बुधवार, 23 अप्रैल 2014

लोक संस्कृति का बदलता स्वरूप - श्रद्धा



लोक समाज आज बाजारवाद की चपेट में आ चुका है। उसके लिए भी अब मोबाइल आवश्यकता बन गई है जबकि पहले गांवों की यह स्थिति थी कि रात में यदि कोई गांव के एक कोने से आवाज दे तो दूसरे कोने पर बैठा व्यक्ति आराम से सुन लेता था। आज का लोक समाज शहरों की तरफ बढ़ने की होड़ में लगा हुआ है। वहां भी शहरी समाज की बनावट और ईर्ष्या ने जगह ले ली है। अलगाववाद, परिवार में कलह और छोटा परिवार सुखी परिवार जैसे विचार लोक समाज में रच बस चुके हैं। आज गांव में टीवी, रेडियो, फ्रिज यहां तक की ए.सी. भी खरीदे जा रहे हैं किंतु यह सच्चाई केवल कुछ प्रतिशत नौकरी-शुदा या अन्य धनाढ्य व्यक्तियों के यहां देखी जा सकती है। सामान्य ग्रामीण अभी भी अपनी विषमताओं से जूझ रहा है। उसके लिये तो दो वक्त की रोटी और तन पर साबुत कपड़े अभी भी मुहाल है।



लोक संस्कृति को लोग साधारणतया ग्रामीण संस्कृतिका पर्याय मान लेते हैं जबकि यह उन सभी लोगों की संस्कृति है जो किसी समुदाय का हिस्सा हैं, जिनकी कुछ परंपराएं तथा मान्यताएं हैं। लोक संस्कृति में बराबर समय के साथ बदलाव आते हैं। जिस तरह लोक गीतों में कभी ठहराव नहीं आता, वह जिसके कंठ से फूटता है उसी का हो जाता है, ठीक उसी तरह लोक संस्कृति में बराबर कुछ न कुछ जुड़ता और घटता रहता है। पर इस सारे जोड़ घटाव के बाद भी उसकी मूल सुगन्धि ज्यों कि त्यों बनी रहती है। इधर पश्चिमी संस्कृति, उपभोक्तावाद और पॉपुलर संस्कृति ने बड़ी तेजी से अपने पांव पसारे हैं। लोक संस्कृति पर इन बाह्य शक्तियों के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे में बेहद जरूरी हो जाता है कि नवीन परिस्थितियों में लोक संस्कृति पर पड़ रहे प्रभावों का परत दर परत अध्ययन किया जाये।
लोकसे अभिप्राय ऐसे जनसमुदाय से है जो आभिजात्य संस्कारों से सर्वथा मुक्त रहकर परंपराबद्ध आचरण करता है। फलस्वरूप यह जनसमुदाय अपेक्षाकृत सरल और अकृत्रिम जीवन का अभ्यस्त होता है। महानगरों और गांवों में निवास करने वाला यह जन समुदाय शहरी चकाचौंध से न्यूनाधिक मात्रा में प्रभावित होते हुए भी आदिम अवस्था से प्रसूत जीवन मूल्यों का प्रतिस्थापक माना जाता है। यह अलग बात है कि कई बार लोक स्वयं इन आदिम-अवस्था से प्रसूत जीवन मूल्यों का परिष्कार करता जाता है या उसमें कुछ संशोधन-परिवर्धन करता रहता है।
       लोकअंग्रेजी शब्द फोक” (Folk) का पर्याय माना जाता है। विद्यानिवास मिश्र लोक को इस अर्थ में (अशिक्षित, अर्ध-शिक्षित के अर्थ में) लेने का विरोध करते हैं। लोक का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है - जो कुछ दिखता है, इन्द्रिय गोचर है, प्रत्यक्ष है, सामने है। इसी से उसमें एक तरह की समकालीनता और प्रत्यक्ष विषयता का बोध होता है। फोक की अवधारणा जैसी पश्चिम में बन गई है, वह बहुत कुछ इसप्रकार की है कि जो पीछे छूट गया है, जो गंवारू है, जो अनपढ़ लोगों की वाचिक परंपरा के रूप में स्वीकृत है, वह फोक है। लेकिन लोक मनुष्य समुदाय तक सीमित नहीं है, वह बहुत व्यापक है। समस्त जीवन, जो सामने फैला हुआ है, या संचरणशील या स्थावर है - वह सब लोक है।[1] दूसरे लोक व्यतीत नहीं है, प्रतिक्षण उपस्थित है, वर्तमान है। लोक निर्जीव नहीं, सजीव है। ‘फोक’ प्रमाण के रूप में स्वीकृत नहीं होता, जबकि लोक प्रमाण के रूप में भी स्वीकृत है। यहीं पर लोक शास्त्र से भी जुड़ जाता है, क्योंकि शास्त्रों में अक्सर प्रमाण दिया जाता है कि ऐसा लोक व्यवहार है, अतः लोक सम्मत है।
       ‘संस्कृति’ शब्द में ‘कृ’ धातु है। वह क्रिया के अर्थ में है। क्रिया गतिशील होती है। ‘सम’ उपसर्ग, ‘कृ’ धातु तथा ‘ति’ प्रत्यत से संस्कृति शब्द बना है। इसका अर्थ है परिमार्जित करना, शुद्ध करना, परावर्तित करना और समय तथा स्थिति सापेक्ष लाभ हेतु बदलना। उत्सव, त्यौहार, कर्म, कला, भाषा, साहित्य, परंपरा, जीवन व्यवस्था, अध्ययन, आचार आदि से संस्कृति का बोध होता है। हालांकि कुछ विद्वानों ने उपभोक्तावाद के सन्दर्भ में संस्कृति के विभिन्न रूप बताये है, जैसे - उच्च संस्कृति (High culture), कम या निम्न संस्कृति (Low culture) लोक संस्कृति (Folk culture) और लोकप्रिय संस्कृति (Popular culture)। लोक संस्कृति किसी संस्कृति की स्थानीयकृत जीवन शैली को संदर्भित करती है। यह आमतौर पर मौखिक परंपरा में सुरक्षित रहती है। समुदाय की भावना इसमें अंतर्निहित रहती है और नये के बजाय पुराने तरीकों पर इसमें बल रहता है।
संस्कृति अंग्रेजी के कल्चर का अनुवाद है। कल्चर शब्द जुड़ा है ‘कल्ट’, ‘कल्टिवेशन’, ‘एग्रीकल्चर’ आदि से। यानी खेती और उपज से जुड़ी मेहनत से सम्बद्ध है कल्चर या संस्कृति। काशीनाथ सिंह संस्कृति को ‘पिछडे़पन’ से जोड़ कर नहीं देखते। खेतिहर मजदूरों, आदिवासियों की अपनी संस्कृति रही है, वहां से पलायन करके आए लोग यहां शहरों में मिल और फैक्टरी के मजदूरों की संस्कृति के रूप में अपनी अलग मिली जुली संस्कृति बनाते है। राजाराम भादू वर्गीय आधार पर लोक संस्कृति को दलित शोषित समुदाय की संस्कृति के रूप में परिभाषित करते है। यहां लोक संस्कृति से हमारा अभिप्राय जीवन और समाज की विविध रंगी छटा परंपरा, आस्था और विश्वास से है।
लोक संस्कृति के अंतर्गत लोक जीवन, लोक संस्कार, लोक विश्वास, मिथक, लोक साहित्य, लोक चेतना और लोक संगीत सभी कुछ समाहित है। लोक की बात निकलते ही लोकगीतों और संस्कृति की रंगारंग छवियां साकार हो उठती हैं। वैसे भी हमारे देश में इतनी सारी लोक संस्कृतियां हैं और उनमें इतनी विविधता है कि सभी को एक साथ समेटना बेहद मुश्किल है। इसीलिए अलग-अलग क्षेत्रों की लोक कलाओं और संस्कृतियों की अपनी अलग पहचान है। विविधता के होते हुए भी इन सभी लोक संस्कृतियों में एकरूपता भी है। इस एकरूपता का मूल हमारे देश की लोक चेतना में है। यह लोकचेतना विषम परिस्थितियों के बावजूद उत्सवधर्मिता कायम रखने में है। हमारे देश का गरीब से गरीब व्यक्ति अपनी हैसियत के अनुसार हर त्यौहार को मनाता है। विसंगतियों के बावजूद उत्सवधर्मिता ही हमारे लोक की प्रमुख पहचान है। शायद इसीलिये जीवन के प्रत्येक कर्म के साथ हमारे लोकगीत जुड़े हुए हैं। जांता के गीत ‘जंतसार’, धान रोपने के गीत, विवाह के गीत, आदि गीत हमें विरासत में मिले हुए हैं। किंतु लोक संस्कृति के अंतर्गत केवल खुशी और उत्सव ही नहीं, बल्कि हमारे समाज में व्याप्त विसंगतियां भी समाहित हैं। लोक चेतना का सीधा अर्थ है लोकजीवन से गहरी और आत्मीय संपृक्ति।
पश्चिमी सभ्यता और आधुनिकता का प्रभाव लोक पर भी पड़ रहा है। आज प्रत्येक क्षेत्र में बड़ी तेजी से बदलाव आ रहे हैं। स्वाभाविक है कि ये बदलाव एक दिन में नहीं आते धीरे-धीरे ही हमारा समाज बदलता है। यह बदलाव समय के साथ तीव्रतर होता जा रहा है। डा. कृष्णदेव उपाध्याय ने भोजपुरी लोक संस्कृति के बदलते स्वरूप के बारे में 1989 में ही अपनी पुस्तक में एक अध्याय लिखा था जिसमें भोजपुरी समाज के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक और दार्शनिक जीवन में आये परिवर्तनों की व्यापक चर्चा की है। सामाजिक परिवर्तनों के अंतर्गत वर्ण व्यवस्था में आये परिवर्तन की चर्चा करते हुये कृष्णदेव उपाध्याय ने लिखा हैं कि अब मनु द्वारा स्थापित चार वर्गों में सभी निम्न वर्णों में अपने आप को उच्च वर्ग का बताने की होड़ लगने लगी है। उन्होंन उदाहरण देते हुये लिखा हैं कि- नाइयों का कहना है कि हम लोग पहिले ब्राह्मण थे, परन्तु क्षौर कर्म को पेशे के रूप में स्वीकार करने के कारण नाई हो गये। ऐसे लोग अपनी जाति नाई-ब्राह्मण बतलाने लगे।[2] जातियों में प्राचीन व्यवस्था के तहत जो श्रम विभाजन किया गया था, वह अब असमानता का द्योतक माना जाता है इसलिये वह व्यवस्था अब बहुत हद तक टूट चुकी है। लेकिन कभी-कभी हमारी इस प्राचीन मानसिकता के अवशेष दोबारा जागृत हो उठते हैं। अभी बंगलुरू में इसी तरह का एक उदाहरण देखने में आया। वहां ब्राह्मण अग्रहारों की एक संस्था ने अपनी वेबसाईट पर एक ऐसी उच्च तकनीकी आवासीय परियोजना का शुभारंभ किया, जिसमें घर खरीदने वाले के लिए सबसे पहली और अनिवार्य शर्त ब्राह्मण होना थी।
आश्रम व्यवस्था में भी अब पूरी तरह परिवर्तन आ चुका है। आज व्यावसायिकता इतनी बढ़ चुकी है कि कितने ही बच्चे शिक्षार्जन के साथ-साथ धर्नाजन भी करने लगे हैं। यह आज के भौतिकतावादी युग की मूलभूत आवश्यकता बन गयी हैं। कई बार समाचार पत्रों में इस विषय में फीचर देखने को मिलते हैं कि आज कल के बच्चों से उनका बचपन छीना जा रहा है। उन्हें पढ़ाई की भट्टी में इस कदर झोंक दिया गया है कि 18 वर्ष के बाद ही उनसे अपेक्षा की जाने लगी है कि वह अपने आप को स्थापित कर लें। वहीं पहले 25 वर्ष बाद कोई व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था किंतु अब विवाह की आयु ही 30 से 35 वर्ष हो चुकी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार लोगों की औसत आयु में भी पहले से सुधार हुआ है किंतु वास्तविकता यह है कि लोग पहले लंबी उम्र तक जीते थे हालांकि तब शिशु मृत्यु दर अधिक थी इसलिये औसत आयु कम थी किंतु अब बेहतर चिकित्सा सुविधाओं के चलते यह दर कम हो गई है। इसतरह बहुत सी पुरानी व्यवस्थायें अब टूट रही हैं।
परिवार के विघटन की समस्या भी इसी आधुनिक युग की देन है। औद्योगिकीकरण, जनसंख्या में वृद्धि तथा पाश्चात्य प्रभाव ने पहले संयुक्त परिवारों को तोड़ने का काम किया तत्पश्चात् शहरीकरण, पलायन और भौतिकतावादी, भोगवादी सोच ने इस प्रवृति को और तीव्रतर किया। इसका दूसरा प्रभाव यह पड़ा कि बच्चे माता पिता की उपेक्षा करने लगे। परिवार केवल पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित हो गया। सहनशीलता के अभाव में समाज में आपसी वैमनस्य भी बढ़ गया। पश्चिमी प्रभाव ने हमारे खाद्य पदार्थों को भी बहुत हद तक प्रभावित किया है। पहले भारत के मुख्य भोज्य पदार्थों में गेंहू और मक्के से बनी चीजों का ही अधिक इस्तेमाल होता था। किंतु पश्चिम से आये भोज्य पदार्थों का इस्तेमाल इधर बढ़ गया है इसीलिए मोटापे और हृदय रोगों की समस्या भी बढ़ गई है। इसी तरह परिधानों आभूषणों में भी भांति-भांति के परिवर्तन देखने को मिलते हैं।[3] पहले अधिक से अधिक वस्त्राभूषणों का चलन था किंतु अब उनकी संख्या घटकर बहुत कम हो गयी है। इसी तरह गृह निर्माण से लेकर गृह सामग्री, मनोरंजन के साधनों, आर्थिक जीवन में परिवर्तनों, यातायात के साधनों में परिवर्तन, विवाह की रीतियों में परिवर्तन, व्रतों और लोक विश्वासों में ह्रास, बड़ों के आदर का अभाव तथा राजनीति के क्षेत्र में आये परिवर्तनों ने पूरी सांस्कृतिक व्यवस्था को परिवर्तित कर दिया है।
लोक समाज आज बाजारवाद की चपेट में आ चुका है। उसके लिए भी अब मोबाइल आवश्यकता बन गई है जबकि पहले गांवों की यह स्थिति थी कि रात में यदि कोई गांव के एक कोने से आवाज दे तो दूसरे कोने पर बैठा व्यक्ति आराम से सुन लेता था। आज का लोक समाज शहरों की तरफ बढ़ने की होड़ में लगा हुआ है। वहां भी शहरी समाज की बनावट और ईर्ष्या ने जगह ले ली है। अलगाववाद, परिवार में कलह और छोटा परिवार सुखी परिवार जैसे विचार लोक समाज में रच बस चुके हैं। आज गांव में टीवी, रेडियो, फ्रिज यहां तक की ए.सी. भी खरीदे जा रहे हैं किंतु यह सच्चाई केवल कुछ प्रतिशत नौकरी-शुदा या अन्य धनाढ्य व्यक्तियों के यहां देखी जा सकती है। सामान्य ग्रामीण अभी भी अपनी विषमताओं से जूझ रहा है। उसके लिये तो दो वक्त की रोटी और तन पर साबुत कपड़े अभी भी मुहाल है। लोक समाज की धड़कनें भी बंट चुकी हैं। एक हिस्सा बहुत तेजी से पश्चिमी प्रभाव को अपना रहा है, किंतु वह बहुत थोड़ा हिस्सा है। जबकि दूसरा हिस्सा आज भी उसी गरीबी और तंगी से गुजर रहा है, जिसे बाजारवाद ने और ज्यादा भयावह बना दिया है। राजमार्गों, आलीशान फ्लैटों के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को जमीनें बेचकर एकाएक अमीर बन गया किसान एकबारगी इतने पैसों का क्या करे सोच ही नहीं पाता और जब वह बाजारवाद की झोंक में उस पैसे का टीवी, फ्रिज, गाड़ी इत्यादि खरीद लेता है और उसके सारे पैसे खत्म हो जाते हैं तो किसान के मजूदर बनने की गाथा शुरू होती है। इन परिस्थितियों को देखते हुए परिवर्तनशील लोक समाज को यह देखना चाहिए कि परिवर्तन की लहर में वे कहीं अपना अस्तित्व ही न खो दें।
अब गांव और शहरों के बीच की दूरी घटती जा रही है। जो फैशन शहरों में आता है वह टेलिविजन के माध्यम से झट से गांव तक पहुंच जाता है। इसी सन्दर्भ में टी. डब्लू. एडर्नों की एक टिप्पणी है कि आज सांस्कृतिक सामग्रियों का व्यावसायिक उपयोग धारा प्रवाह हो गया है और व्यक्ति पर लोकप्रिय संस्कृति की छाप गहराती जा रही है। यह प्रक्रिया मात्रा के दायरे में कैद नहीं रह गई है बल्कि इसने नई गुणवत्ता को जन्म दिया है। वैसे हाल की लोक संस्कृति ने पूर्ववर्ती संस्कृति के तमाम तत्वों को अपना लिया है खासकर नकारात्मक तत्वों को।[4] उन्होंने यह भी लिखा है की जनसंस्कृति से अतीत में कोई मतलब नहीं रखने वाले लोग भी अब उससे कुछ हद तक प्रभावित हो जाते हैं जैसे गांव के लोग और ज्यादा पढ़े लिखे लोग।[5] दरअसल टेलीविजन एक ऐसा माध्यम है जिसने सांस्कृतिक बदलावों में एक क्रांतिकारी भूमिका अदा की है। बेशक ये बदलाव सकारात्मक भी रहे और नकारात्मक भी। टी. डब्लू. एडर्नों ने उस आम धारणा को ही यहां अभिव्यक्त किया है जो कहती है कि निम्न शैक्षिक स्तर वाले लोग गलत चीजों से जल्दी प्रभावित होते हैं।
पश्चिमी संस्कृति धीरे-धीरे लोक संस्कृति को निगल रही है। इसी चिंता को व्यक्त करते हुए गोविन्द चातक अपनी पुस्तक संस्कृति समस्या और संभावना में लिखा हैं कि भोगवादी प्रवृत्ति का शिकार होने वालों में नारी और युवा वर्ग तो हैं ही, लोक जीवन पर भी उसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। लोक गीत, लोक नृत्य और लोक कला, लोक जीवन की सबसे बड़ी धरोहर होते है। .....जो गीत कभी हमको हमारी जमीन, हमारी परंपरा, तीज त्यौहार, मेले-ठेले, ऋतु पर्व, आल्हा और कजरी से, दुःख और दर्द से, मांगल्य और उल्लास से जोड़ते थे, वे आज उपभोक्तावादी संस्कृति की अवैध संबंधों के नीचे छटपटा रहे हैं।[6]
लोक संस्कृति की कुछ पुरानी चीजों को पॉपुलर संस्कृति ने अपनाया हैं जैसे टैटू जिसका आज बहुत ही प्रचलन हो रहा है। वस्तुतः यह भी हमारी लोक संस्कृति का ही एक हिस्सा रहा है जिसे गोदना कहते थे। यह अलग बात है कि आज इसके रंग और आकार में बहुत से परिवर्तन आ चुके हैं। किंतु टैटू का उत्स हमारी लोक संस्कृति में विद्यमान है। जिस लिव-इन रिलेशन को हम पश्चिम का प्रभाव मानते है हैं उसके मूल उत्स तो हमारी आदिवासी संस्कृति में सदा से मौजूद रहे हैं। आदिवासियों में यदि कोई युवक किसी युवती को या युवती किसी युवक को पसंद करती है तो वे एक दूसरे को कुछ उपहार देकर सहिया जोड़ सकते हैं। ऐसा कर लेने के बाद वे एक एक दूसरे को फूल कहकर संबोधित करते हैं। इसतरह के संबंध इन समाजो में परंपरानुकूल ही माने जाते हैं। इसीतरह आज के बेहद लोकप्रिय गायक हनी सिंह से जब उनके गीतों में अश्लीलता से सम्बंधित कोई सवाल पूछा जाता है तो वे बड़ी बेबाकी से हमारे लोकगीतों का हवाला देते हुए कहते हैं कि ये सब तो पहले से हमारी लोक संस्कृति में विद्यमान रहा है। उन्होंने तो सिर्फ उसको आज के संदर्भो में नए तरीके से सामने रखा है। हो सकता है कि कुछ लोग एकबारगी इस तर्क को खारिज कर दें लेकिन जब हम लोकगीतों की बुनावट को देखते हैं तो उनमें हमें तत्कालीन संस्कृति के सारे रोएं रेशे देखने को मिल जाते हैं। इसी तरह हनी सिंह के गीतों में तत्कालीन विकृत संस्कृति का अक्स दिखायी देता है।
आज जब भी कोई राजनैतिक या सामाजिक समारोह होते हैं तो सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर लोकगीत और नृत्य अवश्य होते हैं किंतु यह सब उपभोक्ता वृत्ति की तुष्टि के लिए किया जाता है। हर साल गणतंत्र दिवस समारोह के अवसर पर अचानक एक दिन आता है जब गांवों के लोक कलाकारों को दूर दराज की गुमनाम जिन्दगी से उठाकर दिल्ली के राज भवन का मेहमान बनाया जाता है। अपना उत्सव और भारत उत्सव जैसे महासांस्कृतिक आयोजनों पर करोड़ों रुपये स्वाहा किये जाते हैं। किंतु इसके बदले उन लोक कलाकारों को कुछ नहीं मिलता। लोक कलाएं निरंतर विलुप्त होती जा रहीं हैं। गोविन्द चातक ने यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि संस्कृति और कला की अपनी जमीन होती है। उसे वहीं पनपाइये और विशाल वटवृक्ष बनने दीजिये। आप शहरों में सांस्कृतिक केंद्र खोल दें उसका क्या होने वाला है? उसे पनपाना है तो समुदाय के बीच उसे जीवित रखना होगा - उखाड़कर शहर में नुमायश के लिए लाकर यह वृक्ष सूखेगा ही।[7]
ट्राइबल आर्ट के नाम पर खुली आलिशान गैलरियों में जिन कलाकृतियों को हम ऊंचे दामों पर अपने ड्राइंग रूम कि शान बढ़ाने के लिए खरीदते हैं, उस समय क्या कभी सोचते हैं कि उसके वास्तविक निर्माता कलाकार को उसके कितने दाम दिए गए होंगे। वह किन परिस्थितियों में अपना जीवन निर्वाह कर रहा होगा? और उसके श्रम पर पलने वाला पूंजीपति किस कदर उसका शोषण कर रहा है। इन सवालों से गुजरे बिना अगर हम इन कृतियों से अपने घर को सजाते हैं तो हम लोक कला और संस्कृति दोनों का अवमूल्यन करते हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जहां लोक संस्कृति केवल नुमायश कि चीज बनकर रह जाती है। इस तरह भौतिक रूप से वर्तमान लोक संस्कृति धीरे-धीरे हमारे मानस पटल में एक चिन्ह या कलाकृति मात्र के रूप में सीमित हो जाती है। मिट्टी के खिलौने और कपड़े कि गुड़िया की जगह प्लास्टिक के खिलौने और इन प्लास्टिक के खिलौनो कि जगह वीडियो गेम्स ले लेते हैं। इतना सब कुछ तो हमारे देखते देखते ही घट गया। हमारी लोक संस्कृति का स्वरूप भी इसी तेजी से बदल रहा है। इस बदलते स्वरूप में पश्चिमी संस्कृति का घालमेल इस कदर बढ़ गया है कि कई बार लोक संस्कृति की मूल आत्मा भी क्षत-विक्षत होने लगती है।
लोक संस्कृति में जितने भी बदलाव आ रहे हैं, वे शहरी संस्कृति में आ रहे बदलावों से बराबर प्रभावित होने की वजह से आ रहे हैं। बेशक उनमें से कुछ अच्छे हैं और कुछ बुरे भी, आवश्यकता इस बात की है कि इनमें से अच्छे प्रभावों को ग्रहण किया जाये और बुरे प्रभावों से बचा जाए। जैसा कि गांधी जी ने भी अपने घर की खिड़कियों को खुली रखने का बिम्ब गढ़ते हुए बाहर की ताजी हवा के रूप में पश्चिमी संस्कृति को ग्रहण करने की सीख दी थी।
      
संपर्क -  श्रद्धा, आर -24 , राजकुंज, राजनगर, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश 201002, ई-मेल -  shraddhar24@gmail-com





[1] विद्यानिवास मिश्र, लोक और लोक का स्वर, प्रथम संस्करण, 2000, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 19
[2] कृष्ण देव उपाध्याय, भोजपुरी लोक संस्कृति, संस्करण 1989, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, इलाहाबाद, पृष्ठ संख्या 344
[3] पीयूष दईया (सम्पादक), भोजपुरी लोक संस्कृति का बदलता स्वरूप, कृष्णदेव उपाध्याय का लेख - लोक, प्रथम संस्करण, 2002, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर, राजस्थान, पृष्ठ संख्या 54
[4] टी. डब्लू. एडर्नों, संस्कृति उद्योग, प्रथम संस्करण, 2006, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 170-171
[5] टी. डब्लू. एडर्नों, संस्कृति उद्योग, प्रथम संस्करण, 2006, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 171
[6] गोविन्द चातक, संस्कृति - समस्या और संभावना, प्रथम संस्करण, 1994, तक्षशिला प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 193
[7] गोविन्द चातक, संस्कृति - समस्या और संभावना, प्रथम संस्करण, 1994, तक्षशिला प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 194

मूक आवाज़ हिंदी जर्नल
अंक-5                                                                                                                                                                                 ISSN 2320 – 835X
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