विधा करार दिया। साहित्य की मृत्यु के दो संदर्भ हैं। पहला संदर्भ यह कि साहित्य कर्म की श्रेष्ठता समाप्त हो रही थी। उपभोक्ता समाज में साहित्य लेखन को भी अन्य लेखनों के समान ही एक सामान्य लेखन स्वीकार किया जाने लगा। साहित्य का भी व्यापारीकरण बड़े पैमाने पर होने लगा। साहित्यकार से साहित्य का संबंध समाप्त होने लगा। किसी रचना में साहित्यकार केंद्र में होता है, अब उसकी केंद्रीय स्थिति बिखरने लगी। अब साहित्य आत्माभिव्यक्ति का साधन न होकर विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किया जाने वाला उत्पाद बन गया।
       साहित्य में भी टेक्नोलॉजी के प्रवेश के कारण कम्प्यूटर पर ही साहित्य निर्मित किया जा रहा है। इसी तरह सत्य की निरपेक्ष सत्ता मिटने और विचारधाराओं तथा ईश्वर और इतिहास की मृत्यु के पश्चात इतिहासकार के पास लिखने के शाश्वत विषय नहीं बचे। ऐसी स्थिति में हमारे चिर-परिचित कल्पनामिश्रित, उच्च जीवन-मूल्यों पर आधारित, क्लासिक साहित्य की मृत्यु अवश्यंभावी हो गई। साहित्य में मौलिकता के लिए स्थान नहीं रह गया था।
       साहित्य की मृत्यु का दूसरा संदर्भ भी उत्तर आधुनिक स्थितियों से जुड़ा हुआ है। तकनीक में उन्नति के कारण सूचना प्रौद्योगिकी ने सम्भावनाओं का अद्भुत संसार खोल दिया है। इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों ने प्रिंट माध्यम को पछाड़ दिया। मनोरंजन का महत्व इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों ने इतना बढ़ाया कि सम्पूर्ण सांस्कृतिक क्रिया-व्यापार मनोरंजन के माध्यमों में बदलने लगे। इस प्रकार साहित्य का पुराना स्वरूप मिट गया और क्षणिक ऐन्द्रिय आनंद प्रदान करने वाला साहित्य केंद्र में आ गया।
       साहित्यकार का भविष्य तो साहित्य-सृजन से अनिवार्य रूप से जुड़ा होता है। जब साहित्य ही मर गया तो साहित्यकार कैसे जीवित रहता? लायनल ट्रिलिंग ने पांचवे दशक में एक लेख लेखक का अंतलिखा जिसमें उन्होंने दावा किया कि वर्तमान समय पाठक का है, महत्त्व लेखक का नहीं पाठक का है। जिस युग में उपभोक्ता को सर्वोपरि महत्त्व दिया जा रहा हो और उत्पादक को गौण माना जा रहा हो, उसमें साहित्यकार की मृत्यु की घोषणा आश्चर्यजनक नहीं है। 1968 में रोलां बार्थ ने दि डेथ ऑफ दी ऑथरकी रचना की और पाठक के उद्भव को लेखक की मृत्यु से जोड़ा।
इस प्रकार से उत्तर आधुनिक साहित्य को सार रूप में निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझा जा सकता है-
    1.वर्तमान युग सूचना प्रौद्योगिकीके विस्फोट का युग है, इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों के एकाधिकार का युग है। छपे हुए शब्द की गरिमा को दृश्य-श्रव्य माध्यमों की चमक ग्रस रही है। साहित्य का महत्त्व कम हुआ है। खाली समय साहित्य से छीन लिया गया है।
2.अतियथार्थके युग में सब कुछ अयथार्थ’, काल्पनिक हो गया है। अर्थऔर सारजैसी मूल्य आधारित धारणाओं का न जीवन में महत्त्व रह गया है और न ही साहित्य में। साहित्य का लक्ष्य मनोरंजन तक सिमटता जा रहा है।
3.जीवन में लेखन (साहित्य) की केंद्रीयता टूटी है और लेखन में लेखक की केंद्रीयता समाप्त हुई है। कुछ भी मौलिक, महत्त्वपूर्ण, रहस्यमय नहीं रहा। अन्य कलाओं की तरह ही साहित्य में भी विविधतापूर्ण (बहुलवादी) सत्य की उपस्थिति बढ़ी है।
4.पूर्वकाल में विरोधी प्रसंगों को अनावश्यक या अप्रस्तुति योग्य कहकर साहित्य से निकाल दिया जाता था, परंतु आज विरोधी प्रसंगों के साथ जक्सटोपोजकरके असंगतिपूर्ण संगतिस्थापित की जाती है। इतिहास की पुनर्व्याख्या साहित्य में ही प्रारंभ हुई। साहित्य में पैश्टीजका शिल्प स्वीकृति प्राप्त कर रहा है।
5.उत्तर आधुनिकता साहित्य को परिभाषित नहीं करती, परंतु सही साहित्य की मांग करती है। सही की कसौटी कोई सार्वभौम सौंदर्य बोध या विधारधारा नहीं, बल्कि स्थानीय, खण्डित समूह-हित हैं जो अभिजात वर्चस्ववाद का विरोध करते हैं। उत्तर आधुनिकता सभी रचनाओं को एक पाठमानती है और सभी पाठ समान हैं। देवेन्द्र इस्सर के शब्दों में साहित्य नाम की कोई वस्तु नहीं होती। वह अन्य पाठों की भांति ही एक पाठ है। चाहे वह वात्स्यायन का कामसूत्रहो या मार्क्स का दास केपिटलया कालिदास का कुमारसंभवया कोई कॉमिक्स, सब पाठ हैं और सब पाठ समान हैं। किसी पाठ को किसी अन्य पाठ पर तरजीह नहीं दी जा सकती।[8] आज प्रत्येक पाठ मूलतः राजनीतिक माना जाता है जिसमें किसी न किसी रूप में सत्ता का खेल रहता है। प्रत्येक पाठ में दबे हुए पाठ होते हैं और साहित्य का मूल्यांकन इन उपपाठों के विखंडन द्वारा ही संभव है। इसप्रकार उत्तर आधुनिकतावाद शुद्ध साहित्य की अनुपस्थिति मानती है।[9] 
6.रचना को पाठ मान लेने का परिणाम यह हुआ कि लिखने के पश्चात लिखित (पाठ) और लेखक का कोई संबंध स्वीकार नहीं किया जाता। जिस लिखित’ (Text)      को पाठक पढ़ता है, वह तो लेखकीय पाठमात्र है। अपने अनुभव, परिवेश, अभिप्रायों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप पाठक, पाठ का विखंडन करता है। पाठक ही पाठ का मूल्यांकन करता है। ऐसी स्थिति में लेखक की केंद्रीयता नष्ट हो गई क्योंकि पाठअब लेखक का नहीं, पाठक का हो गया और वह इसे जो अर्थ देता है, वही महत्त्वपूर्ण है।
7.उत्तर आधुनिकता मानती है कि कोई भी रचना अन्य सभी रचनाओं से अनिवार्य रूप से संबद्ध होती है क्योंकि रचना संस्कृति के विविध पक्षों से ही संबद्ध है। अतः यह स्वाभाविक है कि सभी रचनाएं एक-दूसरे से अंतर्संबंधित हों। इसी को अंतर्पाठयीता कहा गया है।
8.उत्तर आधुनिकता में विखंडित करके पाठ पढ़ने की तकनीक पर बल रहता है। रचना से अर्थ प्राप्त करने की प्रविधि या तकनीक को विखंडन कहते हैं। सतही तौर पर रचना का जो भाव हमें प्राप्त होता है, उसमें भी बहुत कुछ दमित एवं अप्रकाशित रहता है। पाठक उपपाठोंऔर भाषायी चिह्नोंके विखंडन के माध्यम से रचना के अर्थ एवं सौंदर्य तक पहुंचता है। किसी भी रचना में अर्थोंको खोजना ही रचना का लक्ष्य होता है। इसमें निकृष्ट की खोज नहीं की जाती बल्कि सही और गलत पाठ को पहचाना जाता है।
इसप्रकार उत्तर आधुनिकता आधुनिकता के विरोध से उपजी है परंतु उससे निरपेक्ष भी नहीं है। संक्षिप्त में कहा जा सकता है कि कोई रचनाकार किसी निश्चित सांचे में बंधकर रचना नहीं करता है। वह तो मुक्त रूप से सृजन करता है। रचना में अनेक अधूरी पंक्तियां होती हैं, जिन्हें पाठक को स्वयं अपनी कल्पना शक्ति के सहारे अपने अनुभव के आधार पर समझना होता है। रचना मुक्त विचरण करती है। उत्तर आधुनिक रचना स्वानुभव रसिक नहीं, सर्वानुभव रसिक बन गई है। रचनाकार की दृष्टि स्वसे सर्वकेंद्रीबन गई है। उत्तर आधुनिकता रचना वाद विहीन है। दलित साहित्य, आंचलिक साहित्य, नारी-विमर्श इसका परिणाम है। कृति का अंत हो रहा है। पाठ कृति की जगह ले रहा है। पाठ और विखंडन ही उत्तर आधुनिकता है। यह कलाकार के लुटते जाने का समय है। साहित्य और कला मुनाफे  से संबद्ध हो गये हैं। वे जितना मुनाफा देते हैं उतने ही मूल्यवान हैं।

संपर्क - डॉ. आशीष सिसोदिया, सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, मोहनलाल सुखाडि़या विश्वविद्यालय, उदयपुर, दूरभाष- 094148-51055,
ईमेल पता - sashish25@rediffmail.com
   
                          
                





[1] डॉ. चमनलाल गुप्त, उत्तर आधुनिकता और समकालीन हिन्दी उपन्यास, किशोर विद्या निकेतन, वाराणसी, पृष्ठ-1
[2] वही, पृष्ठ-3
[3] वही, पृष्ठ-5
[4] वही, पृष्ठ-6
[5] वही, पृष्ठ-7
[6] वही, पृष्ठ-8
[7] वही, पृष्ठ-8
[8] देवेन्द्र इस्सर, नयी सदी और साहित्य, पृष्ठ-76
[9] डॉ. चमनलाल गुप्त, उत्तर आधुनिकता और समकालीन हिन्दी उपन्यास, किशोर विद्या निकेतन, वाराणसी,  पृष्ठ-88
मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून 2014)  ISSN   2320 – 835X
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/

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