उन्नीसवीं शताब्दी के पहले कुछ दशक भारतीय नवजागरण की दृष्टि
से अत्यन्त महत्वपूर्ण रहे, क्योंकि यही वे वर्ष थे
जिनमें से एक तरफ ईस्ट इंडिया कंपनी राजनैतिक सर्वोच्चता का मार्ग तलाश रही थी, दूसरी ओर यूरोपीय सभ्यता – संस्कृति - विचार, भारतीय सभ्यता – संस्कृति - विचार पर छा जाने का प्रयास कर रहा था। यह एक
प्रकार के राजनैतिक-सांस्कृतिक टकराव जैसी स्थिति थी। राजनैतिक टकराव का चरम हमें
1857 की क्रांति के रूप में प्राप्त होता है जिसमें ब्रिटिश शक्ति का प्रतिरोध
भारतीय पक्ष कर रहा था। किंतु यह जानना दिलचस्प होगा कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति
की ओर से यूरोपीय विचार पद्धति के लिये प्रतिरोध करने वाला वर्ग भारतीय नहीं था, यह वे यूरोपीय विद्वान थे जो भारत की प्राचीन
गौरवशाली परंपरा पर गहन शोध और अध्ययन में संलग्न थे और उस पर इस कदर मोहित
थे कि भारतीय संस्कृति और परंपरा में आ चुकी अनेक बुराइयों बावजूद यथा स्थिति
बनाये रहने के पक्षधर थे। वैचारिक सांस्कृतिक दृष्टि से भारतीय पक्ष को तीसरा पक्ष
माना जा सकता है जो कम से कम अभी किसी भी प्रभावशाली हस्तक्षेप की स्थिति में नहीं
था। ऐसी स्थिति में इस प्रश्न से जूझना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या
भारतीय नवजागरण के पीछे मूल कारक वे राष्ट्रवादी, मानववादी यूरोपीय विचार थे जो अंग्रेजों के भारत पर अधिपत्य के
साथ आये अथवा क्या तब भी भारतीय नवजागरण का स्वरूप वैसा ही होता, और उसी समय
घटित होता यदि अंग्रेज भारत में नहीं आये होते? एक तीसरा प्रश्न भी है और वो ज्यादा महत्वपूर्ण है कि समकालीन संदर्भ में भारतीय नवजागरण और अतीत
के उन नवजागरणकालीन महानायकों से क्या सीखा जा सकता है जिससे हम वर्तमान को और
समृद्ध कर सकें। हमें उन महानायकों की आंखो में झांक कर अपने मन में एक
और प्रश्न का उत्तर टटोलने की जरूरत है कि 15 अगस्त 1947 के बाद जो भारत हमने
बनाया है क्या यह उन नवजागरण कालीन नायकों की आकांक्षाओ के अनुरूप है?
25 दिसम्बर 2011
को गांधी संग्रहालय पटना में देश के एक लब्धप्रतिष्ठ विद्वान और साहित्यकार कर्मेंदु शिशिर ने प्रधान हरिशंकर
स्मृति व्याख्यान माला के अंतर्गत इन सभी प्रश्नों को टटोलते हुए
एक व्याख्यान दिया था। बहुत कम ऐसा होता है कि जब एक व्याख्यान पुस्तक का स्वरूप
ले ले। अभी हाल में ही, भारतीय नवजागरण और
समकालीन संदर्भ शीर्षक से प्रकाशित कर्मेंदु शिशिर की पुस्तक न केवल भारतीय
नवजागरण को समकालीन संदर्भो में समझने का अनूठा प्रयास है बल्कि औपनिवेशिक, वामपंथी, और
दक्षिणपंथी इतिहासकारों-विचारकों को बहस के लिए खुला आमंत्रण भी है। कर्मेंदु अपनी पुस्तक में नवजागरण कालीन महानायकों
की महानता और उनकी सीमाओं के साथ उनके कार्यों और विचार दृष्टि का उदाहरण देते हुए
समकालीन संदर्भो से जूझते हुए बहस की पूरी श्रृंखला का निर्माण करते हैं। इस प्रक्रिया में वे
अनेक इतिहासकारों - शोधार्थियों के विचारो को लेते-काटते, मुझे कहीं न कहीं राम विलास शर्मा की इस स्थापना से
सहमत होते दिखते हैं कि अंग्रेज भारत में न आये होते तब भी भारत में नवजागरण का स्वरूप उससे भी बेहतर होता जैसा कि अतीत में है (पृ.43)।
कम से कम कर्मेंदु भारतीय नवजागरण के विषय में औपनिवेशिक दृष्टि के उन
इतिहासकारों से पूरी तरह असहमत हैं जो इसके लिये पूरी तरह से मात्र यूरोपीय शिक्षा, सभ्यता और
संस्कृति को भारत में नवजागरण का कारण मानते हैं। औपनिवेशिक भारत में किसानों के प्रतिरोध, सवर्णों और दलितों, दोनों ही ओर के नायकों द्वारा जाति और परंपराओं में सुधार के प्रयास, कर्मेंदु के तर्क को आधार प्रदान
करते हैं। कर्मेंदु के लेखन से यह झलक भी मिलती है कि वह स्वयं भारतीय संस्कृति
की उस शक्ति से गहरे तक प्रभावित हैं जो बार बार सामाजिक गलन की स्थिति में अपने ही बीच से कई ऐसे
व्यक्तित्व उभारती है जो सामाजिक संस्कार और उसके ‘धनात्मक स्वरूप‘ को
लाने में सहायक हों। मौलिक रूप से कर्मेंदु की इस स्थापना से मेरा मतभेद नहीं
है किंतु
इतिहास के विद्यार्थी के नाते यह हस्तक्षेप आवश्यक है कि जहां एक तरफ यूरोपीय समाज
ने राष्ट्रवाद, मानववाद, स्वतंत्रता, समानता
और बंधुत्व के विचार अपने राज्य और संगठित धर्म से बेहद कड़े संघर्ष के पश्चात
प्राप्त किये थे, वहीं दूसरी तरफ भारतीय ‘संगछध्वं संवदध्वं संवोमनांसिजानताम्’ की परंपरा, राज सामंती मनोवृत्ति द्वारा पद दलित होकर धूल धूसरित हो रही
थी। जन सामान्य अपनी भेदभाव पूर्ण कुत्सित परंपराओं से बुरी तरह चिपका हुआ था।
इसलिये यह मानते हुए भी कि भारतीय संस्कृति का ‘धनात्मक स्वरूप‘ कहीं
न कही बचा हुआ था इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि इसको पुनः बाहर लाने के लिये एक
बडे़ वैचारिक उत्कोच की जरूरत थी जो उन्नीसवीं सदी के पहले कुछ दशकों में यूरोपीय समाज-शिक्षा के सानिध्य
से भारतीय समाज को प्राप्त हुआ। उत्कोच की प्राप्ति को, भले ही वह औपनिवेशिक झण्डे तले ही हुआ हो, भारतीय संस्कृति को
आत्मस्वीकार करना चाहिए। यह एक ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठ तथ्य है, न कि औपनिवेशिक विचार के गर्व का कारण या भारतीय संस्कृति की हेठी।
एक और तथ्य जो पाश्चात्य शिक्षा विचारों से जुड़ा हुआ
है, वह यह कि इस वैचारिक संक्रमण ने भारत में दो तरह के वर्गों को पैदा किया।
प्रथम वह जो पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति से प्रभावित होकर ब्रिटिश शक्ति के साथ
औपनिवेशिक साम्राज्य को स्थायित्व देने में उसका साथ देने लगा, वहीं एक दूसरी तरह का भी वर्ग उत्पन्न हुआ जो सामाजिक
बदलाव का इच्छुक था। राजा राममोहन राय ऐसे ही वर्ग से आते थे। कर्मेंदु जी ने अपनी पुस्तक में राजा राम मोहन राय की
वैचारिक विकास की प्रक्रिया से गुजरते हुए समकालीन परिस्थितियों में उनकी संपूर्ण उपलब्धियों के साथ उनकी
सीमाओं को भी इंगित किया है। प्रेस पर नियन्त्रण के प्रश्न पर जब राजा राम मोहन
राय का ऐसा व्यामोह टूटता है कि,
सौभाग्य से
किस्मत ने उन्हें समूचे राष्ट्र के संरक्षण में रखा है और वे उसी तरह के
नागरिक तथा धार्मिक विशेषाधिकारों के लाभ से सुरक्षित हैं, जैसे अधिकारों का इंग्लैंड में हरेक अंग्रेज हकदार है, तब कर्मेंदु इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए
टिप्पणी करते हैं कि राजा राम मोहन राय स्वतंत्र और गुलाम शासक और शासित नागरिक
हकों को समान समझ रहे थे, किंतु मुझे इसमें राजा राम
मोहन राय के दूरदर्शी व्यक्तित्व की झलक मिलती है कि वे कितनी जल्दी औपनिवेशिक
चरित्र को समझने में सफल हो गये।
मुझे तो
आश्चर्य इस बात पर है कि राजा राम मोहन राय के 60 वर्ष बाद तक उदारवादी कांग्रेसियों
की ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन से मांगो और याचनाओं के पीछे यही विश्वास कायम कैसे
रह पाया था। बहरहाल इसी अध्याय ‘बंगाल का नवजागरण’ में एक स्थान पर कर्मेंदु ने राजा राम मोहन राय के
द्वारा सामाजिक सुधार के प्रयास के सबसे बडे़ विरोधी राधा कांत देव का डॉ. पणिक्कर के हवाले से यह
कहते हुए उल्लेख किया है कि उनका विरोध इस बात से था कि कोई विदेशी सरकार हिंदू समाज के अंदरूनी मामले में कैसे दखलंदाजी कर सकती
है? अगर यह सिलसिला शुरू हुआ तो पूरा हिंदू समाज और उसकी धार्मिक
व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जायेगी। उनका मत था कि बदलाव की पहल खुद हिंदू समाज के भीतर से हो (पृ.27)।
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि तत्कालीन
समाज की जड़ता को तोड़ने के लिए ’चौतरफा प्रयास’ जैसी रणनीतिक तैयारी की आवश्यकता थी, जिसके लिये राजा राम मोहन राय एक तरफ अपीलों द्वारा कानून में परिवर्तन की मांग कर रहे
थे और दूसरी तरफ आत्मीय सभा और ब्रह्म समाज जैसी संस्थायें हिंदू धर्म में भीतर से सुधार
का प्रयास कर रही थीं। ऐसे में राज्य द्वारा समाज के लिये हितकारी
प्रयासों का विरोध, इस मुहिम को कमजोर करने
वाला था, वह भी तब जब कि पूरी 19
वीं सदी में राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्ता न केवल ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन को ’राज्य’
के रूप में स्वीकार कर रहे थे बल्कि
वे उसकी व्यस्था के अंग भी थे।
कर्मेंदु ने अपनी पुस्तक के तीन
प्रमुख अध्यायों में बंगाल, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के नवजागरण में जाति का
प्रश्न बड़ी शिद्दत से उठाया है। अक्सर हिंदू धर्म को धर्म और बाकी धर्मों को सम्प्रदाय सिद्ध करने
वालों के मुख से हिंदू धर्म के बारे में यह गर्वोक्ति सुनी जा सकती है कि हिंदू ही एक ऐसा अकेला नम्य धर्म है
जिसमें आप ईश्वर को माने तब भी हिंदू हैं, न माने तब भी हिंदू हैं, किसी पुस्तक को माने तब भी हिंदू हैं न माने तब भी। यानि
कि आपकी स्वतंत्रता हर ओर से कायम है। ऐसे लोगों से मेरा प्रश्न है कि क्या कभी
बिना जाति का हिंदू देखा है? कैसा भी हिंदू हो सकता है पर बिना जाति
का नहीं, क्योंकि जाति हर हिंदू के जन्म के साथ चिपकी
आती है। इस जाति की एक और विशेषता है कि हर जाति अपने से एक निम्न जाति खोज लेती
है, सर्वश्रेष्ठ कौन सी है, इसका निर्णय आज तक नहीं हो पाया है। यही वह कारण है कि
कोई भी व्यक्ति हिंदू नहीं बन सकता क्योंकि, वह सिर्फ पैदा होता है अपनी जाति के साथ। इस तरह हर हिंदू अपनी जाति के साथ हजारों वर्ष की सड़न ढ़़ोने के लिए
आज तक अभिशप्त है। आजादी के बाद से लेकर समकालीन समाज तक जिसप्रकार जाति विहीन समाज के निर्माण के प्रयास तो दूर, जातीय अस्मिता को उभार कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने
का कार्य किया गया है, उसका एक उदाहरण, ‘तिलक तराजू और तलवार’ के नारे से जाने जानेवाले राजनैतिक दल द्वारा अब ‘ब्राम्हण शंख बजायेगा तो
हाथी दिल्ली जायेगा’ जैसा नारा गढ़ लेने से
समझा जा सकता है। कर्मेंदु ने नवजागरण कालीन महानायकों द्वारा जाति विहीन समाज के
निर्माण के प्रयासों और उपायों का जो उल्लेख किया है, वह समकालीन समाज के समक्ष
आइने से कम नहीं है। बंगाल के ही नवजागरण कालीन महानायक केशव चन्द्र सेन कि दृष्टि
में जाति विहीन समाज के लिये समाधान था, ‘ ‘‘ईश्वर के पितृत्व में विश्वास करना, मनुष्य के बंधुत्व में
विश्वास करना और इसलिये जो कोई भी अपने दिल में और घर में हर रोज सच्चे ईश्वर की
प्रार्थना करता है, उसे अपने सभी हमवतनों को
भाइयों के रूप में पहचानना सीखना चाहिए। समाज की ऐसी अवस्था में जाति काफूर हो जायेगी।’’ (पृ.37)।
जाति के प्रश्न को महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के
नवजागरण कालीन महानायकों ने भी उठाया विशेषकर दलितों के बीच से उभरे महानायकों के लिये यह जीवन और
मृत्यु का प्रश्न था। कर्मेंदु के शब्दों में नवजागरण कालीन नेतृत्व का झगड़ा उस
ब्राम्हण व्यवस्था से था जो वज्र लौह कपाट की तरह मजबूत थी। ऐसे में अगर जाति के प्रश्न पर
पेरियार ने राम की मूर्ति को चप्पल जूतों से पीटकर सार्वजनिक तौर पर जला डाला तब
ऐसी उग्रता और हठीले पन की तर्क संगति तो बनती ही है। दूसरी तरफ डॉ. अंबेडकर ब्राहमणवादी सोच, संस्कारो और उससे बनी व्यवस्था पर चोट करते थे और उनके
पास समता मूलक समाज की एक विस्तृत गहन और अत्यंत सुविचारित व्यवस्था का गंभीर
ढांचा था। मगर रामास्वामी पेरियार उनकी समझ को अपने तरीके से लेते थे। कानपुर की
सभा में
उन्होंने आह्वान किया कि अगर डॉ. अंबेडकर के सपनों का भारत बनाना है
तो ब्राम्हण और ब्राम्हणवाद से बचो मत, बल्कि उसे नष्ट कर दो। यहां डॉ. राम मनोहर लोहिया की
टिप्पणी का उल्लेख आवश्यक है, जिसमें उन्होने कहा था ब्राह्मणवाद
का विरोध अहीरवाद की स्थापना नहीं है। गो कि, लोहिया की दृष्टि में समानता के लिये सवर्णों की भूमिका
महत्वपूर्ण थी। उनका कहना था, सवर्णों को भी यह बोध हो कि,
समानता का
समाज अंततः उनके लिए भी लाभदायक होगा। दूसरे, उनके सोच और संस्कार में बिना बदलाव लाये हम समानता का समाज
नहीं बना सकते (पृ.82,83,84,111)।
कर्मेंदु ने अपनी पुस्तक में राजा राम मोहन राय से लेकर
केशव चन्द्र सेन, डेरेजियो, विद्यासागर, बंकिम, रानडे,
फुले, पंडिता रमाबाई, वीरेशालिंगम,
नारायण गुरू, पेरियार, अंबेडकर, नेहरू,
लोहिया आदि
सभी के सामाजिक-सांस्कृतिक आवदानों और इनकी सीमाओं को जांचते-परखते हुए समकालीन
संदर्भ में इन विचारों की उपयोगिता केा दर्शाया है। इसमें कर्मेंदु द्वारा गांधी को छोड़ना अखरता है फिर भी, विशेषकर पुस्तक का यह अध्याय ‘नवजागरण का समकालीन
संदर्भ’, आजादी के बाद से समकालीन समाज के विकास के तौर तरीके
पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है। इस अध्याय में कर्मेंदु ने उचित ही यह प्रश्न
उठाया है कि क्या यह वही भारत है जिसके निर्माण की प्रक्रिया नवजागरण कालीन
सुधारकों ने प्रारंभ की थी। कर्मेंदु को, और उनके जरिए हमें भी सचमुच यह बात हैरान परेशान करती है कि
गांधी के इतने नजदीक रहने के बावजूद नेहरू मौलिक भारत के निर्माण के लिये गांधी जी
की योजनाओं और प्रणालियों को अपनाने को लेकर क्यों नहीं उत्सुक हुए? आश्चर्य है कि महात्मा गांधी, उनके विचार और व्यवहार में कभी आये ही नहीं। हर समय
हर पल उनसे एक दूरी बनती रही और भारत अलग राह पर चलता चला गया। पंडित नेहरू के
व्यक्तित्व का पूर्व और पश्चिम का द्वन्द्व आने वाले समय में पूरे भारत की नियति
बन गई। आज भारत और इंडिया की मौजूदगी एक बड़ी समस्या के रूप में सामने है। उसे इस
दोराहे पर अपने रास्ते का चयन करना है।
कर्मेंदु शिशिर की यह पुस्तक हर
उस नवजागरण कालीन प्रश्न से जूझती है जिसके संदर्भ, वर्तमान से टकराते हैं, चाहे वह किसानों का प्रश्न हो, स्त्री सशक्तीकरण का प्रश्न हो, भाषा का प्रश्न हो अथवा सांप्रदायिकता का प्रश्न हो, लेखक की मूल टेक, ऐसे प्रत्येक प्रश्न को हल करने के लिए, भारतीय समाज की अंतर आत्मा को समझ कर ‘भारतीय मॉडल’ तैयार करने की है जिससे ‘मौलिक भारत’ के निर्माण और विकास का मार्ग प्रशस्त हो।
(पुस्तक - भारतीय नवजागरण और समकालीन संदर्भ, लेखक- कर्मेंदु शिशिर, प्रकाशक- नयी
किताब, दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2013, I.S.B.N - 978.93.82821.00.7)
संपर्क
- नरेन्द्र
शुक्ल, कनिष्ठ अध्येता, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, तीन मूर्ति हाउस, नई दिल्ली, दूरभाष 09336467340, ईमेल -priyamvad.n@gmail.com
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