बुधवार, 27 अगस्त 2014

‘दोहरा अभिशाप’: आत्मकथा में अभिव्यक्त दलित स्त्री जीवन का संघर्ष - जयराम कुमार पासवान




डॉ. धर्मवीर लेखिका पर आरोप लगाते हुए लिखते हैं-यदि वे अच्छे हाथ-पांव लेकर भी द्विज नारी की तरह भरण-पोषण पर पलने वाली डायनासोर की नस्ल की औरत न होती तो दलित कानून का सहारा ले कर अपने जीवन की धारा को पूर्णतया बदल सकती थीं। पति के अत्याचार सहने में जो लाचार है वह द्विज नारी है क्योंकि उसके पास ब्राह्मण विवाह की वजह से तलाक लेने का विकल्प नहीं है। लेकिन नारी निठल्ला होकर ही शिकायत कर सकती है कि उसका पति क्रूर है।स्पष्ट है कि जिस प्रकार दलित स्त्री सर्वण पुरूषों के द्वारा प्रताड़ित हुई। उसी प्रकार दलितों पुरूषों के द्वारा भी विभिन्न प्रकार के आरोप लगाये जाते हैं।
 कौसल्या नंदेश्वर बैसंत्री जी की आत्मकथा दोहरा अभिशाप’ 1999 ई. में प्रकाशित दलित समाज में महिला जीवन के तमाम संघर्षों का चिट्ठा खोलती है। इनकी आत्मकथा, अन्य आत्मकथाओं की तरह अत्यधिक पीड़ा, घृणा और जुगुप्सा के भावों का संचालन नहीं करती बल्कि लेखिका के संघर्षों को व उनके मां-बाप के संघर्षों से भरे जीवन का भी चित्रण करती है।
      लेखिका ने दलित समाज की अच्छाई बुराई सभी का विवरण अपनी आत्मकथा में दिया है। जहां सवर्णों में विधवा विवाह को मान्यता नहीं दी जाती है। वहीं दलित समाज में विधवा अगर दुबारा शादी करना चाहे तो कोई रोक टोक नहीं है लेकिन इस दूसरी शादी की विधि अलग है और इसे विवाह न कहकर पाटकहा जाता है। समाज में स्त्रियों की क्या दशा है, यह किसी से भी नहीं छुपी है और उस पर भी दलित महिलाओं की स्थिति का दुखद यथार्थ स्पष्टतः यहां देखने को मिलता है। लेखिका की आजी (नानी) का भी पाट हुआ था। जहां उनका विवाह हुआ था, वह घर ठीक-ठाक था। आजोबा (नाना) एक साहूकार थे और पहले से शादी-शुदा थे और पहली पत्नी से उसे एक बेटा और एक बेटी थीं। कौसल्या की नानी बहुत खूबसूरत और साहसी महिला थी। आजी घर का सारा काम करती थीं। किंतु पहली पत्नी उस पर अपना रोब झाड़ती थी और सारे दिन बीड़ी बनाने वालों से गप्पे हांकती रहती थी। आजोबा बड़े गुस्सैल थे और बिना किसी कारण के आजी से झगड़ा करते और कभी-कभी हाथ भी उठा दिया करते थे। बिना किसी कारण के इस सब बातों से आजी बहुत तंग आकर घर छोड़ने का निश्चय कर लेती है और एक दिन चुपचाप अपने तीनों बच्चों के साथ घर छोड़ देती है। लेकिन बीच वाली बच्ची को रास्ते में ही बुखार हो जाता है और रास्ते में ही दम तोड़ देती है तो ‘‘आजी ने अपने दिल पर पत्थर रखा। मन को काबू किया। पास में ही एक गड्ढे में दफना दिया। आजी के मन पर क्या बीती होगी?’’[1] इतना हो जाने पर भी वह हिम्मत नहीं हारती है और आजोबा के घर ना जाने का ही निश्चय करती है। नागपुर किसी तरह से पहुंच जाती है और वहां ईंट पत्थर ढोने का काम करती है। दलित लोगों को रोजाना काम पर जाने से ही रोजाना के खाने का इंतजाम हो पाता है। यही वजह है कि दलित परिवार के बच्चे नहीं पढ़ पाते हैं। या तो वे अन्य बच्चों की देख रेख करते हैं या फिर घर के कामों में लग जाते हैं और स्कूल नहीं जा पाते हैं। लेखिका की मां चाहती थी कि बच्चे पढ़े लिखें क्योंकि उस पर अम्बेडकर जी के भाषण का प्रभाव था। लेखिका लिखती है - पढ़ो-लिखो शिक्षित बनो और आगे बढ़ो।का प्रभाव पड़ चुका था। स्वयं पति के साथ काम में खटती रहती थी लेकिन बच्चों की पढ़ाई में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होने देते थी। दलित महिलाओं के पास इतना काम करने को रहता है कि वे अपने बच्चे को समय ही नहीं दे पाती हैं। इसलिए छोटे बच्चे को सुलाने के लिए अफीम खिला देती हैं ताकि वह लम्बें समय तक सोये रहे और वह सारा काम कर सके। लेखिका की मां भी ऐसा ही करती थी। लेखिका लिखती है- ‘‘अफीम खिलाने से अहिल्या (लेखिका के मां की ग्यारहवीं संतान) बहुत चिड़चिड़ी हो गई थी और बहुत रोती थी। उसका जिगर बढ़ गया था। एक दिन उसको तेज बुखार हुआ। मां ने उस दिन मिल से छुट्टी ली। मूर मेमोरियल अस्पताल हमारे स्कूल के रास्ते से हटकर था। मां ने कहा, इसे अस्पताल ले जाकर लाइन में खड़े रहना, क्योंकि बाद में बहुत बड़ी लाइन लग जाएगी। मैंने अहिल्या को पीठ पर लिया और छोटी बहन मधु ने दोनों बस्ते पकड़े। मां ने कहा कि वह घर का काम खत्म करके अस्पताल पहुंच जाएगी। तब हम स्कूल चली जाएंगी।’’[2] लेकिन मां के वहां पहुंचने से पहले ही अहिल्या की मृत्यु हो जाती है। इतना अधिक काम रहने के कारण वह स्वयं अपने बच्चे को इलाज के लिये भी नहीं ले जा पाती है। नहीं तो कौन सी ऐसी मां होगी कि अपने बीमार बच्चे को किसी और के भरोसे छोड़ दे? यहां एक मां की मजबूरी और लाचारी नज़र आती है।
       लेखिका के माता-पिता का जीवन संघर्ष भरा जरूर था लेकिन उनमें एक जुझारूपन था कि वे अपने बच्चों को पूर्ण शिक्षा दे सके और इसप्रकार माता-पिता के आपसी तालमेल के कारण ही लेखिका के सभी भाई-बहन अच्छे पढ़ लिख गए हैं। वरना ऐसा संयोग तो बहुत कम ही बन पाता था। लेखिका ने अपने समाज की औरतों पर हो रहे अत्याचारों का भी उल्लेख किया है जहां स्त्रियां काम में जाती हैं और मर्द उनके पैसों से अय्याशी करते हैं। उनके साथ मार-पीट करते हैं। रामकुंवरऔर जयरामका जीवन भी ऐसा ही था। रामकुंवर मिल में काम करने जाती थी और जयराम जुआ खेलने और पीने में सारे पैसे उड़ा देता था और पैसे को लेकर रामकुंवर के साथ मार पीट करता और भद्दी-भद्दी गालियां देता था।
समाज में स्त्री का दर्जा मात्र एक दासी का है, चाहे वह दलित हो या फिर सवर्ण स्त्री। लेकिन फिर भी समाज में दलित स्त्रियों का तिहरा शोषण होता है। एक तो दलित महिलाएं दिन-रात मजूरी करती हैं, बाहर खटती हैं। दलित होने के कारण तो उसका शोषण होता ही है, साथ ही स्त्री होने के कारण भी सवर्ण पुरुषों के साथ-साथ पति के शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। इस संबंध में लेखिका लिखती हैं - ‘‘सखाराम की औरत दिहाड़ी पर मजदूरी कर रही थी। वह सीमेंट-ईंट ढोकर मिस्तरी को देती थी। वह देखने में सुंदर थी। मिस्तरी बदमाश था। वह  आते-जाते उसे छेड़ता था। एक दिन उसने सिमेंट का गोला बनाकर उसकी छाती पर मारा। उस औरत ने उसे गालियां दी परंतु वह बेशर्म, हंसता रहा। साथ में खड़े मज़दूर भी यह देखकर हंस रहे थे। यह बात उस औरत ने अपने पति से कही। पति का काम था जाकर उस बदमाश को डांटे-फटकारे । परंतु उसने अपनी औरत को ही डांटना शुरू किया मारा और कहने लगा कि और औरतें भी तो वहां काम करती हैं, उन्हें वह कुछ नहीं कहता और तुम्हें ही क्यों छेड़ता है? तुम ही बदचलन हो, यह कहकर उसे रात भर घर के बाहर रखा। वह बिचारी घर के पीछे रात भर डर-डर के रही और सवेरे उसे गधे पर बैठाया गया। बस्ती से बाहर निकालने के बाद वह बेचारी झाड़ी में छिपी रही, क्योंकि उसके बदन पर पूरे कपड़े नहीं थे। रात में वह बस्ती के कुएं में कूद गई। सवेरे उसका शरीर पानी के ऊपर तैर रहा था। उसके मां-बाप आए और कहने लगे कि इसने हमारी नाक कटवाई, अच्छा ही हुआ कि यह कुलटा मर गई।’’[3]
दलित स्त्री आत्मकथाओं में अभिव्यक्ति संदर्भ, परिवेश, समस्या और संघर्ष का स्वरूप मुख्य रूप से उजागर हुआ है। दलित स्त्री का जीवन में शिक्षित होने के लिए संघर्ष, जातिगत पहचान की वजह से प्रगति के हर कदम पर आनेवाली कठिनाईयों से जूझना, आर्थिक सबलता के लिए कठिन प्रयास, भूख से लड़ाई, स्त्री होने के कारण घर और बाहर होने वाली अवहेलना, अपमान और शोषण की तिहरी मार को झेलना पड़ता है, लेखिका ने अपनी आत्मकथा में इन प्रसंगों, घटनाओं, संघर्षों का चित्रण प्रमुख्ता से किया है।
लेखिका ने स्वयं अपने जीवन में भी एक स्त्री होने के कारण सारी पीड़ा को सहा है जो एक स्त्री सदियों से सहती आ रही है। उसका पति एक बड़ा लेखक व स्वतंत्रता सेनानी था लेकिन अपनी पत्नी को मुक्ति नहीं दे सका। उसके लिए उसकी पत्नी मात्र भोग्य वस्तु थी। लेखिका अपने पति के बारे में लिखती है- देवेन्द्र कुमार (मेरे पति) को पत्नी सिर्फ खाना बनाने और उसकी शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी। दफ्तर के काम और लिखना यही उसकी चिंता थी। मुझे किसी चीज की जरुरत है, इसका उसने कभी ध्यान नहीं दिया।[4]    उससे वह मात्र अपनी नौकरानी की तरह बरताव करता था, बात बात पर गालियां देता, हाथ उठाता था और अधिकतर बीस-बाईस दिन दौरे में रहता था। आपने पति के बारे में वे भूमिका में लिखती हैं- मेरे उच्च शिक्षित पति, लेखक और भारत सरकार में उच्च पद पर सेवारत रहे। उन्हें ताम्रपत्र भी मिला है और स्वतन्त्रता सेनानी की पेंशन भी। पति ने कभी मेरी क़दर ही नहीं की बल्कि रोज़-रोज़ के झगड़े, गालियों से मुझे मजबूरन घर छोड़ना पड़ा और कोर्ट केस करना पड़ा।[5]  लेखिका शिक्षित होने के वाबजूद भी जीवन भर संघर्ष करती रही। लेखिका का पति इतना पढ़ा-लिखा होने वाबजूद भी उनकी मानसिकता को समझ नहीं पाया। वे पढ़े-लिखे होने पर भी असंवेदनशील एवं असहिष्णु थे।
देवेन्द्र कुमार अपनी पत्नी के प्रसव के दिन समीप हैं, यह जानते हुए भी दौरे पर चला जाता है। बड़ी मुश्किल से वह उस पीड़ा को सहते हुए स्वयं के प्रसव के लिए तैयारी करती हुई पहले ही भर्ती के लिए अस्पताल में नाम दर्ज करवाती है और किसी को दाई को बुलवा लाने के लिए भेजती है और जाने के लिए गाड़ी का बंदोबस्त भी स्वंय करती है और एक बेटे को जन्म देती है। लेखिका का पति अगले दिन सवेरे-सवेरे दौरे से वापस आता है और जब उसे पता चलता है कि उसकी पत्नी अस्पताल में है, तो वह अस्पताल पहुंचता है। इस संबंध में लेखिका लिखती है- ‘‘मुझे जनरल वार्ड के पलंग पर लिटा दिया गया था। अब मुझे थोड़ा होश आने लगा था, सिर भारी हो गया था। आंखे भी नहीं खुल रही थीं। तब देवेन्द्र कुमार की थोड़ी आवाज सुनाई दी। वह डॉक्टर से कह रहा था कि इसे प्राइवेट वार्ट में रखो। मैं बड़ा ऑफिसर हूं, इसकी शान उसे दिखानी थी।..........देवेन्द्र कुमार जैसे आया वैसे ही चला गया। मुझे मिला ही नहीं। न मेरी हालत के बारे मे पूछा। और जाते वक्त मात्र तीस रूपये देकर गया था।’’[6] यह तीन रूपये रोजाना के हिसाब से दस दिन के कमरे का किराया था। स्वयं तो वे लेने भी न आए और ये भी नहीं सोचा कि वह कैसे आएगी, कुछ और भी जरूरतें उसकी हो सकती हैं। लेखिका कहती हैं कि - ‘‘ क्या ऐसे पति से प्यार, श्रद्धा हो सकती है? इस प्रसंग की याद आते ही मेरा खून खौलने लगता है।’’[7] हजारों सालों से आदमी के नज़रिए में औरत मात्र भोग की वस्तु ही बनी रही है।
डॉ. धर्मवीर लेखिका पर आरोप लगाते हुए लिखते हैं-यदि वे अच्छे हाथ-पांव लेकर भी द्विज नारी की तरह भरण-पोषण पर पलने वाली डायनासोर की नस्ल की औरत न होती तो दलित कानून का सहारा ले कर अपने जीवन की धारा को पूर्णतया बदल सकती थीं। पति के अत्याचार सहने में जो लाचार है वह द्विज नारी है क्योंकि उसके पास ब्राह्मण विवाह की वजह से तलाक लेने का विकल्प नहीं है। लेकिन नारी निठल्ला होकर ही शिकायत कर सकती है कि उसका पति क्रूर है।[8] स्पष्ट है कि जिस प्रकार दलित स्त्री सर्वण पुरूषों के द्वारा प्रताड़ित हुई। उसी प्रकार दलितों पुरूषों के द्वारा भी विभिन्न प्रकार के आरोप लगाये जाते हैं।
लेखिका को वैसे तो अन्य दलित आत्मकथाकारों की तरह शिक्षकों से कोई कटु बचन सुनने और बिना वजह मार खाने को नहीं मिला थी । लेकिन उसकी शिक्षिका उससे काम लेती थी जबकि अन्य विद्यार्थियों से कुछ नहीं कहती थी। कुछ भी करना होता तो लेखिका से ही करने को कहती। लेखिका को हमेंशा इस बात का डर लगा रहता था कि कहीं उसकी जाति का भेद न खुलकर सामने आ जाए। किंतु समय के साथ-साथ जैसे ही उनके विचार खुलते गये उनका सारा डर भी लुप्त होता गया और जहां उसे लगता है भेदभाव किया जा रहा है तो वह इसका विरोध भी करती है। इसके साथ ही वह उन तमाम रूढि़यों और अंधविश्वासों का भी विरोध करती है जिन्होंने समाज को खोखला बना दिया है। और साथ ही इस आत्मकथा में उन राजनेताओं की ओर भी संकेत दिया गया है जो दलितों की समस्याओं को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं तथा इनके विषय में बात तक नहीं करते हैं। लेखिका ने स्वयं के अनुभव पर दलितों में आंदोलन को लेकर कम होते उत्साह को भांपा है तथा इस पर चिंता भी व्यक्त की है। इसके लिए दलितों का एकजुट होना भी जरूरी है। लेखिका ने एक जगह दलितों में भी ऊंच-नीच बरते जाने का संकेत किया है। और अगर कोई दलित व्यक्ति पढ़-लिख कर आगे बढ़ना चाहता है तो अपने ही समाज के लोग उसे नीचे गिराने का भरसक प्रयास भी करते हैं। लेखिका का अनुभव इस तथ्य की पुष्टि करता है। जब लेखिका के मां-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे तो इन्हें पढ़ता देख सवर्णों के साथ-साथ इनके अपने ही लोगों के द्वारा इन्हें ताने सुनाये जाते थे। और भिन्न-भिन्न तरीकों से सताने का प्रयास किया जाता था क्योंकि ये सारे लोग उनसे जलते थे इसलिए ये नहीं चाहते थे कि इनका परिवार पढ़े-लिखे। इस वजह से सताने के नए-नए हत्थकंडे अपनायें जाने लगे थे। फिर भी इन्होंने हिम्मत नहीं हारी और आगे बढ़ते गए। सवर्ण क्या, दलित समाज भी अपने ही लोगों को आगे बढ़ता नहीं देख सकता था।
इसप्रकार इस आत्मकथा में पुरूषात्मक समाज में स्त्री का निरंतर शोषण, उसके अस्तित्व और अस्मिता को कुचला जाना और इनके विरोध में स्त्री का संघर्ष आदि महत्वपूर्ण पहलू उभरे हैं। दलित स्त्री मध्यवर्गीय हो अथवा निम्नवर्गीय, मज़दूर हो अथवा सामाजिक कार्यकर्ता या कॉलेज में अध्यापिका, उसे दलित और स्त्री होने की पीड़ा साथ-साथ झेलनी पड़ती है। यह बात लगभग सभी दलित स्त्री लेखिकाओं के यहां देखने को मिलती है। कौसल्या बैसंत्री की आत्मकथा दोहरा अभिशाप समाज में व्याप्त सभी रूढि़वादियों का, अंधविश्वासों का तथा दलित समाज पर किए जा रहे शोषण का तथा विशेषकर स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों पर प्रश्न खड़ा करती हुई आलोचात्मक तेवरों के साथ हमारे सामने आती है। इस आत्मकथा में लेखिका ने परिवार तथा अपने जीवन के संघर्षों का बखान किया है। ऐसे संघर्ष दलित और सवर्ण, दोनों जातियों की महिलाओं को झेलने पड़ते हैं। कौसल्या जी ने न सिर्फ सवर्ण पुरूष बल्कि दलित स्त्री-पुरूष का दोहरा चरित्र भी इस आत्मकथा के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
संपर्क - जयराम कुमार पासवान ,पांडिचेरी विश्वविद्यालय, पुदुचेरी - 605014, चलदूरभाष - 9042442478,  ईमेल पता - jairamkrpaswan@gmail.com




[1] कौसल्या बैसन्त्री, दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली-110092, प्रथम संस्करण,1999,पृ.20
[2] वही, पृ.56
[3] वही, पृ.56
[4] हंस पत्रिका, दलित विशेषांक, अंक-1, अगस्त-2004, संपादक- राजेंद्र यादव, दिल्ली, पृ.70
[5] कौसल्या बैसन्त्री, दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली-110092, प्रथम संस्करण,1999,पृ.7
[6] वही, पृ.118
[7] वही, पृ.119
[8] हंस पत्रिका, दलित विशेषांक, अंक-1, अगस्त-2004, संपादक- राजेंद्र यादव, दिल्ली, पृ.70
मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून 2014), ISSN 2320835X  
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/

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