बुधवार, 27 अगस्त 2014

लोकरंग से रंगमंच की कथा यात्रा में चोर - अवधेश झा

लोकरंग से रंगमंच की कथा यात्रा में चोर - अवधेश झा

लोकरंग से रंगमंच की कथा यात्रा में चोर
-       अवधेश झा

राजस्थानी लोक कथा के पुनर्सृजन की प्रक्रिया में विजयदान देथा ने इसे नये तेवर में ‘फितरती चोर’ बनाया था जिसे समकालीन मानवीय संवेदना की व्यापकता और गहराई का जनवादी रूप देने में हबीब तनवीर का महत्त्वपूर्ण योगदान है। विजयदान देथा की साहित्यिक पक्षधरता लोक को समर्पित है, उनमें सत्ता-शासन के विरुद्ध जन शोषण के प्रति नकार का स्वर विद्यमान है और वर्ग-संघर्ष के स्तर पर उनका युग बोध शोषित-पीड़ित जनता के साथ है जबकि हबीब तनवीर एक जनवादी रंगकर्मी हैं। लोक रंग-परंपरा में अंतर्निहित संभावनाओं और सम्प्रेषण की शक्ति को वे अपने नाटकों में अभिव्यक्त करते रहे हैं जिसमें कमर्शियल छिचले स्तर की कथा और नाट्य-शिल्प का कोई तुक ही नहीं बनता। इन्होंने रचनात्मक हस्तक्षेप से कहानी और नाटक में सामाजिक-राजनैतिक विसंगतियों, विरोधाभासों और अन्तर्विरोधों को उभारने का प्रयास किया गया है। इसमें चोर एक आम पात्र होते हुए भी अपने कथ्य में विशेष बनकर कथा के विकास के साथ उभरता है, जिसके ज़रिये अपने समय की पड़ताल की गयी है।

 दुनिया भर में एक चोर की हैसियत और उसकी पहचान कानून-नियमों को तोड़ने वाले अपराधी के रूप में की जाती है। चोरी करने वाले व्यक्ति की शिनाख़्त सांसारिक-सामाजिक निकाय की संभ्रांत दृष्टि में सदैव हेय मानी जाती है। उन्हें व्यापक जन-समुदाय में उपेक्षित समझा जाता है। किंतु क्या उनमें से कोई ख़ास घिन्न आती है कि वे घृणित पात्र ठहराये जाते हैं, जिसका प्रतिरूप साहित्य में भी अनिवार्यतः देखा जा सकता है। दरअसल इस तंत्र में सदियों पीछे के गण राज्यों का इतिहास छिपा हुआ है, जिसमें ‘पॉलिटिक्स’ और ‘पॉवर’ की भ्रष्ट नीति शामिल है। बाल्यावस्था में हमें यह बताया जाता है कि चोरी करना और झूठ बोलना पाप होता है। यह सब जानते हुये भी न जाने आज कितने ही ऐसे लोग हैं, जो अवसर पाते ही निजी लाभ के लिए नैतिक और मानवीय मूल्यों का गला घोंटने में अगला-पिछला भूल जाते हैं। हमें किस्से कहानियों के मार्फ़त जीवन जीने के जो मूल्य लोक परंपरा से प्राप्त होते हैं, उसका पतन खतरे के अंदेशे की ओर ही इंगित करता है। इसीकारण बड़े-बुजुर्ग, विवेकशील जन हमें सचेत व सतर्क करते रहते हैं कि अन्यथा अनीतिपूर्वक कार्य करने से परलोक में नारकीय भोग का उत्तरदायी होना पड़ेगा। फिर भी यह ज़ाहिर है कि चोरी करनेवाले व्यक्ति की कोई-न-कोई वाज़िब मजबूरी का अपना पक्ष होता है। हर चोर-साहूकार के पास लूट का अपना-अपना तर्क होता है, जिन्हें हथियार बनाकर वह अपने ही तरह से चोरी का बाज़ार सजाता है। वह किसी-न-किसी आवश्यकता की पूर्ति करने भर में व्यक्‍ति से चोर बन बैठता है और साहूकार अपना ‘ब्यौपार’ सजाता है। अब प्रश्‍न यह पैदा होता है कि क्या सामाजिक-राजनैतिक संरचना में कोई न कोई ऐसी खाप-खाइयां होती हैं, जिससे इस प्रकार के मानवीय नैतिक मूल्य बरबस बिखर जाते हैं? अगर यहां साहित्यिक एवं जीवनदर्शन का हवाला दिया जाय तो गांधी जी ने अपने जीवन की कथनी ही नहीं, करनी में भी इसे आजीवन समझाने का प्रयास किया कि ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’ और गाहे-बगाहे प्रेमचन्द के लगभग सारे साहित्य में यही प्रतिफलित हुआ है। इसके मूल में मानवीय संवेदनशीलता और मनुष्यत्व के मूल्य कार्य करते हैं। जहां मनुष्य की मनुष्य मात्र के रूप में पहचान की जानी ज़रूरी है। मनुष्य की वैयक्‍तिक पहचान को सभ्य-असभ्य के दायरे से निकालकर, वादी-अपराधी से इतर, मनुष्य के रूप में देखा जाना चाहिये। उसे लोकवादी परंपरा की दृष्टि से प्रमुखता दी जानी चाहिये, जिसका आधार हमेंशा से मानवतावादी एवं मानवीय संवेदनाओं से सराबोर रहा है।  
साहित्य को मनुष्य के ह्रदय का पक्षधर होना चाहिए  जिसकी जय यात्रा के केंद्र और उस जय यात्रा के मार्गों में मनुष्यमात्र को महत्ता दी गई है, अपने समय-समाज व संस्कृति के साथ। साहित्य मनुष्य की जय यात्रा का सूचक होता है, और साथ ही उसकी पराजय का साथी भी तथा जय के लिए बलदाता भी। साहित्य जन समूह के ह्रदय का उद्‌गार है, सभ्यता का विकास है जिसमें लोक की संवेदना संगुम्फित होती है, उनकी परंपरा और संस्कृति उसमें रची-बसी होती है। वह लोक-मानस की चित्तवृत्तियों का द्योतक है, साथ ही जीवन के प्रत्येक क्षण में आये सुख-दुख का साथी। जिसे रचनाकार व्यैक्‍तिक एवं निर्व्यैक्‍तिक होकर रचता है, जो यथार्थ को कल्पना अथवा मिथकीय, पौराणिक और ऐतिहासिक स्रोतों के हवाले से कलात्मक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्‍न करता है।  
‘लोक’ शब्द का अर्थ व्यापक है। एक ओर तो यह अपने में विश्‍व अथवा समाज को समेट लेता है तो दूसरी ओर यह जन-सामान्य के अर्थ का भी द्योतक है। लोक का सामान्य अर्थ साधारण जन-समाज से संबंधित है। आधुनिक साहित्य की नई प्रवृत्तियों में लोक का प्रयोग जब गीत, वार्ता, कथा, संगीत के साथ संयुक्त रूप से होता है, तो इसके अन्तर्गत परंपराएं, भावनाएं, विश्‍वास और आदर्श के अर्थ भी लिये जाते हैं। इसप्रकार पारंपरिकता से ही इसका संबंध जोड़ा जाता है। ऐसी परिस्थितियों में लोक साहित्य को निम्‍न स्तरीय और अनुपयोगी समझा जाता रहा है। दरअसल परंपरा के मूल्यांकन में समाज और साहित्य के बीच लोक जीवन एक ऐसी शक्ति है, जो सामाजिक गतिरोध को तोड़ने के साथ ही साहित्यिक गतिरोध को भी समाप्त करती है। अत: इसे वास्तविक जीवन स्वरूप एवं शक्तियों की अभिव्यक्ति एवं धरोहर के रूप में समझा जाने लगा है।
चरनदास चोर की लोक कथा एवं उपजीव्य लिखित साहित्य में ‘चोर’ से ‘चरनदास’ की लोक यात्रा के पड़ाव समय, समाज, संस्कृति और सत्ता से गुजरकर कई बिंदुओं पर विस्तार पाते  हैं। हमारे भारतीय समाज में ‘लोक’ महाप्राण है और ग्रामीण एवं जनजातीय संस्कृति लोक का प्रतिनिधित्व करती दिखाई देती है। एक विशेषण के रूप में लोक का अर्थ ग्राम्य या जनपदीय समझा जाता है- “लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना और पांडित्य के अहंकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।”[1] उसे मौखिक और लिखित, दोनों प्रकारों के लोक साहित्य की परंपरा से आंकलित किया जा सकता है, जिन्हें समीचीन रूप में केवल ‘लोक साहित्य’ कहना गलत न होगा। लोक साहित्य और संस्कृति में अंतर्निहित कथा-सूत्र और नाट्य-प्रारूप की परंपरा मंगलकामी अर्थों को समाये होती है। लोक साहित्य उस जन सामान्य का साहित्य है जो शिक्षा के आभिजात्य संस्कारों से दूर जीवन का यथार्थ सामने लाता है - “सभ्यता के प्रवाह से दूर रहने वाली, अपनी सहजावस्था में वर्तमान जो निरक्षर समुदाय है, उनकी आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, जीवन-मरण, लाभ-हानि, सुख-दुख आदि की अभिव्यंजना जिस साहित्य में होती है, उसे ही लोक साहित्य कहते है। इस प्रकार लोक साहित्य जनता का वह साहित्य है जो जनता द्वारा, जनता के लिए रचा गया हो।”[2] 
सामान्य जीवन में प्रचलित तत्कालीन विश्‍वास, आस्था और परंपराओं पर आधारित कथाएं “लोककथाओं” के अंतर्गत आती हैं। शांति और अशांति के विभिन्‍न क्षणों में ये लोककथाएं जन समुदाय में स्फूर्ति एवं प्रेरणा का संचार करती हैं। यह लोक मानस में संश्‍लिष्ट होकर असीम आनंद की लहरों का सत्य उद्घाटित करती हैं, नैतिक शिक्षा देती हैं, मूल्य वहन करती हैं। दूसरी ओर लोक-नाट्य गीत, नृत्य और संगीत से युक्त लोकानुरंजन की कथावस्तु का लोकभाषा में अभिनीत होना है। सामान्य जीवन में अवकाश के क्षणों में लोक-नाट्य सार्वजनिक मनोरंजन का सर्वोतम साधन होता है। दैनिक जीवन की परिश्रमजन्य क्लांति, चिन्ताओं व अवसाद का परिहार लोक सामान्य इस मनोरंजक-सामुदायिक कार्यक्रमों में करता है। प्रत्येक देश का लोक जीवन लोक नाट्यों की झंकार से गुंजित होता है।
 आम आदमी से एक सुपर हीरो की भूमिका में अवतरित हो जाने वाले चोर की कहानी ‘सच्चाई की बिसात’ नाम से राजस्थानी लोक श्रुतियों में प्रसिद्ध है। यह कहानी विजयदान देथा के ‘उलझन’ कथासंग्रह में प्रथमतया मिलती है। इसके उपरान्त ‘फितरती चोर’ शीर्षक कहानी-संग्रह ‘रास्ते की तलाश’ में भी शामिल है। ‘चोर की कहानी’ को सन् 1971ई. में राजस्थानी से हिंदी में अनुदित एवं लिपिबद्ध किया गया। जिसमें लोक कथा की पुनर्रचना का स्वर, सत्य के प्रयोग, आग्रह एवं उसकी प्रमाणिकता परिलक्षित होती है। इसी लोक कथा के नाट्य रूपांतरण में ‘चरनदास चोर’ को मुकम्मल तस्वीर हबीब तनवीर ने प्रदान की। लोक कथा में ‘लोक’ का व्यापक अर्थ लोक समुदाय की संस्कृति का बोध कराता है। लोक परंपरा में लोक तत्वों का जुड़ाव आम जन-जीवन की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों से होता है। इसलिए वह अभिजात्य सौंदर्यबोध से प्राय: भिन्न हुआ करती है। चूंकि लोक में प्रचलित कथाएं प्रायः मौखिक और मौलिक हुआ करती हैं, किंतु उनका सृजन अजस्र परंपरा की देन होता है। इसलिये वह सदैव जन-जीवन की संस्कृति, आचार, विचार और परंपरा को कई रूपों में द्योतित करती हैं। लोक साहित्य की कथावस्तु एवं अपनी विशिष्ट कथन-शैली के रूप में यह जन और अभिजन के मनोरंजन का संस्कार करती हैं, जो राजकीय भाषाओं या प्रांतीय बोलियों में कही, बोली, सुनी एवं सुनाई जाती हैं। इनका लोक में परंपरागत हस्तांतरण पीढ़ी-दर-पीढ़ी होता रहता है।
विजयदान देथा ने राजस्थान में प्रचलित एवं दुर्लभ लोक कथाओं का दस्तावेज़ीकरण किया। उन्होंने सत्तर के दशक में इन्हें नए सिरे से समकालीन अर्थों में समाकर संकलित एवं संग्रहित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। ‘बिज्जी’ लोक कथा की आत्मा को जीवित रखते हुये कथानक में घटनाओं का ऐसा सृजन करते हैं कि ‘बुद्धिजीवी ही नहीं, आम पाठक भी उसका आनंद उठा सकता है’। दरअसल विजयदान देथा कहानियों को लिखकर, उसे लोक श्रुति-परंपरा की किस्सागोई में सुनाया करते थे। इसप्रकार ‘फितरती चोर की कहानी’ साहित्य और प्रदर्शन कला के माध्यम से साठोत्तरी दशक में जनप्रिय हुई। एक चोर का विस्मयकारी लोक चरित्र सामाजिक-राजनैतिक विसंगतियों और विरोधाभासों को कैसे उभारता है, इसे कथा और नाटक में बखूबी चित्रित किया गया है।
दिलचस्प तथ्य यह है कि चोर की कहानी, नाटक से भी पहले फिल्म में अपना जनवादी रुख रुपहले परदे पर दिखा चुकी थी, जिसकी पटकथा हबीब तनवीर ने लिखी। हबीब तनवीर ने नाचा नाट्य-कार्यशाला के अवसर पर विजयदान देथा ‘बिज्‍जी’ से यह कहानी सुनी थी। सन् 1974 के आस-पास तनवीर ने चोर की कहानी का नाट्यालेख ‘चरनदास चोर’ नाम से किया था। लेकिन नाटक के प्रदर्शन से पहले ही श्याम बेनेगल के आग्रह पर उन्होंने नाट्यालेख का तर्जुमा फिल्म स्क्रिप्ट में किया। जिसका निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया। यह फिल्म 31 मई सन् 1975 को ‘चरनदास चोर’ नाम से ‘बाल फिल्म’ के रूप में सैल्युलाईट के परदे पर दिखायी गयी। इसे भारत सरकार ने उस वर्ष की बेहतरीन फिल्म का ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ प्रदान किया था।
गौरतलब यह है कि श्याम बेनेगल की इस फिल्म में स्मिता पाटिल के साथ हबीब तनवीर और नाचा कार्यशाला से जुड़े नया थियेटर के लोक कलाकारों ने भी अभिनय किया। बाल मनोविज्ञान को चलचित्र में मनोरंजन की दृष्टि इस प्रकार रचा गया है कि मनोरंजन के साथ विषय की गंभीरता भी नष्ट नहीं हुई। बल्कि, फिल्म सत्य के लिए किसी से भी लोहा लेने का सबक सिखा जाती है। ऐसा संवाद के लहज़े में हास्य-व्यंग्य के पुट डालकर, अभिनेताओं के हाव-भाव में केरीकेचर की मुद्राओं का समावेश करके किया गया है। इसमें लोक गीतों और लोक नृत्य का प्रयोग भी किया गया है, जो पटकथा में रोचकता और कौतुहलता को बरकरार रखते हैं। दरअसल यह सिनेमा तनवीर के नाट्यलेख का फिल्मी स्क्रिप्ट में रूपांतरण था। कथा और नाटक की गति से फिल्म की गति में तारतम्यता और सजीवता कम झलकती है। फिर भी चलचित्र के विशिष्ट माध्यम से यह एक बेजोड़ फिल्म के रूप में चरनदास की लोक कथा को प्रदर्शित करती है।
‘चरनदास चोर’ नाटक को सन् 1975 में हबीब तनवीर के नया थियेटर ग्रुप (भोपाल) ने बहत्तर छत्तीसगढ़ी नाचा, पंथी और पंडवानी लोक कलाकारों के साथ प्रदर्शन किया। इस बहुप्रशंसित नाटक को 1982 ई. में एडिनबरा अंतर्राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव में ‘फ्रिंज’ नामक प्रथम पुरस्कार मिला। दिलचस्प तथ्य यह है कि मूल लोक कथा राजस्थानी में है, जिसका पाठ खड़ी बोली हिंदी में कहानी और सिनेमा की भाषिक अभिव्यक्ति का माध्यम बना जबकि नाटक छत्तीसगढ़ी भाषा में जनतांत्रिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रतिरोध को संप्रेषित करता है। चोर की यह लोक कथा साहित्यिक विधा एवं प्रदर्शनकारी कला रूप में कथा भाषा और नाट्यभाषा की विशेषता को परिलक्षित करती है।
राजस्थानी लोक कथा के पुनर्सृजन की प्रक्रिया में विजयदान देथा ने इसे नये तेवर में ‘फितरती चोर’ बनाया था जिसे समकालीन मानवीय संवेदना की व्यापकता और गहराई का जनवादी रूप देने में हबीब तनवीर का महत्त्वपूर्ण योगदान है। विजयदान देथा की साहित्यिक पक्षधरता लोक को समर्पित है, उनमें सत्ता-शासन के विरुद्ध जन शोषण के प्रति नकार का स्वर विद्यमान है और वर्ग-संघर्ष के स्तर पर उनका युग बोध शोषित-पीड़ित जनता के साथ है जबकि हबीब तनवीर एक जनवादी रंगकर्मी हैं। लोक रंग-परंपरा में अंतर्निहित संभावनाओं और सम्प्रेषण की शक्ति को वे अपने नाटकों में अभिव्यक्त करते रहे हैं जिसमें कमर्शियल छिले स्तर की कथा और नाट्य-शिल्प का कोई तुक ही नहीं बनता। इन्होंने रचनात्मक हस्तक्षेप से कहानी और नाटक में सामाजिक-राजनैतिक विसंगतियों, विरोधाभासों और अन्तर्विरोधों को उभारने का प्रयास किया गया है। इसमें चोर एक आम पात्र होते हुए भी अपने कथ्य में विशेष बनकर कथा के विकास के साथ उभरता है, जिसके ज़रिये अपने समय की पड़ताल की गयी है।
 कथा और नाट्य माध्यम में मूल कथा के रूपांतरण से जो परिवर्तन आये हैं, वे कथा साहित्य और नाटक जैसी प्रदर्शन कला के विस्तार और सीमा में नैरेशन को महत्व देते हैं। ज़ाहिर है कि दादी-नानी की कहानियों में समय, समाज और संस्कृति के साथ ही परंपराओं के घटते-बढ़ते स्वरूप व्यक्त होते आये हैं। वस्तुतः समस्त विश्‍व की लोक कथाएं एक-दूसरे से प्रभावित होती हैं और परस्पर एक-दूसरे को प्रेरित करती हैं। भारतीय भौगोलिक परिवेश की प्रांतीय लोक कथाओं की समानताएं इसकी साक्ष्य हैं।
चोर की कहानी का संदर्भ नाटक के पार्श्व में ढ़ेरों कहानियों को समेटता है। भारत के प्राचीन परंपरागत शास्त्रों में ‘चोर शास्त्र’ भी है। मुणीराम भद्र विरचित के संस्कृत नाटक ‘प्रबुद्ध रोहिणेय’ का नायक एक चोर है और उसकी अजीबो-गरीब ज़िंदगी का चित्रण ‘चोर शास्त्र’ पर आधारित है। संस्कृत नाटक में शूद्रक कृत ‘मृच्छकटिकम’ में ‘शर्विलक’ नामक चोर प्रेमी है और आर्यक गोपालक के राजनीतिक दल का नेता भी है। वह अपने देश-काल में क्रान्ति लाता है और राजा पालक के नृशंस अत्याचार को समाप्त करके ग्वाले आर्यक को राज सत्ता प्रदान करता है। लेकिन ‘फितरती चोर’ की कहानी के नायक की समानता इनसे कुछ अलग ही है। ऐसे चोर का सत्य के प्रति विशिष्ट आग्रह, प्रयोग और निष्ठा से स्पष्ट हो जाता है। 
कथा और नाटक में नायक की भूमिका में चोर सिर्फ अपना ही स्वार्थ नहीं पालता है, बल्कि जरूरतमंद आम आदमी के हितों को भी अपनी चोरी से संरक्षण प्रदान करता है। कहानी में विसंगति, विरोधाभास और अन्तर्विरोध, चोर की सामाजिकता पर आश्रित हैं। वह सफेदपोशों के बीच मात्र आम चोर है; जो चोरी-घोटाले की भ्रष्ट व्यवस्था में लिप्‍त सामन्ती और साम्राज्यवादी ताकतों की पोल खोलता है।  
  चोर से चरनदास चोर की लोक यात्रा को कहानी और नाटक के परिदृश्य में विवेचित किया जा सकता है।  यहां कथा वस्तु एक चोर की है, जिसे नायक बनाया गया है। लोक-कहानी में राजा निठल्ला है, जिस कारण रानी ही राजकीय सत्ता की बागडोर संभालती है। वह राजकीय प्रमुख कार्यों का निर्देशन करती है तथा शासन-प्रबंध को चलाती है। किंतु नाटक में केवल रानी का ही उल्लेख मात्र मिलता है। स्त्री और सत्ता पक्ष के वर्ग चरित्र के रूप में कथा और नाटक के अंत में रानी चोर के विपक्ष में खड़ी हो जाती है। कथा में तमाम समानताओं-असमानताओं के बावजूद क्या रानी के सम्पूर्ण चरित्र को लोक भावनाओं की अपनी कथाओं में अभिव्यक्‍ति के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता, जहां स्त्री सामंतवादी विचारधारा की शिकार और उससे सीमित अर्थ में ग्रस्त भी थी?
नाटक में कथा नायक चोर को पहचान दी गई है। वह चोर की अपनी विशिष्ट अस्मिता है। जिसे हबीब तनवीर ने चरनदास ‘चोर’ नाम दिया है। मूल कहानी में वह सिर्फ फितरती चोर है; एक मनमौजी चोर है। मौज-मस्ती, मजाक और मसखरी में एक कपटी साधू को सताने के उद्देश्य से चोर उसके पास शिष्य बनने के लिए जाते हैं। वह गुरु, हर किसी शख्स को, जो कि उसका शिष्य बनना चाहता है, उन सबों से अपने एक दुर्गुण को छोड़ने के लिए कहा करता है। परंतु चोर अपने बड़बोलेपन में गुरु से एक नहीं चार-चार प्रण लेने की बात कर बैठता है, सिर्फ इसीलिये कि वह उसे अपना चेला बना ले। जबकि नाटक में गुरु, चरनदास चोर को पुलिस से बचा लेता है और जिसके कारण ही वह उसे अपना गुरु बनाना चाहता है। लोक कथा और लोक नाटक की मुख्य कथावस्तु में समानता और प्रस्थान बिंदु का सूत्र यहीं से प्रारंभ होता है। कथा और नाटक में लिये गए प्रण में एकरूपता नहीं है, जोकि कथा और नाटक के अपने कथ्यगत और शिल्पगत संरचना से उभरी है।
कथानक में चोर गुरु को वचन देता है; पहला, ‘वह झांकी में हाथी-घोड़े-पालकी पर बैठकर किसी प्रोसेशन में नहीं जाएगा।’ दूसरा, ‘वह सोने की थाली में नहीं खायेगा।’ तीसरा, ‘किसी भी देश का राजा नहीं बनेगा’ और चौथा, ‘वह किसी भी रानी से विवाह नहीं करेगा।’
गुरु कहता है कि जब चार प्रण अपने से लिये हैं तो एक प्रण उनके अनुसार भी लेना होगा- कि ‘वह चोरी करना बंद कर देगा’। लेकिन चोरी करना तो चोर का पेशा है, उसकी आजीविका है। वह उसे कैसे छोड़ सकता है? वह गुरु से तर्क करता है कि चोरी करना छोड़ देगा तो वह खायेगा क्या? गौरतलब है कि चोर का पेशा ही छल-झूठ प्रपंच पर ही चलता है। वह चोरी करना नहीं छोड़ सकता। कथानक में आगे फिर चोर के इस तर्क पर गुरु राजी हो जाते हैं और कभी झूठ नहीं बोलने का प्रण करवाते हैं। गुरु को दिये गये ये पांच प्रण कहानी-नाटक में आते हैं। जहां से सत्ता के दमनकारी नीति और वर्ग संघर्ष का खुलासा होता है, कथानक में यहीं से विरोधाभास और अन्तर्विरोध उत्पन्न होते हैं। जिससे सामाजिक-राजनैतिक विसंगतियों की कलई खुलती है।
 यह कथा नायक की नियति है, ईमानदारी है, उसकी साफगोई है कि वह हर वक़्त, हर समय बोलता है, ‘जी हां, मैं चोर हूं और चोरी करने आया हूं’। लोग उसकी बात हंसी-हंसी में टाल जाते हैं और वह चोरी करता जाता है। वह मंदिर में जाता है और वहां चोरी करता है। पुजारी को अपना परिचय चोर के रूप में देता है, किंतु पुजारी यह मानने से इनकार कर देता है कि वह एक चोर है। फितरती चोर साहूकार को लूटता है और राजकीय कोष में भी सेंध लगाता है। वहां भी वह अपना परिचय चोर के रूप में देता है।
कथानक में ऐसे कई मोड़ आते हैं, जब उसे अपने सत्व की परीक्षा देनी होती है। जब वह राजकीय खजाने से केवल पांच मोहरों (मोती) की चोरी करता है और उस पर दस मोहरे (मोती) चुराने का आरोप तय किया जाता है, तब सत्य की प्रमाणिकता एवं कथा नायक की विशिष्टता स्पष्ट होती है। कथा और नाटक में राजकीय जांच-पड़ताल के दौरान चोर बड़े अभिमान से पांच मोहरों की चोरी की बात स्वीकारता है, जिससे रानी के समक्ष यह खुलासा होता है कि चोर होते हुए भी वह सत्यनिष्ठ है। इससे रानी अत्यंत प्रभावित होती है।
दरअसल यह एक ऐसा चोर है, जो सच बोलता है और सत्ता-शासन की आड़ में छुपे हुये भ्रष्ट लोगों की शिनाख्त करता है। कथावस्तु अपने चरम बिंदु पर प्रवेश करती है। रानी चोर की सत्यनिष्ठा पर मुग्ध हो जाती है और उसे पसंद करने लगती है, चाहने लग जाती है। तत्पश्‍चात धीरे-धीरे गुरु को दिये गये वचन, उसके प्रण चोर के सामने आने लगते हैं और वह अपनी वचनबद्धता को निभाता जाता है। राजकीय निमंत्रण, खान-पान, प्रधानमंत्री पद अस्वीकार कर देता है। रानी शादी का प्रस्ताव रखती है। लेकिन चोर उस प्रस्ताव को भी ठुकरा देता है। अपमान बोध की स्थिति में रानी चोर से इन बातों को गोपनीय रखने की शर्त रखती है। रानी कहती है कि “देश की मालकिन तो आज दर-दर की भिखारिन हो गई ! सिसकते बोली ‘मेरे लाख जतन करने पर भी न आपका भाग बदला, न मेरा। मैंने तो अपने बस चलते कोई कसर नहीं रखी। आप नहीं माने, उसका तो मैं भी क्या करती? आप मान जाते तो किसी का कोई कसूर नहीं था! पर अब सारा कसूर मेरा ही माना जाएगा! आपसे कोई पूछे तो हरगिज़ आज की रात का भेद मत बताना। मेरी आबरू अब आपके होठों में बंद है।”[3]  ज़ाहिर है कि चोर ने सत्य बोलने का प्रण लिया था। अत: वह कहता है कि “मेरे गुरु जी ने ही तो मुझे झूठ न बोलने की कसम दिला रखी है। मैं झूठ कैसे बोल सकता हूं?”[4] इसलिये रानी उसे मृत्युदंड दे देती है।
कहानी में राजा की मौजूदगी कहानी को एक अलग मोड़ देती है। राजा खुद फितरती चोर से प्रभावित होकर रानी से उसे मंत्री बनाने की इच्छा प्रकट करता है। कथा और नाटक के अपने स्पेस  में रानी स्त्री और सत्ता, दोनों वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है। चरनदास चोर का राजकीय पद के प्रस्ताव को ठुकराना उसकी मृत्यु का कारण बनता है और अपने सत्य के प्रण पर लोक मर्यादा में वह घर कर जाता है। किसी के विचार और आग्रह के प्रति सहमति से परे चोर का सत्य के प्रति आग्रह असहमति और प्रतिरोध को जन्म देता है। कथा-नायक चोर रानी के साम्राज्यवादी प्रलोभन और सामंतवादी मानसिकता को नकार देता है। चोर द्वारा किये गए अपमान के बदले रानी की क्रूरता सामने आती है और प्रतिरोध स्वरूप चोर को मृत्युदंड मिलता है।
 कहानी और नाटक में यह तथ्य मानवीय संवेदना और प्रतिरोध को प्रस्तुत करता है, भले ही विधा रूप में कथ्य सम्प्रेषण का माध्यम अलग-अलग है। परंतु, वह मानवीय संवेदना को झकझोरता है। हबीब तनवीर ने इस विसंगति और अंतर्विरोध को लोकगीतों की बानगी में समेटा है।
“एक चोर ने रंग जमाया जी सच बोलके।
संसार में नाम कमाया जी सच बोलके।” [5]

संपर्क- अवधेश झा, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, मानविकी संकाय, हैदराबाद केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय, हैदराबाद-500046, तेलंगाना, दूरभाष- 8333003491, ईमेल पता : avdhesh.1205@gmail.com



[1] धीरेन्द्र वर्मा, हिंदी साहित्य कोश, पृ.385-86
[2] राहुल सांस्कृत्यायन, हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास: पृ.15-16 
[3]  विजयदान देथा, रास्ते की तलाश- फितरती चोर: पृ.131
[4]  वही
[5]  हबीब तनवीर, चरन दास चोर, पृष्ठ सं. 79 

मूक आवाज़ हिंदी र्नल
                            अंक-6 (अप्रैल-जून 2014)                           
                                                   ISSN   2320 – 835X
 

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