‘कहानी का रंगमंच’ में कहानी और
रंगमंच एक-दूसरे से अलग होते हुए भी अपनी रचना और प्रस्तुति प्रक्रिया में इतने
निकट आ जाते हैं कि कहानी में रंगमंच है अथवा रंगमंच पर कहानी है, यह भेद करना कठिन हो
जाता है। असल में, किसी भी कहानी को पढ़ते-सुनते हुए पाठक या श्रोता के मन की आंखों के सामने जो दृश्य जगत बनता चलता है, उसे ज्यों-का-त्यों
मंच पर साकार करने से ही कहानी के मंचन का सरोकार है।
हमारे
देश में कहानी कहने-सुनने की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। राजा-रानी की कहानी, परियों की कहानी या
विभिन्न लोककथाओं को घर के बड़े-बूढ़े सभी बच्चों को बैठाकर सुनाया करते थे। बच्चे
अपने-अपने कल्पना के रंग से उन कहानियों को चित्रित करते थे। देश के विभिन्न प्रांतों
में कथावाचन और कथागायन की लोकपरंपराएं भी मिलती हैं। आल्हा, पांडवनी, आख्यान, कीर्तन, पाबू जी की पड़ और
हाई हरोबा एक-दूसरे से मिलती-जुलती और कहीं एक दूसरे से बिल्कुल अलग कई ऐसी ही
शैलियां हैं। इन परंपराओं में कहीं हाव-भाव व भंगिमाओं पर ज्यादा जोर दिया जाता है
तो कहीं कलाकार (कथावाचक या गायक) अपनी विशिष्टताओं से उसमें बदलाव लाता है, पर सबकी प्रस्तुति
में वाचिकाभिनय की प्रधानता रहती थी अर्थात् ये सभी शैलियां और परंपराएं किसी
लिखित या मुद्रित आलेख पर नहीं मौखिक आलेख पर आधारित हुआ करती थीं। इसमें कहानी से
भी ज्यादा सुनाने वाले के कला-कौशल और सुनने वाले की कल्पना का कमाल हुआ करता था।
धीरे-धीरे
सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के साथ पहले लेखन कला और फिर कहानी लेखन में भाषा ने
इतनी समर्थता हासिल की कि वो उसके मौखिक पाठ को पूरी अर्थवत्ता से समन्वित कर
प्रभावोत्पादक बना सके। इससे कहानी और पाठक में एक नये रिश्ते की शुरूआत हुई, जिसमें पाठक कहानी
को एकान्त में बैठकर आत्मीय भाव से चुपचाप पढ़ता था। देवेन्द्र राज अंकुर इसमें दो
बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन लक्षित करते हैं - “तो कहानी के सुनाने
के साथ जो सामूहिकता और सामाजिकता जुड़ी हुई थी, वह धीरे-धीरे
तिरोहित होती चली गई, दूसरे सुनाने में शब्दों की ध्वनियों का जो जादू समाहित था, उसका स्थान पाठक के
अपने हृदय में गूंजती मौन ध्वनियों ने ले लिया। एक दूसरे रूप में सामूहिकता अवश्य
बनी रही कि कहानी लिखित और बाद में मुद्रित होने के कारण एक ही समय में न जाने
कितने पाठकों द्वारा एक साथ पढ़ी जा सकती है।”[1]
बाद में
चलकर कहानी को सीधे श्रोताओं और दर्शकों से जोड़ने के क्रम में दो युक्तियां
प्रचलित हुईं। स्वयं कहानीकार या किसी अभिनेता द्वारा श्रोताओं-दर्शकों की
उपस्थिति में कहानी का सस्वर वाचन। यह प्रक्रिया नाट्य विधा के अंतर्गत समाहित
होती है, क्योंकि
यहां नाट्य के मूलभूत आवश्यक उपादान दर्शक और अभिनेता (कहानीकार भी तब अभिनेता बन
जाता है) मौजूद होते हैं। इस प्रक्रिया में कहानी का पुनर्विन्यास
(रिस्ट्रक्चरिंग) भी होता है, जो वाचक के व्यक्तित्व, उसकी अभिनयात्मक
मुद्राओं, आवाज़ की गति-यति-तान, उसकी क्रियाओं, दर्शक-श्रोता की
सामूहिक उपस्थिति एवं दृश्य-श्रव्य परिवेश आदि के धरातल पर होता है इसमें कहानी का
बाह्य भाषा शरीर भले ही ज्यों का त्यों बना रहता है परन्तु कहानी का अर्थ प्रभावित
होता है।
एक
दूसरा बहुप्रचलित तरीका कहानी का नाट्य रूपान्तरण कर मंचित करना है। इस प्रक्रिया
में कहानी कच्चे माल का काम करती है, जिसको आधार बनाकर कोई नाटक लिखा जाता है।
वस्तुतः नाट्य रूपान्तरण की प्रक्रिया में कहानी से उसकी कथावस्तु लेकर नाटकों के
बने बनाए चौखटे (फ्रेम) में उसे फिट कर दिया जाता है। निःसंदेह यह तरीका तर्कसम्मत
है और इसके बड़े अच्छे परिणाम भी निकलते हैं। लेकिन इसको बहुत प्रभावी नहीं मानते
हुए कुंवर जी अग्रवाल लिखते हैं “ज्यादातर
इसे नाटक के बंधे-बंधाए रूढ़ यथार्थवादी ढाँचे में किया जाता है, जिससे नाट्य-कल्पना
की नई संभावनाओं की दिशाएं नहीं खुल पातीं।”
इन
दोनों प्रचलनों के बीच एक तीसरा तरीका भी है जिसका प्रथम प्रयोग देवेन्द्र राज
अंकुर ने सन् 1975 में
किया। उन्होंने निर्मल वर्मा की तीन कहानियों ‘डेढ़ इंच ऊपर’, ‘धूप का
एक टुकड़ा’, ‘वीकएंड’ को ‘तीन एकांत’ शीर्षक से मंचित
करके कहानी को रंगमंच प्रदान करने की असीम संभावनाओं का द्वार खोला। इस तरीके को
अंकुर जी कहानी का रंगमंच कहते हैं -
“शब्द-दर-शब्द, बिना उसमें
परिवर्तन करते हुए मैंने अपने इस सारे काम को बहुत पहले ‘कहानी का रंगमंच’ शीर्षक दिया था।”[2]
इस
प्रक्रिया में कहानी को तोड़-मरोड़कर, उसमें शब्दों को बदलकर, उसके रूप (फार्म)
को भंग करके कोई नया नाट्यालेख नहीं तैयार किया जाता है और ना ही कोई एक या एकाधिक
अभिनेता पूरी कहानी को पढ़कर या रटकर सुनाता है। इसकी विशिष्ट प्रक्रिया के बारे
में भीष्म साहनी का मानना है कि -
“रंगमंच पर एक कहानी
की इस तरह प्रस्तुति की जाए कि उसमें दर्शक को नाटक का रस मिले, बिना किसी नाटकीय
जोड़-तोड़ के। मतलब, कहानी का गठन ज्यों-का-त्यों मूल रूप में बना रहे, पर उसके भीतर के
नाटकीय तत्त्वों को जैसे संवाद, घटनाचक्र आदि को अभिनय द्वारा सहज-स्वाभाविक ढंग से
उभारा जाए। इसमें कहानी का मूल गठन भी बना रहे, लेखक की मूल भाषा
भी बनी रहे, पर उसकी
गति में नाटकीयता आ जाए।”[3]
भीष्म
साहनी ने यह उद्गार, अपनी ही तीन कहानियों ‘चीफ की दावत’, ‘संभल के
बाबू’ और ‘लीला नंदलाल की’ के सफल मंचन देखने
के बाद व्यक्त किया। निर्मल वर्मा भी ‘कहानी के रंगमंच’ को चुनौतीपूर्ण
मानते हुए ‘नाटकीय
लय’ की
प्रस्तुति को महत्त्व देते हैं। वे लिखते हैं - “जब कहानी के मूल
स्वभाव को विकृत किए बिना, उसे मंच पर इस तरह
प्रस्तुत किया जाए, जहां वह एक ही समय में नाटक का ‘इल्यूजन’ दे सके और दूसरी ओर, कहानी की आत्यंतिक
फार्म और लय को अक्षुण्ण रख सके। यहां समस्या कहानी के नाटकीय तत्त्वों को
चुन-चुनकर स्टेज पर सज़ाना नहीं है, बल्कि उस समूची नाटकीय लय को मंच पर पुनर्जीवित करना है, जो कहानी के भीतर
अदृश्य रूप से व्याप्त है।”[4]
‘कहानी का रंगमंच’ में कहानी और
रंगमंच एक-दूसरे से अलग होते हुए भी अपनी रचना और प्रस्तुति प्रक्रिया में इतने
निकट आ जाते हैं कि कहानी में रंगमंच है अथवा रंगमंच पर कहानी है, यह भेद करना कठिन
हो जाता है। असल में, किसी भी कहानी को पढ़ते-सुनते हुए पाठक या श्रोता के मन की आंखों के सामने जो दृश्य जगत बनता चलता है, उसे ज्यों-का-त्यों
मंच पर साकार करने से ही कहानी के मंचन का सरोकार है। स्वयं अंकुर जी लिखते हैं -
“यहां कहानी अपने
मूल रूप में हू-ब-हू शब्द-दर-शब्द नाटक में रूपांतरित हुए बिना दर्शक के लिए एक
रंगमंचीय अनुभव में परिवर्तित हो जाती है। ज़ाहिर है कि इस प्रक्रिया में कहानी के
शब्दों, कथ्य एवं
संरचना के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती अर्थात् कहानी का अलग से कोई मंच अथवा
प्रदर्शन आलेख तैयार नहीं किया जाता और कहानी जिस रूप में उपलब्ध है उसी को पहले
और अंतिम आलेख के रूप में
स्वीकार करके मंचन की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।”[5]
वस्तुतः
कथा साहित्य को धारावाहिक, फिल्म या नाट्य रूपांतरण कर रंगमंच पर लाने के प्रयोग
होते रहे हैं। इनकी प्रस्तुति अत्यंत जोखिम भरी रही है, क्योंकि उसके लिए
जितना जरूरी साहित्य को समझकर व्याख्या करना रहा है, उतना ही माध्यम की
निजी जटिलताओं और विशेषताओं की समझ रखना भी। इसमें भी प्रत्यक्ष और जीवित माध्यम
होने के कारण रंगमंच की प्रस्तुति में सर्वाधिक खतरे हैं। क्योंकि अधिकांशतः फिल्म
निर्देशक, धारावाहिक
निर्देशक या रंग-निर्देशक मात्र फार्म, प्रयोगों एवं शिल्पगत नवीनता के मोह में फंसकर
अपने समय और मानवीय संवेदना को यथोचित महत्त्व नहीं दे पाते। वे मूल रचना के मर्म
को न तो स्वयं समझ पाते हैं, न उद्घाटित कर पाते हैं। इस तरह वे कथा साहित्य के साथ
न्याय नहीं कर पाते।
इसी
रंगमंच की उर्वरता को बढ़ाने एवं मूल कहानी से न्याय करने के क्रम में नवीन
संभावनाओं की तलाश में देवेन्द्र राज अंकुर ने ‘कहानी के रंगमंच’ का सूत्रपात किया।
जहां न कहानी का नाट्यरूपान्तरण है और न ही कहानी से प्रेरित कोई नई नाट्य रचना की
परिकल्पना, बल्कि
इसमें कहानी की आंतरिक लय को पकड़ते हुए उसमें निहित नाटकीयता को अपने मूल रूप में
प्रस्तुत किया जाता है। एक नैरेटिव माध्यम से इसमें कहानी का दृश्यात्मक विस्तार
होता है; उसके
मर्म का उद्घाटन होता है। इस मंच की सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि कैसे नाट्य
आलेख से मिलने वाली सहायताओं - दृश्यबन्ध, रंगोपकरण, वेशभूषा, रूप सज्जा, पार्श्व संगीत, ध्वनि प्रवाह आदि
के उपयोग के बिना ही कहानी अपने मूल रूप को सुरक्षित रखते हुए भी एक नितांत नया
रंगमंचीय अनुभव,
एक दृश्यकाव्य बन जाती है। देखने के नये तत्त्व के जुड़ने के साथ ही
रंगानुभव में परिवर्तन हो जाता है जो कहानी के साथ अब तक के जुड़े रिश्तों - कथागायन
और कथावाचन की शैलियों एवं परंपराओं से भिन्न है। पहले की प्रक्रिया में जहां
सुनने-पढ़ने में अदृश्य रूप से देखना शामिल हुआ करता था और अब उसके देखने में
पढ़ना सुनना भी अनिवार्य रूप से शामिल है। कहानियों को नाट्य रूपांतरित कर
प्रदर्शन करने की एक सुदीर्घ एवं सफल परंपरा तो पहले से ही आ रही थी अतः ‘कहानी का रंगमंच’ इस नाट्य मंचन से
अलग कैसे है? इस सवाल
का उत्तर देवेन्द्र राज अंकुर देते हैं - “फर्क यही है कि
कहानी के नाट्य रूपान्तरण के बाद मंचन, कहानी का मंचन नहीं है बल्कि एक नई नाट्य
रचना का मंचन है।”[6]
इस
प्रक्रिया में अब नाटक की शर्तों पर ही कहानी का प्रस्तुतिकरण होता है। नाटक और
कहानी में मूलभूत विधागत अंतर है। जहां एक तरफ नाटक का एकमात्र माध्यम संवाद है -
यदि वहां वर्णन आता भी है तो वह भी एक प्रकार का नाटकीय संवाद है, वहीं दूसरी तरफ
कहानी के साथ संवादों की बाध्यता बिल्कुल नहीं है। “कहानी मूलतः वर्णित
के सहारे आगे बढ़ती है यदि कहानी में संवाद आते भी हैं तो वे भी उसी वर्णित का अंश
होते हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि कहानी के संवाद किसी
स्थिति-विशेष की नाटकीयता को स्थापित नहीं करते वरन् वे स्थिति का विवरण ही
प्रस्तुत करते हैं।”[7]
इसका
सफल प्रयोग हमें अंकुर जी द्वारा निर्मल वर्मा की तीन कहानियों को तीन एकांत (धूप
का टुकड़ा, डेढ़
इंच ऊपर, वीकएंड)
शीर्षक वाले रंगकोलाज की पहली ही प्रस्तुति (1975) में देखने को मिला।
इस प्रयोग में न तो एकाधिक अभिनेताओं द्वारा कहानी का नाटकीय पाठ हुआ और न कहानी
को संवादों में परिणत कर अथवा चरित्रों द्वारा नाटकीय बिन्दुओं को विभिन्न हाव-भाव
या स्वरों के उतार-चढ़ाव द्वारा प्रस्तुत किया गया। इसमें कहानी को किन्हीं नाटकों
की तरह ‘मोनो
ऐक्टिंग’ के करीब
लाने का प्रयास भी नहीं किया गया। कहानी के मंचन में तो कहानीकार द्वारा दिए गए
विवरण को ही नाटकीय एवं रंगमंचीय अनुभव में परिवर्तित करने की कोशिश रहती है। इन
विवरणों को दृश्यों, बिम्बों और अनुभूतिपूर्ण चित्रण में रूपान्तरित कर ऐसे जीते
जागते शब्दों में ढालते हैं जो एक साथ बोले भी जा रहे हैं और देखे भी जा रहे हैं।
नाटकों से इसके अलगाव को दिखाते हुए देवेन्द्र राज अंकुर लिखते हैं - “कहानी के साथ
कोष्ठक जैसी कोई सुविधा नहीं जुड़ी है। उसका हरेक शब्द पाठक, श्रोता और दर्शक के
लिए भी उतना ही आवश्यक है, जितना कि वह स्वयं अभिनेता के लिए होता है।”[8]
इस
विवरण से तैयार कहानी के रंगमंच की प्रक्रिया को हम श्रीलाल शुक्ल की एक चर्चित
कहानी ‘यह घर
मेरा नहीं’ के मंचन
के उदाहरण से समझ सकते हैं। सन् 1960-61 में लिखी यह कहानी आज़ादी के लगभग 15 साल बाद जवान होती पीढ़ी की है, जो मोहभंग की
प्रक्रिया से गुजर रही थी। इस पीढ़ी के समानांतर अभी तक परंपरागत व्यवस्था एवं
अनुशासन से चिपकी हुई वह पहले वाली पीढ़ी भी थी, जो बहुत
दुविधाग्रस्त है, और इन दोनों के बीच में एक लड़की का वर्णन जो शायद महज एक
युक्ति के रूप में या प्रतीक के तौर पर हमारे सामने आती है।
कहानी
में कुल सात-आठ पात्र उपस्थित हैं लेकिन देवेन्द्र राज अंकुर ने मात्र तीन
अभिनेताओं के साथ मिलकर इस कहानी को मंचित किया। पिता, पुत्र और पड़ोस की
एक लड़की। इसके अलावा यदि कुछ दूसरे पात्र आए भी तो या तो वे नैरेशन के माध्यम से
स्थापित हो गए अथवा अगर उनकी जीवंत उपस्थिति की जरूरत पड़ी तो एकाध दृश्यों के
माध्यम से उन्हें प्रस्तुत किया गया। जैसे - बाजार के दृश्य में दो रास्तों से
स्टेज के एक कोने से दूसरे कोने तक गुजरती लड़कियां। और उनसे हल्की-फुल्की
छेड़-छाड़ हंसी ठिठोली करते पुत्र के दो दोस्त गुजर जाते हैं। पूरे दृश्य में पिता
भी पृष्ठभूमि में मौजूद है। वास्तव में यह फ्लैशबैक उसी के एक संवाद के बाद आता
है। इस पूरे दृश्य में पिता पर पड़ती रोशनी धीमी हो जाती है और वह प्रायः जड़
स्थिति में बना रहता है। इस दृश्य के खत्म होते ही पूरे मंच पर सामान्य रोशनी पुनः
लौट आती है, मानो
कहानी वर्तमान या तात्कालिकता में वापस आ गई है।
कहानी
में लेखक ने तीसरे पुरुष अर्थात् “वह” की शैली में विवरण दिया है। नैरेशन की इस शैली को
अभिनेता अधिकांशतः ‘मैं’ शैली में बदल देने को सदैव उत्सुक रहते हैं। लेकिन अंकुर
जी का विश्वास है “कहानी में अभिनय करने का सबसे खूबसूरत पहलू ही यही है कि
नैरेशन हमें जिस भी शैली में मिला है, हम उसे वैसा ही रहने दें। फिर कहानी जैसी
विधा की रीढ़ ही नैरेशन की उपस्थिति है, चाहे वह किसी भी शैली में क्यों न लिखा हो।”[9]
वस्तुतः
जब यह नैरेशन तीसरे अथवा अन्य पुरुष की शैली में किसी कहानी में रचित होता है, तो उसमें अभिनेता
के लिए असीम नाटकीय एवं रंगमंचीय संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं एक ही कहानी में
दर्शकों को अभिनय के अनेकों आयाम देखने को मिल जाते हैं। अभिनेता का कभी चरित्र के
भीतर प्रवेश करना, कभी बाहर आ जाना, कभी चरित्र में रहते हुए भी अपना दर्शक
स्वयं बन जाना,
अपनी व्याख्या स्वयं करने लगना।
‘यह घर मेरा नहीं’ की मंचन प्रक्रिया
में तीनों अभिनेताओं ने पूरे नैरेशन को आपस में बांट लिया और बहुत सहज रूप में ही
उपर्युक्त अनुभवों से गुजरे। इसके फलस्वरूप एक बहुत ही रोचक एवं नाटकीय युक्ति, स्वयं ही आलेख में
से उभरकर आ गई। इससे तीनों ही पात्र बहुआयामी होकर मंच पर सामने आए। जब भी किसी एक
पात्र का नैरेशन होता, तो दूसरा पात्र यदि मंच पर मौजूद भी है तो वह उसे न सुनने का
अभिनय करता था या फ्रीज हो जाता है। इस तकनीक ने पात्रों को सीधे दर्शकों से
मुखातिब कर दिया। नैरेशन दर्शकों के साथ सीधे संवाद के रूप में बदलता चला गया और
जब कभी वह दर्शकों को संबोधित नहीं भी होता तो पात्र स्वगत कथन या आत्म संवाद की
मुद्रा में होता।
कहानी
के मंचन की आदर्श परिकल्पना को स्पष्ट करते हुए देवेन्द्र राज अंकुर कहते हैं - “एक खाली स्पेस में
उसके शब्द अभिनेताओं के समूह के माध्यम से जीवंत और साकार होते चलें, जब चाहे मंच पर
वैसा ही स्वरूप ग्रहण कर लें और उसी क्षण तिरोहित हो जाएं। दर्शक के सामने कुछ हद
तक सचमुच के दृश्य-खंड बन जाएं और उससे भी ज्यादा स्वयं उसकी अपनी कल्पना के लिए
विस्तार दें - एक मायने में अभिनेता को गायक और नर्तक जैसी सूक्ष्म से सूक्ष्म
क्षमता को भी अपने भीतर समाना होता है, जहां वह मात्र शब्दों की ध्वनियों अथवा मुद्राओं से ही सब कुछ
साक्षात् प्रस्तुत कर देते हैं।”[10]
उस
हिसाब से देखा जाए तो ‘यह घर मेरा नहीं’ कहानी में
मंच-सज्जा न के बराबर थी, केवल एक सोफा मंच के बीचोंबीच लगभग पिछले हिस्से में एवं
उसी के समानांतर ऊपरी दाहिने कोने में एक मेज और कुर्सी थे। दो दृश्यबंध प्रकाश के
अपने-अपने दायरे में कैद पिता और पुत्र की नितांत निजी और एक-दूसरे से भिन्न
दुनिया के अहसास को प्रतीकित करते हुए। इसके अलावा थोड़ी संगीत की ध्वनि और पार्श्व
ध्वनि के रूप में उभरती घड़ी की ‘टिक-टिक’। विशेषकर जब पात्रों के संवादों के बीच आए निश्चित
विराम के समय दो पात्रों के बीच उपस्थित संवादहीनता की स्थिति को रेखांकित करने के
लिए। मंचन के अंत में पुत्र सोफे पर लेटा हुआ है। पिता यह कहने के बाद कि ‘उनका विद्रोही
उन्हीं के घर में चुपचाप सो गया था’ थोड़ी देर यूं ही असमंजस की स्थिति में मंच पर खड़े रह
जाते हैं, फिर
उनके प्रस्थान के साथ ही मंच पर फीके होते प्रकाश में ‘टिक-टिक-टिक-टिक की
आवाज़ गूंजती है।
इस तरह
से कहानी अपनी भिन्न-भिन्न शैलियों के कारण नाटक के एक बने बनाये फ्रेम से बिल्कुल
अलग होती है। नाटक की तैयारी में एक निश्चित व्याकरण काम करता है, उसमें सामान्यतः एक
चरित्र का निर्माण किया जाता है और शुरू से अंत तक उसको बनाये रखा जाता है। वहीं
कहानी की प्रस्तुति में उसे तोड़ना पड़ता है बल्कि यूं कहें कि उसकी जरूरत ही नहीं
पड़ती। जैसा कि ‘यह घर मेरा नहीं’ से स्पष्ट हुआ, कि कभी पल भर में
अभिनेता उसके पाठक हो जाते हैं तो कभी व्याख्याता और कभी उस दृश्य में हिस्सा लेने
वाले चरित्र। कहानी को प्रस्तुत करते समय अभिनेता के सामने इस तरह की सदैव नई
चुनौतियां आती हैं और हर बार वह किसी नए रास्ते को ढूंढ़ निकालता है। अभिनेता की
इन्हीं संभावनाओं और चुनौतियों को लक्ष्य कर के ही अंकुर जी इसे ‘अभिनेता का रंगमंच’ कहते हैं। जो
अभिनेता स्वयं लेखक है, पाठक है, व्याख्याकार है, टिप्पणीकार और
अंततः एक चरित्र भी है। ये सारी स्थितियां उसकी खोजने-पाने-खोने और फिर नए सिरे से
खोजने-पाने-खोने की प्रक्रिया को रेखांकित करती हैं।”[11]
लगभग
पंद्रह से अधिक विविधतापूर्ण कहानियों में अभिनय कर चुके सुरेन्द्र शर्मा इस
रंगमंच में अभिनेता की कठिनाइयों पर प्रकाश डालते हैं - “ऐसी कहानी में, जिसमें वर्णन और
संवाद दोनों मौजूद हों, अभिनेता को दो स्तरों पर समानांतर अपने को स्थापित करना
और अभिनय को जीना पड़ता है। जब वह वर्णन कर रहा होता है, तो उसे असंपृक्त, विवेकपूर्ण, साथ ही सरोकारों से
युक्त परफॉर्मर बनना पड़ता है, और अगर इस बीच कोई संवादयुक्त दृश्य आता है, तो उसे उस चरित्र
को जीना पड़ता है। ऐसी स्थिति में अभिनेता से सहज, स्वतः स्फूर्त गहरे
लगाव की कड़ी मांग होती है, जिसे पाने के लिए उसे ध्यानमग्नता, सच्चाई और विश्वास
की अनुभूति, कल्पनाशीलता, संवेगात्मक स्मृति
अंतर्निहित पाठ,
चरित्रों के पारस्परिक संबंध अनुकूलन (एडेप्टेशन) गति, लय आदि अभिनय की
समस्त प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि उसे अपने
को निचोड़ने की अनुभव -प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।”[12]
वस्तुतः
प्रत्येक कहानी का अपना एक अलग व्यक्तित्व, शैली एवं तेवर होता
है जो नाटक की तुलना में बहुत अधिक परिवर्तनशील एवं विविधतापूर्ण होती है। जितने
कहानीकार, उतनी ही
शैलियां, उतने ही
रूप और नयी ताजगी भी। कहानी के रंगमंच का यही आकर्षण अंकुर जी सहित अनेक
निर्देशकों को अपनी ओर खींचता हैं। अंतिम समय तक यह निश्चित नहीं हो पाता कि किस
शैली में कोई कहानी प्रस्तुत की जा सकती है। निर्देशकों के लिए लगभग हर प्रयोग एक
खोज होता है। इसके बारे में शताधिक कहानियों का सफल मंचन कर चुके अंकुर जी कहते
हैं - “मुझे
अभी भी प्रस्तुत होने के अंतिम क्षण तक यह पता नहीं होता कि कहानी अंततः मंच पर
क्या स्वरूप लेगी। यह रहस्य, जिज्ञासा ही शायद कहानी के रंगमंच का वह मर्म है, जिसके चलते मैं आज
भी उसे करता जा रहा हूं।”[13]
वहीं
अभिनेताओं से ‘कहानी
के रंगमंच’ में
विशेष सहजता स्वतः स्फूर्त लगाव, कल्पनाशीलता की अपेक्षा की जाती है, जिसमें अभिनताओं को
स्वयं अपनी शैली खोजनी पड़ती है। वह कहानी के मुख्य तत्त्व नैरेशन को दृश्य में
ढालने के लिए,
कई तरह की शैलियों में से गुजर कर, अभिनय के विविध
रंग-रूप सामने लाता है। उदाहरण के तौर पर, एकालाप (तीन
एकान्त), वक्तव्य
और विवरण का मिश्रण (अपरिचित: तीसरा पड़ाव), शब्दों और दृश्यों
के संयोजन (सामना क्रमशः तीन), संवादों के विभिन्न पैटर्न (महानगर: तीन संवाद), एकालाप, संवाद और वर्णन
तीनों का मिश्रण (अलगाव: तीन संदर्भ) आदि विशेषताएं कहानियों को एक-दूसरे से अलग
करती हुईं, अलग-अलग
प्रस्तुति प्रक्रिया अपनाती हैं। इन्हीं प्रस्तुति की विभिन्न शैलियों को अपनाकर
ही अंकुर जी, अभिनेता
विजय कुमार की इस आपत्ति पर कि “नैरेशन चलता है तो कहानी में अवरोध उत्पन्न होता है।
लगता है कहानी रूकी सी जा रही है”[14], का जवाब
देते हैं। अंकुर जी कहते हैं - “विजय कुमार का यह जो कमेंट है, यहां अवरोध उसे
इसलिए लग रहा था क्योंकि वह ढूंढ़ नहीं पा रहा था कि उस नैरेशन को वह कैसे प्रयोग
में लाए कहानी के अन्दर। ...बना हुआ है न कि अभिनेता को हमेशा एक्शन चाहिए होता
है। और वे समझते नहीं हैं कि नैरेशन भी एक्शन बन सकता है और जब वे उसकी डिस्कवरी
कर लेते हैं तो फिर कोई समस्या नहीं रहती।”[15]
इसप्रकार
कहानी की रंगमंच प्रस्तुति में, बिना किसी सूत्रधार, कोरस एवं कथागायक
के, अभिनेता
अपनी उपस्थिति,
नैरेशन एवं चरित्र निर्वाह से संभावनाओं के विविध द्वार खोल देता है। इस
अभिनय प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए डॉ.महेश आनंद लिखते हैं - “वास्तव में
कहानी-रंगमंच की अभिनय-प्रक्रिया एक पात्र से दूसरे पात्र को प्रतिबिबिंत करने की
यात्रा जैसी है,
जिसमें एक पात्र से दूसरे पात्र को प्रतिबिबिंत करने में अभिनेता कभी एक
को और फिर उसे छोड़कर दूसरे या तीसरे पात्र की तलाश में चलता है।”[16]
आगे वे ‘खानाबदोश’ के मंचन का उदाहरण
देकर बताते हैं कि किस प्रकार हेमासिंह, ओम की साथिन के रूप में जुड़कर वर्तमान
सामाजिक परिवेश में स्त्री-पुरुष संबंधों की कई पर्तें उधेड़ती हैं और फिर
कहानीकार (या स्त्री) के रूप में स्वयं अपना विश्लेषण करती हुई पाठकों से संवाद
करती है। “इस
कोशिश में उन्होंने अभिनय और रंगभाषण के कई स्तरों पर वर्णन और संवादों के बीच जिस
तेजी के साथ बदलाव व्यंजित किया, उसमें विगत की स्मृतियां, ओम के साथ संबंध और
अलगाव के क्षणों के प्रदर्शन में वाचक को नया रूप मिला है। यहां वर्णन स्वगत है, दर्शकों से संबोधित
है और संवाद का नया रूप भी हैं।”[17] अपनी ही
आत्मकथा का मंचन होते हुए देखती खानाबदोश की रचनाकार अजीत कौर लिखती हैं - “इतना सारा नाटक ?... और कई दफ़ा मेरी
जैसी बेवकूफ़ जिंदगी में से इतना सारा नाटक भी कोई अंकुर जैसा जादूगर निकाल लेता
है। अंकुर जैसा कोई गोताख़ोर किसी ऐरी-गै़री घटना की अतल गहराई में से कैसे इतना
सारा नाटक निकाल लाता है - हैरानी होती है।”[18] कुछ इसीतरह अपनी ही कहानी ‘बंद गली का आखिरी
मकान’ की
प्रस्तुति देखते हुए धर्मवीर भारती चमत्कृत हो उठते हैं। वह अपने अनुभवों को
बांटते हुए कहानी के रंगमंच पर घटने की प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालते हैं - “किसी कहानी की
नाट्य प्रस्तुति ऐसी हो सकती है, यह मैं सोच ही नहीं सकता था। ...दृश्य आता, घटना में ऐक्शन, संवाद और फिर उसके
बाद अभिनय करता हुआ पात्र सहसा बैठ जाता है या खड़ा हो जाता है और आगे की कहानी
बड़े दिलकश ढंग से सुनाने लगता है। फिर दूसरा दृश्य आता और वह कहानी कहना बंद कर
अपना अभिनय करने लगता। रंगमंच और किस्सागो को इतनी बारीकी से गूंथा है अंकुर जी ने, कि मैं चकित हूं।
और ये युवा छात्र अभिनेता, अभिनय करते हैं तो इनकी मुद्रा, इनकी आवाज़ इनका लहज़ा कुछ और है, और जब वही अभिनेता
अभिनय करते-करते कथा कहने लगता है तो उसकी आवाज़ उसका
लहज़ा, उसकी
मुद्रा, कथाकार
की हो जाती है। बिल्कुल एक अलग व्यक्तित्व।”[19]
एक
दर्शक के दृष्टिकोण से किसी भी नाटक की सबसे बड़ी उपलब्धि साधारणीकरण के निकष पर
परखते हुए, धर्मवीर
भारती प्रस्तुति के दौरान कहानी से अपनी संपृक्तता महसूस करते हुए कहते हैं - “कथाकार का यहां
मतलब मैं नहीं। साधारणीकरण का यह अजब जादू है कि अपनी ही कहानी का मंचन
देखते-देखते मैं ‘मैं’ नहीं रह जाता। मैं सभी दर्शकों-श्रोताओं के बीच वैसा ही
एक सामान्य दर्शक-श्रोता हूं। जाने किसकी जीवन कथा मंच पर देख रहा हूं, अब आगे क्या होगा
कि प्रतीक्षा करते हुए, जाने किसके द्वारा गढ़े हुए इन पात्रों के साथ एकात्म्य
स्थापित करते हुए...।”[20]
एक और
प्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा भी स्वयं अपनी कहानियों के मंचन को देखकर विस्मित हो
उठते हैं - “स्वयं
मेरे लिए यह बात कि कहानियों को सुनने-पढ़ने के अलावा देखा भी जा सकता है, एक विस्मयकारी
अनुभव था। जिन कहानियों को अरसा पहले मैंने अपने अकेले कमरे में लिखा था, उन्हें मंच पर
दर्शकों के बीच देखना कुछ वैसा ही था, जैसे टेपरिकॉर्डर पर अपनी आवाज़ सुनना, जो अपने होने पर भी
अपनी नहीं जान पड़ती।”[21]
यही
नहीं भीष्म साहनी जैसे बड़े कथाकार और नाटककार तो ‘कहानी के रंगमंच’ को एक भिन्न विधा
के रूप में विकसित होने की संभावना जताते हैं। वह लिखते हैं - “इसमें संदेह नहीं
कि जिस तरह कहानी के गठन में - भले ही वह बनावटी हो या गैर-बनावटी सौंदर्यबोध के
स्तर पर अपना आकर्षण होता है, जिसे हम कहानी का अंदाज कहते हैं, वैसा ही नाटक के
गठन में भी होता है। जिस तरह सपाट बयानी कहानी का स्थान नहीं ले सकती, उसी तरह कहानी की
प्रस्तुति भी नाटक का स्थान नहीं ले सकती, लेकिन अपने में एक
अलग विधा के रूप में यह निश्चय ही विकसित हो सकती है। कहानी का प्रभाव भी बना रहे, और नाटकीयता का रस
भी मिले।”[22]
वो अपनी
ही कहानी ‘चीफ की
दावत’, ‘संभल के
बाबू’ एवं ‘लीला नंदलाल की’ के प्रदर्शन को
देखकर आगे लिखते हैं - “मेरी कहानियों की प्रस्तुतियां मेरे लिए सुखद यादें छोड़
गई हैं।”[23]
विभिन्न
कथाकारों ने अपनी कहानियों की मंच-प्रस्तुति के द्वारा उन कहानियों के अनेकानेक नए
साहित्यिक अर्थ एवं व्याख्याएं उद्घाटित होकर सामने आने की बात स्वीकारी। इससे
देवेन्द्र राज अंकुर समेत अन्य कई निर्देशकों का भी बहुत उत्साहवर्धन हुआ।
देवेन्द्र
राज अंकुर कहानियों के चयन के आधार को लेकर किसी विशेष विचारधारा या प्रतिबद्धता
से इंकार करते हैं। एक साक्षात्कार में वह जयदेव तनेजा से कहते हैं - “इस संबंध में मेरा
कोई पूर्वाग्रह नहीं है - न देश का, न लेखक का, न भाषा का, न विचार का, न रूप-विन्यास का।
चुनने का सिर्फ एक ही आधार है कि आलेख अच्छा हो, गहरी संवेदना से
जुड़ा हो, कथ्य
गंभीर हो, जो
सोचने पर मजबूर करे, सवाल उठाए और संरचना मंचन की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण हो।”[24]
वस्तुतः
कहानी के चयन में अंकुर जी तथ्य को सबसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं, चाहे वह व्यक्ति और
समाज के संबंधों पर आधारित हो, चाहे स्त्री-पुरुष संबंधों पर फोकस हो या राजनैतिक तथ्य
हो। अंकुर जी कहते हैं - “प्रश्न यह है कि उस तथ्य को रचनाकार ने कितनी गहराई से
हमारे सामने रखा है। अगर वह मुझे अंदर से झकझोरता नहीं, कोई सवाल करने के
लिए उकसाता नहीं, तो उस स्थिति में मेरे लिए उस रचना को ले पाना मुश्किल लगता
है।” वास्तव
में कहानियों के रंगमंच के माध्यम से देवेन्द्र राज अंकुर थिएटर और साहित्य के बीच
की दूरी समाप्त करते हुए उन्हें उनकी सीमाओं से निकाल कर सीधे दर्शकों के सामने
लाना चाहते हैं। इसी बात को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध रंगालोचक नेमिचंद्र जैन इस
प्रयोग की उपयोगिता बताते हैं - “सबसे पहले तो यह कि कोई स्थूल, मोटी बात कहने वाले, या चालू मुहावरे
में चालू ढंग की बातें कहने वाले नाटकों को खेलने की बजाय, अगर कहानियों का
चुनाव किया जाता है तो श्रेष्ठ साहित्य का एक बड़ा क्षेत्र निर्देशक के सामने खुल
जाता है। इससे ऐसी रचनाएं सुलभ हो जाती हैं जो सचमुच जीवन की गहरी समझ की, अनुभूति की, हमारे आज के यथार्थ
की विडंबनाओं को घेरा करती हैं। उनको प्रस्तुत करने से एक सार्थक अनुभव के नाटकीय
रूप को लोगों तक पहुंचाया जा सकता है।”[25]
सन् 1975 से
शुरू हुए इस सफर में निर्मल वर्मा के साथ ही चंद्रधर शर्मा गुलेरी, प्रेमचंद, भीष्म साहनी, मन्नू भंडारी, वैद, विजयदान देथा, हरिशंकर परसाई, मोहन
राकेश और काशीनाथ
सिंह आदि अनेक विशिष्ट कथाकार हुए हैं, जिनकी सैकड़ों कहानियों का सफल मंचन हो चुका
है। नेमिचंद्र जैन इन कहानीकारों की विशिष्टता बताते हैं - “इन्होंने कई स्तरों
पर जीवन की विडंबनाओं को, संघर्षों को, आज के आदमी की हालत को दिखाने वाली
स्थितियों को अपनी कहानियों में उजागर किया है और उन अनुभवों को इन कहानियों के माध्यम
से नाटक के दर्शकों तक लाया जा सकता है। यह बहुत बड़ा काम है कि इतने अच्छे, श्रेष्ठ, महत्त्वपूर्ण
सर्जनात्मक साहित्य को रंगमंच से जोड़ा गया। ... दूसरे, कहानियों में
विविधता की बहुत गुंजाइश है। थोड़े-से परिश्रम से ही अलग-अलग कथ्य की, अलग-अलग शैली की, अलग-अलग सामाजिक परिवेश
की कहानियां चुनी जा सकती है। ...इसमें कथ्य का बड़ा विस्तार है। अनेक तरह के
अनुभव को कहानियों के माध्यम से रंगमंच पर लाया जा सकता है और उसे दर्शकों तक पहुंचाया
जा सकता है।”[26]
पिछले 35-37 वर्षों
में रंगकर्मी देवेन्द्र राज अंकुर ने अकेले ही लगभग 150 कहानियों और
उपन्यासों के मंचन द्वारा इस प्रयोग को स्थायित्व दिया है। उनके अतिरिक्त ब.व.कारंत, सत्यदेव दूबे, दिनेश खन्ना एवं
रंजीत कपूर आदि निर्देशकों ने भी ‘कहानी के रंगमंच’ के सफल प्रयोग
किये। चूंकि कहानियों का फलक सीमित होता है अतः देवेन्द्र राज अंकुर ने प्रायः
किसी एक लेखक की एक शेड वाली तीन चार कहानियां या किसी एक ही सब्जेक्ट वाली
विभिन्न लेखकों की कहानियों को एक साथ जोड़कर प्रस्तुत करने की यह परंपरा निर्मल
वर्मा की तीन एकांत (1975) के प्रदर्शन से चलाई। जिसे उन्होंने ‘कथा कोलाज’ या ‘रंग कोलाज’ नाम दिया। इसका
कारण बताते हुए अंकुर जी लिखते हैं - “कोलाज शब्द मूलतः चित्रकला से आया है, जहां अलग-अलग तरह
की सामग्री का इस्तेमाल करते हुए चित्रकार एक पेंटिंग की रचना करता है। ‘कथा कोलाज’ में भी हम विभिन्न
रंगों, लेखकों, और मूड एवं कथ्य की
कहानियों को एक के बाद एक प्रस्तुत करके एक रंगमंचीय अनुभव देने की कोशिश करते
हैं।”[27]
कभी
कहानियों की एक सी शैली एवं एक से कथ्य ने उन्हें प्रेरणा दी तो कभी अमूर्त शैली
या एक ही विषय या समस्या को उसके अलग-अलग कोणों से उठाती कहानियों ने एक साथ कोलाज
के रूप प्रयोग करने के लिए अंकुर जी को प्रेरित किया। इस क्रम में उन्होंने ‘महानगर: तीन संवाद’, ‘अलगाव’: तीन
संदर्भ’, ‘लौटना:
तीसरी बार’ में तीन
कहानियों को साथ रखकर तो ‘पहाड़: चार बार’, कहानियों में चार
कहानियों को जोड़कर प्रस्तुत किया। ‘कहानियां ही कहानियां’ में जहां नौ-दस
कहानियां थी तो ‘लौटना: बार-बार’ में नौ कहानियों को एक साथ प्रस्तुत करने का
सफल प्रयोग किया। दरअसल ‘लौटना: बार-बार’ थिमैटिक एक्सप्रेशन
की प्रस्तुतियां थीं, जिनका कथ्य एक ही है। इसमें प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’, भीष्म
साहनी की ‘चीफ की
दावत’, निर्मल वर्मा की ‘बीच बहस में’, अमरकांत
की ‘दोपहर
का भोजन’ जैसी
कहानियों को रखा गया था। ये कहानियां जिन्दगी का एक ही रंग लिए हुए थीं, पर इनके शेड
अलग-अलग थे। जिसमें अवकाशप्राप्त या दफ्तरों के मामूली मुलाजि़म या फिर बूढ़े हो गए
वे लोग जो वापस अपनी जिंदगी में लौट रहे हैं, जिसमें वे काम के
दौरान कटे हुए थे, शामिल हैं। इसमें एक अन्य फायदा यह भी होता है कि दर्शक एक ही
शाम में एक साथ कई लेखकों की कहानियों से साक्षात्कार कर लेता है और कई बार
महत्त्वपूर्ण अनसुनी कहानियां भी सामने आती हैं। प्रेमचंद का ‘इस्तीफा’ और ‘आखरी हीला’ ऐसी ही कहानियां हैं।
‘कोलाज’ के लिए कहानियों का
चुनाव भी एक लंबी प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। अंकुर जी इसके लिए कोई
निश्चित फार्मूला होने से इंकार करते हैं। वे कहते हैं - “सबसे पहले मैं अपने
साथ एक कथाचयन प्रभारी को जोड़ लेता हूं। उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह कम से कम
पांच सौ से एक हजार तक कहानियों को पढ़कर लगभग सौ-डेढ़-सौ कहानियां चुन कर लाए।
चयन प्रक्रिया के दूसरे चरण में उन सौ-डेढ़-सौ कहानियों में से स्वयं गुजरता हूं
और बीस-पच्चीस कहानियां चुनकर अपने छात्र-अभिनेताओं के पास जाता हूं।...यह पढ़ना
सुनाना पांच-छः दिन में समाप्त होता है और हर कहानी पर बहस करते, पुनर्विचार करते, दो शामों में आखि़र
ज़्यादा से ज़्यादा कितनी कहानियां की जा सकती हैं, इस तथ्य को ध्यान
में रखते हुए छः सात कहानियों का चुनाव अपने आप हो जाता है।”[28]
विभिन्न
स्थानों पर फोर्थ थियेटर से अभिहित किए जाने वाले ‘कहानियों के रंगमंच’ के प्रयोग में
अंकुर बहुत सारे नाटकोचित रंगमंचीय उपकरणों का निषेध करते हैं। उनका मानना है कि
संसाधनों के होने के बावजूद भी कम-से-कम उपादानों के प्रयोग से ‘कहानी के रंगमंच’ को मितव्ययी बनाने
के साथ ही सहज,
सुलभ एवं दर्शकों की कल्पनाओं के लिए पूरा ‘स्पेस’ मिले। अंकुर जी
कहते हैं - “आमतौर
पर मुझे मज़ा आता है कि एक सूना मंच हो। पार्श्व संगीत की अगर ज़रूरत महसूस करता
हूं तो वह आएगा,
नहीं तो खामोशी भी संगीत की बात कह सकती है। मैं इस बात पर फिर जोर दूंगा
कि इस विधा का पूरा आनंद हम तभी अनुभव कर सकते हैं जब इन चीजों से मुक्त हो जाएं।”[29]
प्रसिद्ध
रंगालोचक गिरीश रस्तोगी इस प्रयोग के एक खतरे को भी रेखांकित करते हुए लिखती हैं -
“भले ही
हम इसे एक ‘स्वयंसिद्ध
प्रयास’ या ‘निश्चित फार्मूले
से मुक्ति’ कहें
लेकिन फिर भी कुछ विशेष प्रकार के प्रयोगों की पुनरावृत्ति से ‘शैली बद्धता’, ‘एकरसता’ की सीमाएं तो आती
ही हैं, जिनसे
निर्देशक, अभिनेता
जूझते नज़र आते हैं। ...नया
आस्वाद, परंपरा
और आधुनिकता का सामंजस्य और अधिक व्यापक और मोबाइल सिंक्रोनाइजेशन और एक्सप्रेशन’ ही कहानी को थिएटर
बनाएगा। शास्त्रीय और लोकपरंपराओं से, स्थानीय बोलियों से, लोक गायन शैलियों
और रंगों से ‘कहानी
रंगमंच’ का
विस्तार करना चाहिए अन्यथा वह शहरी रंगमंच ही शहर में भी एक खास वर्ग का रंगमंच
होकर रह जाएगा।”[30]
आगे आप ‘कहानी रंगमंच’ की उपलब्धि को
महत्त्वपूर्ण बताते हुए इसे विस्तार देने की आवश्यकता पर बल देती हैं - “अगर वह किस्सागोई
है तो जनता तक पहुंचना चाहिए। इस प्रयोग का सबसे सशक्त और अच्छा पक्ष है न्यूनतम
साधनों में अधिकतम अभिव्यक्ति। इसे ही बदलते समय और परिवेश, विश्व संदर्भ और
जन-समस्याओं के साथ बदलते रहने, तराशते रहने की जरूरत है।”[31]
इसप्रकार
अंकुर जी ने 37 वर्षों
से निरंतर प्रयोगों के द्वारा ‘कहानी के रंगमंच’ की नयी विधा
सुस्थापित की है। इस विधा को लेकर उनके और अन्य निर्देशकों के नित नये प्रयोग जारी
हैं। इसके शास्त्रीय स्वरूप को स्थापित करने का प्रयास चल रहा है। राष्ट्रीय नाट्य
विद्यालय में पाठ्यक्रम के रूप में चल रहा यह प्रयोग नित नये आयाम स्थापित कर रहा
है।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 03 अप्रैल 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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