बुधवार, 23 अप्रैल 2014
बेगारी और बंधुआ मजदूरी में खटते दलित-आदिवासी - प्रमोद मीणा
संपादकीय
एक समय था जब आदिवासी इलाकों में आदिवासियों की
स्वायत्त अर्थव्यवस्था हुआ करती थी। जल-जंगल-जमीन पर वहां के स्थानीय भूमिपुत्रों
का नियंत्रण होता था। आदिवासी समुदाय प्रकृति के विभिन्न संसाधनों पर सामूहिक
अधिकार रखता था और सामूहिक हित में उनका उपयोग करता था। वह मुद्रा जैसी किसी भी
अवधारणा से अपरिचित था और न ही उसे इसकी आवश्यकता थी। अतिरिक्त पूंजी निर्माण और
मुनाफाधर्मी सभ्यता से उसका दूर-दूर तक कोई रिश्ता न था। आदिवासी समाज में न कोई शासक
था और न शासित। कदाचित कार्लमार्क्स का आदिम साम्यवाद इन्हीं आदिवासियों पर सटीक
बैठता है। लेकिन आधुनिक संगठित शिक्षित पूंजीवादी सभ्यता के आगमन से आदिवासियों का
वह समतामूलक शोषणविहीन आदिम साम्यवाद ध्वस्त हो गया। जिस भूमि और जंगल से आदिवासी
समाज का नाभिनाल संबंध रहा था,
उस रिश्ते पर
बाहरी देशी-विदेशी दिकुओं की नजर लग गयी। इन्होंने अपने क्षुद्र
सामंती-साम्राज्यवादी स्वार्थों के लिए पहले पशुबल से और फिर वैध-अवैध तरीकों से
आदिवासियों को उनके पूर्वजों की भूमि से बेदखल कर दिया। जिन जंगलों से उनका पूरा
जीवनतंत्र संचालित होता था,
उन पर से उनके
अधिकारों को अमान्य घोषित कर दिया गया। असंगठित-अशिक्षित-ग्रामीण आदिवासी दिकुओं
के लूटतंत्र में अपने जीवन यापन के स्रोतों से वंचित हो अपने अस्तित्व की रक्षा के
लिए साहूकारी के ऋण जाल में उलझकर अपनी स्वतंत्रता-स्वायत्तता भी खोते गये। बेगारी
और बंधुआ मजदूरी का पाश उनके गले में डाल दिया गया जिससे स्वाधीन भारत में भी वे
मुक्त नहीं हो पाये हैं। आधुनिक शक्तिशाली केंद्रीय-प्रांतीय शासन व्यवस्थायें
आदिवासियों की मुक्ति के लिए बंधुआ श्रमिक प्रथाओं के विरूद्ध कानून बनाती हैं
किंतु ये सारे कानून मजबूत इच्छाशक्ति के अभाव में भौंथरे सिद्ध होते रहे हैं।
हरित क्रांति और औद्योगिक विकास की परियोजनाएं आदिवासियों के लिए ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ सिद्ध होती रही हैं। बलात् बेगार और बंधुआ
श्रमिक प्रथा को मध्ययुगीन पिछड़े सामंती समाज की बातें बताने वाले लोग आज की 21
वीं सदी में इंडिया शाइनिंग और भारत निर्माण के शोरगुल के बीच आदिवासियों पर बात
भी नहीं करना चाहते। लेकिन क्या हम भूमंडलीय युग की मुक्त अर्थव्यवस्था में
आदिवासी श्रम को भी खुली मंडी मुहैया करा पाये हैं? आदिवासियों
को ब्रिटिश शासन काल में गुलाम कुलियों के रूप में बेहतर जिंदगी का झूठा सपना
दिखाकर असम के चाय बागानों में खटने के लिए ले जाया जाता था। वहां उनसे जबरन बेगार
ली जाती, उन पर अमानुषिक अत्याचार किये जाते।
आज असम के चाय बागानों की जगह ले ली है - ईंट के भट्टों और बहुमंजिला भवन निर्माण
ने। आज भी आदिवासी कर्ज से मुक्ति के लिए प्रवासी मजदूर बनकर एक ठेकेदार से दूसरे
ठेकेदार के हाथों बिकने के लिए मजबूर हैं। अपने जंगल-जमीन से दूर शहरी नारकीय
जिंदगी में घिसटता यह आदिवासी कंकरीट के जंगलों में कहीं गुम हो जाने को अभिशप्त
है। उसकी पीड़ा वेदना को कहीं अभिव्यक्ति का मौका भी नहीं मिल पाता। ग्रामीण भारत
में सामंती शिकंजा कुछ कमजोर पड़ने से आज तो आदिवासी गांव से निकलकर कस्बों-शहरों
में जीवन यापन के लिए आने भी लगे हैं,
अन्यथा पहले तो
जमींदार की मर्जी के बिना गांव की सीमा से बाहर ये कदम भी नहीं रख पाता था। जो
आदिवासी अपने घर- जमीन से बेदखल हो शहर में प्रवासी श्रमिक बन रहे हैं, वे भी अशिक्षा और कौशलहीनता के कारण संगठित
क्षेत्र में रोजगार पाने में असफल रहते हैं। यही कारण है कि संगठित क्षेत्र के
वाम-दक्षिण श्रमिक संगठनों को भी इन आदिवासी प्रवासी मजदूरों की चिंता कम ही रहती
है। शहरी नागरिक समाज तो आज भी आदिवासियों को एक अजूबा मानता है जिनके जंगली नृत्य
को देखकर कुछ देर के लिए नागर सभ्यता के खाये-पीये अघाये लोगों का मनबहलाव हो सकता
है या फिर आदिवासियों को नक्सली बता उनकी हत्याओं पर देशभक्ति के बयान दिये जा
सकते हैं। सरकारी हलकों में आदिवासियों की भुखमरी, ऋणग्रस्तता
और बेकारी पर षड्यंत्रकारी चुप्पी छायी रहती है।
यद्यपि
भारतीय संविधान में किसी भी प्रकार की बेगारी और बंधुआ श्रम को प्रतिबंधित किया
गया है। बंधक श्रमिक रखना और उनसे श्रम कराना दंडनीय अपराध है। बंधुआ श्रम प्रथा
को बढ़ावा देने के लिए ऋण दिया जाना अवैध है। बंधुआ प्रथा के शिकार श्रमिकों की
मुक्ति और उनके आर्थिक-सामाजिक पुनर्वास की भी व्यवस्था की गयी है। किंतु
विषमतामूलक समाज और सत्ता व्यवस्था में किसी प्रकार का बदलाव लाये बिना मात्र
कानून बनाकर आदिवासियों को न्याय नहीं दिलाया जा सकता। आपात्काल के दौरान अपनी
सरकार की गिरती साख बचाने और सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने के लिए तत्कालीन
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अनेकों जनलुभावन कानून बनाये थे, घोषणाएं की थीं। बेगार प्रथा और बंधुआ श्रम
निषेध कानून भी इसीप्रकार का कानून था। महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘चोट्टी मुंडा और उसका तीर’ में दारोगा चोट्टी को इस एक्ट की जानकारी देता
है कि इस एक्ट के लागू हो जाने से बेगार प्रथा बंद हो गयी है, गैर कानूनी है यह अब। अब सब बेगार आजाद हैं, उनसे जबर्दस्ती बेगार नहीं करायी जा सकती।
मालिक-महाजन के पुराने दस्तावेज और कर्ज,
सब माफ हो गये
हैं। पुराने कर्ज की एवज में गिरवी रखे मकान और जमीन को लौटाना होगा आदि, आदि। किंतु चोट्टी जानता है कि कानून तो तब लागू
होगा जब करजदार बेगार मालिक-जमींदार पर नालिश करेगा जो असंभव ही है क्योंकि ‘‘महाराज कानून बनाया। कानून तो बना, किंतु कानून में रख दिया पत्थर, उससे कानून ठोकर खा जाता है। करजदार बेगार मालिक
के नाम पर नालिश करेगा? किस जोर पर महाराज?’’[1] इसप्रकार
जब तक सवर्णवादी मूल्य व्यवस्था और अविकसित उत्पादन पद्धति है तब तक बेगार प्रथा
रहेगी। वैसे जहां कृषि-औद्योगिक विकास हुआ है, वहां
भी जरूरी नहीं है कि समतामूलक समाज व्यवस्था स्थापित हो। आर्थिक विकास और सामाजिक
समता-असमता में कोई सीधा संबंध होता भी नहीं है। जब तक उत्पादक शक्तियों को
उत्पादन के साधनों और उत्पादों से वंचित रखा जायेगा तब तक विषमतामूलक कृषि संबंधों
पर आधारित सवर्णवादी शोषक व्यवस्था की चूलें नहीं हिल सकतीं। धान का कटोरा कहा
जाने वाला आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ आज आदिवासियों के असंतोष और हिंसा का शिकार
इसलिए है कि दिन-रात खेत में खून-पसीना बहाने पर भी आदिवासी को भरपेट धान नसीब
नहीं होता।
देश के
विभिन्न हिस्सों में किसी न किसी रूप में बेगार और बंधक श्रम की परंपराएं मिलती
हैं जो लोकतंत्र के नाम पर धब्बा है। रामशरण जोशी ने अपनी पुस्तक ‘आदमी,
बैल और सपने’ में ऐसी तीस से ज्यादा बेगार, बंधक और ऋण प्रथाओं का उल्लेख किया है - असम में
हलवा; आंध्रप्रदेश में वेट्टीचाकरी, जीतम,
पालीहानाम; बिहार में कमिया बंधुआ मज़दूर, हरवाइस,
बारमासिया; केरल में पनाम, बेगार
मिलपु, चकैया; गुजरात में हाली, हालीपात्र; कर्नाटक में जीथा; मध्यप्रदेश
में बंधुआ मज़दूर,
लगुआ, कबाड़ी,
हरवाही, माहीदारी,
हाली, कमिय;
पंजाब में संजी, सेरी;
जम्मू-कश्मीर में
जाना, मंझी, लझड़ी, इजहारी;
महाराष्ट्र में
वेट, बेगार; उड़ीसा में गोथी, हलया, हलिया,
नाग; राजस्थान में सागड़ी, हाली;
तमिलनाडु में
पडियाल, बेगार; उत्तरप्रदेश में बंधुआ मज़दूर, बंधक,
खुंडिर, मुंडिर,
मार, संजायत और बंगाल में नित मज़दूर। बेगार और बंधक
श्रम प्रथाओं के कोल्हू में पेरा जाना दलित और आदिवासी, दोनों की समान नियति रही है।
बेगार से
तात्पर्य बलात् कराये जाने वाले श्रम से है जिसकी एवज़ में बहुत कम मूल्य चुकाया
जाता है और बहुधा कुछ दिया भी नहीं जाता। इसका मूल संबंध सामंतयुगीन कृषकदास प्रथा
से है। इसकी जड़े राजा-रजवाड़ों की अत्याचारी शासन व्यवस्था तक चली गयी है।
सामंतवाद दलितों-आदिवासियों को अपना गुलाम मानता था। एक व्यक्ति के रूप में इनकी
कोई अस्मिता नहीं थी। मालिक-हुक्काम को जब मजदूरों की आवश्यकता पड़ती तब
दलित-आदिवासी रिआया को बेगार में झौंक दिया जाता। प्रायः भव्य इमारतों के निर्माण, तालाब की खुदाई, शिकार
अभियान आदि में इन्हें विभिन्न कार्यों में लगाया जाता। उत्सव और विवाह आदि विशेष
अवसरों पर भी ये लोग बिन पैसों के गुलाम थे। राजा-रजवाड़े इनसे अपनी पालकियां
ढुलवाने में अपनी शान समझते थे। इन बेगारों की मजदूरी प्रायः जीने भर का अनाज हुआ
करती थी।
रत्नकुमार
सांभरिया की कहानी ‘बदन दबना’ के हलकासिंह के पूर्वज गांव के मालिक-हुक्काम
रहे हैं। हल्कासिंह के दादा खब्बा ने हाथी से भी ऊंचे दरवाजे वाली हवेली बनवाई थी।
पुराने हुक्मरानों-ठिकानेदारों की हवेली होने के कारण गांववाले सिर झुकाए हवेली के
द्वार से आते-जाते थे। राजा-महाराजाओं-सामंतों की आन-बान-शान रही ये हवेलियां और
किले-महल सब बेगार में बनवाये गये हैं। पूछाराम का बाप रेवाराम इस हवेली की
चमक-दमक के नीचे दफन इसके दागदार इतिहास से हमें वाकिफ कराता है। इस हवेली की
बेगार में पूछाराम के पड़दादा को भी खपना पड़ा था। पाव भर चना और पाव भर गुड़ की
बेगार पर उन जैसे दलितों को हवेली निर्माण में बलात् जोता गया था। बड़े-बड़े महल
इसीप्रकार पाव भर गुड़ और पाव भर चने की बेगार पर बने हैं। दलितों-गरीबों से
बेगार-गुलामी करवाना ही सामंतों-रजवाड़ों की प्राणवायु थी। लेकिन जब देश आजाद हो
गया तो सदियों से चली आ रही सामंती बेगार-गुलामी की भी चूलें हिल गयीं। अतः इस
हवेली के निर्माता हलकासिंह को देश की आजादी का ऐसा सदमा लगा कि वे असमय ही काल
कवलित हो गये।
दया पवार
के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘अछूत’ में
लेखक दया पवार ने अपने गांव में मराठा उच्च जातियों द्वारा अछूतों से ली जाने वाली
सामूहिक बेगार का चित्रण किया है। लेखक दया पवार स्वयं अस्पृश्य समझी जाने वाली
महार जाति से है। उपन्यास दिखाता है कि इन महारों को स्वतंत्र मनुष्य ही नहीं समझा
गया है। महारों को गांव की मराठा उच्च जातियां चैबीसों घंटों का नौकर मानती आयी
हैं। उन्हें बेगार में किसिम-किसिम के काम करने होते हैं। देश आजाद हो जाने पर भी
लेखक के सजातीय बंधुओं को इस बेगार से मुक्ति नहीं मिली थी। दया पवार महारों
द्वारा की जाने वाली बेगार की फेहरिस्त गिना देते हैं - ‘‘गांव का सारा लगान तालुके में पहुंचाना, गांव में आये बड़े अधिकारियों के घोड़ों के साथ
दौड़ना, उनके जानवरों की देखभाल करना, उन्हें चारा-पानी देना, ढिढ़ोरा पीटना, गांव
में कोई मर जाये तो उस मौत की सूचना गांव-गांव पहुंचाना, मरे ढोर खींचना, लकडि़यां
फाड़ना, गांव के मेले में बाजा बजाना, दूल्हे का नगर द्वार में स्वागत करना आदि काम
महारों के हिस्से आते।’’[2] इतना
सब कुछ सहने के बाद भी महारों को नकद पैसा नहीं दिया जाता था। उन्हें बेगार में
मिलता था - ‘बलुत’।
बलुत एक प्रकार की भिक्षा होती थी। महार परिवार का एक सदस्य अन्य महार लोगों के
साथ मराठों के खेतों-खलिहानों पर बलुत मांगने जाता था। गांव के मराठा किसान अपनी
उपज का एक हिस्सा महारों को बलुत के रूप में दे देते थे। दया पवार लिखते हैं कि
उनके गांव में महार ऊंची जाति के मराठों की दया पर पलने वाले कुत्ते-बिल्ली ही थे।
बेगार प्रथा
का एक और रूप आगे चलकर पनपा। रियासतों और ब्रिटिश शासित भारत में सरकारी
कर्मचारियों-अधिकारियों के दौरों के समय भी दलित-आदिवासी परिवारों से डटकर काम
लिया जाता था। प्रायः प्रत्येक परिवार को एक सदस्य बेगार में देना पड़ता था।
हाकिमों के सामान ढोने से लेकर उनके जानवरों के लिए घास लाने तक हर प्रकार की
बेगार गरीब-गुरबों से ली जाती थी। कई बार आवश्यकता होने पर विदेशी सत्ता सवर्ण
आबादी को भी बेगार में जोत दिया करती थी किंतु ऐसा कम ही होता था। बेगारी का सबसे
क्रूर और आतंकी रूप सैन्य अभियानों के समय सामने आता था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन
काल में तो विदेशी साम्राज्यवाद के इन सैनिक दस्तों से रैयत की कमर ही टूट गयी थी।
आदिवासियों के साथ-साथ कृषक आबादी को भी सेना के गोरे साहबों की पालकियां ढोने का
अपमान सहना पड़ता था। रसद की ढुलाई,
ईंधन की जलाऊ
लकडि़यां काटकर लाना,
तंबू गाड़ना और
जंगल काटकर रास्ता बनाने जैसे अनेकों कार्य उनके जिम्मे होते थे। बेगारियों को इन
कामों के बदले कुछ नहीं दिया जाता था। वे वास्तव में बिन खरीदे गुलाम सदृश्य ही
थे। रैयत से सिर्फ शारीरिक बेगार ही नहीं ली जाती थी अपितु अन्य वस्तुएं जैसे
मुर्गी, अंडे, दूध-दही, बकरी,
जलाऊ लकड़ी और घास
आदि भी बिना उचित मुआवजा दिये मुफ़्त में ही वसूल ली जाती। रणेंद्र कृत ‘ग्लोबल
गांव के देवता’
उपन्यास में आजादी
के बाद भी आदिवासी हाट-बाजार में बाबू लोगों की रंगदारी कायम रहती है। कनारी
हाट-बाजार में दशकों से दिकू राजपूतों का वर्चस्व रहा था - ‘‘दशकों से बबुआनी के लोग उस हाट पर राज करते थे।
हाट में जिस भी बेहतरीन चीज पर नज़र पड़ जाती, वह
उनकी हो जाती, चाहे वह मुर्गी-खस्सी हो या
जवान-जहान बहू-बेटी।’’[3] बबुआनी
टोले की यह रंगदारी कनारी के नवयुवक संघ के हिंसक प्रतिरोध के बाद ही जैसे-तैसे उठ
पायी थी।
‘ग्लोबल गांव के देवता में बाबू
लोगों की जिस रंगदारी का चित्रण है,
उसका देश-काल
औपनिवेशिक युग की दुनिया तक फैला है। ‘चोट्टी मुंडा और उसका तीर’ में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत कचहरी के गुमाश्ते
द्वारा हाट-बाजार में मुंडाओं से बाजारी वसूली जाती है। दुखाई मुंडा अपनी मेहनत की
उपज मिर्चों को भी हाट में बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं है। गुमाश्ता उनकी
मिर्चियों पर भी अपना हक जताता है और बाजारी वसूलता है। बाजारी वसूलने तक तो दुखाई
उसे सहता रहता है किंतु जूते की ठोकर के साथ दी गई साला, नमकहराम,
कामचोर और मां की
गाली से आखिरकार दुखाई के अंदर दहकते अपमान और प्रतिशोध का ज्वालामुखी फूट पड़ता
है। वह गुमाश्ते का सिर बल्लम से छेद देता है। दुखाई गुमाश्ते के सिर काटने का
अंजाम जानता था लेकिन आदिवासी आखिरकार और कितना अपमान-बेइज्जति सह सकता था? किंतु आजादी के इतने सालों बाद भी बस्तर आदि के
पिछड़े आदिवासी क्षेत्रों में सरकारी बाबू लोगों और पुलिस के साहबों का यह लूट
तंत्र कायम है।
महाश्वेता
देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में सैलराकार की लड़ाई में मुंडा आदिवासी बीरसा
के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना के साथ संघर्ष करते हैं लेकिन आधुनिक हथियारों के
सामने मुंडाओं के परंपरागत आदिवासी हथियार भला कब तक टिक सकते थे? विद्रोहियों को सदैव के लिए कुचले रखने के लिए
अब रांची का अंग्रेजी कमिष्नर फाॅब्र्स मिशन के आदमी रेवरेंड हफमैन की सलाह पर
आदिवासी इलाकों में अतिरिक्त पुलिस बल तैनात कर देता है। रेवरेंड जानता था कि
मुंडा आदिवासी पुलिस की गोली से नहीं डरता लेकिन पुलिस और सेना की बेगार ही क्रमश:
आदिवासी प्रतिरोध की धार को कुंद कर सकती है। पुलिस की मौजूदगी को आदिवासी
विद्रोहियों के लिए ‘स्लो डैथ’ बताया गया है क्योंकि - ‘‘पुलिस रखने के और मतलब क्या हैं? पुलिस रहेगी, मिलिटरी
रहेगी, उनके घोड़े घास खाएंगे, उनके
लकड़ी, पानी, खाने
का खर्च उन पर लगेगा। मुंडा लोगों के लिए यह तिल-तिलकर मरना नहीं है, तो क्या है? ’’[4]
कुरमी गांव
का दुखाई मुंडा नाकाटा के राजा के गुमाश्ते की बेगार करता है। वह बाप-दादे के जमाने
से चली आ रही बेगार के जूड़े को अपने कंधों पर धो रहा है। वह गुमाश्ते की पालकी
उठाता है, उसे लेकर राजा की कचहरी जाता है।
सांझ को पालकी लेकर लौटते तक वह अन्य बेगारों के साथ भूखा-प्यासा वहीं बैठा रहता
है। गुमाश्ता कभी गुड़-पानी तक नहीं देता। इतने पर भी दुखिया मुंडा सब्र कर जाता
है क्योंकि जन्म से बेगार करते‘करते वह इसे ही अपनी नियति मान चुका
है। लेकिन बिना वजह गुमाश्ते की गालियां उसका आदिवासी खून सहन नहीं कर सकता था।
चोट्टी मुंडा की सहानुभूति पाकर वह उबल पड़ता है - ‘‘बेगार
बाप-दादे ने दी। मैं भी दूंगा। क्या बेगार नहीं देता हूं? देता हूं। लेकिन वह मुझे कहता है - कामचोर, हरामी,
गू खानेवाले।
क्यों कहता है?
बेगार एक सी देता
हूं।’’[5]
बेगार
प्रथा का एक घिनौना रूप आदिवासी स्त्रियों के देह शोषण से जुड़ा है। सरकारी दौरों
और पड़ाव के समय साहबों के मन बहलाव के लिए आदिवासी स्त्रियों को नचवाना और उनकी
नुमाइश करना आज भी पिछड़े इलाकों में बंद नहीं हुआ है। अंग्रेजी हुक्काम अपनी हवस
मिटाने के लिए रात्री में डाक बंगलों पर आदिवासी युवतियों को जबरन बुलाया करते थे।
विदेशी गोरे साहबों के काले अवतार भी पिछड़े क्षेत्रों में आदिवासी स्त्री की देह
से खेलना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। रणेंद्र के उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता’ में कोयलबीघा के दिकू जमींदार गोनू उर्फ गणेश्वर
सिंह राजपूत दलित-आदिवासी स्त्रियों को अपनी रखनियां बनाकर रखता है। इतना ही नहीं
वह तो अपनी रखनियों की जवान बेटियों की देह का भी इस्तेमाल सत्ता के विभिन्न
स्तंभों को भेंट चढ़ाने के लिए करता है - ‘‘लेकिन गोनुआ तो गोनुआ ही था। अपने
जालिम बाप की सच्ची औलाद। ऐसा भी नहीं था कि उसने बूढ़ा होते कंठी धारण कर ली थी।
रखनियों की जवान बेटियों का भी भरपूर इस्तेमाल करता। किसको थाना के बड़े बाबू के
साथ सटाना है, किसको बी.डी.ओ. साहब के लिए बचाना
है और कौन विधायकजी के नाइट हाल्ट में गोड़ दबाएगी? सबका
हिसाब-किताब बुढ़वा रखता था।’’[6]
उपन्यास में दलित
लोगों की इज्जत-आबरू बाबू लोगों के मन बहलाव का माध्यम मात्र बनकर रह गयी है। ये
दलित लोग घांसी बांस की कारीगरी से आजीविका चलाया करते थे लेकिन वन विभाग के
कानूनों ने बांस पर कब्जा करके इन दलितों को भूमिहीन मजदूर बना दिया। गरीबी के
कारण दीन-हीन बने दलितों की बहू-बेटी बबुआनी के नये उम्र के लौडों-लपाड़ों से
लेकर अधेड़ विधुरों तक के लिए ‘देह मर्दानगी आजमाइश का अखाड़ा’ हो गयी थी।
ऐसा भी
देखने-सुनने में आता है कि गांव का दबंग जमींदार अपनी ताकत का भय दिखाकर आदिवासी
या हरिजन परिवार को विवश कर देता है कि वे वैयक्तिक या सामूहिक स्तर पर उसके खेतों
या हवेली पर बेगार करें। कई बार पूरा का पूरा परिवार बेगारी की चक्की में पीस डाला
जाता था। बेगारी की कीमत सिर्फ कच्चा अनाज होती है जिससे बेगार अगले दिन काम पर आ
सके। नकद मजदूरी प्रायः नहीं दी जाती। अनेक अवसरों पर मजदूरी में अनाज तक नहीं
दिया जाता और मांगने पर मारपीट आम है। बेगारी का समय निर्धारित नहीं होता। एक-दो दिनों
से लेकर महीनों तक बेगार में खटाया जा सकता है।
बेगार
प्रथा की जड़ें भारतीय संस्कृति और मिट्टी में गहराई तक धंसी मिलती हैं। कई
सामाजिक-सांस्कृतिक त्यौहारों-उत्सवों के अवसरों पर दलित जातियों को सीधे भागीदारी
करने से रोका जाता है। उन्हें उच्च जातियों के इन सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों
में सेवाकर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। उदाहरणार्थ फाल्गुन पूर्णिमा को
मनाये जाने वाले पर्व होली के अवसर पर जो डांडा माद्य पूर्णिमा को रोपा जाता है, उस रोपण की बेगार के लिए उत्तर भारत के ग्रामीण
क्षेत्रों में दलित जातियों को बाध्य किया जाता है। कई बार होली के इस डांडा रोपण
से इंकार करने पर दलितों को उच्च जातियों का सामाजिक बहिष्कार और हिंसा तक झेलनी
पड़ती है। दया पवार के आत्मकथात्मक मराठी उपन्यास ‘अछूत’ में लेखक पांडवा त्यौहार के अवसर पर दलितों से
करायी जाने वाली इसीप्रकार की बेगार का जिक्र करता है। इस त्यौहार में मराठा जाति
के वीरों की झलकियां जुलूस के रूप में गाजे-बाजे के साथ निकाली जाती है। जुलूस
गांव के हनुमान मंदिर के सामने आकर एकत्रित हो जाता है। दूसरी ओर गांव के दलित
महार मराठों के इस पर्व में हिस्सेदारी के लिए मन मसोस कर रह जाते हैं। इतना ही
नहीं, उन्हें तो पांडवा के अवसर पर मुफ्त
में बाजा बजाने की बेगार भी करनी होती है। इसप्रकार महारों की स्थिति इस त्यौहार
के अवसर पर सिर्फ तमाशबीन की बनकर रह जाती है। जहां महार लड़ाकों को दंगल में शरीक
होने से रोका जाता है,
वहीं महार मंडली
का बजनिया समूह बाजा बजाने की बेगार का बोझ अपने दिल पर झेलता है।
बेगार
प्रथा हो या बंधुआ श्रम प्रथा,
ये दोनों ही वर्ण
जाति आधारित मनुवादी भारतीय समाज की चारित्रिक विशेषताएं हैं। चतुर्वर्ण व्यवस्था
में विभाजित समाज में शूद्र को संपत्ति अर्जित करने और व्यवसाय चयन की स्वतंत्रता
न थी। उनके लिए उच्च वर्णों की सेवा करके उन्हें प्रसन्न रखना ही धर्म द्वारा तय
नियति थी। अतः अगर शासक वर्ग बेगार और बंधुआ श्रम की प्रथा को जीवित रखे हुये हैं
तो उनकी अंतःचेतना में यह तथाकथित महान भारतीय वर्णाश्रम परंपरा ही काम कर रही है।
चूंकि बेगार प्रथा में श्रम की उपलब्धता अनिश्चितता रहती है अतः स्थायी रूप से
आदिवासी-दलित को गुलाम रखकर उनके श्रम से कम लागत पर अतिरिक्त उत्पादन की सतत्
आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए बंधुआ श्रम प्रथा को विकसित किया गया जिसे
अंग्रेजों का भी खुला समर्थन प्राप्त था - ‘‘बेगार के साथ-साथ अंग्रेजों ने
बंधुआ श्रम को भी पनपाया। मूलतः बेगार प्रथा के अंतर्गत अतिरिक्त उत्पादन की
निरंतरता एवं स्थिरता तथा उसके दीर्घकालीन शोषण के अवसर अनिश्चित व सीमित रहते हैं, अतः ऋण बंधुआ श्रम प्रथा को शोषण के वैकल्पिक माध्यम
के रूप में बनाए रखना आवश्यक समझा गया।’’[7]
बेगार
प्रथा और बंधक श्रम प्रथा नाभीनालबद्ध मिलती है। बेगार प्रथा का ही जब
सांस्थानीकरण हो जाता है,
तो बंधक श्रम
प्रथा का उदय होता है। बंधक श्रम प्रथा के मूल में प्रायः ऋणग्रस्तता की समस्या
काम करती है लेकिन बंधक श्रम प्रथा के एक रूप स्वैच्छिक बंधक प्रथा के अंतर्गत
बंधक पीढ़ी दर पीढ़ी जमींदार,
पुरोहित आदि के
यहां सेवा कर्म करता रहता है। इन्होंने और इनके माता-पिता या दादा-दादी ने कोई
कर्ज भी नहीं लिया होता लेकिन सवर्णवादी संस्कृति और संस्थायें दलित-आदिवासी में
दासता को ही अपना सौभाग्य मानने के संस्कार विकसित कर देती हैं। दासता की यह
विरासत पैतृक सौगात के रूप में अवचेतन पर इस कदर हावी रहती है कि बंधक श्रमिक
मालिक के कल्याण में ही अपना हित देखने लगते हैं। इस प्रथा का प्रचलन अत्यंत
पिछड़े क्षेत्रों में आज भी मिलता है जहां सामंती उत्पादन व्यवस्था बहुत सुदृढ़
है। मजदूरी का कोई निश्चित ठिकाना इस प्रथा में नहीं होता। कई बार संपूर्ण परिवार
स्वैच्छिक बंधुआ मजदूरी करते मिलता है और कई मामलों में परिवार का एक सदस्य ही
इसमें खप रहा होता है।
हिंदी का
कालजयी उपन्यास ‘बलचनमा’ चैथे दशक के आसपास मिथिला के दरभंगा जिले के
जमींदारी समाज में गन्ने के मानिंद पेरे जाते दलितों की त्रासदी को बयां करता है।
बहिया, खवास और बनिहार के रूपों में यहां
के दलित बंधुआ गुलामों की जिंदगी खट रहे थे। स्थिति में आज भी कोई खास बदलाव नहीं
आया है। इन दलितों के पैर जाति के दलदल में धंसे हुये हैं और गले में सूदखोरी का
फंदा है। ब्राह्मणवादी सामंती व्यवस्था में बलचनमा जैसे दलित पीढ़ी दर पीढ़ी मालिक
लोगों की बहियागिरी और खवासी करते आये हैं। बहिया और खवास की गिनती इंसानों में
नहीं की जाती। वे नीच जात के होने के कारण मालिकों के बेखरीदे गुलाम होते हैं।
मालिक लोगों के लिए उनका स्थान उस जिनावर के दर्जे का था जो बेचा-खरीदा जा सकता है
या दहेज-भात में दिया भी जा सकता है। बलचनमा के परदादा के परदादा को भी उनके
जमींदार मालिक ने अपने दामाद को दहेज के साथ दे दिया था। तब से लेकर बलचनमा के रूप
में यह सातवीं पीढ़ी है जो दरभंगा के इन मालिक लोगों के चरणों तले कुचली जा रही
है। बहिया का काम जहां अमूनन तय होता है,
वहीं खवास मालिक
लोगों का निजी सेवक सदृश्य होता है जिसके न काम की सीमा है और न काम के घंटों की।
मजदूरी के बदले जमींदार इन्हें नकद कुछ नहीं देता, बस
इतना मोटा अनाज और बासी-झूठा खाना फैंक देता है कि ये उसकी गुलामी के लिए जीवित
रहे। उपन्यास का कथावाचक बलचनमा अपनी दलित जाति की नियति में लिखी बाबू लोगों की
गुलामी करने को विवश है। पेट की भूख और जाति की लीक पर चलकर वह उसी जमींदार की
भैंस चरवाही को बाध्य है जिसने चोरी से एक कच्चा आम तोड़कर खाने के अपराध में उसके
बाप को खंभे से बंधवा पीट-पीटकर मरवा दिया था। बहियागिरी का दंश नयी पीढ़ी के
बलचनमा को चाहे सालने लगा था लेकिन उसकी तो न जाने कितनी पुष्तें राजी-खुशी या जोर
जबर्दस्ती इसी बहियागिरी में मर-खप गयी थी।
गुलामी
झेलते-झेलते दलितों की पूरी चेतना ही बधिया जाती है। भोजन के नाम पर मिलने वाली
झूठन और बासी खाने को भी दलित मालिक लोगों का आशीष मानते आये हैं। कर्ज और गरीबी
के बोझ तले दबे दलितों के पास इसके अलावा कोई चारा ही क्या था कि वे पेट की खातिर
मालिक लोगों की गुलामी न करते?
अपने बाप ललुआ की
मौत के बाद बलचनमा घर का अकेला पुरूष बचा था। वह था तो अभी बच्चा ही, लेकिन उसकी दादी और मां छोटी मलिकाइन के हाथ-पैर
जोड़कर उसे भैंस चरवाही पर लगवा देती है ताकि कम से कम उसे भूखा तो न मरना पड़े।
लेकिन इस भैंस चरवाही और बहियागिरी के लिए भी दादी को मलिकाइन के सामने
गिड़गिड़ाकर खुशामद करनी पड़ती है,
इस गुलामी की
जिंदगी को मालिक लोगों का अहसान तक मानती हैं वे - ‘‘क्या
कमी है मलिकाइन आप लोगों के यहां?
आप ही का तो आसरा
है, नहीं तो हम गरीब जनमते ही बच्चों को
नोन न चटा दें! अरे,
अपना झूठन खिलाकर, अपना फरन-फारन पहनाकर आप ही तो हमारा पर्तपाल
करती हैं ... ’’[8] वास्तव
में जमींदारी समाज में दलितों को भैतिक स्तर पर ही गुलाम नहीं बनाया जाता अपितु
सांस्कृतिक और मानसिक स्तर पर भी उन्हें गुलामगिरी का पाठ निरंतर पढ़ाया जाता है।
बहिया और खवास को अपने श्रम के बदले में दलित होने का अपमानजनक अहसास रोज झूठन के
रूप में उदरस्थ करना होता है। और इस पर भी त्रासदी यह कि उनकी गुलाम मानसिकता
मालिक की विरूदावली गाने से बाज नहीं आती - ‘‘आज से आप ही इस निभागे की मां-बाप
हुई गिरहथनी! टापका झूठन खाकर इसका भाग चमकेगा ...’’[9] बालक
बलचनमा को रात-दिन की हाड़तोड़ मेहनता का फल मिलता था - मालिक लोगों की झूठी छूटी
झूठन और बासी भात आदि। मालिकन जब बहुत खुश हुई तो उसकी कृपा सूखे और बासी पकवान, सड़े आम,
फटे दूध, बदबूदार फेना, कड़वी
तरकारी और खट्टे दही के रूप में होती। दही आदि अच्छा खाना बलचनता आदि दलितों के
लिए वर्जित था। दही उसे तब ही दिया जाता ज बवह खट्टा हो चुका होता, उसमें से बदबू आने लगती और वह किसी के काम का
नहीं रहता। झूठन की यह मजदूरी जहां मालिक लोगों के लिए फायदे का सौदा होती थी, यह दलित बहिया और खवास को उसकी औकात बताते रहने
का माध्यम भी थी,
उसके स्वाभिमान को
कुचलने का सांस्कृतिक प्रतीक थी। उपन्यास में एक प्रसंग है जहां बलचनमा को मात्र
इसलिए मलिकाइन खाना नहीं देती क्योंकि उसने खट्टे और दुर्गंध वाले दही को खाने से
इंकार कर दिया था।
दलित बहिया
और खवास की नस-नस में गुलामी और मातहती का जहरा भरने के लिए जमींदार लोग जब तब
अपनी खुशामद कराने से भी बाज नहीं आते। बलचनमा को दैहिक श्रम से कभी कोई शिकायत
नहीं है, वह मेहनत की कमाई खाने वाला नवयुवक
है। लेकिन उसे इस बात से चिढ़ है कि अपनी मेहनत की खाने पर भी दलित लोगों को कुत्ते
की तरह जमींदारों के आगे पीछे दुम हिलानी पड़ती है। वह कहता भी है कि ‘‘काम उतना नहीं जितनी की खुशामद। हमारे मुंह से
दिन में पचास बार मालिक-मालिक,
सरकार-सरकार, हुजूर-हुजूर सुनने में जाने बाबू लोगों को क्या
रस आता। और मां का तो पूछो ही नहीं,
वह तो बात-बात में
रट लगाये रहती मलिकाइन - मलिकाइन,
सरकार - सरकार।
कलकतिया, मापदह, किसुनभोग और बंबई की एक फांक के लिए वह घंटों
मलिकाइन के पैर दबाती रहती।’’[10] दलितों
से सांस्कृतिक गुलामी करवाने वाली यह जमींदारी सभ्यता कांग्रेसी बाना ओढ़ लेने पर
भी अपने खवासों और बहियाओं से जी हजूरी करवाने में बाज नहीं आती है।
बंधुआ
गुलामी के जूड़े का अहसास दलितों को हमेंशा होता रहता क्योंकि मालिक लोग बड़ी ‘लपटौनी’
करवाते हैं।
नागार्जुन बलचनमा के मार्फत इस ‘लपटौनी’ मतलब बताते हैं - ‘‘लपटौनी का मतलब समझे भैया? नहीं समझा होगा तुमने। अरे भाई एक होता है काम
लेना - चट से कहा पट से काम हो गया। दूसरी होती है घिचिर-पिचिर। घिचिर-पिचिर का
मतलब होता है खुद भी उलझन में पड़े रहना और दूसरे को भी उलझाए रखना। न अपने बखत की
कदर, न दूसरे के।’’[11] देहात
के बड़े कहलाने वाले लोगों को इसी बात में संतुष्टि मिलती है कि उनके बहिया और
खवास काम में चैबीसों घंटों खटते रहें। काम चाहे कुछ भी हो लेकिन जमींदार उन्हें
खाली नहीं बैठने देगा। बलचनमा को भी छोटी मलिकाइन की बहियागिरी में सांस लेने तक
की फुर्सत नहीं होती है। भैंस के चरवाहे दुपहर का समय खूब आराम से बिताते थे लेकिन
बलचनमा सिर्फ चरवाहा न था,
वह तो बहिया था।
और बहिया की हड्डी-हड्डी,
नस-नस, रोएं-रोएं पर मालिक का मौरूसी हक होता है।
पोसने-पालने, सड़ाने-गलाने और मारने-पीटने का भी
उन्हें हक था। बलचनमा को कलेवे में जो बासी भात और मड़आ की रोटी मिलती, वह भी वह तसल्ली से खा नहीं पाता क्योंकि
मलिकाइन और उसकी ख्वासिन एक के बाद एक हुकुमों के गोले दागती रहतीं - ‘‘बलचनमा,
जा दौड़, तालाब की मछलियां नाले से निकलकर भाग रही हैं; बलचनमा,
कलमबाग में वह देख
कोई आम तोड़ रहा है;
बलचनमा, अरे वह किसकी गाय मूंग चर रही है ... लगता था कि
एक ही बलचनमा बीस शरीरधारी है और एक ही समय में बाखूबी बीस काम कर सकता है।’’[12] मालिक
लोगों को बलचनमा जैसे बहियाओं का रात में सोना भी सहन न होता था। जब-तब जगने पर
रात में उसे कान पकड़कर उठा देते और अनावश्यक रूप से परेशान करने के लिए भैंस आदि
को घूर देने के लिए ही कह दिया जाता।
एक तो
बलचनमा को अपने खेलने-कूदने के दिनों में ही बहिया बनकर जमींदार की भैंस चरवाही
करनी पड़ती है और ऊपर से उसे मजदूरी में झूठन खानी पड़ती है, तिसपर रोज गालियों से उसकी आरती उतारी जाती है।
एक बालक का कोमल मन इन गालियों को सुनकर पहले पहल तिलमिला जाता है लेकिन दलित जीवन
की भयावहता का यह क ख ग घ उसे बिना विरोध के सीखना ही था। जमींदारी सभ्यता ने
गुलामगिरी का यह पाठ उसके अंतस्तल की कोरी स्लेट पर गालियों की खडि़या से लिखा है
- ‘‘यह गालियां सुनकर पहले दो-चार दिन
तो मुझे थोड़ी-बहुत ग्लानी हुई पर बाद में कान खूब पक्के हो गए। गदहा, सूअर,
कुत्ता, उल्लू ... क्या नहीं कहती थी वह मुझे! उसका
गुस्सा चुपचाप सह जाना मुझे सीखना पड़ा।’’[13] बंधुआ
मजदूर में मालिक के दमन-उत्पीड़न के खिलाफ पनपने वाले विद्रोह के अंकुर को रौंदने
के उपक्रम में उनका और उनकी बहू-बेटियों का दैहिक शोषण भी आम है। दलित बालकों का
यौन शोषण भी इस बंधुआ प्रथा का काला अध्याय है लेकिन नारीवादी विमर्षकार इस मुद्दे
पर ज्यादा नहीं बोलते। छोटी मलिकाइन की ख्वासिन जब भी मौका लगता अकेला पाकर बलचनमा
पर बिल्ली की मानिक झपट पड़ती। मालिक-मलिकाइन से सच्ची-झूठी चुगली खाने का डर
दिखाकर यह ख्वासिन बालक बलचनमा का यौन शोषण करने से भी बाज नहीं आती। लेकिन जब
बलचनमा ख्वासिन की गंदगी की पिटारी में बंद होने से इंकार कर देता है तो टेंगरा
मछली पकड़ने की शिकायत कर वह उसे मलिकाइन से खूब धुनवाती है।
गरीब दलित
बंधुआ मजदूर के पास दौलत के नाम पर होते हैं कमाने-खाने वाले दो हाथ और
मां-बहिन-बेटी की इज्जत-आबरू। लेकिन पराये श्रम पर पलने वाली जमींदारी सभ्यता की
निगाह अपने बहिया-खवास की बहिन-बेटी पर डोलती रहती है। जब तक जमींदारों के निठल्ले
साहबजादे दलितों की इज्जत-आबरू को कुत्तों की जैसे नौंच न लें, उन्हें चैन नहीं पड़ता। यह जमींदारी दुराचार
दलित की इज्जत को पैरों तले की जूती समझता है और उसे रौंदने में ही उनका जातीय
पौरूषीय अहंकार संतुष्ट होता है। बलचनमा के मालिक छोटे जमींदार की पापी आंखें भी
बलचनमा की जवान होती बहिन रेबनी के ऊपर लगी थी। बलचनमा की बहिन रेबनी जब इस
बहेलिया द्वारा फैंके पैसे के जाल में नहीं फंसती तो यह राक्षस उसकी कलाई पकड़ने
और जबरन जमीन पर गिरा उस पर काबू करने की नीचता से भी बाज नहीं आता। यद्यपि यह
लड़ाई कुत्ते-बिल्ली की थी किंतु रेबनी किसी प्रकार उसके चंगुल से बच निकलती है। इसप्रकार
के जमींदार मालिक अपने गुलामों की बहिन-बेटी को बिस्तर पर लाने के लिए सारी
मर्यादाओं को ताक पर रख देते हैं। छोटे मालिक भी रेबनी की मां के साथ मारपीट करके
और रेबनी के भाई बलचनमा पर चोरी का झूठा आरोप लगाकर उन पर रेबनी को भेजने का दबाव
डालते हैं। लेकिन बलचनमा और उसकी मां को अपनी आबरू प्राणों से भी ज्यादा प्यारी
थी।
जमींदार
लोग अपने बहिया-खवास को दासता के चक्रव्यूह में फंसाये रखने के लिए उन्हें जरूरत
पड़ने पर पहले तो कर्ज देकर अहसान का बोझ उनके गले बांध देते हैं और फिर बदले में
सादे कागज पर अंगूठे की टीप ले ब्याज पर ब्याज लगाते जाते हैं। बेचारे कर्जदार सूद
देते-देते थक जाते हैं लेकिन मूल ज्यों का त्यों ही रहता है। बलचनमा का परिवार भी
ऐसा ही कर्जदार परिवार था। उसके बाप के मरने पर मंझले मालिक से उसकी मां ने बारह
रूपये कर्ज लिया था जो कभी चुकना ही न था। मालिक लोगों की हमेंशा यही कोशिश रही है
कि दलितों के पास अगर थोड़ी-बहुत जमीन है,
तो किसी न किसी
तरह उसे छीन कर अपने कब्जे में कर लिया जाये ताकि ये लोग कभी आत्मनिर्भर न बन
सकें। मंझले बाबू भी चैकोर कमलबाग के नाम पर दबाव डालकर बलचनमा के बाप की मेहनत की
निशानी उनके दो कट्ठा खेत को जबरन हथिया लेते हैं। उन्होंने बदले में बटाई के तौर
पर धान का खेत देने की जो बात की थी,
उस पर कभी अमल न
हुआ। यहां तक कि अंगूठा लगा वह खाली कागज भी कभी वापिस न किया गया। इसप्रकार
बलचनमा का परिवार बिना खेत के अब पूरी तरह मालिक लोगों की बंधुआ मजदूरी करने को
बाध्य हो जाता है।
स्वैच्छिक
बंधक प्रथा वास्तव में बंधक प्रथा का अविकसित रूप है। जो बंधक प्रथा आमतौर पर
मिलती है, वह ऋणग्रस्तता से संबद्ध है। दलित
और आदिवासी उत्पादक होने पर भी उत्पादन के साधनों और उत्पाद पर अपना नियंत्रण नहीं
रखते क्योंकि वर्णाश्रम व्यवस्था में इन समुदायों और जातियों के संपत्ति अर्जन पर
रोक है। भारतीय सामंती-जातीय संरचना इसप्रकार की है कि हाड़ तोड़ मेहनत करने पर भी
इन उत्पादक वर्गों को जीवन निर्वाह के लिए भी जमींदार, महाजन,
पुरोहित का मुंह
देखना पड़ता है। कर्ज के बिना इनका काम चल ही नहीं सकता। इस लिए गये कर्ज की एवज
में इन्हें बंधुआ श्रम के पाश में बांध दिया जाता है। कर्ज की प्रकृति के आधार पर
दो प्रकार की बंधक श्रम प्रथा अस्तित्व में रही है - स्थायी कर्ज बंधक और अस्थायी
कर्ज बंधक। जो स्थायी कर्ज बंधक हैं,
वे कभी बंधुआ श्रम
से मुक्त नहीं हो पाते। बाप के बाद बेटा और बेटे के बाद पोता कर्ज की चक्की में
पिसते जाते हैं लेकिन कर्ज है कि उतरने का नाम ही नहीं लेता। कर्जदार को अपने
चंगुल में फंसाये रखने के लिए महाजन आदि तमाम हथकंडे अपनाते हैं, जैसे कोरे कागज पर अंगूठा लगवाना, 100 से 300 प्रतिशत तक चक्रवृद्धि ब्याज लेना, सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यों में कर्ज लेने के
लिए बाध्य करना आदि। गैर आदिवासी दिकू लोगों के हस्तक्षेप के चलते आदिवासी समाज की
स्वायत्त अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी और अकाल-महामारी आदि प्राकृतिक प्रकोपों ने
उन्हें भिखारी बना दिया। जंगल का कानून लागू कर अंग्रेजी सरकार ने आदिवासियों के
जंगल छीन लिये। जंगल में गाय-छागल चराना,
काठ लेना, पत्ता-शहद एकत्रीकरण सब बंद हो गया। दिकू
महाजनों ने आदिवासियों की इस दुर्दशा का फायदा उठा छोटे-मोटे ऋण देकर अपना स्थायी
बंधुआ दास बना लिया। ‘जंगल के दावेदार’ में इसप्रकार की बेगारी-गुलामी का पट्टा लिखाने
वाले मुंडा आदिवासी बेठबेगार कहे गये हैं। धानी मुंडा जानता है कि मुंडाओं की आदिम
ग्राम व्यवस्था का विध्वंस करने वाले हैं - दिकू। दिकुओं ने मुंडाओं की
जमीन-जायदाद पर बेठबेगारी का नियम चलाया। मुंडाओं को प्रायः बिना मजदूरी के ही
दिकुओं की बेगार करनी पड़ती है। उपन्यास में धानी मुंडा दिकुओं की बेगार का जिक्र
करता है - ‘‘दिकू को अपनी पालकी चाहिए, दाम मुंडा देगा, फिर
कंधे पर धोएगा! दिकू को जो चाहिए,
सब मुंडा देगा।
दिकू के ठेकेदार को साहब की अदालत में जुर्माना होने पर रूपए जमा करेंगे मुंडा
लोग!’’[14] बेठबेगारी
की यही पीड़ा मुंडाओं के गीतों में फूट पड़ती है-
‘‘ताड़ाय मोरे, कांदि आमि राते दिने।
बेठबेगारी
दिये मोर एइ हाल गो-
धर नाइ, सुख मोरे के दिवे गो।
कांदि आमि
राते दिन।
चेखेरे
ललेर मतइ लूनपारा मोर लौ गो।’’[15]
बीरसा
विद्रोह का सबसे छोटा बीरसाइत सुनारा इसीप्रकार का एक बेठबेगार था। उसके पास न
जमीन थी, न गाय-बैल ही। चेदूं गांव के
सूरजसिंह महाजन ने उसे शाम को एक थाली घाटो और एक डेला नमक, के साथ बरस में तीन मोटे कपड़ों के बदले खरीद
लिया था। उसकी जिंदगी महाजन की गुलामी में कटती थी। ‘चोटी मुंडा और उसका तीर’ के आदिवासी अंत्यज भी कर्ज के चलते
जन्म-जन्मांतर तक बेगार के कोल्हू में जुटे रहने वाले बैल बन गये हैं। लाला बैजनाथ
अपने खेत-खलिहान का काम स्थानीय मुंडा और उरांव लोगों से बंगार में ही करा लेता है
क्योंकि ‘‘आदिवासी का कर्जदार होना बड़ी सीधी
बात थी। कागज पर एक बार अंगूठा निशानी से जन्म-जन्म तक बेगार देते रहते।’’[16] दिकू
गुमाश्ते और महाजन आदिवासी को कभी अपने बेगार के फंदे से बाहर नहीं निकलने देते।
दादा का कर्ज बेटे के सिर मढ़ दिया जाता है और फिर वही कर्ज पोते के नाम बही में
स्थानांतरित हो जाता है। बेगार की टीप बही में पहाड़ बन जाती है लेकिन आदिवासी को
कभी बेगार से मुक्ति नहीं मिल पाती। उपन्यास में सुखा मुंडा के दादा ने कभी बेगार
का टीप-पट्टा लिखाया था जिसका दंड उसका बेटा सयां मुंडा और फिर पोता सुखा मुंडा
बेगार के रूप में भोगते हैं। एक ही आदमी को बारंबार बेगार में झौंका जाता है।
बेगार का
एक रूप जमींदार द्वारा आदिवासियों के पूरे के पूरे गांव पर लगाया जाने वाला
जुर्माना रहा है। दिकू जमींदार एक मुंडा
के कसूर की सजा सारे मुंडाओं को देता है। बुधा मुंडा चोट्टी से अपना दर्द बयान
करता हुआ ऐसे ही जरीमाने का जिक्र करता है। जमींदार को मुंडाओं के ऊपर बात-बात पर
जरीमाना लगाने में आनंद मिलता है। मुंडा के बदन पर कपड़ा, पैरों में जूता, सिर
पर छाता और कांसे-पीतल के बर्तन में भात दिकू जमींदारों की आंखों में चुभता है।
स्थायी
कर्ज बंधक के साथ-याथ अस्थायी ऋण से जन्मी अस्थायी बंधक प्रथा का भी अस्तित्व
मिलता है। श्रमिक वर्ग एक-दो वर्षों के लिए साहूकार आदि से ऋण लेता है जिसके बदले
में वह उतनी अवधि हेतु बंधक बना लिया जाता है। मजदूरी के रूप में उसे बहुत कम नकद
पैसे दिये जाते हैं। बहुधा मजदूरी अनाज के रूप में होती है और यह अनाज भी सड़ा-गला
मोटा अनाज ही होता है। रामशरण जोशी लिखते हैं कि ‘‘सतही
तौर से देखने पर यह स्थिति बंधक प्रथा न लगकर अनुबंधित श्रमिक प्रथा दिखाई देगी।
पूछने पर जमींदार भी यही कहेगा कि उसने बंधक को ऋण न देकर अनुबंध के रूप में एक निश्चित
अग्रिम राशी दी है।’’[17] यथार्थ
में जमींदार की यह दलील संवैधानिक प्रावधानों से बचने का षड्यंत्र ही होती है। जंगल
के दावेदार’ उपन्यास में गरीब मुंडा आदिवासियों
की अंगूठा निशानी लेकर उनके नाम ताउम्र बेठबेगारी की गुलामी का पट्टा लिख लेने
वाले दिकू महाजन और सामंत-जमींदार यह जानता है कि दासप्रथा और पट्टा बेगारी अवैध
है, गैर कानूनी है किंतु उन्हें कानून
का कोई भय नहीं होता। वे जानते हैं कि कोई मुंडा कचहरी में मुकदमा करने नहीं
जायेगा और अगर कभी ऐसा हो भी जाता है तो वे (पट्टे के मालिक) सब कुछ से मुकर जाते
हैं। बकौल लेखिका मुंडा जानते थे कि दिकू का पंजा बाघ के पंजे से भी भयंकर होता है
क्योंकि अकाल-दुकाल में मुंडा के पास बेगारी का पट्टा लिखाने के अलावा और कोई चारा
ही न बचता था। सब कुछ जानते-समझते हुए भी धानी मुंडा को इसीलिए बेठबेगारी के पट्टे
पर अंगूठे का निशान लगाना पड़ता है।
बीरसा
मुंडा इस बात को समझ गया था कि दिकू लोगों की महाजनी-साहूकारी-जमींदारी मुंडा
लोगों की बेठबेगार पर टिकी है। अतः उसने अपने उलगुलान की रणनीति के तहत मुंडाओं को
ईश्वरीय विनाश का भय दिखाकर दिकुओं की बेगार न करने के लिए प्रेरित किया। उपन्यास
में हम पाते हैं कि मुंडा राज्य के सुख की आशा में मुंडा लोग खेतीबारी का कामकाज
छोड़ने लगते हैं। कारण कि ‘‘खेती करके काम करके बेगारी देकर
गुलामी के पट्टे को लिखने के फलस्वरूप मेहनत कर दिकू-महाजन-बनियों की तोंद बढ़ाकर
क्या होगा? ’’[18]
अनुबंधित श्रमिक प्रथा के नाम से चलाई जाने वाली
बंधुआ श्रमिक प्रथा के अंतर्गत प्रायः येन केन प्रकारेण श्रमिक पर दबाव डालकर
अनुबंध अवधि बीतने से पहले ही अनुबंध का नवीनीकरण कर लिया जाता है। श्रमिक की
मजदूरी इतनी कम रखी जाती है कि उसके पास कर्जा लेने के अलावा और कोई विकल्प ही
नहीं होता। हां,
इतना अवश्य है कि
बारंबार अनुबंध के नवीनीकरण की यह प्रक्रिया बंधुआ श्रमिक में श्रम के मोलभाव में
वृद्धि कराने की क्षमता पैदा कर देती है। अतः वह भूस्वामी बदलने लगता है और उन पर
अनुबंध राशी या मजदूरी बढ़ाने के लिए दबाव भी डालने लगता है।
प्रायः यह
देखा गया है कि आदिवासी बहुत कम ऋण राशी पर अपनी मजदूरी गिरवी रखने को बाध्य होते
हैं और यह ऋण राशी भी नकद न होकर वस्तुओं के रूप में होती है। जीवन निर्वाह के लिए
आदिवासी बहुधा अनाज ही ऋण के रूप में लेते हैं। भूस्वामी या साहूकार की भी पूरी कोशिश
रहती है कि नकदी के स्थान पर मोटा अनाज उधार दे ताकि इस बहाने वह अपने पास जमा
सड़ा-गला अनाज निकाल सके। जमींदारी व्यवस्था में चूंकि गांव की सारी जमीन मालिक
लोगों की होती है अतः दलितों-आदिवासियों को मालिक लोगों की शर्तों पर ही बंधुआ
मजदूरी करनी होती है। ‘बलचनमा’ उपन्यास में बलचनमा के गांव में भी बेरोजगार नीच
जात बहियाओं और खवासों की कोई कमी तो थी नहीं अतः मालिक लोग कभी नकद मजदूरी नहीं
देते थे। जो अनाज मजदूरों को दिया जाता,
वह भी मोटे
दानेवाला कोई घटिया अनाज हुआ करता था। दिन भर की मेहनत के बदले में इन बंधुओं को
मिला करता है - कच्ची तौल से तीन सेर खेसाड़ी या जौ या मड़आ। दोने हल्के और घुन
लगे होते हैं। वास्तव में हम कह सकते हैं कि इस व्यवस्था में जमींदार लोग बिना एक
पाई नकद खर्चे दलितों को मुफ्त में ही बंधुआ मजदूरी पर खटाते हैं क्योंकि सड़े
अनाज को वैसे भी फैंकना ही होता है। बल्कि बंधुआ मजदूरी में गोदामों में सड़ रहे
घटिया अनाज को बाहर निकालने से नई फसल के लिए उनका गोदाम भी खाली हो जाता है।
प्रायः
दलितों-आदिवासियों के पास गांवों में आय का स्थायी और समुचित जरिया नहीं होता और
ऊपर से दहेज-विवाह-मृत्युभोज आदि सामाजिक काजों और हारी-बीमारी में उसे न चाहते
हुए भी कर्ज लेना ही पड़ता है। इस कर्ज को चुूकाने लायक आमदनी उसकी होती नहीं अतः
निश्चित अवधि के लिए कर्जदाता सामंत-साहूकार उसे अपना बंधक बनाकर रख लेता है। बंधक
श्रमिक प्रथा पर चाहे स्वाधीन भारत में वैधानिक रोक लगा दी गयी हो लेकिन पिछड़े
इलाकों में पुराने हुक्मरानों और ठिकानेदारों के यहां आज भी दलित बंधिक श्रमिक के
रूप में गुलामों की बेडि़यों में जकड़े मिल ही जाते हैं। सांभरिया की कहानी ‘बदन दबना’
का हलकासिंह ऐसा
ही उम्रदराज सामंती खूंटा है जो तमाम संवैधानिक प्रतिबंधों के बाबजूद उखाड़ा न जा
सका है। हलकासिंह गरज के मारे दलितों को पैसा उधार देकर दलितों की प्रतिभावान नयी
उभरती पीढ़ी को कुचलने के लिए ‘बदन दबना’ के रूप में अपने यहां हवेली पर बंधक रख लेता है।
हलकासिंह का ‘बदन दबना’ बनने पर छात्रावास के इन होनहार छात्रों का
बेड़ा गर्क होना तय है। दलित बच्चों को मिलने वाले सरकारी वजीफे और छात्रावास की
सुविधाओं से हलकासिंह को खीज और कुढ़न होती है। इसीलिए वह अमराराम और पूछाराम जैसे
मेहनती दलित छात्रों को अपना बंधक बना उनके सपनों की हत्या कर देता है। दलित
बच्चों को सरकार से मिलने वाली छात्रावास सुविधाएं, कपड़ा-लत्ता, किताब-काॅपी
सब उसकी आंखों को अखऱती हैं। हलकासिंह की गुलामी और व्यंग्य बाण अमरा और पूछा के
स्वाभिमान और मनोबल को तोड़ने का काम करते हैं। हलकासिंह के यहां अमराराम और
पूछाराम क्रमश: पांच और दस हजार रूपयों के लिए उनके घरवालों द्वारा पांच-पांच
सालों के लिए बंधक रख दिये गये हैं। उनकी स्थिति नाथे बैल सदृश्य है। अपनी-अपनी
बहिनों के विवाह-विदाई के लिए इन भाइयों को अपनी आजादी गिरवी रखनी पड़ती है। ‘बदन दबनाओं’ की यह गुलामी जेल की कैद से भी ज्यादा
कष्टदायक है। कैदी को तो परिवार में विवाह और गमी के मौकों पर पैरोल पर छुट्टी मिल
भी जाती है किंतु हलकासिंह तो ऐसा कठोर हृदय मालिक है जो बहिन के विवाह जैसे
सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवसर पर भी इन भाइयों को कुछ घंटों के लिए भी घर जाने की
अनुमति नहीं देता। पूछाराम अपनी बहिन के विवाह में सम्मिलित होने के लिए हलकासिंह
के सामने मिमियाता रहा लेकिन इस भेडि़ये को बच्चे पर भी तनिक दया न आई। हलकासिंह इस दलित बालक को डपटकर अपनी सामंती
भड़ास निकालता है - ‘‘बहन का ब्याह है, बहन का ब्याह है। तेरी बहन का ब्याह हुआ कि राजकुमारी की डोली हो गई। अरे,
कमअकल उस दिन अमरिया की बहन का भी ब्याह था, वह
तो नहीं गया। आदमी अपनी गरज़ से हवेली आता है और हमारी मर्जी से जाता है।’’[19]
बंधक श्रम
प्रथा का एक रूप वह है जिसमें बंधक अपनी जमीन गिरवी रखकर ऋण लेता है और ऋण चुकाने
के लिए स्वयं भी बंधक बन जाता है। वह दूसरे किसी भूस्वामी के यहां भी बंधक बन सकता
है। यद्यपि भूमि श्रमिक की ही रहती है लेकिन उसकी सारी उपज पर ऋणदाता का अधिकार
रहता है। अपने ही खेत में उसका मालिक बंधुआ श्रमिक बनकर रह जाता है। जमीन को रेहन
से मुक्त कराने का उसका सपना मृगमरीचिका ही साबित होता है क्योंकि उसे न्यूनतम
मजदूरी से भी कम मजदूरी दी जाती है और अंततः उसकी जमीन हमेंशा के लिए उससे छिन
जाती है। इसप्रकार वह भूमिहीन बंधक श्रमिक में तब्दील हो जाता है। प्रेमचंद की
कहानी ‘सवा सेर गेहूं’ हमें इसीप्रकार की बंधक श्रम प्रथा से परिचित
कराती है।
एक अन्य
प्रकार की अर्द्ध बंधक श्रम प्रथा में मध्यम स्तर के जमींदार अपनी कुछ जमीन बंधक
श्रमिक को जीवन यापन के लिए दे देते हैं जिसके बदले में उसे जमींदार के यहां काम
करना पड़ता है। इसप्रकार दी जाने वाली जमीन प्रायः घटिया गुणवत्ता की और क्षेत्रफल
में कम होती है ताकि बंधुआ श्रमिक और उसके परिवार का मात्र जीवन यापन ही होता रहे, वह भूमि से अतिरिक्त उत्पादन लेने के बारे में
सोच भी न सके। भूमि पर कानूनी हक सदैव जमींदार का ही रहता है। कई मामलों में उपज
का आधा हिस्सा तक जमींदार हड़प जाता है और बंधुआ से वह जो श्रम कराता है, वह अलग है। इसप्रकार की प्रथा में आंशिक जीवन
निर्वाह सुरक्षा का मोह बंधक श्रमिक को जमींदार के साथ संरक्षणात्मक संबंधों में
जकड़ देता है। इसप्रकार की अर्द्ध बंधक श्रम प्रथा भी बलचनमा उपन्यास में ध्यातव्य
है। मझले बाबू और फूल बाबू का बाप अर्द्ध बंधक बनिहारों के श्रम पर पलने वाले
जमींदार हैं। ये बाबू लोग अपने इलाके के दुसाध, मुसहर, चमार,
खतबे, पासी,
धुनिया और जुलाहा
आदि दलित जातियों के गरीब गुरबों की जमीन-जायदाद हड़पकर औकात वाले बने थे। मुसीबत
के सताये गर्ज के मारे ये दलित एक बार जो जमींदार से कर्ज लेते, तो वह कर्ज फिर उतरने का नाम भी न लेता। कुछ
पैसों के बल पर बाबू लोग उन्हें ऐसा नाथ नथाते कि मरने पर भी उन्हें छुटकारा न
मिलता। छोटी जात वाले बनिहारों के पास जो दो-एक मड़ैया खेत होते, वे भी इसी कर्ज की भेंट चढ़ जाते। मालिक के
खिलाफ वे दलित भला किसका सहारा पा सकते हैं?
अदालत, हाकिम और थाना-दरोगा सब मालिक लोगों की मुट्ठी
में होते हैं। जमीन हाथ से निकल जाने पर ये दलित अपनी ही जमीन पर बाबू लोगों के
बटाईदार खेत मजदूर बन जाते हैं। अगर कभी ये बनिहार अपनी जमीन पर दावा करने की
जुर्रत भी करते हैं,
तो बाबू लोग उन पर
बकाया मालगुजारी का झूठा मामला ठोक देते हैं। बलचनमा के गांव में भी मुसलमानों, ग्वालों और केवट लोगों की नब्बे बीघे जमीन मालिक
लोग चालाकी से अपने नाम चढ़वा लेते हैं। और परेशान करने के लिए खेतीहर बनिहारों पर
बकाया मालगुजारी होने का फर्जी मामला बना देते हैं। अगर कभी लोकप्रिय सरकारें जन दबाव में जमींदारी उन्मूलन का मानस बनाती भी
हैं तो जमींदार लोग अपनी जोतों का दूसरे नामों से बंदोबस्त कर लेते हैं। महपुरा का
जमींदार खानबहादुर हजार बीघे का जमींदार है। वह जमींदार विरोधी कांग्रेसी अमल आने
की अफवाहें सुनकर पहले से ही चाक चैबंद हो जाता है। वह छोटी जात के खेतीहरों के
साथ जारी अपना बंदोबस्त अपने मातहत सवर्ण लोगों के नाम स्थानांतरित करने की चालाकी
करता है। इसप्रकार मालिक लोग कानून को धत्ता बताने की हर तिकड़म करते हैं।
बंधक श्रम
के जाल से साल में कुछ महीनों की छूट के उदाहरण भी मिलते हैं। मुक्ति की यह निश्चित
अवधि (पैरोल!) बीतने पर श्रमिक को वापिस आकर जमींदार की नियमित चाकरी करनी होती
है। इस सीमित अवधि में बंधुआ व्यक्ति शहर या अन्यत्र जाकर आकस्मिक मजदूरी करता है।
यदि वह वापिस नहीं लौटता,
तो उसके परिवार पर
आर्थिक दंड लगाया जाता है और परिवार के किसी सदस्य को उसके स्थान पर बंधक बना लिया
जाता है। बंधुआ श्रम से मिलने वाली इस अस्थायी छुट्टी कारण जमींदार की दरियादिली
नहीं होती अपितु निम्न उत्पादन दर के कारण पैदा होने वाली खराब आर्थिक स्थिति है।
इसके चलते जमींदार की आर्थिक मजबूरी हो जाती है कि वह कुछ समय के लिए बंधक
श्रमिकों के निर्वाह भार से स्वयं को मुक्त रखे। ‘बलचनमा’ उपन्यास के दलित बहिया-खवास और बनिहार को भी साल
के साढ़े तीन महीनों के लिए मालिक लोगों की गुलामी से मुक्ति मिल जाती है क्योंकि
भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक और आधे अगहन गांव में कोई काम न होता
था। अतः ये गरीब दलित रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में पूरब की ओर निकल जाते, जैसे सिलीगुड़ी, दिनाजपुर
और ढाका आदि की ओर। कुछ लोग कलकत्ते का भी रूख
करते। और जो लोग कहीं न जा पाते, वे चटाई बुनने, रस्सी-डोरी
बंटने और मछली फंसाने की टापी वगैरह तैयार करने का काम करते।
बंधुआ श्रम
के नरक से बाहर निकलने के लिए यदि कोई बंधक श्रमिक अपना गांव छोड़कर अपने श्रम की
बेहतर कीमत की तलाश में बाहर जाना भी चाहता है, तो
जमींदार के लठैत और गुमाश्ते उसके मार्ग में दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं। उसके
साथ मारपीट की जाती है। अगर सरकारी तंत्र उसे बंधुआ श्रम के कारावास से मुक्त करने
का प्रयास करता है,
तो उसकी आर्थिक
नाकेबंदी और सामाजिक बहिष्कार तक कर दिया जाता है। गांव का कोई धनी व्यक्ति प्रायः
उसे मजदूरी पर नहीं रखना चाहता या मजदूरी की प्रचलित दर से बहुत कम मजदूरी उसे दी
जाती है। अगर वह जैसे-तैसे दलालों-ठेकेदारों की मार्फत कारखानों या ईंट भट्टों पर
मजदूरी पाने में सफल भी होता है,
तो यह एक नयी तरह
की बंधुआ मजदूरी ही कही जायेगी। स्वतंत्र भारत की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में
पनपने वाली इस अप्रत्यक्ष बंधुआ मजदूरी को सत्ता तंत्र का भी खुला समर्थन मिला हुआ
है क्योंकि उसके वर्ग हित इस पूंजीवादी तंत्र से आबद्ध हैं। ठेकेदार के यहां
प्रवासी मजदूर बनकर जीवन निर्वाह करना बहुधा जमींदार-साहूकार की बंधुआ मजदूरी से
भी बदतर होता है। सूअर के दड़बों जैसी खोलियों-झौपडि़यों में विद्युत-पानी-शौचालय
जैसी मूलभूत आवश्यकताओं का भी इंतजाम नहीं होता। मुक्त रूप से कहीं आने-जाने पर भी
ठेकेदार का नियंत्रण रहता है। सुबह से शाम तक काम करने पर भी नियत समय पर
निर्धारित मजदूरी मिलना तय नहीं होता। काम पूरा होने पर हर बार किसी नये ठेकेदार
को खोजना होता है। सालों-साल अपने गांव से दूर रहने का दर्द अलग होता है। अपने मूल
से छिटक कर आदिवासी अपनी सभ्यता-संस्कृति को खो देता है।
ठेकेदारी
के नीचे पलने वाली यह बंधुआ प्रथा औपनिवेशिक गुलामी के युग में ही जन्म ले चुकी
थी। अंग्रेजी सत्ता ने अपने क्षुद्र स्वार्थों की वेदी पर मध्य भारत के आदिवासियों
को पश्चिमोत्तर के चाय बागानों में कुलीगिरी के नर्क में धकेल दिया था। ‘जंगल के दावेदार’ में
लेखिका ने उन ठेकेदारों का उल्लेख किया है जो मुंडाओं को रूपयों का लालच देकर असम
के चाय बागानों में कुली की भरती करके ले जाते थे। एक बार कुलीगिरी पर गया हुआ
मुंडा आदिवासी युवक फिर कभी अपने देश नहीं लौट पाता था। चाय बागानों के मालिकों की
कैद में बंधुआ गुलामी करते-करते ही उसका जीवन बीत जाता था। ठेकेदार के द्वारा असाम
ले गये बेटे का आसरा देखते-देखते मुंडा मां पत्थर बन जाती। बीरसा के माता-पिता
सुगाना और करमी स्वयं को इसीलिए भाग्यशाली और सुखी मानते हैं कि उनके तीनों लड़कें
कोम्ता, बीरसा और कानू उनके पास थे।
महेश कुमार
केशरी ‘राज’ की
कहानी ‘कैद’ ऐसे
ही आधुनिक बंधुआ दलित-आदिवासी श्रमिकों की त्रासदी बयां करती है। लेखक के अनुसार
यह कहानी वास्तविक घटना पर आधारित है जो झारखंड के धनबाद में घटी थी। इसके पात्र
बाद में किसी तरह भागकर वापिस आ गये थे लेकिन हर मामले में ऐसा नहीं हो पाता।
नवउदारीकरण की आर्थिक नीतियों के चलते आजकल खेती-किसानी फायदे का सौदा नहीं रही
है। रोज़-रोज़ अखबारों में किसानों द्वारा कर्ज के फंदे में फंस आत्महत्या करने की
खबरें छपती रहती हैं। एक ओर खाद-बीज के भाव आसमान छूने लगे हैं, दूसरी ओर मानसून की दगाबाजी चलती ही रहती है।
अगर कभी इंद्र देवता की कृपा से किसी साल फसल अच्छी भी हो जाये तब भी दाम इतने कम
मिलते हैं कि लागत भी निकालना टेढ़ा काम हो गया है। अब किसानी करने वाला खाये क्या
और पहने क्या? खेत मजदूरी करने वाले भूमिहीन
दलितों-किसानों की हालत और भी पतली है। उच्च आर्थिक विकास दर की भेंट चढ़ी ग्रामीण
अर्थव्यवस्था का तो दीवाला ही निकल गया है। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में जब गांव
का मुखिया दुर्जन सिंह आदिवासी दलित जमात के सामने पटना शहर में चलने वाले अपने
ईंट भट्टों पर मजदूरी का प्रस्ताव रखता है,
तो इन गरीबों की
स्थिति अंधे को क्या चाहिए,
दो आंखों वाली हो
जाती है। उसके इस प्रस्ताव को सुन छोटू उरांव, रामदीन
पासवान, रमेश तुरी, सुरेश गंझू, संतोष
पासी आदि की आंखों में बेहतर भविष्य के सपने तैरने लगते हैं। मुनिया का बालमन
मजदूरी करने जा रहे अपने बापू विष्णु से फरियाद करता है ‘‘हमको न,
ऊ ऽऽऽऽऽ वाली
गुलिया ला देना जो छोने पर आंखें बंद कर लेती है। और .... और .... ढेर सारी
मिठाइयां भी।’’[20] लेकिन
विष्णु अपनी बिटिया की ख्वाहिश पूरी करने के लिए कभी वापिस लौट ही न पाया। जिस
दुर्जन सिंह के भरोसे विष्णु और अन्य लोगों ने मजदूरी की आशा में गांव छोड़ा था, वह तो ऐसे गरीब-गुरबे आदिवासी-दलितों को झांसे
में डालकर ईंट भट्टों के मालिकों को बेचने का धंधा करता था। ईंट भट्टों के विशाल
कंपाउडों में ऐसे कितने ही दलित-आदिवासी आज कैद हैं। कहानी में ईंट भट्टे का मालिक
दिलावर खान इन मजदूरों से बलात् भट्टे पर बेगार कराता है। वे उसके खरीदे गुलाम ही
हैं। इन्हें सिर्फ जीवित रखने के लिए खाना दिया जाता है, नकद रूपये कभी नहीं दिये जाते। चमरू महार जैसा
कोई मजदूर भागने का दुस्साहस करता है तो मालिक लोगों के गुंडे उसे पीट-पीटकर सदा
के लिए शांत कर देते हैं ताकि फिर कोई विद्रोह करने का दुस्साहस न करे सके। ‘कैद’
कहानी जैसे गुलाम
बंधुआ मजदूरों की खबरें स्वातंत्र्योत्तर देश में भी अखबारों में आये दिन आती रहती
हैं। अभी कुछ दिनों पहले उड़ीसा के आदिवासी-दलित मजदूरों को इसीप्रकार काम दिलाने
का वायदा करके कश्मीर ले जाया गया था जहां उन्हें इसीप्रकार कैद में रखकर बंधुआ
मजदूरी करवायी जाती थी। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने अभी हाल ही
में इस संदर्भ में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री से उनके राज्य से बंधुआ श्रम
उन्मूलन के लिए कारगर कदम उठाने की मांग की है।[21]
‘चोटी मुंडा और उसका तीर’ में चोटी मुंडा और उसके आदिवासी अंत्यज साथी
अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तीरथनाथ की खेत-मजदूरी और बेगार से लेकर बदलते समय
के साथ ठेकेदार हरबंश के ईंट भट्टे पर मजदूरी तक, सब
काम करते हैं। लेकिन चाहे साहूकारी का जमाना हो या देश की आज़ादी के बाद आया
ठेकेदारी का युग हो,
आदिवासी कभी बेगार
के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पाता। अपराधी किस्म के लोग शासक दल में घुसपैठ
करके आदिवासी ईंट भट्टा श्रमिकों की मजदूरी से बट्टा लेते हैं। ठेके पर आदिवासी
मजदूर उपलब्ध कराने वाला ठेकेदार अलग आदिवासी की मजदूरी में डंडा मारता है।
तीरथनाथ, उसके खेत और जमींदारी से आज़ाद भारत
में चाहे चोट्टी मुंडा और अन्य आदिवासियों का अब चाहे कोई संबंध न रहा हो, लेकिन जमींदारी के स्थान पर जो नयी ठेकेदारी
पनपी है, उसके तहत ईंट भट्टों पर काम करते
चोट्टी मुंडा और उसके साथी आदिवासी यहां भी बट्टा बेगार से मुक्त नहीं हो पाये
हैं।
गांधी जी के
नेतृत्व में राष्ट्र की मुक्ति के लिए जो स्वराज आंदोलन चल रहा था, उसी के समानांतर बेगार और जमींदारी प्रथा में
पिसते बंधुआ मजदूरी का मुद्दा भी गरमाने लगा था। बाबू लोग समय की गति देखकर बड़ी
संख्या में ‘सोराजी’ हो रहे थे,
जेल भी जा रहे थे।
लेकिन अपने वर्गहितों के खिलाफ जाने का साहस वे नहीं कर सकते थे। बलचनमा जैसे दलित
स्वराज आंदोलन को बड़ी आशा से देखते थे क्योंकि महेंद्र बाबू जैसे लोग उन्हें
उम्मीद दिला रहे थे कि अंगेजों के जाने के बाद उन्हें भी अस्पृश्यता और
बंधुआ-बेगारी से मुक्ति मिल जायेगी। बलचनमा को भी इसीलिए ‘सोराजी’
बन गये फूल बाबू
पर बड़ी श्रद्धा थी लेकिन जब वह अपने छोटे मालिक के खिलाफ उन्हीं के रिश्तेदार
(साले के बेटे) इन फूल बाबू से गुहार लगाने पहुंचा तो उसका पूरा भ्रम जाता रहा।
छोटे मालिक ने न केवल बलचनमा की बहिन को बेआबरू करने में कोई कसर न छोड़ी थी अपितु
बलचनमा पर भी दबाव डालने के लिए उसके खिलाफ चोरी की झूठी रपट तक लिखवा दी थी।
लेकिन मालिक लोगों के अन्याय - अत्याचार के खिलाफ कोई सजातीय जमींदार दलित का साथ
क्यों देने लगा? फिर बाबू तो छोटे मालिक के भांजे
ही थे अतः उनसे अपने फूफा को समझाने के लिए एक चिट्ठी तक न लिखी गयी, उल्टे वे तो बलचनमा को ही माफी मांगने की ताकीद
कर देते हैं - ‘‘मगर फूल बाबू ने यह कहकर तभी बात
समाप्त कर दी कि तुम्हारा तो आपस का झगड़ा है, बहिया-महतो
का। इसका निपटारा भी तुम्हीं दोनों कर लोगे। इसमें मेरी कोई जरूरत नहीं। जा, जाकर अपने मालिक के ही पैर पकड़। वह तुझे माफ कर
देंगे।’’[22]
वास्तव में
जमींदार मालिक लोग चाहे लाख सोराजी हो जायें,
वे गरीब-गुरबा का
दुख नहीं जान सकते। फूल बाबू द्वारा मुंह मोड़ लेने पर बलचनमा के मन में यह बात घर
कर जाती है कि जैसे अंगरेज बहादुर से स्वराज लेने के लिए बाबू भैया लोग एक हो रहे
हैं, हल्ला-गुल्ला और झगड़ा मचा रहे हैं, वैसे ही जन बनिहार, कुली-मजूर और बहिया-खवास को अपने हक के लिए
बाबू-भैया से मोर्चा लेना होगा। चूंकि गांधी जी सेठों-जमींदारों, राजाओं-महाराजाओं से जमीन-जायदाद और धन संपदा
छीनकर दलितों-गरीबों में बांटने के खिलाफ थे अतः दरभंगा के दलित और खेत मजदूर
कांग्रेस के अंदर अंकुराते सोसलिस्ट दल की तरफ झुकते चले जाते हैं। जब महपुरा के
छोटी औकात वाले खेतिहर अपनी जमीन को बचाने के लिए खान बहादुर के खिलाफ सोसलिस्टों
के साथ मिलकर संघर्ष करते हैं,
तो पार्टी के
भोलंटियर भाइयों के साथ बलचनमा भी उन्हीं की जैसे एक कामरेड बन जाता है। बलचनमा के
स्वयं अपने गांव में भी मालिकों के खिलाफ मालगुजारी देने वाले बनिहारों का संघर्ष
होता है जिन्हें महपुरा के आंदोलन से प्रेरणा मिल रही थी। सोसलिस्टों के झंडे तले
बेगारी और बंधुआ मजदूरी के खिलाफ उपन्यास में जिस संघर्ष का चित्रण है, उसमें शोषित-उत्पीडि़तों के बीच की
जातीय-धार्मिक दीवारें ढह जाती हैं। जाति की लड़ाई को वर्ग की लड़ाई से काटकर
देखने वाले दलित-मार्क्सवादी बुद्धिजीवी यहां अवश्य सवाल उठा सकते हैं लेकिन
मुक्ति अकेले-अकेले संघर्ष करने से नहीं मिलती।
स्वातंत्र्योत्त्र
भारत में बंधक श्रम पर प्रतिबंध लगाकर और एक बड़ी संख्या में बंधकों को
जमींदारों-दबंगों के चंगुल से बाहर निकालकर आपातकाल के बीस सूत्री कार्यक्रम की
सफलता का ढिढ़ोरा पीटा गया था। लेकिन इसप्रकार के सरकारी प्रयासों की स्थायी उपलब्धि
सिफर ही रही है। बंधक श्रमिकों को बंधुआ श्रम से सदैव के लिए मुक्ति नहीं मिल पाती
है। प्रायः देखा गया है कि बंधक आदिवासी-दलितों को आजादी दिलाते समय उन्हें
आत्मनिर्भर बनाने के नाम पर दी जाने वाली जमीनें ऊबड़-खाबड़, बंजर और सिंचाई की सुविधाओं से रहित होती है। कई
बार तो उन्हें आबंटित जमीन पर बड़े भुमिपति अधिकार ही नहीं करने देते। बकरी-मुर्गी
के साथ जो गाय-बैल दिये जाते हैं,
वे बिना खेती की
सुविधा से या तो एक-एक करके बेच दिये जाते हैं या आदिवासी की उदर भूख को शांत करने
के काम आते हैं। अंत में जमा पूंजी समाप्त हो जाने पर आदिवासी को फिर काम की तलाश
में अपने पूर्व मालिक के यहां जाना पड़ता है लेकिन वह और दूसरे धनी वर्ग के लोग
उन्हें काम नहीं देते। मुक्त बंधक श्रमिकों का सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार किया जाता
है। अंततः बंधक श्रमिक या तो पुनः बेगारी-बंधक श्रम की चक्की में पिसने लगते हैं
या फिर दलालों-ठेकेदारों के हाथों बिकने को बाध्य हो जाते हैं। इसप्रकार बंधुआ
श्रम से पीछा छुड़ाने का कोई माकूल प्रबंधन आज तक आदिवासियों के लिए नहीं हो पाया
है। पूंजीवादी ठेकेदारी बंधुआ श्रम का ही आधुनिकतम संस्करण है।
* * *
पिछले दिनों
अंग्रेजी में कलम चलाने वाले किंतु ठेठ भारतीय किस्म के बेफिक्र पत्रकार-लेखक खुशवंत
सिंह हमारे बीच नहीं रहे। खुशवंत सिंह का लेखन हमारी आबोहवा में इस कदर रच-बस गया
है कि आज उनका काॅलम न आना कुछ अधूरापन का सा अहसास कराता है। तमाम विवादों के
बावजूद जड़ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और कट्टरपंथी मानसिकता के खिलाफ निद्र्वंद्व
होकर ताल ठोकने वालों में इस सरदार की लेखनी कभी हिचकिचायी नहीं। इन्होंने गंभीरतम
विषयों को भी पत्रकारिता की लोकप्रिय षैली में उठाया। साहित्यिक दलबंदी और
क्लासिकल लिखने की थोथी होड़ से दूर रहने वाले खुशवंत सिंह अपने प्रतिमान स्वयं
गढ़ने वाली शख्सियत रहे हैं। स्मृतिशेष के रूप में एक लेख इस बार के अंक में दिया
जा रहा है। वरिष्ठ आदिवासी चिंतक-रचनाकार श्री हरिराम मीणा जी के साथ-साथ दक्षिण
के सुदूर प्रांत में रहकर अपनी गंभीर लेखनी से जानी जानेवाली प्रो. प्रमीला जी ने
इस अंक में अपना जो लेखकीय सहयोग दिया है,
वह उत्साहवर्धक
रहा है। मुकेश मानस और भाई अनुज लुगुन की कविताएं भी इस अंक की खास उपलब्धियां कही
जा सकती हैं। प्रस्तुत अंक में हम प्रथम बार जर्नल का आवरण पृष्ठ भी देने में सफल
रहे हैं जिसके लिए कुंवर रवींद्र जी का आभार। कुंवर रविंद्र जी ठेठ देहात से कला
की दुनिया में आने वाले कलाकार हैं। आप सामाजिक उत्तरदायित्व से संचालित कला के
चितेरे हैं।
संपर्क - डॉ. प्रमोद मीणा, एसिसटेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, पाण्डिचेरी
विश्वविद्यालय पुड्डुच्चेरी -605014, दूरभाष-9344008481, ईमेल एड्रैस - pramod.du.raj@gmail.com
[1] पृष्ठ 264, चोटी मुंडा और उसका
तीर, महाश्वेता
देवी, राधाकृष्ण
प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, पहला पेपरबैक्स
संस्करण 1998, दूसरा
संस्करण 2008
[2] पृष्ठ 58, दया पवार, अछूत, रूपांतर दामोदर खडसे, राधाकृष्ण प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, पहला संस्करण 1998, द्वितीय आवृत्ति 2006
[4] पृष्ठ 232, जंगल के दावेदार, महाश्वेता देवी, राधाकृष्ण प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2008
[5] पृष्ठ 62, चोटी मुंडा और उसका तीर, महाश्वेता देवी, राधाकृष्ण प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, पहला पेपरबैक्स
संस्करण 1998, दूसरा संस्करण
2008
[7] पृष्ठ 35, रामशरण जोशी, आदमी बैल और सपने, राजकमल प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, पहला पेपरबैक्स
संस्करण 1996
[8] पृष्ठ 6, नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, पेपरबैक्स संस्करण 1997, चौथी आवृत्ति 2007
[9] पृष्ठ 7, नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, पेपरबैक्स संस्करण 1997, चौथी आवृत्ति 2007
[10] पृष्ठ 56, नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, पेपरबैक्स संस्करण 1997, चौथी आवृत्ति 2007
[11] पृष्ठ 55, नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, पेपरबैक्स संस्करण 1997, चौथी आवृत्ति 2007
[12] पृष्ठ 21, नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, पेपरबैक्स संस्करण 1997, चौथी आवृत्ति 2007
[13] पृष्ठ 8, नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, पेपरबैक्स संस्करण 1997, चौथी आवृत्ति 2007
[14] पृष्ठ 32, जंगल के दावेदार, महाश्वेता देवी, राधाकृष्ण प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2008
[15] पृष्ठ 33, जंगल के दावेदार, महाश्वेता देवी, राधाकृष्ण प्रकाशन
प्रा.लि., नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2008
[16]पृष्ठ 34, चोटी मुंडा और उसका
तीर, महाश्वेता
देवी, राधाकृष्ण
प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, पहला पेपरबैक्स
संस्करण 1998, दूसरा
संस्करण 2008
[17] पृष्ठ 40, रामशरण जोशी, आदमी बैल और सपने, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, पहला पेपरबैक्स संस्करण 1996
[18] पृष्ठ 96, जंगल के दावेदार, महाश्वेता देवी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2008
[20]पृष्ठ 260, जयप्रकाश
कर्दम (संपादित), दलित साहित्य वार्षिकी 2006, अकादमिक प्रतिभा प्रकाशन,
दिल्ली
[21]http://www.thehindu.com/news/national/other-states/jairam-urges-omar-to-put-an-end-to-bonded-labour-in-jk-brick-kilns/article5740999.ece
[22] पृष्ठ 75, नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, पहला पेपरबैक्स संस्करण 1997, चौथी आवृत्ति 2007
‘मूक आवाज़’ हिंदी जॉर्नल
अंक-5 ISSN 2320 – 835X
Website:
https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
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