इसप्रकार की कई प्रतिभाएं थीं जो
हिन्दी सिनेमा के लिए काम कर रही थीं, किन्तु उनमें दो ऐसे नाम थे
जिन्होंने हिन्दी सिनेमा को औद्योगिक दर्जा दिलाने और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे
पहचान दिलाने का कार्य किया, वह नाम है गुरुदत्त और राजकपूर। ये दोनों दो शैलियों और
दृष्टियों के कलाकार थे। ‘राजकपूर का सिनेमा जहां इतालवी नवयथार्थवाद और चैप्लिन-टच
का था, वहीं बहुमुखी प्रतिभा के धनी
गुरुदत्त हिन्दी सिनेमा के उन कलाकारों में हैं जिन्होंने हिंदी सिनेमा की भूमिका
निर्मित करने का कार्य किया। इस अंतर को सुरेश सलिल और बेहतर तरीके से प्रस्तुत
करते हैं। उन्हीं के शब्दों में “गुरुदत्त का सिनेमा उनके अपने सोच और कला
संघर्षों का प्रतिफल था, जबकि राजकपूर की सफलताओं में उनके साथ-साथ ख्वाजा अहमद
अब्बास, शैलेन्द्र, शंकर-जयकिशन, राधू कर्माकर आदि की भी बराबर की
भूमिका थी। राजकपूर का सिनेमा चिंतन के स्तर पर और टीम के बिखराव के साथ-साथ जहां
समर्पण कर देता है- वहीं वहां तक पहुंचने के पहले ही गुरुदत्त के भीतर का कलाकार
स्वयं से विद्रोह का रास्ता चुनता है और ‘क्विट’ कर जाता है।”
गुरुदत्त पादुकोण का जन्म नौ जुलाई
1925 को केरल (मैंगलौर) के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ। लेकिन उनका बचपन
कोलकाता में बीता। यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा भी हुई। यह एक सुअवसर था कि गुरुदत्त
बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में हो रहे परिवर्तनों को नजदीक से देख सके और समय के
साथ उसे महसूस कर सके। अपने विद्रोही स्वभाव के कारण वह पढ़ाई बीच में ही छोड़
दिए। उसका एक कारण कला के प्रति उनका अप्रतिम झुकाव भी था। 17 वर्ष की उम्र में वह
घर से दूर अल्मोड़ा चले गए, जहां उन्होंने नृत्य की शिक्षा प्राप्त की। मुंबई आकर वह नृत्य से अलग फिल्म
की दुनिया में रम गए। उनकी प्रमुख फिल्में हैं- ‘बाजी’ (1951), ‘जाल’ (1952), ‘बाज’ (1952), ‘आर-पार’ (1954),
‘मि. और मिसेज’ (1955), ‘सीआईडी’ (1956),
‘प्यास’ (1957),
‘कागज के फूल’ (1959), ‘चौदवीं का चांद’ (1960), ‘साहिब, बीवी और गुलाम’ (1962)। ’12 बजे’ (1958)’ और ‘गौरी(1958)’ उनकी दो अधूरी फिल्में हैं।
गुरुदत्त के स्वभाव के बारे में
जानकारी उनके परिवार और साथ में काम करने वालों से मिलती है। कुछ जानकारी उससे भी
मिलती है जो पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर छपता रहा है।[1]
उनकी माता वसंती पादुकोण बताती हैं कि गुरुदत्त बचपन से ही थिएटर के तरफ झुके हुए
थे। उम्र के साथ यह लगाव जूनून में बदलता गया। उन्हीं के शब्दों में, “मुझे याद है, 1935 में जब उदय शंकर का ट्रुप
मुंबई आया, तब मैं जाने लगी तो वह भी बोला, मैं आऊंगा। मैंने कहा- तुम नहीं आ
सकते। बड़ा लोचा हुआ और (उसने) तीन दिन तक खाना नहीं खाया। जब मैंने उससे वादा
किया कि तुम्हें मैं ले जाऊंगी, तब खाना खाया और उसने वादा किया कि एक दिन मैं भी तुम्हें स्टेज डांस दिखाकर
बताऊंगा। मैंने सोचा बच्चे की बात है।... कोलकाता में रामायण, महाभारत के जात्रा होते थे। जात्रा
यानी पूरी रात उनके नाटक का जलसा। मना करने पर वह गुस्सा हो जाता थ। तब वह बहुत
छोटा था। सात साल का था। और अगर कहीं पपेट शो हो तो वहां जा के वह देखता था। वह
बहुत पढ़ता था, दिन-रात किताब हाथ में रहती थी। इस
वजह से उसकी ज्ञान-शक्ति बढ़ गई। वह जो कुछ करना चाहता था करके ही छोड़ता था।”[2]
एक व्यक्ति के तौर पर वह औरों से
काफी अलग थे। उनके व्यक्तित्व की सबसे रोचक बात यह है कि उनके सबसे करीब रहने वाले
विमल मित्र, अब्ररार अल्वी और उनकी पत्नी गीता
दत्त (जो एक पार्श्व गायिका थीं) उनके बारे में अलग-अलग महसूस करते थे। अब्ररार
अल्वी और बिमल मित्र ने इनके जीवन पर पुस्तकें लिखी हैं, उनसे भी गुरुदत्त के संदर्भ में
पता चलता है। बिमल मित्र अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि गुरुदत्त के दो रूप थे। एक
वह जो लोगों को दिखाई देता था और दूसरा वह जिसे गुरुदत्त जीते थे। बिमल मित्र की
मानें तो गुरुदत्त ऊपर से जितने हंसमुख थे अंदर से उतने ही अकेले
व्यक्ति थे। यही अकेलापन उनकी मृत्यु का कारण बना।
गुरुदत्त प्रयोग धर्मी कलाकार थे।
इसमें उनको सफलता और असफलता दोनों मिली। यह स्वाभाविक भी था। क्योंकि उनके पूर्व
का सिनेमा जो भी था,
वह उसको उसी रूप में कॉपी करने के लिए तैयार नहीं थे। पहले का लेखन किस रूप
में था, इस पर प्रकाश डालते हुए गुरुदत्त
के प्रिय मित्र अबरार अल्वी बताते हैं कि ‘मैं जब कॉलेज में पढ़ता था तब उन दिनों फिल्मों के संवाद
जिस तरह लिखे जाते थे,
उससे चिढ़ जाता था। लेखक अपनी भाषा को संवाद के रूप में सभी पात्रों पर थोपता
था। इसमें चरित्र-चित्रांकन में किसी प्रकार की कोई सूझ-बूझ नहीं झलकती थी। संवाद
अधिक नाटकीय और परिष्कृत होते थे। यह किताबी भाषा अधिक थी, न कि बोल-चाल की। मैं सोचता था कि
अगर कभी मुझे मौका मिलेगा तो मैं पात्रों के अनुरुप भाषा में संवाद लिखूंगा। वह
पात्र गंवार है या पढ़ा-लिखा या कोई महान व्यक्ति। किस प्रकार का व्यक्तित्व है वह? कहां से है- पंजाब, गुजरात या यू.पी.?...मैं मानता हूं कि ‘आर-पार’ फिल्म से हमने एक आधुनिक लेखन की शुरुआत
की। गुरुदत्त ने इसमें मुझे पूरा समर्थन दिया।”[3]
इस तरह के प्रयोग के कारण पात्र
अपनी कहानी अपनी भाषा में कहने लगे। इससे कहानी की प्रामाणिकता और रोचकता बढ़ गई।
गुरुदत्त एक ऐसे कलाकार थे जो किसी
भी स्तर पर अपने काम से समझौता नहीं करते थे। बहुत अधिक शराब पीने के बाद भी वह
आपा कभी नहीं खोते थे।[4] अपने इस
गुण के कारण उन्होंने कुछ ऐसी फिल्मों का निर्माण किया जो आज हिन्दी सिनेमा के लिए
नज़ीर का काम करती हैं। लेकिन कई अन्य कलाकारों की तरह गुरु दत्त की पहचान भी बहुत
देर से हुई।[5] हालांकि कलाकार और उसकी कला को लेकर
उसके जीते जी सम्मान न मिलने की बात केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य
देशों में भी है। जैसे मशहूर इटैलियन शिल्पकार ‘जियाकोमेटी’ के जीवन पर पुस्तक लिखने वाले ‘जॉन बर्गर’ नाम के व्यक्ति ने बहुत ही तल्ख
लहजे में यह लिखा है कि “हर कलाकार का काम उसकी मृत्यु के बाद बदल जाता है। अंततः
कोई याद नहीं करता कि उसका काम कैसा था, जब वह जीवित था। कभी पढ़ने को मिल
सकता है कि समकालीन व्यक्ति उसके बारे में क्या कहते थे। किन्तु महत्त्व और
व्याख्या के अंतर का प्रश्न मुख्यतः ऐतिहासिक विकास का है। लेकिन कलाकार की मृत्यु
विभाजक रेखा भी है।”[6]
जॉन वर्गर यह मानते हैं कि मौत से ही उस व्यक्ति के मूल्यांकन की शुरुआत होती
है। इस संदर्भ में इतना तो अवश्य है कि कुछ ऐसी ही दास्तान दुनिया में अन्यत्र भी
बहुत हैं। गुरुदत्त अपनी फिल्मों में भी यह दिखाने का प्रयास करते रहे हैं। इसके
उदाहरण के लिए ‘प्यासा’ को लिया सकता है।
प्रारंभिक दौर में सिनेमा के दो
केन्द्र थे, पहला मुंबई और दूसरा कोलकाता।
मुंबई में ‘प्रभात’ और ‘बाम्बे टाकीज’ और कोलकाता में बी.एन. सरकार और बरुआ की अगुवाई में ‘न्यू थिएटर’ दादा साहेब फाल्के की परंपरा को
आगे बढ़ाने का कार्य कर रहे थे। इसप्रकार की कई प्रतिभाएं थीं जो हिन्दी सिनेमा के
लिए काम कर रही थीं,
किन्तु उनमें दो ऐसे नाम थे जिन्होंने हिन्दी सिनेमा को औद्योगिक दर्जा दिलाने
और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे पहचान दिलाने का कार्य किया, वह नाम है गुरुदत्त और राजकपूर। ये
दोनों दो शैलियों और दृष्टियों के कलाकार थे। ‘राजकपूर का सिनेमा जहां इतालवी नवयथार्थवाद और चैप्लिन-टच
का था, वहीं बहुमुखी प्रतिभा के धनी
गुरुदत्त हिन्दी सिनेमा के उन कलाकारों में हैं जिन्होंने हिंदी सिनेमा की भूमिका
निर्मित करने का कार्य किया। इस अंतर को सुरेश सलिल और बेहतर तरीके से प्रस्तुत
करते हैं। उन्हीं के शब्दों में “गुरुदत्त का सिनेमा उनके अपने सोच और कला
संघर्षों का प्रतिफल था,
जबकि राजकपूर की सफलताओं में उनके साथ-साथ ख्वाजा अहमद अब्बास, शैलेन्द्र, शंकर-जयकिशन, राधू कर्माकर आदि की भी बराबर की
भूमिका थी। राजकपूर का सिनेमा चिंतन के स्तर पर और टीम के बिखराव के साथ-साथ जहां
समर्पण कर देता है- वहीं वहां तक पहुंचने के पहले ही गुरुदत्त के भीतर का कलाकार
स्वयं से विद्रोह का रास्ता चुनता है और ‘क्विट’ कर जाता है।” [7]
गुरुदत्त के अभिनय कैरियर की
शुरुआत बतौर निर्देशक 1951 में बनी ‘नवकेतन’ की फिल्म ‘बाजी’ से हुई। उस समय वह छब्बीस वर्ष के
थे। इस फिल्म के वह सहनिर्माता भी थे। इसके पहले 1952 में रिलीज हुई ‘जाल’ का निर्देशन कर चुके थे। 1954 में
बनी ‘आर-पार’ के निर्माण के साथ ही वह स्वतंत्र
फिल्म निर्माता बन गए और इसी के साथ उन्होंने ‘गुरुदत्त फिल्म्स प्रा.लि. का निर्माण किया। फिल्म ‘आर-पार’ का निर्माण इसी बैनर के तले हुआ
था। यहां से गुरुदत्त निर्माता-निर्देशक और अभिनेता तीनों एक साथ थे। उनकी सबसे
बड़ी पहचान उनकी कला थी। नसरीन मुन्नी कबीर ने उनके बारे में लिखा है कि 1970 के
दशक में केवल देश ही नहीं विदेशों में भी गुरुदत्त की फिल्में बहुत ज्यादा
लोकप्रिय थीं। उनकी तुलना तो सिर्फ उस रहस्यमय और प्रायः त्रासदी वाले किरदार से
ही की जा सकती है जिसकी भूमिका गुरुदत्त स्वयं रुपहले परदे पर निभाते थे। उनकी
फिल्मों में अनवरत पाई जाने वाली लयबद्धता के लाखों लोग दीवाने थे और आज भी हैं।
उस ज़माने में हजारों लोग उनको अपना प्रिय निर्माता/निर्देशक और हीरो मानते थे।
हवा में जोर से उड़ते परदे, शरद ऋतु में पत्तियों की अंतिम फड़फड़ाहट[8] की तरह हवा में उड़ते कागज, छाया और प्रकाश में रहस्यमय तरीके से एकांत में
चलता व्यक्ति- जैसा चित्रण अनगिनत सिने प्रेमियों को झकझोरता रहा है, जिनके लिए उनकी मृत्यु के तीस साल
बाद भी उनकी कला एक जीवित शक्ति से ज्यादा प्रभावित करती है।[9]
यहां उनके प्रारंभिक फिल्मों की चर्चा करना आवश्यक जान पड़ता है, जिससे गुरु दत्त द्वारा अल्पायु में किए श्रम और सिनेमा में उनके योगदान
को समझा जा सके।
गुरु दत्त के निर्देशन में पहली फिल्म बनी ‘बाजी’। इस फिल्म
की कहानी बलराज साहनी और गुरु दत्त ने मिलकर लिखी थी। यह देवानन्द की फिल्म
निर्माण कंपनी ‘नवकेतन’ की भी पहली
फिल्म थी। 1949 में बनी महबूब की फिल्म ‘अंदाज़’ से दो नए अभिनेता दिलीप कुमार और राज कपूर की पहचान अभिनेता के रूप में बन
चुकी थी। ये दोनों प्रेमाभिभूत नायकों के रूप में जाने जाते थे। देवानंद इनसे अलग
पहचान बनाना चाहते थे। फिल्म ‘बाजी’ की
कहानी उनकी सोच के अनुकूल थी। इस फिल्म का मुख्य किरदार मदन एक ऐसा जुआरी है जिसे यह
विश्वास है कि वह कभी हारता नहीं है। फिर भी अपनी बीमार बहन का इलाज कराने भर पैसा
उसके पास नहीं है। ऐसे समय में रजनी नाम की एक महिला डॉक्टर उसकी मदद करती है।
उसके बाद मदन को एक होटल में नौकरी मिल जाती है, जहां नीना
नाम की एक नर्तकी (गीता बाली) उसे प्यार करने लगती है। नीना के पिता इस संबंध के
खिलाफ थे। इसी बीच मदन को पता चलता है कि वही उस होटल के मालिक भी हैं। इसी बीच
नीना का खून हो जाता है और इल्जाम मदन के सर जाता है। यहां पुनः रजनी उसकी मदद
करती है और अपने इंस्पेक्टर दोस्त की मदद से उसे बचा लेती है। इंस्पेक्टर असली
हत्यारे की तलाश में जुट जाता है।
किंतु जिस फिल्म ने उन्हें बुलंदियों पर पहुंचाया, उसका नाम है- ‘प्यासा’। यह फिल्म कलात्मकता की दृष्टि से ही नहीं बल्कि व्यावसायिक दृष्टि से भी
सफल फिल्म थी। इसे अधिकांश विद्वान कविकथा मानते हैं।[10]
फिल्म के नायक विजय की कविताएं प्रकाशक नहीं छापते, बल्कि
उसको सलाह देते हैं कि तुम ‘इस तरह की या उस तरह की’ कविताएं लिखो। दूसरी तरफ उसी की कविता को गाकर कोठे की एक वेश्या ‘गुलाबो’ मशहूर हो गयी है। विजय किसी की नहीं सुनता
और वह अपनी समझ की कविता लिखता रहता है। उस कविता से उसे कुछ नहीं मिलता। उसके
जीवन को लेकर सबसे अधिक चिंता उसकी मां करती है और वह कुछ अच्छा करेगा, ऐसा विश्वास जताती है। लेकिन उसके अन्य तीन और गृहस्थ बेटे उसकी बात नहीं
मानते और बेरोजगारी के कारण विजय को घर से बाहर निकाल देते हैं। इतना ही नहीं कुछ
लोग साजिश कर उसे पागलखाने भिजवा देते हैं। इसी बीच गुलाबो से उसकी मुलाकात होती
है और वह विजय द्वारा लिखी गई कविता को छपवा देती है। काव्य-संग्रह इतनी सोहरत
पाता है कि दर-दर की ठोकरे खाने वाला एक पागल ‘कवि विजय’
बन जाता है। उसके संग्रह से रॉयल्टी पाने के लिए प्रकाशक के पास घर
के लोग पहुंच जाते हैं। वे विजय को मरा हुआ घोषित कर देते हैं और रॉयल्टी पर अपना
हक जताते हैं। दूसरी तरफ विजय अपने एक दोस्त की मदद से पागल खाने से बाहर निकलता
है और उस जलसे में पहुंचता है जहां उसकी वर्षी मनाई जा रही थी। उसे जिंदा देखकर
लोगों को बहुत ताज्जुब होता है।
‘प्यासा’ गुरु दत्त की बाकी फिल्मों की
तरह कसी हुई नहीं बल्कि एक अनगढ़ फिल्म है। इसीलिए इसके कुछ हिस्से बहुत कमजोर
लगते हैं, लेकिन दूसरे हिस्से दर्शक को इतना प्रभावित करते
हैं कि उसकी स्मृति हमेंशा के लिए मन में बस जाती है। कहा जाता है कि यह फिल्म
गुरुदत्त के जीवन से कम साहिर के जीवन से ज्यादा जुड़ी है। उनका कवि पूरी फिल्म पर
हावी है। विशेषत: वेश्याओं के बाजार वाले दृश्य में, जहां
कोठे की धुंधली आकृतियां, कोठे, उनके
बीच घूमता कवि और उसकी कविता आदि सभी आपस में घुलमिल जाते हैं और कविता शुद्ध चाक्षुष
बिंब बन जाती है। ऐसा ही प्रभाव उस अंतिम दृश्य का है जहां कवि विजय उसे
श्रद्धांजलि देने आयी भीड़ में शामिल होता है। सही तो यह है कि यह फिल्म गुरुदत्त
के जीवन पर आधरित हो या साहिर लुधियानवी के जीवन पर, उसकी
जड़ें आस-पास के जीवन में हैं। वह जीवन का एक यथार्थ है।
‘प्यासा’ फिल्म के नकारात्मक पहलुओं पर भी
यहां बात करना आवश्यक है। उनके आलोचकों में सुभाष के. झा का नाम सबसे पहले आता है।
फिल्म के आरंभिक दृश्य की आलोचना करते हुए वह लिखते हैं कि ‘सिनेमा
के आरंभ से ही यह एक सुविधाजनक बहाना रहा है कि मुख्य पात्र के सभी दुर्भाग्यों
(ज्यादातर स्वनिर्मित) के लिए एक अपरिभाषिक से शब्द ‘समाज’
को दोषी ठहरा दो।...गुरुदत्त फिल्म के आरंभ में ही एक बनावटी से
दृश्य द्वारा कवि की संवेदनशीलता दर्शाते हैं। इस दृश्य में विजय प्रकृति की गोद
में लेटा अपनी विशिष्ट कविता लयबद्ध रूप में (वास्तव में साहिर की) गा रहा है। हम
यह पहले से ही जान लेते हैं कि यह परम शांति शीघ्र ही भंग हो जाएगी और यह शांति
भंग होती है जब एक तितली पैरों के नीचे आकर कुचली जाती है; यह
एक बेहद फूहड़ प्रतीक है, यदि आप मुझसे पूछें।” [11]
लेकिन इसके ठीक विपरीत इकबाल मसूद ऐसा नहीं मानते। वह लिखते हैं कि “ ‘प्यासा’ अब तक देखी हुई सभी भारतीय फिल्मों में से
सबसे अधिक भारतीय और कभी न भुलाई जा सकने वाली फिल्म है। पहले कुछ शॉटों में ही,
गुरुदत्त सारी मिठास, इस शताब्दी के मध्य भाग के मध्यम वर्गीय
रोमांटिसिज्म की सारी टूटन उड़ेल देते हैं- गर्मियों के दिन हैं, भंवरे फूल पर टूट रहे हैं, कवि एक वृक्ष की छांह में
लेटा है और उष्ण वायु बह रही है। यह पूरा दृश्य साहिर की पंक्तियों से मुखर हो
उठता है: ये हुसते हुए फूल, ये महका हुआ गुलशन। ये रंग और
नूर में डूबी हुई राहें। ये फूल का रस पी के मचलते हुए भंवरे। मैं दूं भी तो क्या
दूं, तुम्हें ऐ शोख नजारों। ले दे के मेरे पास कुछ आंसू हैं
कुछ आहें।”[12] भारतीय जन मानस के लिए यह फिल्म
ज्यादा उचित है, क्योंकि वह सुभाष के. झा की तरह मूल्यांकन
करने के बजाय उसके भावों को आत्मसात करने की कोशिश करता है। गुरुदत्त की लगभग सभी
फिल्में इसी बात को ध्यान में रखकर बनी हैं। वह अपने निराले स्वभाव के कारण स्वयं
के साथ न्याय वेशक ना कर पाएं हों, फिल्म और जनता के साथ
बहुत ईमानदार व्यक्ति थे। वह आज भी इसी रूप में याद किए जाते हैं।
संपर्क - डॉ. रमाशंकर कुशवाहा, लेखक दिल्ली
विश्विद्यालय के अंतर्गत तदर्थ प्रवक्ता हैं,
दूरभाष –9868020092,
ईमेल पता – rsmoon.kushwaha@gmail.com
[1] व्यक्तित्व
के स्तर पर गुरुदत्त ‘हाइपर सेंसिटिव’ थे,
लगभग एक मनोवैज्ञानिक केस। उनका सिनेमा उनके व्यक्तित्व में निहित इस
संलक्षण की ही अभिव्यक्ति था। और ऐसा व्यक्ति और उसका कृतित्व सहज विश्लेष्य-सहज
परिभाष्य नहीं होता। यही वजह है कि गुरुदत्त के व्यक्तित्व और उनके सिनेमा पर अब तक
काफी कुछ लिखा जा चुकने के बावजूद यह सिलसिला थमा नहीं है।’- हंस:
फरवरी 2013, पृ. 124 ।
[4] उनके
नजदीकी मित्र अब्रार अल्वी के षब्दों में, ‘‘ गुरु
दत्त...कितना भी नशा कर लें नियंत्रण नहीं खोते थे।’’- सत्या सरन,
गुरु दत्त के साथ एक दशक, पृ. 15
[8] अरुन खोपकर
उनके प्रकृति के प्रयोग के बारे में लिखते हैं कि Romanticism takes a
special view of nature. The further man is from society, the nearer he is to
nature and to his own source and essence. Society and the machine destroy him.
This is the romantic axiom.—Arun Khopkar, Guru Dutt : A Tragedy in
Three Acts, pg.51
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