बुधवार, 27 अगस्त 2014

“विपरीतम” लिंग भेद के मध्य में स्थित आदिवासी की गाथा - रम्या बालन.के



विपरीतम

लिंग भेद के मध्य में स्थित आदिवासी की गाथा


     अब  राजू न स्त्री, न पुरुष , न हिन्दू, न मुसलमान, न ईसाई है। क्या समाज में जीने के लिए एक लिंग का  निर्धारण होना ज़रूरी है। क्या व्यक्ति को अपनी शारीरिक कमियों के साथ इस समाज में जीने का अधिकार नहीं है। क्या वास्तव में राजू की कमियां, कमियां मानी जाएगी। आस्तिकों को कहना चाहूंगी कि तुम्हारे ईश्वर तो सब कुछ सही करता हैं तो राजू को, तुम्हारे ईश्वर के कृतित्व को झुठलाकर अपमानित करते हुए किसे अपमानित कर रहे हो? विज्ञान में सब कुछ जाननेवालों....तुम विज्ञान के पूर्णत्व का दावा करते हो, तो राजू तुम्हारे लिए क्यों चुनौती है? यह सवाल विज्ञान का फायदा उठाकर राजू का धर्मान्तरण करने वालों से भी है। लिंग और उससे जुड़े हुए व्यवस्थापित नियमों को चुनौती देने के लिए राजू कई बार असमर्थ हो जाता है। सवालों की इस दुनिया में राजू का जवाब सुनने के लिए कोई तैयार नहीं है।
     
 आज के समय में पुस्तक का या तो विवादास्पद होना आवश्यक हो गया है या पुरस्कृत और संभवतः इन्हीं कारणों से ‘विपरीतम’ अथवा ‘विलोम’ केरल की बहुचर्चित किताबों में नहीं है। इसके बारे में केरल के अकादमिक बुद्धिजीवियों को भी शायद ही पता होगा। उण्णिकृष्णन आवला ने इस किताब में केरल के मलप्पुरम जिले में स्थित अरनाडन आदिवासी[1] कबीले के राजू के साथ हुए संवादों को प्रस्तुत किया है। ‘विपरीतम’ शीर्षक अपने आप में एक विरोधाभास हो सकता है। क्योंकि राजू जैसी स्थिति शायद ही किसी के साथ घटित हुई हो। राजू का यह व्यक्ति संघर्ष वर्ग संघर्ष के साथ-साथ उत्तर-औपनिवेशिक तमाम विमर्शों के आलोक में  देखा जा सकता है। इस किताब के एक प्रसंग से यह बात आपके सामने रखना चाहूंगी। राजू का यह वाक्य आपको चौका सकता है -
      “डाक्टर ने पूछा क्या बीमारी है ? राजू का उत्तर यही है कि दो महीने से मेरा मासिक धर्म नहीं हो रहा है।“ आगे स्कैनिंग से पता चलता है कि उसके शरीर में गर्भपात्र है। इसके कारण ही राजू को मासिक धर्म होता है। राजू जब अठारह साल का था तब से ही लिंग से खून निकलने लगा था। नाभि का दर्द और लिंग से खून निकलने की प्रक्रिया हर महीने होती रही है। नाभि में हर महीने हो रहे दर्द को सहना उसके बस में नहीं रह गया था, इसलिए वह अस्पताल गया। डॉक्टर का कहना  है कि उसे पूर्ण रूप से औरत बनना पड़ेगा। लेकिन त्रासदी यही है कि तीस साल तक पुरुष बनकर जीने वाला आदमी अचानक कैसे औरतपन को स्वीकृति दे। लेकिन यहां राजू वह सब करने के लिए तैयार है क्योंकि राजू के दृष्टि में इस समाज में जीवित रहने के लिए स्त्री या पुरुष होना ज़रूरी है। राजू यह जानता है कि उसकी कमियों के साथ यह समाज उसे कभी स्वीकृति नहीं देगा क्योंकि समाज ने राजू जैसे लोगों को कभी स्वीकृति नहीं प्रदान की। दुख की बात यह भी है कि हमारे स्त्री समाज ने भी इसे समझने का प्रयास नहीं किया है जबकि आज भी स्त्री अपनी अस्मिता के लिए लड़ रही है। जो सदियों से शोषण और पीड़ा को सहकर अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष कर रही है। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में स्री का इस तरह अनुकूलन किया गया कि वह भी राजू जैसे लोगों के दुख दर्द को समझने में असमर्थ रही है। यह उपभोक्तावादी समाज की नियति ही है कि मनुष्य दूसरों के दुख दर्द को समझने में असमर्थ हो जाता है। राजू के संघर्ष को समझने के लिए हमें समाज में लिंग, लिंग निर्धारण एवं  मिश्रित लिंग, समलैंगिक, हिजड़ा जैसे उपेक्षित वर्ग-समाज को समझना होगा। 
          सेक्सुअलिटी अर्थात लैंगिकता को लेकर हमारे समाज में कई गलत अवधारणाएँ एवं पूर्वाग्रह हैं। परंपरागत रूप से घटित एवं विधिवत रूप से मान्य को लेकर ही हमारी मानसिकता बनती है। शारीरिक आधार पर हमारी  अस्मिता तय की जाती है -  स्त्री या पुरुष । इस तरह के लिंग निर्धारण में हमारे व्यक्तित्व का रूपांतरण हो जाता है। एक तरह से हमारे समाज में सेक्स बनाया जाता है। जैसे कहा जाता है gender is a process not product[2]। हमारे समाज में लिंग के बारे में पहले से कुछ अवधारणाएं तय रही हैं। लेकिन आज इसमें बदलाव आ गया है। जिन्हें हिजड़ा कहा जाता है, ऐसे लोगों के शरीर में हारमोनों के कारण जन्म से लिंग में परिवर्तन हो जाता है। इससे वह पूरी तरह से न स्त्री होते है न पुरुष। ऐसे लोगों के लिंग में कभी कभी योनी और लिंग अपूर्ण रूप में उपस्थित होते है या कभी लिंग पूरी तरह विकसित नहीं होता है। इसप्रकार के लोग स्त्री और पुरुष का सम्मिश्र रूप होते हैं। लेस्बियन्स (स्त्री समलैंगिक) वे स्त्रियां हैं जो कभी हारमोन के बदलाव के कारण या अपने जीवन में हुई कुछ दुर्घटनाओं के कारण शारीरिक-मानसिक रुप से अन्यस्त्री से संबंध रखती हैं। गे (पुरुष समलैंगिक) वे पुरुष हैं जो अपने जीवन में स्त्री के स्थान पर किसी पुरुष साथी के प्रति दैहिक-मानसिक लगाव रखते हैं। ये विशिष्ट स्त्री-पुरुष पश्चिम में अपने अस्तित्व के संघर्ष में बहुत आगे निकल चुके हैं। किंतु हमारे पुरुषवादी समाज का एक सुव्यवस्थित लैंगिक बोध आज भी पत्थर की लकीर बना हुआ है। उस दायरे के अन्दर न आनेवाले लोगों को स्वीकृति देने के लिए हमारा समाज हिचकता है। लेकिन आजकल लिंगभेदों के कारण हाशिए पर ढकेल दिए गए लोगों ने संगठित होकर अपनी आवाज़ को आन्दोलन का रूप दिया है। LGBT (lesbian, gay, bisexual and transgender)[3]  आंदोलनकारी आज समाज में अपनी स्वीकृति और सम्मान के लिए संघर्ष कर रहे है । कई संस्थाओं द्वारा संगठित होकर ये लोग समाज में अपना वाजिब हक हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हम चाहे कितना भी आधुनिक या उत्तर-आधुनिक होने का दावा करें, लैंगिकता की इस विविधता को स्वीकृति अभी पूरी तरह हमारे भारतीय समाज में नहीं मिल पा रही है। इसके बावजूद भी राजनैतिक स्तर पर भी ये लोग अपने अस्मिता संघर्ष में बहुत आगे निकल रहे हैं। लेकिन यहां भी राजू अपनी अस्मिता के संघर्ष में अकेला खड़ा है क्योंकि मुख्यधारा की राजनीति में आने के लिए न वह शिक्षित है न उसके पास सामर्थ्य है। लेकिन दुनिया में राजू की तरह और भी लोग हैं। विदेश में भी इस तरह की कई घटनाएं घटित हो चुकी हैं। पुरुष गर्भधारण और मासिक धर्म को लेकर कई लोगों ने शोध भी किया है।                      
        कई देशों में पुरुषों का गर्भधारण कृत्रिम रूप से बहुत पहले से किया जाता रहा हैं। इसके कई उदाहरण और केस स्टडीज़ वहां हो चुके हैं। वीर्य सेचन से बच्चा पैदा करवाने में सफल एवं अग्रगामी रेबर्ट विन्सन का लंदन के संडे टाइम्स में कहना है कि पुरुषों के पेट में भ्रूण का प्रत्यारोपण होने से पुरुषों का गर्भधारण बिलकुल संभव है।[4] लेकिन राजू के जैसे स्वाभाविक रूप से यह प्रक्रिया किसी के साथ घटित नहीं हुई है। वैसे कई जगह कृत्रिम रूप से गर्भधारण करके पुरुषों ने भी बच्‍चों को जन्म दिया है। विदेशों में सेक्सुअलिटी को लेकर थोड़ा खुला वातावरण है, इसलिए वहां इसकी प्रतिक्रिया भी उतनी तीव्र नहीं है।  पुरुष के गर्भपात्र होना शायद यह पहली बार नहीं है। विदेशों में पुरुषों का गर्भपात्र होना एवं गर्भधारण करना एक लम्बे समय से चर्चा का विषय रहा है। वहां इस प्रवृत्ति के कारण शायद ही उन्हें कभी समाज से बहिष्कृत किया गया हो, बल्कि उन्होंने तो उत्सव मनाया होगा। भारत के परिप्रेक्ष्य में यदि अगर इस तरह की नैसर्गिक घटना  किसी उच्‍चकुल एवं धनी व्यक्ति के साथ हो जाए, तो वह अपने आर्थिक साधनों से उसे संभाल सकता है।  वह अपना या तो इलाज करवाएगा अन्यथा समाज से छिपने के लिए पर्याप्‍त सुविधाएं जुटा सकता है। तब भी भारत जैसे पुरुषवादी सत्ता की सामाजिक स्वीकृति उसके लिए राधा के प्रेम की तरह बनकर रह जाएगी।  अफ्रीका के गिनिया प्रदेश में पुरुष गर्भधारण से संबधित कुछ अजीब तरह के मत देखने को मिलते हैं, जिन्हें परिष्कृत अंधश्रद्धाओं का नाम दिया जा सकता है। राजू के संदर्भ में ये शतप्रतिशत लागू होती हैं। फिर भी पुरुष के मासिक धर्म एवं गर्भधारण को रिवाज़ या रूढ़ियों के नाम पर ही सही अफ्रीकी जनता ने स्वीकृति तो दी। गरीबी और कुपोषण, अंधश्रद्धा से ग्रसित इस समाज ने कम से कम इस तरह की सोच को बनाए रखा। वैसे उसमें भी कई तरह की समस्याओं की संभावना है। और गिनिया के समाज में पुरुष गर्भधारण को सम्मानित भी किया जाता है[5]। लेकिन वास्तविकता यह है कि पुरुष का गर्भधारण या स्त्री के जैसे रहना आदि वहां एक रूढ़ि है। स्त्री का मासिक धर्म होना या उसकी प्रसव पीड़ा आदि को यहां के पुरुष समाज बहुत बड़ी बात नहीं मानता। यहां स्त्रियां पुरुष जैसे बर्ताव करती हैं। स्त्री के अस्तित्व को मिटाकर पुरुष अपने में ही स्त्रीत्व को अपनाता है। इस प्रक्रिया में वह मासिक धर्म एवं प्रसव की प्रक्रिया से गुज़रते हैं, वैसे अनुभव की अभिलाषा करते हैं। स्त्री के मासिक धर्म के अनुकरण की प्रक्रिया पापुआ न्यू गिनिया में कई बार देखी गई है। यहां पुरुष मासिक धर्म के समय होने वाले रक्तपात की सादृश्यता के लिए लाल रंग का रस उत्पन्न करने वाली जड़ी बूटी को खाते हैं। इससे पुरुष के लिंग से लाल रंग बाहर निकलता है। कुपोषण के कारण इन्हें क्वाषियोरक्कर या अन्य कई तरह के पेट संबधी बीमारियों का शिकार होना पड़ता है। इसके कारण पुरुषों के पेट फूल जाते हैं। इस बीमारी को यहां प्रेग्नन्ट डीसीज़  कहते हैं। लेकिन यहां स्वाभाविक रूप से किसी भी पुरुष का मासिक धर्म नहीं हुआ है। इस समाज में पुरुष का मासिक धर्म होना आदि एक कल्पना है। उससे संबधित यहां कई तरह के रीति- रिवाज़ और अंधश्रद्धा है। गरीबी और अंधश्रद्धा से ग्रसित इस समाज में वह एक विडम्बना ही है। लेकिन राजू की स्थिति कल्पना की दुनिया से संबद्ध नहीं है। काश !! वह ऐसा होता तो उसे सह सब सहना नहीं होता।
राजू का संघर्ष सिर्फ अपनी शारीरिक विषमताओं से ही नहीं बल्कि अपने समाज, धर्म, राजनीति और औषधी विज्ञान से भी है। जैसे कि राजू ने कहा कि एक धार्मिक संगठन के लोगों ने उससे वायदा किया कि अगर वह धर्मान्तरण करेगा तो उसके ऑपरेशन का सारा खर्च वे उठायेंगे। ठीक वैसे ही जैसे कि हमारे राजनेता हमसे कहते आ रहे हैं कि हम अगर सत्ता में आयेंगे तो तुम्हारा विकास करेंगे। लेकिन राजू इन सारे झूठे वायदों को इसलिए सच मानना चाहता है कि शायद नाभि दर्द से उसे मुक्ति मिले। हर तरह से उपेक्षित यह आदमी अब और क्या अपेक्षा कर सकता है। यहां लोग राजू की धार्मिक अस्मिता को भी खत्म करने की कोशिश में है। धर्म एवं धर्मान्तरण हाशिए की निस्सहाय जनता के लिए एक बड़ा मुद्दा बनते आये हैं। कभी  कोई विकल्प शेष न होने के कारण लोग धर्मान्तरण करते हैं। राजू की भी स्थिति अलग नहीं है। राजू के लिए एक ही विकल्प है कि जो उसे इस चंगुल से बचाने के लिए तैयार होगा, वह उसी की अंगुली थाम ले। इसके अतिरिक्त राजू के पास कोई रास्ता भी नहीं बचा है। औषधी विज्ञान ने राजू के साथ जो अत्याचार किया, उस पर मलयालम की लेखिका एवं पेशे से डाक्टर मुमताज बेगम का कहना है कि  अगर उसकी मानसिकता पुरुष की है, उसका पालन-पोषण एवं सेक्स ऑफ हियरिंग भी पुरुष का है तो उसका गर्भपात्र निकाल देना चाहिए। उससे कोई खतरा नहीं होगा। बल्कि उसका लिंग विच्छेद करके उसे ईस्ट्रोजेन[6]  गोलियां और क्रीम वगैरह थमाने की क्या आवश्यकता है। समलैंगिक लोगों ने जिस तरह उस पर आक्रमण किये हैं क्या मेडिसिन सायन्स के लोग भी उसके साथ वही नहीं कर रहे है ? राजू के पास सवाल बहुत है लेकिन क्या आदिवासी सवाल पूछ सकते है ?[7]। गायत्री चक्रवर्ती स्पिवॉक ने बहुत पहले ही हमारे सामने यह सवाल रखा है कि कैन सबाल्टर्न स्पीक? सबाल्टर्न की श्रेणी में समाज के उन सारे तबकों के लोग आते हैं जो मुख्यधारा समाज से शोषित होते हैं या उससे तिरस्कृत कर दिये जाते हैं। 
        बरसों से उपेक्षित आदिवासी समाज में जन्म लेनेवाले राजू की आर्थिक स्थिति वही है जो एक आदिवासी की होती है। वह एक आदिवासी है। न पुरुष, न स्त्री। समाज के जो तीन आधार हैं  - जाति, लिंग, अर्थ। इन तीनों दृष्टि से राजू तिरस्कृत है। प्रकृति द्वारा उसके शरीर के साथ किए गए खिलवाड़ ने उसका जीना और मरना दूभर कर दिया है। किन्तु समाज, सामाजिक बन्धनों और धर्म ने इसके साथ हुए मज़ाक के वृत्त को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है? दूसरों की तकलीफ़ों पर चुटकुले  लेनेवाला यह समाज क्या राजू को छोड़ेगा। आदिवासी होने के कारण विकास के हर पहलू से वह दूर रहा है। भूख के कारण उसे जंगल छोड़कर शहर आना पड़ा। होटलों में नौकरी करते समय हर रात उभय लिंगी पुरुषों (bisexual) की कामासक्ति का शिकार होना पड़ा। समलैंगिक होना स्वाभाविक है लेकिन किसी के साथ ज़बरदस्ती करना अमानवीय है। भारत में समलैंगिकता (homosexual) की प्रवृत्ति पहले से रही है। लेकिन उस प्रवृत्ति के लिए होमोसेक्सुअल या समलैंगिक शब्द पाश्चात्य देशों से लिया गया है। भारत में इस मानसिकता के लोगों को अभी भी स्वीकृति नहीं मिली है। होमोसेक्सुअल या समलैंगिकता में पुरुष-पुरुष से और स्त्री-स्त्री से शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर परस्पर जुड़ी होती हैं। समलैंगिक स्त्री के लिए लेसबियन एवं समलैंगिक पुरुष के लिए गे शब्द का उपयोग पाशचात्य देशों में प्रचलित हो रहा है। आज कल भारत में इन शब्दों का प्रचलन हो रहा है।
यहां राजू के द्वारा लेखक यह मुद्दा भी उठाता है कि पुरुष भी किस तरह बलात्कार का शिकार होते हैं। उस वक्त मासिक धर्म तक नहीं हुआ था जबकि बलात्कार जैसी विकृत मानसिकता का शिकार होकर राजू का यौवन बर्बाद होता गया।  मर्द होने के कारण वह अपनी यह पीड़ा छुपाता है। कई परिवारों में लड़कियों की तरह छोटे लड़कों पर भी शारीरिक अत्याचार होते हैं। विकास के हर कदम के आगे मानव की लैंगिक वासनाओं का रूप भी विकृत होता जा रहा है। इन भयानक प्रवृत्तियों के उदाहरण हर रोज हमारी आंखों के सामने आते रहते हैं। कभी-कभी ये पीड़ित पुरुष-स्त्री हमारे परिचित होते हैं  या हम स्वयं भी उस पीड़ा के भागीदार बनते हैं।
           इस तरह जेंडर एवं सेक्सुआलिटी से संबधित पहले से बनाये गये सिद्धान्तों का विखण्डन हो रहा है। स्री और पुरुष से हटकर, अन्य प्रकार के लिंग भेद को स्वीकृति न देने वाला समाज आज-कल सेक्स या उससे संबधित सिद्धांत की तरफ बंद किए हुए अपने वातायन धीरे–धीरे से खोलने लगा है। मानव देह में जेंडर ब्लेन्डिंग[8] को लेकर कई साहित्य रचनाएं आई हैं और फ़िल्में भी बनाई गई हैं। उदाहरण के लिए मलयालम साहित्य में कमलादास की कृति चन्दन मरंगल(चन्दन वृक्ष) और उनकी कविता ‘The Dance of the Eunuchs’( हिजड़ों का नृत्य) को देखा जा सकता है। इनमें क्रमश: लेस्बियन एवं हिजडों का जीवन दिखाई देता है। हिन्दी साहित्य में बहुत कम मात्रा में इस तरह के मुद्दों को प्रस्तुत किया गया है जिनमें ‘तिरस्कृत’ और ‘फूलों का गुलदस्ता’ आदि कुछेक रचनाएं हैं। इसी तरह अंग्रेज़ी साहित्य में वर्जिनीया वुल्फ के ‘Orlando: a biography और शेक्सपियर के उपन्यासों में क्रोस ड्रेज़िंग[9] (प्रतिजातीय वस्त्रधारण) के उदाहरण मिलते हैं। संजारम, नवरसा, अर्धनारी, वेलकम टु सज्जनपुर, शबनम मौसी जैसी कुछ फिल्मों में  भी हाशिए के समाज की समस्याओं को प्रस्तुत किया गया है। परन्तु यहां भी राजू अकेला है क्योंकि न वह गे है कि उस समाज के लोग उसकी मदद करें, न वह हिजड़ा है ताकि वे लोग उसकी मदद करें। राजू को स्वयं यह नहीं पता है कि वह कहां ‘फिक्स’ हो सकता है क्योंकि डाक्टर लोग उसकी स्थिति को अस्पष्ट रखकर पहले से ही उसे धोखा दे रहे हैं । उसे ऐसे मोड़ पर छोड़ दिया गया है कि वह कहीं का नहीं रह गया है।
       राजू निरक्षर है। लेकिन निरक्षरता के दायरे तोड़कर वह अपने समाज की परिस्थितियों और कमियों से वाकिफ है। वह अपने समाज के लोगों से, जंगल से दूर इसलिए चला आया कि जब भी नाभि दर्द की कठिन परिस्थितियों में मदद के लिए उसने पुकार लगाई उसके समाज से किसी ने भी उसकी ओर मुड़कर देखा तक नहीं। समलैंगिक लोग जब-तब उसकी झोंपडी के सामने उसे दबोचने के लिए अपने पंजे उठाये रहते हैं और देर-सबेर उसे दबोचते भी है किंतु उसका कृंदन समाज के लोगों ने कभी नहीं सुना। उसके समाज से बहिष्कृत नीली  नामक लड़की ही उसकी मुश्किलों में उसके साथ रही। अपने समाज की हर कमी से राजू वाकिफ़ है - मदिरा पीना, झगड़ा, मार-पीट, अशिक्षा आदि के कारण ही यह समाज पिछड़ा हुआ है। इसलिए वह कहता है कि अपने समाज को सुधारना है। किंतु निरक्षर, मासूम राजू नहीं  जानता कि यह सिर्फ उन आदिवासियों की गलती नहीं है, बल्कि सरकार भी उसमें समान रूप से भागीदार है। एक रूपये का सस्ता चावल देकर वह आदिवासियों की गरीबी को मिटाना चाहती है। कुपोषण से जब आदिवासियों की नस्लें खत्म होती हैं तब भी स्वास्थ मंत्री के पास जवाब मौजूद होता है कि यह लोग अनहाईजीनिक हैं। किंतु क्या योरोपियों की देखादेखी टोयिलट और हैंडैवॉश का उपयोग करने वाला सोफिस्टिकेड समाज वह चावल खा सकता है। इस तरह का सस्ता चावल देकर  पिछड़े आदिवासी-दलित समाज को सरकार मौत की खाइयों में ही धकेल रही है। इस तरह राजू अपने शारीरिक परेशानियों में भी अपने समाज के पिछड़ेपन के बारे में सोचकर व्यथित होता है।
          आज राजू चालीस पार कर चुका है। विवाह को लेकर, अपने जीवन को लेकर सबकी तरह राजू ने भी कई सपनें बुने हैं। शायद सपने बुनते-बुनते उसके हाथ में सुई लगी कि अचानक ही खून बहने लगा। उसमें उसकी ज़िन्दगी और सपने भी बह गए। रचनाकार ने इस किताब में उस आदिवासी को भी दिखाया है जो अपनी गरीबी में भी खुशी के पलों को अपने मेहनत से भरने की कोशिश कर रहा है। मुख्यधारा के समाज का विकासवादी नारें राजू और उनके दोस्तों केलिए एक अद्भुत दुनिया से कम नहीं है। विकास के कई रूप समाज में आते-जाते हैं। सरकारें बदलती रहती हैं। लेकिन आदिवासी अभी भी वहीं हैं जहां सालों पहले थे। लेकिन सत्ता उनके पहले का जीवन भी उनसे छीनने में लगी है जैसे कि जंगल के उत्पादों  पर से आदिवासियों के अधिकार नकारना। आज  विस्थापन जैसी जटिल समस्याओं से आदिवासी गुज़र रहे हैं।
     राजू हमारे सामने कई सवाल खड़े करता है। समाज की बुराईयों का नंगा चित्र राजू हमारे सामने प्रस्तुत करता है। सभ्य समाज एक आदिवासी के शारीरिक बदलाव को स्वीकृति नहीं है। शिक्षित सुसंस्कृत समाज को राजू की दैहिक विकृति मज़ाक का हेतु लगती है। राजू तो सिर्फ शारीरिक रूप से विकृत है। लेकिन  समाज की आधी से अधिक आबादी मानसिक रूप से विकृत है। राजू अब जंगल जाने में  डरता है। अपने टूटे हुए घर में दो पैर के जानवर उसे कभी भी दबोच सकते हैं, इसलिए अंत में वह गली में ही वापस आता है। राजू अपने को यहीं सुरक्षित पाता है क्योंकि रात में जब कोई उसके कपड़े खींचे तो वह स्ट्रीट लाइट की ओर भाग सकता है या वह जब चिल्लायेगा तो उसके साथ आवाज़ देने  के लिए वहां उपेक्षित लोग हैं।[10]
        राजू अब अपने अस्तित्व के संघर्ष से अधिक अपने दर्द को दूर करने के लिए चिंतित है।  पुस्तक में लेखक ने सुरक्षा और एकांत का सवाल भी उठाया है। मासिक धर्म के समय अपने रक्त की निर्गति के लिए एक सुरक्षित जगह ढूंढने में भी राजू को बहुत तकलीफ़ सहनी पड़ती है। अब यह सर्वविदित सत्य है कि हमारे समाज की सुरक्षा व्यवस्था बहुत बिगड़ी हुई है। इस स्थिति में बेसहारे राजू जैसे लोगों का क्या कहना। समाज की बुरी नज़र एवं हरकत से बचने के लिए राजू हर कदम एक डर के साथ आगे बढ़ता है। अपने अकेलेपन एवं अपना मानसिक संघर्ष को वह किसी से साझा भी नहीं कर सकता। हर रात बलात्कार एवं उससे उत्पन्न मानसिक संघर्ष या ट्रोमा से छुटकारा पाने की कोशिश दूसरे आतंक का इंतजार सिद्ध होती है। अपनी सुरक्षा के लिए जब कोई उसका साथ नहीं देता है तो वह जानवर का सहारा लेता है। उसने दो कुत्तों को अपने संरक्षण के लिए रखा है। हमारे आदिम समाज के ये वफादार साथी ही यहां भी उसका साथ देते हैं।
          लेखक समाज एवं व्यक्ति को देखने की एक नई दृष्टि देता है। परंपरागत रूप से खड़े किए गये स्त्री-पुरुष खांचे को लांघकर उससे अलग एक रूप राजू को हमारे सामने रखा गया है। यह कोई उपन्यास नहीं है। इसमें कल्पना, बिम्ब या प्रतीक भी नहीं है। सिर्फ राजू और उसकी सच्चाई है। राजू के मानसिक एवं शारीरिक संघर्ष की अभिव्यक्ति देने के लिए यहां शब्द भी कम पड़ेंगें। पाश ने सही लिखा है कि ‘सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’। जिस दिन उसके लिंग से खून बहने लगा, उसी दिन उसके सपने मर गये। अब सपने देखना ही उसे खतरनाक लगने लगा है। मरे हुए सपनों को थैली में ढोकर राजू कभी हमारे भी आंगन में भीख मांगने आ सकता है। लिंग भेद के बीच में खड़े इस आदिवासी को लिंग से भी आगे एक इंसान मानने के लिए क्यों हमारी मानसिकता तैयार नहीं है? हमारे समाज की आधारभूत इकाई क्या हो सकती है? डॉ. अंबेडकर ने इसके बारे में चर्चा की है। कई चिंतकों ने वर्ग या जाति को समाज की मूल इकाई माना है। लेकिन इस किताब के द्वारा यह भी जाहिर होता है कि समाज का पैमान अभी भी आपका औरत या मर्द होना ही है। इस लिंग भेद के बीच में राजू थोड़ी सी मानवता का आग्रह कर रहा है किंतु तथाकथित उत्तरआधुनिक-प्रगतिशील समाज से आग्रह करना राजू की बेवकूफी ही सिद्ध हो रही है। लेकिन इस बेवकूफी ने ही उसे जिंदा रखा है। निस्सहायता एक व्यक्ति को दुर्बल बनाती है। इन सबके बावजूद भी राजू ने जीने की आस नहीं छोड़ी है। यह उसका आदिवासी गुण है,  हर कठिन परिस्थिति में आगे बढ़ने की प्रवृत्ति उसे अपने पूर्वजों से मिली है। आत्महत्या के बारे में सोचने के लिए विकट परिस्थितियों ने उसे प्रेरित किया है। लेकिन उसकी जिजीविषा ने उसे आगे जीवन का रास्ता दिखाया। मीडिया के लिए यह एक सनसनीखेज़ खबर हो सकती है। और हमारे जैसे शोधार्थियों के लिए अपने विषय में सम्मिलित करने का एक नया मुद्दा किंतु इसके आगे राजू क्या है? उसका संघर्ष क्या है? जिस मानसिकता और पीड़ा से वह गुजर रहा है, वह हमारे सोच से परे है। यह सब सोचने के लिए हम उत्तर-आधुनिकतावादियों के पास अब वक्त नहीं है।
          निस्सहाय व्यक्ति का शोषण सबल व्यक्ति या समाज बहुत आसानी से कर सकता है। यह निस्सहायता उसको इस मानसिकता तक लेकर जाती है कि शोषित होना भी उसकी आदत बन जाती है। जैसे राजू के संदर्भ में देखा जाए तो मासिक धर्म के पहले, बाद में और उस दर्द के समय भी निर्दयता से तथाकथित सभ्य समाज के लोग उसका बलात्कार करते हैं। वह निस्सहाय इसलिए है कि वह एक आदिवासी है ,गरीब है, अस्तित्व के संकट में है और अपने ही समाज से तिरस्कृत है। इन तमाम परिस्थितियों ने उसे निस्सहाय बनाया है। मदद के लिए राजू ने कई बार कइयों के सामने गुहार लगाई। लेकिन समाज के कान बंद हैं। हाशिए के समाज की पुकार इन कानों तक कभी नहीं पहुंचती है। उनके आर्तनादों को दबाने का षड्यंत्र यह लोग पहले ही रच लेते हैं। इसलिए यह रोदन बीच में ही सिसकियों में परिवर्तित हो जाता है। राजू के द्वारा केरल के अरनाडन  समाज की त्रासदियों को भी लेखक सामने लाता है।
अब राजू ने अपनी दवाइयां लेनी भी छोड़ दी क्योंकि उन ईस्ट्रोजन की दवाइयों से उसका स्तन विकसित हो रहा है। वह धीरे धीरे स्त्री होने की प्रक्रिया में है। वह दवाइयां इसलिए छोड़ता है क्योंकि जब स्तन विकसित नहीं थे, तब भी लोग उसे नोचने से बाज नहीं आये, तो अब स्तन भी आ गये तो उसका क्या हाल होगा। मासिक धर्म के समय सबसे दूर वह अपनी झोंपडी में आसरा लेता है, लेकिन वहां भी समाज विरोधियों और जंगली जानवरों से संघर्ष करके उसका दिन गुज़रता है। बाहर निकलने पर लोग उसका मज़ाक उड़ाते हैं। ऑपरेशन की तारीख भी चली गयी। अस्पताल जाने के लिए उसके साथ कोई नहीं देता है। ऑपरेशन को लेकर कई सारे सवाल उसके सामने हैं और इससे भी आगे अकेलापन। इन सबसे डरकर उसने ऑपरेशन भी छोड़ दिया है। अब वह सड़कों पर भीख मांगकर या पुराने प्लास्टिक की चीज़ें बेचकर अपना जीवन बिताता है।
      ‘विपरीतम’ में लेखक आदिवासी राजू से भी आगे एक साधारण आदमी के शारीरिक समस्या एवं उसके अकेलेपन को चित्रित करता है। शरीर में हो रहे बदलाव राजू को मानसिक और शारीरिक स्तर पर दुर्बल बना देते हैं। अंत में वह मरने के लिए भी रास्ता ढूंढने लगता है। लेकिन अब वह बिलकुल स्त्री और पुरुष के बीच की स्थिति में खड़ा हुआ है। अकेलापन उसे पूरी तरह स्त्री में बदलने के ऑपरेशन से भी रोक देता है। अब उसका कहना है कि मैंने सुना है स्त्रियों को एक उम्र के बाद मासिक धर्म नहीं होगा, ऐसा एक दिन मेरा भी रुकेगा [11] ऑपरेशन को जाना है या नहीं, मैं अब नहीं जानता।[12] मुझे एक छोटा सा घर चाहिए। मासिक धर्म के समय बिना किसी के डर के सो सकूं, ऐसा एक घर। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए[13]। राजू की यह पुकार कितने लोगों के कानों में सुनाई देगी। लेकिन सरकार और मुख्यधारा इस पुकार को सुनती नहीं। लोगों के मज़ाक से थककर राजू कहता है कि यहां के लोगों से बेहतर जंगल के जानवर हैं। कई बार मेरे पास से जंगली सुअर गुज़रे हैं लेकिन उन्होंने कभी  मुझे परेशान नहीं किया।  लोगों के मज़ाक और शोषण से मैं थक गया हूं। कितने दिन तक हंसिये के बल पर बलात्कार को रोकूं। मेरे हंसिये और कुत्तों से अब वह डरेंगे नहीं[14]
        अब  राजू न स्त्री, न पुरुष, न हिन्दू, न मुसलमान, न ईसाई है। क्या समाज में जीने के लिए एक लिंग का  निर्धारण होना ज़रूरी है। क्या व्यक्ति को अपनी शारीरिक कमियों के साथ इस समाज में जीने का अधिकार नहीं है। क्या वास्तव में राजू की कमियां, कमियां मानी जाएगी। आस्तिकों को कहना चाहूंगी कि तुम्हारे ईश्वर तो सब कुछ सही करते हैं तो राजू को, तुम्हारे ईश्वर के कृतित्व को झुठलाकर अपमानित करते हुए किसे अपमानित कर रहे हो? विज्ञान में सब कुछ जाननेवालों....तुम विज्ञान के पूर्णत्व का दावा करते हो, तो राजू तुम्हारे लिए क्यों चुनौती है? यह सवाल विज्ञान का फायदा उठाकर राजू का धर्मान्तरण करने वालों से भी है। लिंग और उससे जुड़े हुए व्यवस्थापित नियमों को चुनौती देने के लिए राजू कई बार असमर्थ हो जाता है। सवालों की इस दुनिया में राजू का जवाब सुनने के लिए कोई तैयार नहीं है। फ्रायड ने यह सही कहा है कि हमारे दिमाग में एक इंसान से मिलने पर पहला सवाल यही होता है कि वह आदमी है या औरत।[15] हम अपने निजी जीवन में यह अनुभव करते हैं कि बच्चा पैदा होने पर पहला सवाल यही होता है कि लड़का या लड़की? उसमें भी लड़का हो तो बेहतर। इस तरह के सवालों से बचना आसान नहीं है। राजू की नज़र में इस दुनिया में रहने के लिए लिंग निर्धारण ज़रूरी है। क्योंकि इस समाज ने राजू को इसी तरह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। जो लकीर के फकीर नहीं होते, वह पहले पिटते ही हैं क्योंकि सह समाज सिर्फ व्यवस्थापित लोगों के लिए या व्यवस्थापित नियमों पर चलने का ढ़ोंग दिखाने वाले गुलामों के लिए है। शायद इसी कारण से राजू अपने ही गांव में एक घर बनाना चाहता है। शायद इसीलिए वह बार-बार जंगल की तरफ भागता है। जिस समाज में वस्तु,जगह, भाषा जैसी जड़ चीजें भी लिंग पर आधारित हैं, ऐसी समाज में एक व्यवस्थित लिंग के बिना भला आदमी कैसे जी सकता है ? ऐसे ही तीखे सवाल हमारी तरफ छोड़कर राजू फिर से गली से गुज़र रहा है।            
         
मूल ग्रन्थ - विपरीतम, उण्णिकृष्णन आवला, डी.सी बुक्स, कोट्टयम, केरला

संपर्क : रम्या बालन.के, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद।
 ईमेल पता -  ramyamhere@gmail.com

 

[1] यह केरल की एक जनजाति है। मुख्य रूप से यह जनजाति मलप्पुरम जिले में ही दिखाई देती है ।
[2] Ekins, Richard and davk king (Edt.), Blending Genders,social aspect of cross dressing and sex changing, new York, 1996 , pg 14
[4] http://en.wikipedia.org/wiki/Male_pregnancy
[5]S.M.Channa, male pregnancy and the reduction of sexual opposition of new guinea highland society,  Sexuality and Culture, anna s.meigs cosmo publications, Delhi,1998, pg 96.
[6] Estriol Estrogens or Oestrogens, are a group of compounds named for their importance in both menstrual and estrous reproductive cycles. They are the primary female sex hormones (स्त्री शरीर के भीतर पुष्टीकरण करने वाला प्रमुख रासायनकि तत्व)
[7]उण्णिकृष्णन आवळा,  विपरीतम पृ. 11
[8] जेन्डर ब्लेन्डिंग अर्थात लिंग का मिश्रित रूप या लिंग बदलना आदि
[9] Cross-dressing refers to the act of wearing clothing and other accoutrements commonly associated with the opposite sex within a particular society.Cross-dressing has been used for purposes of disguise, comfort, and as a literary trope in modern times and throughout history.
[10] अण्णिकृष्णन आवला, विपरीतम, पृ 88

[12] वही, पृ. 82
[13] वही, पृ. 70
[14] विपरीतम उण्णिकृष्णन आवला पृ 66
[15] Richard ekins and david king, Blending genders, pg 13(Quoted from the essentials of psycho anyalsis )

मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून 2014) ISSN   2320 – 835X                                                                                                                                
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
 


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