बुधवार, 27 अगस्त 2014

उपेन्द्र नाथ अश्क के नाटकों में नारी चेतना (‘कैद’ और ‘उड़ान’ के विशेष संदर्भ में) - विकास वर्मा

उपेन्द्र नाथ अश्क के नाटकों में नारी चेतना (‘कैद’ और ‘उड़ान’ के विशेष संदर्भ में)-विकास वर्मा

उपेन्द्र नाथ अश्क के नाटकों में नारी चेतना
(‘कैद’ और ‘उड़ान’ के विशेष संदर्भ में)
-       विकास वर्मा


अश्क ने प्राय: अपने सभी प्रमुख नाटकों में नारी पात्रों को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। सामंती संस्कारों से लेकर आज का जागरूक दृष्टिकोण रखने वाले तरह- तरह के नारी पात्र अश्क के नाटकों में बिखरे पड़े हैं। उनकी रचनाओं में नारी के प्रति समाजवादी दृष्टिकोण की सजगता है। उन्होंने चाहे नारी को पुराने रूप में या नए रूप में पेश किया हो, सब जगह उनकी यह सामाजिक चेतना काम करती है। इसीलिए, नारी के वर्गीय अंतर्विरोधों और रूपों को स्वस्थ और यथार्थ ढंग से चित्रित करने में अश्क ने पूरी सफलता प्राप्त की है। जहां आधुनिक नारी चरित्र में उसकी सामाजिक प्रगति के प्रति उन्होंने हमदर्दी दिखाई है, वहीं उसके द्वारा उछृंखलता को ही स्वतंत्रता मान लेने पर कठोर व्यंग्य भी किए हैं। कुल मिलाकर, अश्क ने नारी पात्रों के साथ खिलवाड़ नहीं किया और न ही सस्ती लोकप्रियता के लिए इन नारी पात्रों का इस्तेमाल किया। इस विषय में उनका दृष्टिकोण स्वस्थ, नैतिक और सामाजिक है जो उनके साहित्य का एक प्रगतिवादी लक्ष्य है। 




श्क के मन में नारी के दुखों और कष्टों के प्रति अगाध वेदना है और उसके गुणों और क्षमताओं के प्रति असीम श्रद्धा भी है। अपने उपन्यासों, कथाओं, काव्यों और नाटकों में उन्होंने नारी को विभिन्न रूपों मे प्रस्तुत किया है। विशेष रूप से अपने नाटकों में उन्होंने विवाह और प्रेम की समस्या की सामाजिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में विविध संस्कारो वाली नारियों के चित्र खींचे हैं। सामंती संस्कारों से लेकर आधुनिक जागरूक दृष्टिकोण रखने वाले तरह-तरह के नारी पात्र अश्क के नाटकों में बिखरे पड़े हैं। इन विभिन्न नारियों का चित्रण अश्क हमेंशा इस उद्देश्य से करते हैं कि आधुनिक युग की नारी अपने आपको पहचान कर, अपनी पूर्ववर्ती नारियों से अपनी स्थिति की तुलना करके, आज़ाद देश में अपने महत्व को पहचान सके। इस परिप्रेक्ष्य में अश्क के नाटक ‘कैद’ और ‘उड़ान’ विशेष उपस्थिति दर्ज़ कराते नज़र आते हैं; क्योंकि ‘कैद’ की अप्पी अर्थात अपराजिता से लेकर उड़ान की माया तक आते-आते हमें अश्क की एक गतिशील विचारधारा का परिचय तो मिलता ही है, साथ ही नारी चेतना की अलख जगाने में इन जैसे नाटकों की महत्वपूर्ण भूमिका से भी हम रूबरू हो जाते हैं।
भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन जैसे-जैसे विकसित होता गया, उसका लक्ष्य केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति नहीं रह गया। अब सामाजिक–आर्थिक स्वतंत्रता और समानता का नारा भी बुलंद हो गया और देश के वंचित और उपेक्षित वर्गो की स्वतंत्रता और सामाजिक समानता के उद्देश्य को ज़ोर-शोर से उठाया जाने लगा। इस नए माहौल में नारी जागृति और चेतना की आवाज़ एक नए उत्साह और जोश के साथ सुनाई दी। साहित्यकारों ने भी इस पर विचार किया और अपनी रचनाओं में इस मुद्दे को पर्याप्त स्थान दिया। 1940 के दशक में और आज़ादी के बाद 50 के दशक में नाटककार अश्क इस दृष्टि से अग्रिम पंक्ति में खड़े नज़र आते हैं।                      
 अश्क का मानना है कि ऐतिहासिक और सामाजिक–आर्थिक कारणों से पुरुष ने नारी को हमेंशा के लिए अपना गुलाम बना लिया। वह मात्र पुरुष के उपभोग की वस्तु बन गई तथा उसका अपना व्यक्तित्व और अस्तित्व गौण होता गया। एक बार पुरुष को श्रेष्ठ मान लेने पर आने वाली पीढ़ी भी उसे इसी रूप मे स्वीकार करती रही। कालांतर में पुरुष की इस कठोरता ने नैतिकता का रूप धारण कर लिया और सामान्य नारी उसे अपना धर्म समझने लगी। किंतु नई परिस्थितियों में, नए माहौल में और नवीन दृष्टि के कारण यह प्रयास किया जाना चाहिए कि नारी पुन: अधिकार  प्राप्त करे और जीवन में उसे पुरुष के समान अवसर मिले। नारी और पुरुष दोनों के सहयोग से यह जीवन गतिशील होता है, दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता है, फिर एक का महत्व और दूसरे का तिरस्कार क्यों? कैद’ और ‘उड़ान’ जैसे नाटकों के माध्यम से अश्क ने इसी प्रश्‍न को प्रखरता के साथ उठाया है। इन नाटकों में जहां नारी की वर्तमान लाचार स्थिति का यथार्थपूर्ण और मार्मिक चित्रण है, वहीं भविष्य की सबला नारी की झलक भी दिखाई देती है।
‘कैद’ और ‘उड़ान’, ये दोनों नाटक हमारे जीवन को ही प्रतिफलित करते हैं। ‘कैद’ में नारी बंध गई है। अपने सपनों से दूर, पारिवारिक बंधनों और सामाजिक रूढ़ियों में बंधी हुई, वह चट्टानों पर सिर पटकती हुई, पछाड़े खाती हुई जलधारा की तरह टूट-टूटकर बिखर रही है। उड़ान में वही नारी पुरुष की हिंसक वासना, कवि-हृदय की भावुक उपासना और स्वामी की अधिकार-लोलुपता का निषेध करती हुई यथार्थ की चट्टानों पर घायल लेकिन अपराजित उन्मुक्त हिरणी की तरह एक स्वस्थ समाधान की तलाश में निकल जाती है। धर्मवीर भारती  के शब्दों में –“इस तरह कैद और उड़ान एक ही तस्वीर के दो पहलू होते हुए भी प्रगति-पथ की दो मंज़िलों के परिचायक हैं। दोनों नाटकों में नारी की प्रगति और विकास के पद-चिह्नों की श्रृंखला स्पष्ट लक्षित होती है। जो नारी कैद में निष्क्रिय, असमर्थ और काराबद्ध है, वह उड़ान में सक्रिय, विद्रोहिणी और अपने पथ की खोज में विकल है। इन दोनों नाटकों में नाटककार ने प्रगति के दो डग भरे हैं।”[1]
            कैद अखनूर की प्राकृतिक सुषमा से गूंजता हुआ जीवन के करुण संगीत का स्वर है। प्रकृति के चिरमुक्त सौंदर्य की पृष्ठभूमि में नारी जीवन की विवशता की कहानी इस नाटक में दर्द से भर और उभर उठी है। जहां एक ओर अखनूर की घाटी की सुंदरता मन को गुदगुदाती है, वहीं दूसरी ओर मानवीय विवशता की कहानी शुरू से अंत तक सिसकती रहती है। लेखक ने सुंदरता के आलोक में सामाजिक जीवन के घुटन से भरे पहलू को यहां इस तरह प्रस्तुत किया है कि सौंदर्य का आलोक भी गम के अंधेरे में घिरने-सा लगता है। हम देखते हैं कि संवेदनहीन सामाजिक व्यवस्था ने किस प्रकार अप्पी का रूपान्तरण कर दिया है। जो अप्पी विवाह से पहले उन्मुक्त हवा-सी उड़ा करती थी, वह विवाह के बाद मुरझा कर कैसी मुर्दा-सी हो गई है। उसी के शब्दों में उसकी मार्मिक वेदना उभरकर सामने आती है जब वह दिलीप से कहती है- “हम गरीबों का क्या है, माता-पिता ने जहां बैठा दिया, जा बैठीं।”[2] आगे भी वह कहती है – “मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे यह अखनूर मेरा कालापानी है और मैं यहां आजीवन बंदी बना ली गई हूं।”[3]
इसप्रकार कैद नाटक में पुराने संस्कारों के प्रभाव में जकड़ी नारी का करुण चित्र है जो अवांछित पति की पारिवारिक कैद में घुटी जा रही है। इस नाटक में सामाजिक जीवन की उस कुरीति की ओर संकेत भी है जो व्यक्ति-संबंधों में सहज और स्वस्थ संतुलन नहीं कायम होने देती और जिसके चलते योग्य व्यक्तित्व भी अपने विकास की सारी संभावनाएं खो देते हैं। वहीं दूसरी तरफ, उड़ान में इन बंधनों की तमाम समस्याओं का निदान है। इसमें माया के चरित्र के माध्यम से नारी के उस रूप को प्रस्तुत किया गया है जो पुरुष की दासता को स्वीकार नहीं करना चाहता बल्कि एक सामाजिक इकाई बनकर पुरुष की संगिनी बनना चाहता है। वास्तव में उड़ान में जिस विद्रोह का उद्वेलन है, वह असंख्य नारियों के मौन पीड़ित हृदयों का प्रवक्ता है।
कैद और उड़ान में अश्क ने मध्यवर्गीय पतनोन्मुख समाज के शिकंजों में बुरी तरह से कैद नारी और उसके सहयोग से वंचित अस्वस्थ और विकृत पुरुष के सामने एक नई राह प्रस्तुत की है। यह राह अखनूर की स्वप्निल घाटियों और ऊंचाइयों से होती हुई, नाहूंग की खूंखार लहरों को चीरती हुई, शिकारी शंकर के मन के गहरे प्यासे खड्डों से बचती हुई ऐसे समतल रास्ते पर पहुंचना चाहती है, जिसका ज़िक्र माया इन शब्दों में करती है- “ऊंचाई या गहराई मेरा आदर्श नहीं। गहरे खड्डों या ऊंचे शिखरों से मैं ऊब गई हूं। मैं समतल धरती चाहती हूं।”[4]
इन दोनों नाटकों में हमें तीन प्रकार के पुरुष पात्र मिलते हैं- मदन और प्राणनाथ पुरुष की अधिकार भावना के द्योतक हैं, तो शंकर में आदिम पुरुष की उच्छृंखल वासना की अभिव्यक्ति होती है तथा दिलीप और रमेश में एक भावुक कवि का हृदय है जो नारी को उसके बंधनों से मुक्त नहीं कर पाता, केवल उसकी पूजा करता है। नारी पात्र भी मुख्य रूप से तीन ही हैं। अप्पी उस सामाजिक व्यवस्था के आगे सिर झुका देती है जिसमें आर्थिक कारणों से पुरुष की अधिकार भावना के आगे नारी को पराजित होना पड़ता है; वाणी पूंजीवादी युग की आधुनिक स्त्री की प्रतीक है जिसमें फैशन की उच्छृंखलता है किंतु परिपक्व और संतुलित ठहराव नहीं है; और माया में नारीत्व पारस्परिक संबंधों का एक नया आधार ढूंढने के लिए विद्रोही हो उठा है।
यदि हम दोनों नाटकों की सापेक्ष स्थिति को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि कैद में जो चीज़ अंदर ही अंदर घुट रही है, मानवता की गहन पीड़ा जो अखनूर की उस सतरंगी घाटी में जलपरी की भांति सिर पटक रही है, उसका विस्फोट इरावती की तराई में होता है। धर्मवीर भारती के शब्दों में- “आखिरकार किसी न किसी रूप में वे झूठी मर्यादाएं, रूढ़ियां, परम्पराएं एक भयानक ज़हरीले विस्फोट के साथ फूट पड़ती हैं, जैसे आदमीयत के सीने पर पलता हुआ एक गंदा फोड़ा फूट जाए और मवाद बह निकले।[5] माया तक आते-आते अप्पी की रूमानियत और भावुकता समाप्त हो जाती है और माया में हम एक ऐसी निरपेक्ष वि‍श्‍लेषण वृत्ति पाते हैं जो हरेक के व्यक्तित्व के दुर्बल अंशों को चीरती हुई अंदर पैठ जाती है और उसके व्यक्तित्व में भरे हुए भूसे को नाखूनों से उधेड़ कर फेंक देती है। खुद माया के शब्दों में- “जिनकी शर्म उन्हें झरोखों से झांकने तक की आज्ञा न देती थी, उन्हें मैंने नंगे मुंह क्या, नंगे शरीर सड़कों पर भागते हुए देखा है। मैं शर्म और बेशर्मी से ऊपर उठ गई हूं।”[6] यही कैद और उड़ान की नायिकाओं का मुख्य अंतर है।
अपना एकमात्र ऐतिहासिक नाटक जय पराजय लिखने के पश्‍चात् अश्क ने कहा था कि वर्तमान समय में ऐतिहासिक के बदले सामाजिक नाटकों की अधिक आवश्यकता है। इसलिए ज़रूरत है कि हम अतीत में भूले रहने के बजाय वर्तमान का चित्रण करें। न केवल यह बल्कि वर्तमान स्थिति की आलोचना करते हुए भविष्य की झलक भी पाठक को दिखाएं। कैद और उड़ान में अश्क अपने  इस उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल हुए हैं। कैद वर्तमान स्थिति की बड़ी ही मार्मिक और दर्द भरी झांकी है तथा उड़ान भविष्य की झलक प्रस्तुत करता है जब नारी चिरकाल से खोया अपना स्वत्व पाएगी और पुरुष का खिलौना, उसकी संपत्ति या उसकी देवी न बनकर उसकी सहचरी बनेगी।
नारी चेतना के इस मुद्दे को अश्क ने अलग अलग रास्ते जैसे अन्य नाटकों में भी अत्यंत प्रभावशाली ढंग से उठाया है। कैद की अप्पी अलग अलग रास्ते की राजी से कुछ भिन्न है, किंतु पुरानी रूढ़ियों और संस्कारों में ये दोनों ही पात्र बंधे हैं। इसके विपरीत अलग अलग रास्ते की रानी और उड़ान की माया दो ऐसे पात्र हैं, जो न केवल पुरानी रूढ़ियों से विद्रोह करते हैं, बल्कि उनकी दीवारों को तोड़कर निकलने की शक्ति भी रखते हैं। इन्हीं पात्रों में अश्क भविष्य की नारी की झलक देखते हैं। अलग अलग रास्ते की रानी अपने पिता के पैसों के बल पर नहीं वरन् अपनी योग्यता के बल पर मान पाना चाहती है। इसी कारण वह अंत में न केवल पति को बल्कि पिता को भी छोड़कर चली जाती है। इसी तरह, उड़ान के अंत में माया कहती है- “तुम एक दासी, खिलौना या देवी चाहते हो, संगिनी की तुम में से किसी को आवश्यकता नहीं।”[7] और क्योंकि वह केवल संगिनी बनकर रहना चाहती है, इसलिए वह उन तीनों को छोड़कर चली जाती है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि नारी पात्रों के चरित्र चित्रण में अश्क का दृष्टिकोण प्रत्येक स्थान पर सामाजिक यथार्थवादी है। वे रूढ़ियों और प्रतिगामी संस्कारों से नारी की मुक्ति के प्रति अपनी रचनाओं में सदा सजग रहे और उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस मुक्ति के प्रयत्न में वे अराजकपंथी नहीं बन गए हैं। उन्होंने नारी की सामाजिक प्रगति के प्रति हमदर्दी दिखाई है, वहीं उसके अवकाश-भोगी, अभिजात्य वर्गीय संस्कारों वाली उच्छृंखल प्रवृत्ति पर व्यंग्य भी किए हैं। लेकिन कुल मिलाकर उनके मन में नारी के बंधनों के प्रति क्रोध है, उसके दुखों और कुंठाओं के प्रति संवेदना है और उसकी महत्वाकांक्षाओं के प्रति प्रशंसा है। वे न नारी को दासी देखना चाहते हैं, न खिलौना, न देवी। वे उसे उड़ान की माया कि तरह पुरुष के साथ पग से पग और कंधे से कंधा मिलाकर चलती हुई, उसकी संगिनी और मंत्रिणी देखने के अभिलाषी हैं, जिससे वह अश्क के ही शब्दों में कह सके –
“तुम हो सुभगे, मेरी सहचरी, मेरी मंत्रिणी,
मेरे कर्म क्षेत्र की संगिनी,
पग से पग, कंधे से कंधा सदा मिलाकर चलने वाली।“[8]

संपर्क : विकास वर्मा, शोधार्थी, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय,
ग्रेटर नोएडा, गौतम बुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश। चल-दूरभाष 9313325170
            आवासीय पता – डी, 610, गोविंदपुरम, हापुड़ रोड, गाज़ियाबाद,उ॰प्र॰-201013
         
संदर्भ ग्रंथ सूची –
  1.  धर्मवीर भारती, कैद और उड़ान की व्याख्या, नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950, पृ. 14
  2.  उपेंद्र नाथ अश्क, कैद नाटक, नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950  
  3.   उपेंद्र नाथ अश्क, ‘उड़ान नाटक, नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950
  4. उपेंद्र नाथ अश्क की कविता “दीप जलेगा”




[1] धर्मवीर भारती, कैद और उड़ान की व्याख्या, नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950, पृ. 14
[2] उपेंद्र नाथ अश्क, ‘कैद नाटक,दृश्य 3 नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950, पृ. 69
[3] उपेंद्र नाथ अश्क,  कैद नाटक,दृश्य 3, नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950, पृ. 72
[4] उपेंद्र नाथ अश्क, उड़ान नाटक,दृश्य 4, नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950, पृ. 152,
[5] धर्मवीर भारती, कैद और उड़ान की व्याख्या, नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950, पृ. 21
[6] उपेंद्र नाथ अश्क, उड़ान नाटक, दृश्य 1, नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950, पृ. 115-116
[7] उपेंद्र नाथ अश्क, ‘उड़ान नाटक, दृश्य 4, नीलाभ प्रकाशन गृह, इलाहाबाद, 1950, पृ. 159,  
[8] उपेंद्र नाथ अश्क की कविता “दीप जलेगा” से उद्धृत 

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