‘आदिवासी ओड़ीशा के भौगोलिक परिवेश
का मार्मिक चित्रण उड़िया साहित्य में मिलता है। इसे हम प्रतिभा राय की कहानियों
में भी देख सकते हैं। जहां इस समय हिंदी साहित्य में अपने अस्तित्व की खोज करती
महिलाएं सामने आ रही हैं, वहां आज भी ऐसा समाज बना हुआ है जहां ‘भूख’ बहुत बड़ी समस्या है। जहां
दलित-आदिवासी स्त्रियों को अपने और परिवार के जिंदा रखने के लिए खुद को दाव पर
लगाना पड़ता है। प्रतिभा राय की कहानी ‘देवकी’ और ‘अछूत देवता’ ऐसी ही समस्या और विवशता को
प्रस्तुत करने वाली कहानियां हैं।
प्रतिभा राय उड़िया कथा-साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं। इनकी अधिकतर कहानियां
स्त्री चेतना से ओत-प्रोत हैं। अपनी अधिकतर कहानियों में उन्होनें स्त्री जीवन की
विडंबनाओं को प्रस्तुत किया है, जिसमें वे उड़िया समाज के स्त्री मुद्दों से संबद्ध सामाजिक
परिस्थिति-परिवेश तथा उनकी विवशताओं को प्रस्तुत करती हैं। साथ ही मुख्य धारा से
अलग-थलग पड़ी हुई दबी कुचली स्त्रियों का चित्रण भी है।
लेखिका का मानना है कि किसी विशेष क्षण के सूक्ष्म भाव एवं
हृदय की गहरी अनुभूति को प्रकट करना ही कहानी का सफल स्वरूप है। आज का साहित्य
कल्पना पर आश्रित नहीं है, वह जीवनधर्मी है।
उनकी कहानियों की घटनाएं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से अंतरंग अनुभूतियों से
जुड़ी हुई हैं। अत: प्रतिभा राय की कहानियां अपने समय को प्रस्तुत करने वाली
यथार्थवादी चित्रण है। इनकी कहानियों में से ‘देवकी’, ‘नारंगी’, ‘आंखें’, ‘अछूत देवता’ और ‘ट्रालीवाली’ जैसी
कहानियां निम्नवर्गीय स्त्री के यथार्थ को प्रस्तुत करती हैं।
प्रतिभा राय की कहानियों के यथार्थ को जानने से पहले उड़ीसा
के भौतिक परिवेश को देखना आवश्यक है जिससे इनकी पृष्ठभूमि को जाना जा सके।
“अंग्रेज़ी रूप ‘उड़ीसा’ ‘ओड्रीसा’ का अशुद्ध उच्चारण
है- जिसका मूल शब्द है ‘ओड्र-देश’ अथवा
‘ओड्रों का देश’। ‘ओड्र’ आदिम जनजाति थी जो पौराणिक शबरों के साथ
धुंधले अतीत काल में इस राज्य में बसने वाले पहले लोग थे। ये दोनों जातियां राज्य
में ओड्र और शबर के रूप में अब भी वर्तमान हैं। ओड्रों ने संभवत: शबरों को
पर्वताकीर्ण दक्षिणी-पश्चिमी भागों की ओर भगाकर स्वयं धान्यपूर्ण डेल्टा के भागों
पर अधिकार जमा लिया था। यद्यपि राज्य की संपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा इन दोनों
जातियों से संबंधित है, किंतु आजकल भी इन जनजातियों का सामाजिक स्तर और आर्थिक
स्तर उसी तरह अब भी बहुत गिरा हुआ है, जैसे नील घाटी के आदिम मिस्त्रियों का।
उड़ीसा संस्कृति के प्रतीक जगन्नाथ धाम के प्रसिद्ध हिंदू देवता मूलत: शबरों के
देवता थे, यह निर्विवाद सत्य है।”[1] अस्तु, यह राज्य मुख्यत:
जन-जातियों का प्रदेश है। कालांतर में आए परिवर्तन ने इन्हीं आदिवसियों को हाशिये
पर डाल दिया। प्राकृतिक संपदाओं के हकदार आदिवासी आज अपने परिवेश-प्रकृति से विमुख
कर दिये गये हैं।
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया: ओड़ीशा
का इतिहास, आधुनिक काल, के अनुसार “1865 में शासन की असफलता
से, सामान्य फसल बर्बाद हुई, और ओड़ीशा
में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा, जिसमें वहां के लगभग दस लाख लोग
मरे गये। भारी लापरवाही, प्रशासन का दुर्व्यवहार, संचार की कमी और अपर्याप्त धन से ओड़ीशा के हरेक तीन में से एक वासी मृत्यु
को प्राप्त हुआ।”[2]
2005
में प्रकाशित उड़िया पत्रिका के अनुसार भी यही स्थिति प्रस्तुत की गई है -“Like flood, drought is recurrent in Orissa. In most of the years, droughts and floods are experienced
simultaneously because of excessive rainfall in some parts of the catchment
basins and low rainfall in other regions. Records reveal
that there were droughts in 1841-42, 1942-43,
1849-50, 1850-51, 1954-55,
1965, 1966, 1967,1979, 1984, 2000, 2002 and 2003. In the annals of history,
the great devastating Orissa famine, i.e. Na Anka
Durbhikhya was mainly because of extensive drought in 1865.
Just like floods, droughts wreak in a
lot of suffering to the Orissa people - the damages being overwhelming by
nature. Every alternate year, either a drought or flood has become a recurring
phenomenon in the State.”[3]
यह
राज्य प्राकृतिक संपदाओं से पूर्ण तथा कृषि करने वाला राज्य रहा है। लेकिन समय-समय
पर आई प्राकृतिक विपदा जैसे सूखा, बाढ़ आदि ने इस अंचल पर बहुत प्रभाव छोड़ा। यह राज्य आज भी कई जनजातियों का
इलाका है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में इनकी स्थिति जहां सुधारनी चाहिए थी, वहां
स्थिति जस की तस बनी रहीं। आदिवासी ओड़ीशा के भौगोलिक परिवेश का मार्मिक चित्रण
उड़िया साहित्य में मिलता है। इसे हम प्रतिभा राय की कहानियों में भी देख सकते हैं।
जहां इस समय हिंदी साहित्य में अपने अस्तित्व की खोज करती महिलाएं सामने आ रही हैं, वहां आज भी ऐसा समाज बना हुआ है जहां ‘भूख’ बहुत बड़ी समस्या है। जहां दलित-आदिवासी स्त्रियों को अपने और परिवार के
जिंदा रखने के लिए खुद को दाव पर लगाना पड़ता है। प्रतिभा राय की कहानी ‘देवकी’ और ‘अछूत देवता’ ऐसी ही समस्या और विवशता को प्रस्तुत करने वाली कहानियां हैं।
‘देवकी’ कहानी का शीर्षक, कृष्ण की जन्मदात्री मां देवकी के नाम का प्रतीकात्मक रूप है, जिसमें झुमिया नाम की दलित स्त्री के छह बच्चों को सूखा रूपी कंस निगल
जाता है और वह सातवें बच्चे को कंस रूपी सूखे के डर से बेच आती है। सवाल यह उठता
है कि क्या झुमिया का मातृत्व देवकी से कम है? अकाल और सूखे
से जन्य परिस्थितियों ने मातृत्व पर सवाल खड़ा कर दिया है। अकाल जन्य विवशता और
समाजिक परिस्थिति को दर्शाता यह वाक्य प्रस्तुत है – ““एई सान गांटिरे कूंभार, गउड़ आउ माझी केई घर प्रतिबर्ष जीबन, मरण, रोग, भोक, मरूड़ि, दुर्भिक्ष सह छकापंचा खेळंति। गांरे कूअ, पोखरी
नाहिं- स्कूल, दाक्तरखाना, दोकान बजार, नाहिं। दुर नाळरू गोळि पाणि आणिले भात बसे, गोरू
मूहां हुए, शोष मेंटे। प्रतिबर्ष लोक मरूड़ि बेळे मरि
हजिजांति- मणिष हाउजाउ गांटा छिंडि छिंडि अछंति आउ आढ़ेईसह सरिकि भोकिला रोगिणा
मणिस।”[4]
X X X
“ “केतेबर्ष हेला आखपाख पांचखंड़ गांरे कंसासूर भळी मरूड़ि जगिबसिछि। मा’ कोळ खालि करि छूआमानंकू शेष
करिदउछि।”[5]
यानि
स्वांत्र्योत्तर भारत में ऐसे गांव भी हैं, जहां प्रत्येक वर्ष भूखमरी और अकाल का सामना लोगों को करना
पड़ता है। फिर भी लोग जीवन जीते हैं मर-खप कर। कई गांव ऐसे ही हैं जो अकाल-बाढ़ के
कारण पूरे उजड़ गये और जो बचे रह गये, वे लोग अति गरीबी में जीने को बाध्य हुये। इस
सूखे के कारण किसी ने जवान पत्नी को बेचा, किसी ने जवान बेटी, तो किसी ने जवान ननद को बेच दिया। आखिर स्त्री ही अंतत: खाद बनती रही।
जहां मुर्गा चालिस में बिकता है, वहां मनुष्य का बच्चा अस्सी
रुपए और एक साड़ी में। कितनी भयावह स्थिति है! जीवन बचाए रखने के लिए मानव बेचा
जाता है! ‘देवकी’ एक मजबूर स्त्री झुमिया की कहानी है, जो अपनी आठवीं संतान को जिलाए रखना चाहती है, लेकिन अपनी भूख मिटाकर जिंदा रहना भी चाहती है। इसके चलते वह अपने
एकमात्र बचे सातवें बच्चे को मजबूरन बेच देती है, ताकि वह और
उसका पति कुछ खा सके और पेट में जी रही आठवीं संतान जी सके। ऐसी अवस्था में वह
सोचती है-
ऐसी
स्थिति में पति गांव छोड़ देना चाहता है, लेकिन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद झुमिया गांव नहीं
छोड़ना चाहती क्योंकि पेट में आठवीं संतान पल रही है। इस परिस्थिति में वह जा भी तो
नहीं सकती। गांव में कम से कम पूर्वजों की टूटी-फूटी मड़ैया तो है। यह चित्रण
मनुष्य के ऐसे रुप का वर्णन है जो समाज की मुख्यधारा से अलग होकर कहीं जीवन जीने
को मजबूर है, कुछ अपने लिए कुछ अपने परिवार के लिए। शायद इसे
नियती भी मान लिया गया है। लेखिका झुमिया के माध्यम से इस दयनीय परिस्थिति का बयान
करती है। रह-रहकर पुत्र के प्रति ममत्व जागता है, तो कभी पति
के लिए कर्त्तव्य। अंतत: भूख बाजी मार लेती है। यहां केवल जिंदा रहना ही मनुष्य के
लिए विराट सत्य के रुप में सामने आता है। कहानी निम्नवर्गीय दलित स्त्री की मजबूरी
का विश्लेषण करती हुई उसके प्रति पाठक की संवेदना को झकझोर देती है। यहां पुरुष
निठल्ला बैठा है और सारे घर की जिम्मेदारी स्त्री खुद अपने ऊपर ली हुई है। शायद वह
इसे अपना कर्तव्य समझती है।
इसी
तरह ‘अछूत देवता’ कहानी में भी भूख से बिलखती ऐसी ही दलित स्त्री की कथा है। निम्नवर्गीय
वर्ग जब गांव से बाहर निकलता है, तो असहायता, अति गरीबी और लाचारी के चलते कई बार
वह भीख मांगने को बाध्य हो जाता है। ‘अछूत देवता’ की स्त्री के पास केवल एक ही
कपड़ा था, जो वह पहनती थी। यही कपड़ा अब जर-जर होकर उसके शरीर से गिर पड़ा है, अब वह निर्वस्त्र है। लेकिन दूसरा कपड़ा वह लाए कहां से। उसे भीख मांगने
पर भात तो मिल रहा है लेकिन कपड़ा नहीं। लोग उसे दुनिया भर की गाली और उलाहना दे
रहे हैं तथा उसे देखने का उपभोग भी कर रहे हैं, पर वो करे तो
क्या करे। धीरे धीरे नग्न रहना उसकी आदत बन जाती है, और वह
उम्मीद रखती है कि शायद दाता अब तो कुछ खाने को दे दे। लेखिका इसपर आक्रोश जताती
हुई कहती है कि “वह आदिम समय कितना शालीन और स्वच्छंद था, जब
मनुष्य निर्विकार नंगा घूमा करता था स्त्री, पुरूष सभी!
कितना सुरक्षित, उदार, भय-रहित था वह
समय, जब सभ्यताहीन, समाजरहित, आवासविहीन मनुष्य था निरा प्रकृति का एक निपट जीव-पूरा जंगली।[7]” शायद तब पेट की भूख के लिए, तन की नग्नता के लिए उसे प्रतिदिन
लज्जा, कुंठा, अपमान से मरना नहीं
पड़ता। इसप्रकार यह कहानी आधुनिक सभ्यता पर प्रश्न चिह्न लगाती है कि कैसा विकास, कैसी प्रगति? यह परिस्थिति विकसित आधुनिक समाज की
ही विकृती है, वर्ना इतने दीन-हीन समाज की कल्पना किसने कब
की थी। इस सभ्य सामाज ने ही इस निर्मम परिस्थिति को जन्म दिया है और स्त्री के
विवशतापूर्ण नग्न स्वरुप को असभ्य करार कर समाज के सामने रख छोड़ा है। न जाने ऐसी
अवस्था में उसे कौन मां बना गया। जहां एक ही पेट का सवाल था,
वहां अब दो पेट हैं। लोग उसे पगली कहने लगते हैं। वह अपने बच्चे की भूख मिटाने के
कारण पंडों से प्रसाद मांगती है, किंतु बच्चे के मंदिर के
अहाते में पहुंचने और भात मांगने तथा लार टपकाने से पंडे-पुजारी प्रसाद को सूतक
मान बच्चे को मंदिर के बाहर पटक देते हैं और प्रसाद ज़मीन में गाड़ दिया जाता है। न
उसे दिया जाता हे ना उसके बच्चे को। मंदिर को अछूत मानकर उसकी शुद्धी की जाती है, व्यर्थ खर्च किया जाता है, लेकिन भूखा भूख से
तिलमिलाता रहता है। आश्चर्य इस बात का है कि जो महाप्रभू इन दलितों के आराध्य
देवता थे, आज वे इनसे कैसे दूर हो गये और कैसे पंडे-पुजारियों ने इन पर आधिपत्य
जमा लिया। और दलित वर्ग आज उन्हीं का प्रसाद पाने का हकदार भी नहीं रहा। सम्भवत:
कई स्थलों पर दलित स्त्री का अंतर्मन विरोध करता है, पर इसे वह प्रकट कर नहीं पाती, आखिर पेट का सवाल है, अपने और बच्चे के पेट का।
दुनिया का हर तर्क उसके लिए छोटा जान पड़ता है। निम्नवर्गीय स्त्री की यही विडंबना
है जहां उसे कपड़े से ज्यादा भात की जरूरत है। उसे न अर्थ की जरूरत है न सम्मान की।
जहां अपना कोई सम्मान ना हो, केवल भूख की समस्या हो तब कैसा
जीवन, कैसा सम्मान? वह अवांछित मनुष्य
है जिसकी समाज को कोई जरूरत नहीं। इस सत्य को भी उसने स्वीकार कर लिया है। क्या वह
मानव समाज से भिन्न है? समाज की परिकल्पना में उस जैसी
गरीब-भूखी स्त्रियों का स्थान कहां है? यहां धर्म पर, जाति पर, ईश्वर पर, मनुष्यता
पर, जन्म पर कई सवाल खड़े होते हैं। इन सबके बावजूद वह स्त्री
अपने बच्चे को जिलाए रखने की कामना करती है। नंगा बदन,
शीत-लहर और खुले आसमान का पर्त–दर-पर्त कोहरे का कम्बल दोनों मां-बच्चे का खात्मा
कर देता है, उसी मंदिर के दहलिज पर। यह अत्यंत दयनीय, वीभत्स
चित्रण है।
निम्नवर्गीय
दलित-आदिवासी स्त्री की यंत्रणा बहुत अधिक है, न वो अपनी स्थिति से लड़ सकती है, न
विरोध कर सकती है। वह यह तक सोचती है कि उसे मनुष्य के रूप में क्यों जन्म दिया
ईश्वर ने, इससे अच्छा था कि वह पशु के रूप में जन्म लेती।
यहां पशु से भी दयनीय अवस्था है मनुष्य की। केवल जीवन जीने के लिए नित्य भात
मांगती रही और मृत्यु का इंतज़ार करती रही। यह कहानी समाज के पाखंडों पर सवालिया
चिह्न है कि आखिर इस वर्ग को जीने का हक क्यों नहीं है? उच्चजातीय-उच्चवर्गीय समाज
के कारण हाशिये स्थिति और अधिक दयनीय बन जाती है। इस दारुण स्थिति से निकल पाने का
मार्ग केवल मृत्यु ही क्यों है। दोनों कहानियों में हाशिए की स्त्री कैसे समाज से
पूरी कटी हुई है, इसका वर्णन है। उसके
प्रति समाज में न कोई संवेदना है न सहानुभूति। वह केवल उपेक्षित स्त्री है।
संपर्क -प्रीति प्रज्ञा, पीएच.ड़ी.(तु.सा),
म.गां.अं.वि,वर्धा।
[2] http://hi.wikipedia.org/s/hx1
[3] Prasant
Sarangi & Govinda Chandra Penthoi, Economic Implications of Natural Disasters in Orissa :
A Retrospective View Orissa Review, June – 2005, page-14
[4] अनुवाद-
इस छोटे-से गांव में कुम्हार, ग्वालों और आदिवासियों के कई
घर प्रतिवर्ष जीवन, मृत्यु, बीमारी, भूख, सूखा, अकाल से संघर्ष करते हैं। गांव में कुआं, तालाब नहीं है, स्कूल, अस्पताल, दुकान-बाजार नहीं है। दूर
नाले से गंदा पानी लाने पर भात बनता है। हर साल सूखे के समय लोग मर खप जाते हैं।
लोगों से भरपूर रहे गांव में अब सिर्फ दो-ढाई सौ भूखे और बीमार लोग बचे हैं। - डॉ. प्रतिभा राय, उड़िया कहानी संग्रह- ‘अब्यक्त’, आद्या प्रकाशन, तूलसिपूर, कटक, सं. 1985, पृ. 134
[5] अनुवाद-
कई वर्षों से सूखा आस-पास के पांच गांवों में कंस की तरह मौके की तलाश में बैठा
है। मां की गोद सूनीकर बच्चों का गला दबाने के लिए घात लगाए बैठा है कंस रूपी
सूखा।
- डॉ.
प्रतिभा राय, उड़िया कहानी संग्रह- ‘अब्यक्त’, आद्या प्रकाशन, तूलसिपूर, कटक, सं. 1985, पृ.135
[6] अनुवाद:
उसने सोचा, उसके गर्भ की आठवीं संतान की तरह इस
संसार में सब कुछ मिथ्या है, सत्य तो केवल भात, कपड़ा और जीवित रहना है।- डॉ. प्रतिभा राय, उड़िया कहानी संग्रह - ‘अब्यक्त’, आद्या प्रकाशन, तूलसिपूर, कटक, सं. 1985,पृ. 142
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