योजना आयोग ने अपनी पंचवर्षीय योजना में स्कूली शिक्षा के लिए ‘सार्वजनिक एवं निजी सहभागिता’ के सिद्धांत को लागू करने की
सिफारिश की है,
जिसके अनुसार अब सार्वजनिक पैसे का प्रयोग सरकार द्वारा
शिक्षा के निजीकरण एवं व्यावसायीकरण के लिए किया जाएगा। ऐसा करने के पीछे मान्यता
यह है कि इससे स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में युगान्तकारी परिवर्तन होगा। अब स्थिति
यह है कि अनेक राज्य की सरकारों ने तो अनेक सरकारी संस्थानों की तरह अब सरकारी
विद्यालयों को भी निजी हाथों में देने का फैसला कर लिया है। दक्षिण भारत के कई
राज्य हैं जिन्होंने सरकारी विद्यालयों को निजी कंपनियों को देने के लिए कई टेंडर
भी समाचार पत्रों में प्रकाशित कर दिए हैं। मज़ेदार बात तो यह है कि हमारे देश के
माननीय योजना विभाग ने इस पी.पी.पी. को स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में लागू करने के
लिए जिन नीति-निर्धारकों को बुलाकर यह नीति बनाई, उनमें से कोई भी शिक्षाविद् नहीं था। सभी के सभी बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों से
संबंधित थे जिनका बस एक ही उद्देश्य था कि उच्च-शिक्षा के बाद अब कैसे भी स्कूली
शिक्षा को कारोबार मं बदला जाए।
ईश्वर-प्रदत्त जीवन को सही सलीके से जीने की कला को
विकसित करना ही शिक्षा है। दरअसल शिक्षा किसी भी समाज को सभ्य
और उन्नत बनाने का ही एक उपनाम है। विश्वभर में आज शिक्षा
को लेकर एक अलग तरह का उत्साह देखने को मिलता है। हर देश अपने नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण एवं मूल्यों से
संपन्न शिक्षा प्रदान करने की हर भरकस कोशिश करते हुए दिखाई देता है। इस क्रम में भारत
ने भी आज से कुछ वर्षों पूर्व 1 अप्रैल 2010 को ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून पारित
करके इस तरफ अपना एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम उठाया है जिसके अंतर्गत 6 से 14 वर्ष
तक की आयु के बच्चों को निःशुल्क, अनिवार्य और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
देने का वायदा भारत सरकार ने अपने देशवासियों से किया। उल्लेखनीय है कि
हर देश में प्राथमिक शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है जो
किसी राष्ट्र विशेष के भावी नागरिकों के लिए किसी उपजाऊ भूमि से कमतर
नहीं होती। भारत में ‘शिक्षा का अधिकार’ नामक अधिनियम एक ऐसी ही पहल थी जिसके चलते
अब भारत के लगभग उन लाखों-करोड़ों बच्चों को पढ़ने का अवसर मिलना था जो अभी तक स्कूल
के बाहर बाज़ारों में किसी विक्रेता के सहायक होते थे।
सबसे पहले
तो यह बताना होगा कि भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात 1950 में ही
भारतीय संविधान में यह प्रावधान किया गया था कि देश का हर वह बच्चा जिसकी उम्र 14
या उससे कम है, उसे निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जायेगी। इस प्रावधान को
संविधान के अनुच्छेद 45 के अंतर्गत राज्य के निति-निर्देशक सिद्धांतों में स्थान दिया
गया जिसे बाद में भुला दिया गया। बरसों बाद फिर से इसकी
याद आई और 12 दिसम्बर 2002 में संविधान का छियासिवां संशोधन करते हुए
शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्ज़ा दिया गया। इसके बाद अनेक उठापटकों के उपरांत सन् 2009 में इस
कानून का संपूर्ण प्रारूप तैयार करके इसे अप्रैल 2010 में देश भर में
(कश्मीर को छोड़कर) लागू कर दिया गया। किंतु जिस शिक्षा के अधिकार की बात बड़े ही
जोरो-शोरों से संपूर्ण देश में की जा रही थी और आज भी लगातार की जा रही है
उसकी ज़मीनी हकीकत कुछ और ही है। यह सच है कि शिक्षा के अधिकार कानून
के लागू होने के बाद पूरे भारत के विद्यालयों में बच्चों के प्रवेश लेने की दर में
बहुत अधिक इजाफा हुआ है जो बढ़कर लगभग 96 प्रतिशत जा पहुंचा है। लेकिन साथ ही
विद्यालयों में कक्षा दसवीं के बाद विद्यालय छोड़ने का प्रतिशत भी लगभग 46 प्रतिशत तक जा पहुंचा है।
सबसे पहले
तो हम इस अधिनियम के उस बिंदु पर चर्चा करेंगे जो यह कहता है कि
बच्चे को किसी भी सूरत में नजदीकी विद्यालय में दाखिला मिलना चाहिए। अगर नजदीक में कोई
विद्यालय न हो तो राज्य उन बच्चों के स्कूल आने जाने का प्रबंध करेगा अन्यथा
परिवहन का खर्चा उठाएगा। इसके समाधान के लिए राज्यों ने विद्यालय जाने वाले
बच्चों के बस या रेल किराये में रिआयत दी है। साथ ही कई राज्यों
ने तो राजकीय बसों में बच्चों को मुफ्त आवागमन की सुविधा भी दी है। अगर इस बिंदु पर
यूनाइटेड किंगडम (UK) से भारत की तुलना की जाए तो बताना होगा कि यूके में स्कूल के
लिए मुफ्त परिवहन देने की आयु 8 से 16 वर्ष रखी है जिसका सही रूप में अनुपालन भी
हो रहा है। यूके में अगर बच्चा 8 साल से कम उम्र का हो और उसका
स्कूल 2 मील से अधिक दूरी पर स्थित हो और बच्चा यदि 8 वर्ष से अधिक और 16 वर्ष से
कम एवं स्कूल 3 मील से अधिक दूरी पर हो तो ऐसे बच्चों को यूके सरकार पूर्णतः मुफ्त
परिवहन देती है। जबकि इसके विपरीत हमारे यहां तो स्थिति यह है
कि अकेले कर्नाटक राज्य में ही लगभग तीन हज़ार स्कूल इसलिए बंद हो गए क्योंकि बच्चों ने उन विद्यालयों में आना ही
छोड़ दिया जिसका एक प्रमुख कारण सरकार द्वारा दूर दराज़ के बच्चों के लिए परिवहन की
सुविधा उपलब्ध न कर पाना था। इस समस्या को दूर करने के लिए अब
कर्नाटक सरकार प्रत्येक स्कूल जाने वाले बच्चे को 250 रूपए यातायात के लिए देने की
योजना बना रही है। जबकि हमारे इस शिक्षा के अधिकार कानून में साफ़ लिखा है
कि 3 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी पर स्थित विद्यालयों में जाने वाले बच्चों के लिए राज्य
सरकार उचित व्यवस्था करेगी। इसके विपरीत अभी तक किसी भी राज्य
में इस नियम का कड़ाई से पालन होता नहीं दिख रहा है और बच्चे या तो दूर-दराजों के विद्यालयों में जाने
के लिए विवश हैं या फिर है स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर। कमोबेश भारत में
यही हाल लगभग हर राज्य का है जिस तरफ अभी तक कोई ठोस कदम उठाने की कोशिश नहीं की
गयी है जिसका जवाब राज्य अधिकतर धन राशि की कमी का बहाना बनाते हुए देते हैं, साथ ही केंद्र सरकार पर दोषारोपण किया जाता है। इसके उलट केन्द्र सरकार
दोष राज्य सरकारों पर लगाती है और इनकी धींगाकुश्ती भुगतना बच्चों को पड़ता है।
उल्लेखनीय
है कि आज विश्वभर में भारत सर्वाधिक तेज़ी से विकसित होने वाले देशो
में शुमार किया जाता है लेकिन इतना होने पर भी भारत आज अशिक्षा के स्तर पर विश्व में तीसरे पायदान
पर स्थित है। ग्लोबल एजुकेशन रिपोर्ट के अनुसार ‘शिक्षा के क्षेत्र
में तेज़ी से विकास करने वाले लगभग 127 देशों में से भारत का स्थान 100 देशों में
भी न आकर 106 नंबर पर है। अगर इसकी तुलना भारत के पड़ोसी देश चीन से की
जाए जिसका स्थान इस श्रेणी में 11 वां है, अत: उससे भारत बहुत
पीछे है।’[1] इस रिपोर्ट के ये तथ्य भारत में
शिक्षा और शिक्षा से संबंधित विभिन्न नीतियां एवं कानूनों के क्रियान्वय का सच सबके
सम्मुख रखने के लिए काफी है। इसी क्रम में शिक्षा का अधिकार
कानून का भी अध्ययन किया जा सकता है जिसके प्रभावी होने के बाद से विद्यालयों में बच्चों
का पंजीकरण तो लगातार बढ़ रहा है, मगर साथ ही जिस गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का समर्थन
यह कानून करता है वह समर्थन केवल दिखावा ही बनकर रह गया है। गौरतलब है कि इस
समय लगभग 23 करोड़ बच्चे विद्यालयों में तथाकथित शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। यह संख्यां इतनी
विशाल है जिसे हमारी सरकार उच्च शिक्षा तक पहुंचाने में सक्षम
नहीं दिखाई देती है। साथ ही हम देखते हैं कि भारत के अधिकतर गांवों में
शिक्षा की बहुत ही बदहाल स्थिति है। अगर प्राथमिक शिक्षा की बात की जाए
तो कहना होगा कि जो शिक्षक-छात्र का अनुपात इस कानून में रखा गया है वह अनुपात गांव में क्या खुद
दिल्ली जैसे महानगरों में नहीं दिखाई देता है। कई स्कूल तो ऐसे
है जो केवल एक शिक्षक के भरोसे ही चल रहे हैं।
गौरतलब है
कि ‘शिक्षा का अधिकार’ अधिनियम, शिक्षा के साथ साथ अन्य ज़रुरी सुविधाओं मसलन
पेयजल, शौचालय, खेल इत्यादि का भी पुरजोर समर्थन करता हुआ इनको सभी विद्यालाओं के
लिए अनिवार्य रूप से उपलब्ध करवाने की कवायद करता है। अगर हम यहां विद्यालयों में
उपलब्ध मूलभूत सुविधाओं में से केवल शौचालयों के संदर्भ तक ही अपनी चर्चा को सीमित
रखें तो स्पष्ट होता है कि देश भर के सरकारी विद्यालयों में शौचालयों की बहुत ही
बुरी स्थिति है। फिर भले ही वह दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर हो या फिर
देश के गांव-देहात के स्कूल हों। हैदराबाद की बात
करें तो वहां के राजीव विद्या मिशन नामक संस्थान ने खुलासा किया है
कि हैदराबाद के सरकारी विद्यालयों के शौचालयों में से कुल 27% ही चालू हालत में
हैं। इस मिशन ने यह भी खुलासा किया है कि हैदराबाद में हर वर्ष लगभग 100
लड़कियां इसी कारण से स्कूल छोडती हैं क्योंकि विद्यालयों में शौचालयों की बहुत ही
खस्ता हालत रहती है।[2]
अगर शिक्षा
के इस अधिनियम का आज मूल्यांकन किया जाए तो कहना होगा कि “मौजूदा स्थिति में लगभग
46 प्रतिशत विद्यालयों में बालिकाओं के लिए शौचालय नहीं हैं, देश भर में 12.6
लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। देश के 12.9 लाख मान्यता प्राप्त
प्रारंभिक विद्यालयों में अप्रशिक्षित शिक्षकों की संख्या 7.72 लाख है जो कुल
शिक्षकों की संख्या का 40 प्रतिशत है। लगभग 53 प्रतिशत विद्यालयों में
अधिनियम के प्रावधान के अनुसार निर्धारित छात्र-शिक्षक अनुपात 1:30 से अधिक है। रिक्तियों को भरने
के उद्देश्य से आगामी छह वर्षों में लगभग 5 लाख शिक्षकों को भरती करने की योजना है।”[3] ये आंकड़े शिक्षा के
अधिकार कानून की वास्तविकता और आवश्यकता को बताने के लिए नाकाफी नहीं है। आज दिल्ली जैसे
महानगर के ही अनेक बाहरी एवं पूर्वी दिल्ली के अनेक विद्यालयों में एक
शिक्षक रोज़ 400 से 500 बच्चों को पढ़ाता है। बल्कि यह कहना उचित होगा कि पढ़ाने
की कोशिश करता है। एक कक्षा में छात्र-शिक्षक अनुपात 1:100 तक या इससे भी
ऊपर चला जाता है। इतना होने पर भी शिक्षक को आधार कार्ड बनवाने हैं,
बच्चों के बैंक खाते खुलवाने हैं। इनके अतिरिक्त छात्रवृति के साथ-साथ वर्दी,
स्टेशनरी, मेधावी छात्रों के वजीफे, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य
पिछड़ा वर्ग के पैसों को बांटने का परमावश्यक काम भी करना ज़रुरी
है। साथ ही मिड-डे मील का काम और स्कूल से संबंधित अनेक
प्रकार के अन्य ज़रुरी आंकड़ें भी व्यवस्थित करके रखने पड़ते हैं। कई राज्यों में तो
मिड-डे मील के लिए अनाज और सब्जियों की खरीद-फरोक्त भी शिक्षकों द्वारा की जाती है
जिससे शिक्षक मना नहीं कर सकता। ऊपर से परीक्षा परिणाम बेहतर देने
का भी दवाब रहता है।
इस अधिनियम
में प्रावधान है कि स्कूल में कक्षा पहली से आठवीं तक पढ़ने वाले सभी बच्चों को
निःशुल्क वर्दी और किताबें प्रदान की जायेंगीं। किताबों की तो
स्थिति यह है कि लगभग पूरा वर्ष या आधे से ज्यादा वर्ष बीत जाने के बाद जैसे-तैसे
बच्चों को पुस्तकें प्राप्त हो पाती हैं। उसमें भी बच्चो को
समझ नहीं आता कि पूरा साल बीत जाने के बाद उन किताबों का क्या किया जाए क्योंकि
बच्चे या तो बाज़ार में तथाकथित सहायक पुस्तकें खरीद चुके होते हैं या आधे से
ज्यादा पाठ्यक्रम मास्टर जी मुंह जुबानी या बाज़ार में मिलने वाली
सहायक पुस्तकों द्वारा करवा चुके होते हैं जिसके उपरांत बच्चों के लिए बाद
में मिलने वाली इन पुस्तकों का उतना महत्व नहीं रह जाता जितना कि पहले होता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है
कि यह विभिन्न राज्यों की सरकारों के नुमाइंदों और निजी प्रकाशकों की मिलीभगत होती
है जिसके चलते विद्यालयों में किताबें देरी से पहुंचती हैं ताकि तब तक
इन निजी प्रकाशकों की पुस्तकों की तेज़ी से बिक्री हो जाए जिसकी एवज में इन्हें
अच्छी खासी मोटी कमीशन भी देनी पड़ती है।
सर्वविदित है कि इस कानून का सबसे
अधिक लाभ उस वर्ग को होगा जो या तो श्रमिक और मजदूर है या वह वर्ग जिनके बच्चें
विभिन्न सामाजिक-सांस्कृत आधारों के साथ-साथ भाषा, भूगोल, अर्थ एवं जेंडर के आधार
पर अभी तक शिक्षा से वंचित थे। लेकिन सरकार द्वारा जो धनराशि स्कूल
प्रबंधकों को बच्चों और शिक्षा के विकास के लिए समय समय पर दी जाती है उस संपूर्ण धनराशि का
सदुपयोग नहीं किया जा रहा है। मीडिया द्वारा समय-समय पर शिक्षा से
संबंधित अनेक प्रकार के घोटालों का पर्दाफाश किया जा रहा है जो शिक्षा के
क्षेत्रों में सक्रिय माफिया तंत्र को नग्न कर रहा है। एक तरफ जहां महाराष्ट्र जैसे कई
राज्यों ने धन की कमी का बहाना बनाकर बच्चों को मुफ्त वर्दी देने से इनकार कर दिया
है, वहीं केरल जैसे राज्य में वर्दी को लेकर एक बहुत बड़ा घोटाला सबके
सम्मुख आया। ‘केरला स्टेट टीचर एसोसिएशन’ एवं
‘एस.एफ.आई.’ (SFI) के लगातार विरोध करने के बाद यह बात सब के नोटिस में लायी
गयी कि बच्चों को वर्दी देने के लिए अनुमानित धनराशि लगभग 113 करोड़ में से 50 करोड़
का घोटाला किया गया है और काफी समय से बच्चों को वर्दी नहीं दी गयी। ऐसा माना जाता है
कि प्रसिद्ध कपड़ा निर्माता निगम मफतलाल को कुछ विशेष लाभ पहुंचाने के लिए उसे
बच्चों की वर्दी का ठेका दिया गया जिसमें अनेक प्रकार से नियमों की अनदेखी की
गयी है।
योजना आयोग
ने अपनी पंचवर्षीय योजना में स्कूली शिक्षा के लिए ‘सार्वजनिक एवं निजी सहभागिता’
के सिद्धांत को लागू करने की सिफारिश की है, जिसके अनुसार अब सार्वजनिक पैसे
का प्रयोग सरकार द्वारा शिक्षा के निजीकरण एवं व्यावसायीकरण के लिए किया
जाएगा। ऐसा करने के पीछे मान्यता यह है कि इससे स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में
युगान्तकारी परिवर्तन होगा। अब स्थिति यह है कि अनेक राज्य की
सरकारों ने तो अनेक सरकारी संस्थानों की तरह अब सरकारी विद्यालयों को भी निजी
हाथों में देने का फैसला कर लिया है। दक्षिण भारत के कई राज्य हैं
जिन्होंने सरकारी विद्यालयों को निजी कंपनियों को देने के लिए कई टेंडर भी समाचार
पत्रों में प्रकाशित कर दिए हैं। मज़ेदार बात तो यह है कि हमारे देश
के माननीय योजना विभाग ने इस पी.पी.पी. को स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में लागू करने के लिए जिन
नीति-निर्धारकों को बुलाकर यह नीति बनाई, उनमें से कोई भी शिक्षाविद् नहीं था। सभी के सभी
बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों से संबंधित थे जिनका बस एक ही उद्देश्य था कि उच्च-शिक्षा के बाद अब कैसे भी स्कूली
शिक्षा को कारोबार में बदला जाए। यद्यपि निजी विद्यालयों ने पहले से
ही यह कार्य कर दिया है मगर अब शिक्षा के निजीकरण की यह परियोजना व्यापक स्तर पर चलायी जानी है जिससे उद्योगपतियों का मुनाफा बढ़े। ‘सार्वजानिक एवं
निजी सहभागिता’ की यह नीति स्कूली शिक्षा को बाज़ार में बेचने जैसा ही है जिसके
परिणामस्वरूप गरीब को सदैव के लिए शिक्षा से दूर रखने की कोशिश की
जाने वाली है।
संभव है कि
आम जनता पर भविष्य में स्कूली शिक्षा का बोझ इतना कर दिया जाएगा कि एकबारगी वे
सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि अपने बच्चों को स्कूल भेजा जाए या काम करने। एक बात यह भी है
कि अगर सब कार्य निजी क्षेत्र ही करेगा तो फिर तथाकथित सरकार नाम की इस चीज़ की
हमें आवश्यकता ही क्यों है? जो सरकार अपने नागरिकों को मूलभूत सुविधाएं (जिसमें शिक्षा भी शामिल
है) देने में असमर्थ है, उसे त्यागपत्र देकर अन्यों को मौका देना चाहिए बजाय
निजी क्षेत्रों की तरफ मुंह ताकने के। सरकार के
नीति-निर्धारकों की मानें तो देश के सर्वोच्च संस्थानों एवं पदों पर किसी पूंजीपति
या उद्योगपति को होना चाहिए क्योंकि इनके हिसाब से इन पैसेवालों के पास सब चीज़ों
का समाधान होता है तभी तो बात-बात पर इनकी तरफ हमारे देश की सरकारें भागती हैं।
हमने आलेख के प्रारंभ में भी कहा था
कि शिक्षा का मतलब केवल पैसा कमाना ही नहीं होता। मनुष्य को आंतरिक
रूप से समृद्ध करते हुए उसे अपने परिवेश के प्रति सचेत करना ही वास्तविक शिक्षा है, जो शिक्षित
व्यक्ति के व्यक्तित्व में भी एक सकारात्मक बदलाव लाती है। लेकिन आज हमारी
शिक्षा हमें यह सिखाती है कि कैसे भी पैसा कमाइए और पैसा कमाने की मशीन बनकर रह
जाइये। जब तक शिक्षा को लेकर यह सोच बनी रहेगी, तब तक शिक्षा साक्षरता से आगे नहीं जा सकेगी। शिक्षा का कार्य अब इस सोच को भी खत्म करना है जिसके अंतर्गत शिक्षा पाने वालों और देने वालों में सकारात्मक बदलाव लाना अंतर्निहित होता है। हमें पता है कि यह कार्य आज बहुत मुश्किल हो गया है लेकिन इसके लिए एक
कोशिश तो करनी चाहिए।
संपर्क – ऋतु, तदर्थ प्रवक्ता, कालिन्दी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दूरभाष- 9871303472,ईमेल – ritudrall@gmail.com
[1] Condition Of Government Schools in India -Aparna Vyas
(www.theviewspaper.net)
Website:
https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal
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