बुधवार, 23 अप्रैल 2014

कविताएं




                                   आदिवासी और यह दौर
- हरि राम मीणा
भविष्य के ब्लेक होल में समाता अतीत का ज्योति-पुंज
क्षत-विक्षत चौतरफा माहोल
आतंकी जिन्न के कैदखाने में विव
समझ लिए गये उसी के भक्त

ज्ञात आदिमता का सजीव संग्रहालय
बरगद की जड़ों सी स्मृतियां
भविष्य की आशंकाओं से घिरे स्वप्न
अजनबी दिनों में बांझ होती उम्मीदें
जादूई यथार्थ के तहखाने सा जीवन
झिझकता रहा हस्तक्षेप से तंत्र-नियंताओं का अधिसंख्यक

वही आदिजन का भूगोल
समय के पाटे पर निढ़ाल पड़ा हुआ
आसमान के शून्य में डूबी सूखी आंखे
तलाती अपना कोई प्रतिरूपी नक्षत्र

सिसकता-चीत्कारता रोम-रोम
असहाय सदमे में अधनंगा-भूखा रीर
बेहो दिमाग में घुस आती है - अनामन्त्रित पाविकता

ग्लोबल विकास के पैकेज पर
प्रहार करने का स्वांग करते
प्रकृति-पुत्रों की आवाज निकालते
नेपथ्य में सुरक्षित शैतानों का समूह

विकास-घुसपैठ, आदिम चेतना-आतंक
सब गड्डमड्ड करती यात्रा -
बाल्को, हिंडाल्को, नेतरहाट
नंदीग्राम, सिंगरूर, लालग
ग्रीन हंट - दंतेवाड़ा वाया राजधानी एक्सप्रेस

सामने हो लोक-सत्ता का सस्त्र मूर्तरूप
या निकलता हो बन्दूक की नली में से
लाल-ध्वज
समर-भूमि के आसपास
धूल धूसरित होते जन-स्वप्न

हवा के शहतीरों में अटका सर्वहारा
और अपना ही मर्सिया पता नक्सलबाड़ी का संदर्भ-ग्रंथ
मर गया कानू सान्याल वक्त से पहले
क्या इसलिए कि अव्यक्त रहा
दोनों ही दल के लड़ाकुओं का सच ?

खजूर के सेलों[1] की तरह फूटे जो धरती से
उखाड़े गये वो ही छांट-छांट कर

कहां जाए आखिर
तिनका-तिनका घोंसला छोड़कर भोला पंछी
हर कोई तो नहीं कर सकता
अपनी हर चीज से इस कदर प्यार

अछूते जंगलों के बीच
यहां-वहां खाली जमीन में उपजती आदिम जिजीविषा
हिंसक जानवरों की पीठ पर सवार नैसर्गिक मूल्य-सूत्र
ऋतुओं की मौलिकताओं के संग पली जिंदगी
आधुनिकता की किताब के भीतर
कई-कई खाली पृष्ठों सा ठहरा हुआ जीवन
भ्रमित लगती है भाषा और लिपि
मौन है भाग्य का देवता

चौतरफा भीड़ में असंतुलित होते आदिम संस्कार
दारू के नशे में लड़खड़ाता विवेक
दबोच लिया सस्ते में खूंखार लाल पंजों ने
और दूसरी तरफ पहली बार भयावह दिखते
- ग्रेहाउण्ड’, ‘स्कॉर्पियन,’ ‘कोबरा[2]

वीरान घोटुल, उजड़े हाट, उमंगहीन पर्व
थके मांदल और सिसकती बांसुरी को थामे
पथरायी आंखों के सहारे
अपने हरे-भरे आंगन में जीवन-अवलम्ब ढूंढता कोई
कैसे बचे वैश्विक वात्याचक्र से
दिक्कू[3] और देसी दलालों के षड़यंत्र से ?

अपने बलबूते लड़ते रहे
आका-गंगाओं सी लम्बी लड़ाई
जानकर अंततः सब कुछ अर्थहीन
सीख लिया जीना कानन-खोखरों में

जानते हैं अब भी लड़ना
मगर नहीं जानते लडे़ं किस से
ये तो बांसुरी ही बजाते रहे जंगल में
मानकर कि हमारा ही है जंगल
लड़ कौन रहे हैं इनके पक्ष की लड़ाई
- इधर भी, उधर भी

आधुनिक नहीं, रफ्तार आदिम ही सही
क्या नहीं रह सकते इनके बांटे
थिरकते पांवों वाले दिन
और चांद-तारों भरी रातें

घुसपैठिये जबड़ों में इनकी आवाज़
खुद-मुखत्यारों की मुट्ठी में इनकी धरती
पूंजी के प्रेत की आंतों में

चुपचाप पिघलते घने जंगल, खनिज सम्पदा, वन्य जीव और इनके सपने
क्यों पोता जा रहा
इन्हीं के भाग्य पर गाढ़ा तारकोल
कौन समझाये व्यवस्था के घुड़सवारों को
कि नहीं होता कभी प्रकृति-पुत्र
-किसी धरा-समाज का बैरी ?

पैदा नहीं हुआ था जब आर्केस्ट्रा
किसी सभ्यता, ज्ञान-विज्ञान व तकनीकी वगैरा-वगैरा का
वे बड़े हो चुके थे निकल कर धरती की कोख से
दावा इतना ही रहता आया कि मां है वह उनकी
बड़ी कितनी भी हो जाये
बिछुड़ कैसे सकती है संतान अपनी मां से

दूर-दूर तक पसरा
विकल्पहीनता का रेगिस्तान
मृग-मरीचिकाओं में क्रीड़ारत स्वयं-भू नायक
समय की धारा के विपरीत सिद्धान्तों की जिद्दी नाव
विकास के स्वप्नलोकी महल की नींव में कराहती
- निस्सहाय आदिमता

(याद रखा जाये -
हरी टहनी के कट जाने पर रोती है पेड़ की आंखें
धरती की आत्मा तक पहुंचते हैं ढलकते आसू
कांपता है जैसे आसमान किसी तारे के टूट जाने पर
लामबन्द होती है पूरी कायनात - यहां से वहां तक)

संपर्क - हरि राम मीणा, 31 शिवशक्तिनगरए किंग्स रोड़, अजमेर हाईवे, जयपुर-302021








मुकेश मानस की आठ कविताएं

आप और मैं
(1)
आपकी किताबों में ज़हर भरा है
फिर भी आप उन्हें कितना पसंद करते हैं

मैं पैदा कर रहा हूं प्रेम
अपनी किताबों में
फिर भी आप उनसे कितना जलते हैं

आपकी सारी बौद्धिक क्षमता
ड्यंत्र रचने में खर्च होती है
और मैं पूरी रचनात्मक्ता के साथ
मानवता के गीत गाता हूं
(2013)

(2)
ज्ञान के सारे पाठ्यक्रम आपके हैं
उनमें मैं कहां हूं

शासन के सारे संस्थान आपके हैं
उनमें मैं कहां हूं

बदलाव के सारे विचार आपके हैं
उनमें मैं कहां हूं

अरे भले लोगो!
सब कुछ तो आपका ही है
फिर भी कितना नापसंद है आपको
मेरा ये सवाल
2013

(3)
आपमें और मुझमें
फ़र्क सिर्फ़ इतना ही नहीं है
कि आपके भीतर ज़हर भरा है
और बेइन्तेहा नफ़रत है मेरे भीतर

आपमें और मुझमें
फ़र्क सिर्फ़ इतना ही नहीं है
कि आप देखते हैं सिर्फ़ खुद को
और मैं अपने समाज को देखता हूं

आपमें और मुझमें
फ़र्क सिर्फ़ इतना ही नहीं है
कि आपके पास सदियों पुरानी ज़मीन है
और मुझे अपनी ज़मीन के लिए
एक बीहड़ जंगल काटना है

आपमें और मुझमें
फ़र्क सिर्फ़ इतना ही नहीं है
आपमें और मुझमें
बहुत फ़र्क है

आप इंसान के भेष में
भेड़िये हो
और मैं तो अभी
इंसान होने की लड़ाई ही लड़ रहा हूं
(2013)

डरो मुझसे
डरो मेरी कलम से
कि उसमें न्याय की स्याही भरी है
और वह सिर्फ़ सच लिखती है

डरो मेरी भाषा से
कि वो एक शीशा है
उससे छिप नहीं सकता कोई  ढोंग

डरो मेरी कविता से
कि वो एक शेर है
खूंखार हैं उसके पंजे

डरो मुझसे
कि मैं एक जागरूक इंसान हूं
मेरे पास भविष्यदृष्टा आंखें हैं

डरो मेरी कलम से
मेरी भाषा से मेरी कविता से
डरो मुझसे
कि मेरे डरने के दिन
अब खत्म हो गये हैं
(2013)

कविता और सत्ता के बारे में
दुख की बात करो
अपनी कविता में
मगर सुख के स्वप्न मत सजाओ

अपनी कविता में
दुर्भाग्य का रोना रोओ
मगर मेहनत के गीत मत गाओ

हालात पर टीका करो
मगर बदलाव की बात मत करो

सुख के स्वप्न
मेहनत के गीत
और बदलाव के विचार
सख्त नापसंद हैं हमारी सत्ता को
(2012)

 किताबों और सत्ता के बारे में
डरते हैं वे
भगत सिंह की डायरी से
जो बताती है कि ये तथाकथित भटका हुआ युवा
कितना बड़ा भविष्यदृष्टा हो सकता है

पाश की कविताओं से
डरते हैं वे
जो बताती हैं कि कोई निरीह सा कवि
अपने समय का कितना बड़ा राजनीतिक वक्ता हो सकता है

डरते हैं वे
मंटो की कहानियों से
जो बताती हैं कि मनुष्यता
जाति, धर्म, क्षेत्र और राजनीति के टुच्चे स्वार्थों से भी
बहुत ऊपर हो सकती है

मार्क्स के विचारों से
डरते हैं वे
जो बताते हैं कि अन्यायी सत्ता को
किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं करना चाहिए

दरअसल वे हथियारों से ज्यादा
किताबों से डरते हैं
और किताबों में रचे बसे विचारों से डरते हैं


उनका गणतंत्र

कितनी सुसज्जित फौज है
कितनी सुगढ़ तोपें और मिसालें
ये गणतंत्र है या किसी युद्ध की तैयारी
मैं बाड़े में बैठकर
इस गणतंत्र का तमाशा नहीं देखूंगा

कितने सारे पुलिस थाने
कितने कोर्ट कचहरी
ये गणतंत्र है या अन्याय का समंद
मैं किनारे पर बैठकर
इस गणतंत्र की लहरें नहीं गिनूंगा

कितनी सुंदर संसद है
कितने सफेद सांसद
ये गणतंत्र है या भ्रष्टाचार की मशीन
मैं हाथ पर हाथ धरे
इस मशीन के उत्पाद नहीं गिनूंगा

मुट्ठी भर अमीरज़ादे
और धरती भर भुखमरे
ये गणतंत्र है या आदमी की मृत्यु का षड़यंत्र
मैं चुपचाप रहकर
इस षड्यंत्र में शामिल नहीं होऊंगा

मैं बाड़ तोड़ डालूंगा
समन्दर उलीच दूंगा
मशीन रोक दूंगा
और षड्यंत्र तोड़ दूंगा

ये मेरा गणतंत्र नहीं
ये उनका गणतंत्र है


हमारी कविता
गांधी की बकरी नहीं
गुलाब नहीं नेहरू की
हमारी कविता बुद्ध धम्म है
और कबीर की साखी है

बिरला का मंदिर नहीं
सराय नहीं टाटा की
हमारी कविता सावित्री का विद्यालय है
और जोतीबा की सत्यशोधक

केडिया की जूती नहीं
दासी नहीं डालमिया की
हमारी कविता अंबेडकर की मूकनायक है
काशी की ललकार है

हमारी कविता
शासन का डंडा नहीं
शोषण और अपमान के विरुद्ध हमारा झंडा है
(2011)


जाति : दो कविताएं
(1)
मेरे पैदा होने से पहले
मेरे स्कूल जाने से पहले
मेरे नौकरी करने से पहले
मेरे शादी करने से पहले
और शमशान में मुझे जलाने से पहले
पूछी गई मुझसे मेरी जाति

हमेशा इस तरह पूछी गई मुझसे मेरी जाति
जैसे मुझसे बड़ी थी मेरी जाति
(2)
मरने वालों को
जीने वालों की जाति पता थी

जीने वालों को
मरने वालों की जाति पता थी

मरने और जीने वाले दोनों को
एक दूसरे की जाति पता थी



मेरी जाति
मैं अपनी जाति के बारे में बहुत कम ही सोचता हूं
जब तक उसकी जरुरत ना पड़े
तब तक मैं उसके बारे में सोचता ही नहीं
लेकिन अजीब बात है
मेरी जाति हमेशा मेरे बारे में ही सोचती रहती है

मैं जो भी करता हूं
वह हमेशा उसमें कुछ मीनमेख निकालती रहती है
और मुझसे कहती रहती है कि और बेहतर करो
उसकी यह आदत इतनी गहरी हो गई है
कि वह मेरे उठने-बैठने, बोलने-चालने, हसने-बतियाने
पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने और चलने–टहलने
जैसी छोटी-छोटी चीजों पर भी अपनी नज़र गड़ाए रहती है
और गाहे-बगाहे मुझे टोकती रहती है

मैं जहा भी जाता हूं और जिनसे भी मिलता हूं
वह मुझसे पहले पहुच जाती है
और लोगों को बता देती है कि मैं आ रहा हूं

वह मेरे व्यक्तित्व के सारे राज़ खुलासा कर देती है
और बता देती है कि मैं क्या हूं
मैं कैसे सोचता हूं
कैसे बात करता हूं
मैं कैसे चलता हूं
कैसे हसता हूं
कैसे बैठता हूं
कैसे खाता हूं

मुझे समझ नहीं आता
कि मेरी इन व्यक्तिगत बातों से
मेरी जाति को क्या लेना-देना है?

शायद मेरी जाति को पता नहीं
कि समय बदल गया है
अब जाति कमजोरी की नहीं
संघर्ष और ताकत की निशानी है

संपर्क - संपर्क: मुकेश मानस, एसोसिऐट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, सत्यवती कालेज, अशोक विहार, फेस-3,नई दिल्ली-52
ईमेल- -mkumar@satyawati.du.ac.in/




गुवा-नुवामुंडी
   {गुवा – नुआमुंडी (1980 ई.) के  शहीदों के प्रति}
                                                - अनुज लुगुन


इतने बरसों बाद भी
राख जीवित है इन पहाड़ों में
जंगल में जैसे अभी ही
थोड़ी देर पहले आग लगी हो

उन्नत पहाड़ों के गर्भ से जन्म लिए बच्चे
आज भी यहां वही दृश्य देख रहे हैं
जो पहले उनके पुरखों ने देखा था
उनके सांवले तपे चेहरे का रंग
मिट रहा है उन खदानों की धूल से
जिसने फिर से उस तारीख को घसीट लाया है
उनके जंगली गांव में
जो तीस साल पहले झुलस गया था

गुवा-नुआमुंडी, किरीबुरू
और हतना बुरू के शिखर
अपने पड़ोसियों से दूर होते जा रहे हैं
धंसते जा रहे हैं धरती में और अन्दर
अपना आत्मसम्मान खोते पहाड़
मरणासन्न जन रहे हैं बच्चे
कि कल गुवा-नुआमुंडी था
आज हतना बुरू है
कल और कोई पहाड़ जन्म लेगा
धरती में समां जाने के लिए
अजीब है! दूसरी और की दुनिया खुश हो रही है
पहाड़ों के दफन होने से
कि वह समृद्ध और खुशहाल हो रही है

कल मेरा गांव गुवा-नुआमुंडी में था, आज हतना बुरू में है
कल और किसी पहाड़ में शरणार्थी होगा
फिर अगले दिन किसी और पहाड़ में
इसी तरह एक दिन मैं फेंक दिया जाऊंगा अंततः मरुस्थल में
मुझे प्यास लगेगी और मेरे पास नहीं रहेंगे पहाड़ और उसके पड़ोसी बादल
मेरे गीतों के लिए नहीं रहेगा नदियों का राग

मेरे मापक हैं गुवा और नुआमुंडी के पहाड़
जिससे मैं मापता हूं सभ्यता की ऊंचाइयां
मेरी मुट्ठी में वही गरम राख है दुनिया के मानचित्र के लिए |
(आरती बच्ची के साथ – 8/3/14)

संपर्क – अनुज लुगुन,सहायक प्रोफेसर, भारतीय भाषा केंद्र, बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय गया परिसर, गया (बिहार)
दूरभाष – 07677570764,
ईमेल - anujlugun@cub.ac.in


 
किताबों में पलते सपने...
-सपन सारन

कयामत के दिन
जब सारी दुनिया जल रही थी
उस ओर रोशनी सबसे अधिक थी
हां किताबें थी, किताबों का घर था।

जब सब खत्म हो गया
तब भी किताबें सांसे ले रही थी
इस उम्मीद में कि कोई आएगा
और राख हो चुके उसके पन्नों में भी
मनुष्यता को तलाशेगा।

वह जानती है
मनुष्य भले न बचे
पर बची रहेगी मनुष्यता
उसके सीने में
हां उसका इतिहास, वर्तमान और भविष्य
तब भी सांसे ले रहा होगा।

उसे पूरी उम्मीद है
फिर कोई सिरफिरा आएगा
नयी दुनिया के निर्माण का सपना देखेगा
वह जानती है
अब ही की तरह तब भी
उसी में बचे रहेंगे सपने आदमियत के
पर नये सिरफिरे किताबों को आज की तरह भूलेंगे नहीं
वे उन गलतियों तो न दोहराएंगे
जिन्होंने इंसानों को इंसान के अलावा सबकुछ बनाया।

नयी सभ्यता की इबारत किताबों पर लिखी जाएगी
किताबघर ही तब के मंदिर-मस्जिद-गिरजे-उपासनाघर होंगे
विचारों की उस दुनिया में किसी तरह मनमानी न होगी
किताबें जीवन से और जीवन किताबों से घुलामिला होगा।

जब सब खत्म हो जाएगा
तब भी बची रहेंगी किताबें
और किताबों में पलते सपने
किताबों में बसे सपने हमें हमेशा जिदा रखेंगे।

संपर्क - सपन सारन, आप मूलतः अभिनेत्री हैं। किंतु आप कविताएं और नाटक भी लिखती हैं। हाल ही में पृथ्वी थियेटर (मुम्बई) के उनका लिखा नाटक 'क्लब डिजायर' खासा चर्चित रहा है।



[1] अंकुर
[2] बिल-कुत्ते, बिच्छू व नाग। ऐसे जंगली जन्तु आदिवासियों के लिए पराये नहीं थें। जब से नक्सलियों से निबटने के लिए सषस्त्र बलों के ऐसे नाम रखे जाते गये, आदिवासी भी इनसे बिदकने लगे।
[3] आदिवासी इलाकों में घुसपैठ करके स्थानीय आदिवासियों का हद छीनने वाले गैर आदिवासी


मूक आवाज़ हिंदी जर्नल
अंक-5                                                                      ISSN 2320 – 835X                                                                                                                                                   
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
 

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