पद्माकर
कवि ने सामाजिक,
धर्मिक पक्ष की भांति सांस्कृतिक पक्ष का भी सम्यक अवलोकन
किया है। कवि ने सांस्कृतिक मूल्यों को जन-जीवन में आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित
किया है। भारतीय संस्कृति का सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है। प्रत्यक्ष रूप में न
सही किंतु अप्रत्यक्ष रूप में ही कवि ने तद्-युगीन संस्कृति की विशिष्टता को
दर्शाया है। संस्कृति जो कि संस्कार, खान-पान, वेशभूषा तथा कला-कौशल आदि का समावेश है। ‘जगद्विनोद’ में भी इसकी पूर्ण
अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।
मानव को सही अर्थों में मानव बनाने का श्रेय उन उदात्त
मूल्यों को जाता है जिनके माध्यम से वह अपना जीवन व्यतीत करता है। प्रत्येक
राष्ट्र की एक परंपरागत संस्कृति होती है। किसी भी व्यक्ति विशेष की पहचान उसकी
संस्कृति से होती है। सांस्कृतिक मूल्य आदान-प्रदान से पुष्ट होते हैं। समाज को
उच्च से उच्चत्तर विकास की ओर उन्मुख करते हैं तथा राष्ट्र को आत्मबल प्रदान करते
हैं। सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य हमारे जीवन में रची-बसी वे बाते हैं,
जो हमारे रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, धर्म, कला साहित्य, संगीत, नृत्य, पर्वोत्सव तथा आमोद-प्रमोद के विभिन्न साधनों से निरंतर
अभिव्यक्त होते हैं। किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित होने पर यदि ये उसे सौंदर्य
प्रदान करते हैं तो पूरे समाज से संबद्ध होने पर समस्त राष्ट्र को गौरवान्वित करते
हैं[1]
अर्थात् सांस्कृतिक मूल्य व्यक्ति और समाज के सौन्दर्यवर्धन का महत्वपूर्ण साधन हैं।
पद्माकर कवि ने सामाजिक,
धर्मिक पक्ष की भांति सांस्कृतिक पक्ष का भी सम्यक अवलोकन किया है। कवि ने सांस्कृतिक मूल्यों को जन-जीवन में
आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित किया है। भारतीय संस्कृति का सुन्दर चित्र प्रस्तुत
किया है। प्रत्यक्ष रूप में न सही किंतु अप्रत्यक्ष रूप में ही कवि ने तद्-युगीन
संस्कृति की विशिष्टता को दर्शाया है। संस्कृति जो कि संस्कार,
खान-पान, वेशभूषा तथा कला-कौशल आदि का समावेश है। ‘जगद्विनोद’ में भी इसकी पूर्ण अभिव्यक्ति देखने को मिलती हैः
(1)वेशभूषा एवं श्रृंगार-प्रसाधन
वेशभूषा एवं श्रृंगार प्रसाधन संस्कृति के आवश्यक अंग है।
किसी भी समाज विशेष की संस्कृति की पहचान उस समाज वेशभूषा एवं श्रृंगार प्रसाधन के
माध्यम से की जा सकती है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिककाल तक संस्कृति के प्रमुख
अंग वेशभूषा एवं श्रृंगार-प्रसाधनों में
भी निरंतर अंतर आया है। आदिकाल-भक्तिकाल की तुलना में रीतिकाल के श्रृंगारिक
वातावरण में आकर इनमें अधिक बदलाव आया। डॉ. नगेन्द्र ने भी इस संबंध में लिखा है -
“रीतिकाव्य की वासक सज्जा नायिकाओं को रनिवासों की बेगमों से सीधी प्रेरणा
मिलती होगी, जिनका सारा आभूषणों से ढका होता था तथा पोशाकें बहुमूल्य और
इत्र में बसी हुई थीं।”[2]
कविवर पद्माकर
के काव्य में भी तद्युगीन वेशभूषा एवं श्रृंगार
के प्रसाधनों की सुन्दर अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। उच्चवर्गीय समाज की वेशभूषा
एवं श्रृंगार प्रसाधनों का वर्णन इनके काव्य में देखने को मिलता है।
(І)वेशभूषा
नारी-प्रधान साहित्य होने के कारण इस काल में स्त्रियों के वस्त्रों
का प्रचुरता से उल्लेख देखने को मिलता है। इस काल में पुरुषों की वेशभूषा का वर्णन
बहुत कम कवियों ने किया है। पद्माकर ने भी स्त्रिायों के वस्त्रों का चित्रण ही अधिक
किया है। जैसे -
कुंचकी-वर्णन -
“औचकांउचन उचन लागी कुंचकी रूचन लागी।
सकुचन लागी तोहि सकुच न लागी री।”[3]
अंगिया -
“टूटे हरा छरा छूटे सबै सराबोर भई अंगिया रंगराती।
को कहतो यह मेरी दसा गहतो न गुबिंद तौ मैं बहि जाती।”[4]
लहंगा या घाघरा-
“घांघरे की घूमन सु उफरून दुबीचैं पारि।
आंगी हू उतारि सुकुमारि मुख मोरै है।”[5]
ओढ़नी -
“केसररंगी सिर ओढ़नी काननि कीनहै गुलाबकली हौ।
भाल गुलालभर्यो पद्माकर अंगनि भूषित भांति भली हौ।”[6]
साड़ी -
“सांमरी सारी सुखी संग-सांमरी सांमरू धरि विभूषन ध्वैकै।
त्यों पद्माकर सांमरेई अंगराग़निप आंगी रची कुच द्वैकै।”[7]
(ІІ)श्रृंगार-प्रसाधन
रीतिकाल में श्रृंगार-प्रसाधनों
के महत्व का उल्लेख कवियों ने स्थान-स्थान पर किया है। उदाहरण के लिए की ये
पंक्तियां देखिए -
“जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषन बिनु न बिराजई कबिता बनिता मित्त।”[8]
अर्थात् कविता काव्याभूषणों के बिना और स्त्री आभूषणों के
अभाव में शोभा नहीं देती है। नारी को भोग्या मानने वाली सामंती शानो-शौकत को
उत्तेजित करने के उद्देश्य से लिखा गया रीतिकालीन साहित्य आभूषणों की सत्ता को स्त्री
सौन्दर्यवर्धन में बहुत ज्यादा महत्त्व देता है। पद्माकर ने भी नायिका के नख-शिख सौन्दर्य
चित्रण में सिर, नाक, कान, कंठ, हाथ-पैरादि में धारण किए जाने वाले आभूषणों का उल्लेख किया
है –
सिर पर धरण किए जाने वाले आभूषण
(पेंच)- “गोसपेंच कुंडल कलंगी सिरपेंच पेंच
पेंचन तें खैंचि बिन बेंचे वारि आए हौ।[9]
(बेंदा)- “नीलमनिजटित सु बेंदा उच्च कुच पैं
नाक का आभूषण (बेसरि)
“हारत सो हहरात हियो मुकता सियारात सु बेसर ही को।
भाउते के उर लागी जउफ तउफ भाऊती को मुख ह्यै गयो फीकी।”[11]
हाथ और पैर के
आभूषण
बाजूबंद- “कंचन तें कुंचकी भुजान तें सु बाजूबंद
कौंचन तें ककन हरेई हरे सरके।”[12]
गजरा-
“भाल पै लाल गुलाल गुलाल सो गेरि गरै गजरा अलबेलौ।।”[13]
भारतीय प्रसाधन
परंपरा में सोलह श्रृंगारों की मान्यता रही है पद्माकर कवि ने भी इसी परंपरा का
निर्वाह किया है। इनके काव्य में सोलह- श्रृंगार का पूर्ण वर्णन तो नहीं किंतु इस
मान्यता समर्थन दिखाई पड़ता है -
“सोरह सिंगार के नवेली की सहेलिनहूं
कीन्हीं केलिमंदिर में कलपित करै हैं।
कहै पद्माकर सु पास ही गुलाब पास
खासे खसखास सुसबोइन की ढैरै हैं।
त्यों गुलाबनीरन सो हीरन के हौज भरे
दंपति मिलाप हित आरती उजेरै है।
चोखी चांदनीन पर चैसरे चमेलिन के
पद्माकर कवि
ने निम्न श्रृंगार-प्रसाधनों का उल्लेख जगद्विनोद किया है -
मेहंदी- “अंगराग औरैं अंगनि करत कछू बरजी न।
पै मेहंदी न दिवाइहौं तुम सों पगनि प्रवीन।।”[15]
पीक- “धेइ गई केसरि कपोल कुच गोलन की
पीक लीक अधर
अमोलनि लगाई है।।”[16]
(तमोल-तिलक)- “और तजे तौरहु तजे भूषन अमल अमोल।
तजन कह्यो न सुहाग में अंजन तिलक तमोल।”[17]
केसरि रंग-
“मो मुख बीरी दई तौ दई सु रही रचि साधि सुगंध घनेरौ।
त्यों पद्माकर केसरि खौरि करी तौ करी सो सुहागु है मेरौ।”[18]
अंततः यह कहा जा सकता है कि नारी-प्रधान साहित्य होने के
कारण वेशभूषा, आभूषणों एवं सौन्दर्य प्रसाधनों का पर्याप्त मात्रा में
वर्णन कवि ने प्रस्तुत किया है। पुरुषों की वेशभूषा का उल्लेख कवि ने नहीं किया।
तद्युगीन प्रवृत्ति के अनुरूप कवि ने भी उच्चवर्गीय परिवारों में प्रचलित प्रसाधनों
का ही उल्लेख किया है।
(2)खानपान
रोटी,
कपड़ा और मकान ये तीन जीवन की आधारभूत आवश्यकताएं हैं।
इनमें रोटी अर्थात् भोजन जीने के लिए अत्यंत आवश्यक है। प्रत्येक देश का खानपान
एक-दूसरे से भिन्न होता है जो उस समाज की संस्कृति को दर्शाता है। प्राचीनकाल से
ही दो प्रकार के भोजन का सेवन लोगों द्वारा ग्रहण किया जाता रहा है - शाकाहार और
मांसाहार। रीतिकाल में भी निरामिष भोजन की महत्ता थी। यद्यपि इस काल में मांसाहार
और मदिरापान का भी प्रचलन था। पद्माकर कवि ने भी तद्युगीन समाज में सेवन की जाने
वाली वस्तुओं का उल्लेख किया है। जैसे - दूध,
दही, अंगूर, पान, आंवले, दूध से बनी वस्तुओं जैसे बर्फी आदि।
स्वकीया नायिका के लक्षण में कवि ने स्त्री और पुरुष के
सम्मिलित रूप से भोजन करने का उल्लेख नहीं किया है क्योंकि तत्कालीन समाज में स्त्री
पति और घर के अन्य सदस्यों को खाना खिलाने के पश्चात् ही खाना खाती थी। प्राचीनकाल
से अब तक भारतीय पुंसवादी समाज में इस व्यवहार का प्रयोग देखने को मिलता है -
“खान पान पीछू करति सोवति पिछले छोर
प्रानपियारे तें प्रथम जगत भावती भोर।”[19]
नायिका भेद में कवि ने दही बेचने वाली नायिका का उल्लेख
किया है जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि तत्कालीन समाज में दही का सेवन भी
प्रचलित था -
“आज तें न जैहौं दधिबेचन दुहाई खाउं
भैया की कन्हैया उत ठाढ़ोई रहत है।
कहै पद्माकर त्यों सांकरी गली है अति
इत उत भाजिबे कौं दाउं न लहत है।
दौरि दधिदान काज ऐसो अमनैक तहां
आली बनमाली आइ बहियां गहत है।
भादों सुदी चैथ को लख्यो मैं मृगअंक यातें
कवि ने बरफी (कंद), अंगूर, अनार, मिश्री का भी वर्णन किया है -
“करि कंद को मंद दुचंद भईं फिर दाखन के उर दागती हैं।
पद्माकर स्वादु सुध तें सिरै मधु तें महा माधुरी जागती हैं।
गिनती कहा ए री अनारन की ये अंगूरन तें अति पागती हैं।
तुम बातैं निसीठी कहौ रिसि में मिसिरी तें मिठी हमैं लागति
हैं।”[21]
कवि ने पान, बीरा एवं तमोल आदि का भी वर्णन किया है-
क. “और तजे तौरहु तजे भूषन अमल अमोल।
तजन कह्यो न सुहाग में अंजन तिलक तमोल।।”[22]
ग. “तान की तरंग तरूनापन तरनितेज
तेल तूल तरूनि तमोल ताकियतु है।”[24]
मद्यपान का उल्लेख भी कवि ने किया है -
“पूस निसा में सु बारूनी लै बनि बैठे दुहूं मद के मतवाले।
प्रियतम और प्रियतमा दोनों पूस की रात में मदोन्मत हो रहे
हैं। तत्कालीन समाज में शराब के पश्चात् मुँह बदलने हेतु लिए जाने वाले नाश्ते (गजक) का उल्लेख भी कवि ने किया है -
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कवि
पद्माकर ने निरामिष भोजन का ही उल्लेख अपने इस ग्रंथ में किया है जिससे तत्कालीन
समाज में उच्चवर्गों तथा सामान्यजन में इसके सेवन का पता चलता है।
3.मनोरंजन के विभिन्न साधन
निरंतर
शारीरिक और मानसिक थकान के पश्चात मनोरंजन को महत्व दिया जाता है जिससे पुनः स्फूर्ति
एवं आनंद की प्राप्ति हो। व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक परिश्रम के पश्चात इतना थक
जाता है कि उसे इस थकावट से बाहर निकलने के लिए मनोरंजन के साधनों का आश्रय लेना
पड़ता है। और तत्पश्चात वह एक नयी ऊर्जा के साथ वापिस अपनी दिनचर्या में लौट आता
है। प्राचीन काल से आधुनिक काल तक लोगों के मनोरंजन करने के साधनों में परिवर्तन
अवश्य आया है किंतु लोगों ने मनोरंजन करना नहीं छोड़ा क्योंकि ये मनुष्य की
आवश्यकता है। इनके अभाव में जीवन में नीरसता का संचार होता है और नीरस व्यक्ति
जीवन में कुछ भी करने में असमर्थ रहता है।
अतः रीतिकाल
में भी मनोरंजन के लिए भिन्न-भिन्न क्रियायाकलापों का आश्रय लिया जाता था।
सामंतशाही प्रधान इस रीतिकालीन परिवेश में मनोरंजन के साधन भी सामंती शानों-शौकत के
अनुरूप थे। पद्माकर कवि ने भी तद्युगीन समाज में प्रचलित मनोरंजन के साधनों का
उल्लेख अपने इस ग्रंथ (जगद्विनोद) में किया है -
पांसा खेलने का वर्णन
तत्कालीन युग
में पक्षियों को पालना, उन्हें सिखाना-पढ़ाना,
उड़ाना तथा उनकी लड़ाई देखना आदि मनोरंजन का ही अंग था। कवि
पद्माकर ने अपने आश्रयदाता के द्वारा पाले जाने वाले लवा एवं तीतरों की प्रशंसा की
है। श्री सवाई के लवा लड़ाई में चोट पर चोट करते हैं। वे लौटना या पीठ दिखाना नहीं
जानते; वे चंचल, चुटीले और चटकीले हैं। वज्र से अधिक शक्तिशाली है। चोंच की
चोट करने में भी चूकते नहीं।
तत्कालीन समाज
में नाट्यशालाओं का भी वर्णन देखने को मिलता है जो उस समय पौराणिक आख्यानों के
प्रदर्शन तथा नृत्यादि की व्यवस्था जनता के आकर्षण का केन्द्र थी -
“आवत कंत उछाह
भरे अवलोकिबे कौं निज नाटकसाला।
हौं नचि गाइ रिझावहुंगी पद्माकर त्यों रचि रूप रसाला।”[28]
तद्युगीन समाज में मेलों का भी प्रचलन था जो मनोरंजन के साधनों
में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। ये मेले तत्कालीन संस्कृति की सुन्दर अभिव्यक्ति है।
ये जनता में हर्षोल्लास का संचार करते थे। उसके जीवन को उमंग और आनंद से भर देते
थे। आज भी समाज में मेलों का आयोजन देखने को मिलता है किंतु आज का मेला भौतिक सुख अधिक
प्रदान करता है, वास्तविक आनंद का उसमें लोप है।
तद्युगीन समाज में मेले में खेले जाने वाले खेलों का भी
प्रचलन देखने को मिलता है जिसमें छाया को छूकर वापस आना होता है। पद्माकर कवि ने
मेले का वर्णन अपने इस ग्रंथ में किया है -
“हौंहूं गई जान तित आइ गो कहूं तें कान्ह आन बनितानहूं को झपकि झलो गयो।
कहै पद्माकर अनंग की उमंगन सों अंग अंग मेरे भरि नेह को नलो
गयो।
ठानि ब्रजठाकुर ठगोरिन की ठेलाठेल मेला के मझार हित हेला कै
भलो गयो।
छांह छ्वै छला छ्वै छिगुनी छ्वै छराछोरन छवै छलिया छबीली
छैल छाती छ्वै चलो गयो।”[29]
अतः यह कहा जा सकता है कि पद्माकर ने अपने काव्य में
तद्युगीन मनोरंजन के साधनों को भी स्थान दिया है।
राध-कृष्ण की लीलाओं का गान-
‘जगद्विनोद’ में कई स्थलों पर कवि द्वारा राध-कृष्ण की लीलाओं का गान भी
देखने को मिलता है। जैसे -
“या अनुराग की फाग
लखौ जहं रागती किसोर किसोरी।
× × × ×
गोरिन के रंग भीजि गो सांउरी सांउरे के रंग भीजिगी गोरी।”[30]
अर्थात् कवि ने कृष्ण और गोपियों को एक दूसरे के रंग में
दर्शाया है। होली के इस पावन त्यौहार में कृष्ण और सुन्दरियां एक-दूसरे के रंग में
रंगे हुए हैं। कृष्ण और राध का श्रृंगारिक
रूप कवि ने इन पंक्तियों में प्रस्तुत किया है। और साथ ही कृष्ण द्वारा गोवर्धन
पर्वत को धरण करने का उल्लेख भी कवि ने प्रस्तुत किया है -
“घन बरषत नख पर धरयो गिरि गिरिधर निरसंक।
अजब गोपसुतचरित लखि सुरपति भयो ससंक।”[31]
कृष्ण और गोपियों की लीलाओं का सुन्दर चित्र कवि ने एक अन्य
स्थल पर और प्रस्तुत किया है -
इसमें कृष्ण
गर्व के साथ गापियों के साथ होली खेलने के लिए आए हैं। गोपियां उन्हें पकड़कर भीतर
खींच ले गयी और उनकी हालत खराब कर डाली। पीताम्बर छीन लिया और उनके गालों पर रोली
मल दी। और उनसे कहा कि कृष्ण फिर से होली खेलने अवश्य आना।
कृष्ण लीलाओं के
इस संयोगपूर्ण वर्णन के अतिरिक्त पद्माकर ने इनके वियोग पक्ष का भी चित्रण किया
है। कृष्ण-वियोग में सभी गोपियां तड़पती और रोती रहती हैं। स्वकीया राध के प्रति
सभी को पूर्ण सहानुभूति है क्योंकि वह हरदम रोती रहती है। गोपियों का मानना है कि
कृष्ण ने उनके साथ विश्वासघात किया है।[33]
अतः उपर्युक्त
विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कवि ने राधा और कृष्ण की लोक-प्रचलित
लीलाओं का गान भी अपने काव्य में प्रस्तुत किया है।
पर्वोत्सव -
भारत जैसे
विशाल देश में प्राचीनकाल से ही अनेक प्रकार के पर्वोत्सव मनाए जाते है। प्रत्येक
पर्व एवं उत्सव की अपनी विशेषता है। प्रत्येक त्यौहार के पीछे जनमानस की आस्था
छिपी हुई है। प्रत्येक मौसम के अनुसार त्यौहार निश्चित है। किसी के पीछे प्रकृति
और किसी के पीछे धर्मिक आस्था छिपी होती है। भारतीय त्यौहारों के विषय में यह
जनश्रुति भी देखने को मिलती है कि भारत में आए दिन एक त्यौहार होता है। किंतु इन
सबके मूल में कार्य की एकरसता से लोकजीवन में उत्पन्न होने वाली नीरसता को दूर
करने का प्रयोजन निहित है।
“भारतवर्ष में वर्षपर्यन्त ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ जनसाधरण
द्वारा सामूहिक रूप से विभिन्न त्यौहार एवं उत्सव मनाए जाते हैं। इन त्यौहारों में
बसंत पंचमी, शिवरात्रि, होली, रामनवमी, रक्षा-बंधन, विजयदशमी, दिवाली, तीज, गोवर्धन-पूजा तथा गणेश चतुर्थी मुख्य हैं।”[34]
पद्माकर कवि
ने भी तत्कालीन लोकजीवन को इन वर्षोत्सवों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। कवि ने
अपने इस ग्रंथ में होली, गनगौर-पूजा, तीज और मेले आदि पर्वोत्सवों का उल्लेख ही किया है। अन्य
पर्वोत्सवों का उल्लेख इस ग्रंथ में कवि ने नहीं किया।
होली त्यौहार
का वर्णन-
होली एक ऐसा
त्यौहार है जो पूरे हर्षोल्लास से भारतवर्ष में मनाया जाता है। प्राचीनकाल से ही
इस त्यौहार को संपूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है। इस त्यौहार में लोक-लाज का कोई
भय नहीं रहता। इस त्यौहार में सामाजिक मान-मर्यादा को तिलांजलि देकर स्त्री और
पुरुष एक दूसरे पर रंग डालने के लिए स्वच्छंद होते हैं। श्रृंगारिक काव्य होने के कारण कवि ने अनेक
स्थलों पर होली को आधारभूत बनाकर श्रृंगारिक
पक्षों की सुन्दर अभिव्यक्ति की है -
क. “आई खेलि होरी घरैं नवलकिसोरी कहूं
बोरी गई रंग में सुगंध झकोरै है।”[35]
ख. “या अनुराग की पफाग लखौ जहं रागती राग किसोर किसोरी।
× × × ×
गोरिन के रंग भीजि गो सांउरी साउरे के रंग भीजि गी गोरी।।”[36]
ग. “फाग के भीरे अभीरन तें गहि गोबिंद ले गई भीतर गोरी।
× × × ×
नैन नचाइ कह्यो मुसकाइ भला फिरी आइयो खेलन होरी।।”[37]
अंततः यह कहा
जा सकता है कि कवि ने लोक प्रचलित होली के त्यौहार का चित्राण किया है। आज भी
भारतवर्ष में इस त्यौहार को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
तीज-
यह त्यौहार
प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में मनाया जाता है। मुख्यरूप से स्त्रियां इस त्यौहार
को मनाती है। स्त्रियां सज-संवरकर इस त्यौहार को पूरे हर्षोल्लास से मनाती हैं।
काव्य में इसका वर्णन स्त्रियों के द्वारा सजने-संवरने अथवा धर्मिक पूजन के प्रसंग
में किया गया है। कदंब के वृक्ष के नीचे कंचन आभा को देखकर पद्माकर सहज ही कह उठते
हैं कि कोई स्त्री तीज की तैयारी करके गयी है -
“कंचनखंभ
कदंबतरे करि कोऊ गई तिय तीज तयारी।
हौहूं गई पद्माकर त्यों चलि औचका आइ गो कुंजबिहारी।
हेरि हिंडोरे चढ़ाइ लियो कियो कौतिक सो न कह्यो परै भारी।
फूलनवारी पियारी निकुंज की झूलन है न वा भूलनवारी।।”[39]
आज भी इस त्योहार को अत्यंत उत्साह के साथ भारतवर्ष में
मनाया जाता है।
गनगौर पूजन
गनगौर पूजन भी
भारतवर्ष में प्राचीनकाल से होता आया है। मुख्य रूप से स्त्रिायां इस त्यौहार को
मनाती है। गनगौर के दिन गिरिजा गोसांइन की पूजा के लिए अत्यंत आनंद और उल्लास के
साथ स्त्रियां आती हैं -
“द्यौस गुनगौर के
सु गिरिजा गोसांइन को आवत यहांई अति आनंद इतै रहै।
× × × ×
गोरिन में कौन धैं हमारी गुनगौर यहै संभु घरी चारिक लौं
चक्रित चितै रहै।।”[40]
मेला
प्राचीनकाल से
ही भारतवर्ष में मेलों का आयोजन देखने को मिलता है,
जो अपने आप में एक उत्सव है। रीतिकालीन कवियों ने इन मेलों
को आधार बनाकर भी काव्य में श्रृंगारिक पक्षों की सुन्दर अभिव्यक्ति की है। आज भी
भारतवर्ष में जन्माष्टमी महोत्सव, दिपावली महोत्सव, कुंभ का मेला आदि मेलों या उत्सवों के प्रति जनमानस के
हर्षोल्लास को प्रदर्शित करते हैं। कविवर पद्माकर ने भी अपने काव्य में मेले का
वर्णन किया है-
“हौहूं गई जान
तित आई गो कहूं तें कान्ह आन बनितानहूं को झपकि झलो गयो।
कहै पदमाकर अनंग की उमंगन सो अंग-अंग मेरे भरि नेह का नलो
गयो।
ठानि ब्रजठाकुर ठगोरिन को ठेलाठेल मेला के मझार हित हेला कै
भलो गयो।
छांह छ्वै छला छ्वै छिगुनी छ्वै छराछोरन छवैछलिया छबीलो छैल
छाती छवै चलो गयो।।”[41]
अर्थात् पद्माकर की नायिका का मेले में नायक से मिलन हो
जाता है। अनंग की उमंग में भरा नायक नायिका के अंगों का स्पर्श कर उसे अपने स्नेह
से सराबोर कर देता है। इस प्रकार कवि ने मेले के माध्यम से श्रृंगार-रस की सुन्दर अभिव्यंजना की है।
हिंडोला वर्णन-
जब वर्षा-ऋतु
आती है तो संयोगीजन प्रसन्न और वियोगीजन दुखी हो उठते हैं। प्रकृति का सौन्दर्य
संयोगीजन को उल्लसित करता है, वे आनंदित हो उठते हैं। उनके मन में हिंडोला (झूला) झूलने की उमंग उठती है। कविवर पद्माकर ने भी
जगद्विनोद में हिंडोला वर्णन प्रस्तुत कर
भारतीय संस्कृति में वर्षा ट्टतु के आने पर हिंडोले का जो महत्व है उस पर प्रकाश
डाला है -
कवि ने
हिंडोले के प्रत्येक अवयव को पुष्पों की सजावट से अलंकृत किया है। नायिका फूल की
तरह इस फूलों से सजे हिंडोले में झूल रही है। अतः यह कहा जा सकता है कि कवि ने
हिंडोले का वर्णन भी अपने इस ग्रंथ में कर भारतीय संस्कृति की पर्वोत्सव संबंधी
विशिष्टता पर प्रकाश डाला है।
संक्षेप में
यह कहा जा सकता है कि सांस्कृतिक मूल्य हमारे जीवन का ही अभिन्न अंग हैं। युग
परिवर्तन के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्यों में भी परिवर्तन आता है। संस्कृति विशेष
ही व्यक्ति का मानवीय मूल्य चेतना संपन्न एवं राष्ट्र को गौरवान्वित करती है।
संस्कृति ही एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से,
एक देश को दूसरे देश से पृथक करती है। रीति-रिवाज,
खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, पर्वोत्सव आदि संस्कृति के अंग हैं।
कविवर पद्माकर
ने भी ‘जगद्विनोद’ में तत्कालीन सांस्कृतिक मूल्यों को उजागर किया है जो इस
बात की पुष्टि करता है कि कवि ने लोकजीवन को अपने काव्य में समाहित कर तत्कालीन
संस्कृति को भी अपने काव्य में अभिव्यक्ति प्रदान की है। इसप्रकार कवि जनजीवन में
सांस्कृतिक मूल्यों को प्रतिस्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
संस्कारगत
रीतिरिवाज
संस्कारगत
रीतिरिवाज प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रहे हैं। संस्कारगत
रीतियां मुख्य रूप से तीन प्रकार की हैं - (1) जन्मोत्सव से सम्बद्ध रीतियां (2) वैवाहिक
रीतिरिवाज (3) मृत्यु से सम्बद्ध रीतियां
भारतीय जीवन
में व्यक्ति के जीवन को समृद्ध करने के लिए ‘सोलह संस्कारों’ की व्यवस्था की गई है, ये इस प्रकार हैं:
(1) गर्भाधन (2) पुंसवन (3) सीमंतोनृयन (4) जातकर्म (5) नामकरण (6) निष्क्रमण (7) अन्न प्राशन (8) चूड़ाकरण (9) कर्णवेध (10) विद्यारंभ (11) उपनयन (12) वेदारंभ (13) केशांत (14) समावर्तन (15) विवाह एवं (16) अन्येष्टि।[43]
पद्माकर कवि के काव्य में सोलह संस्कारों का वर्णन देखने को नहीं मिलता। किंतु
इसका अर्थ यह नहीं की कवि को इनका ज्ञान हो या कवि ने इनमें से किसी का वर्णन किया
ही नहीं है।
वास्तव में जगद्विनोद में कवि ने वैवाहिक रीतिरिवाजों का ही
वर्णन किया है। कवि ने अपने काव्य में वैवाहिक संस्कारों को ही अधिक प्राथमिकता दी
है। इसके अन्तर्गत कवि ने सती आदि का भी उल्लेख किया है। विवाह संस्कार को ही कवि
ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना है। कवि कहते हैं -
“मंडप ही में फिरै मडरात न जात कहूं तणि नेह को औनो।
त्यों पद्माकर तोहि सराहत बात कहे जु कहूं कछु कौनो।।
ए बड़िभागिनी तो सी तुंही बलि जो लखि राऊरो रुप सलौनीं।
ब्याह ही में भए लूट तब ह्वै है कहा जब हाइगोगौनों।।”[44]
प्राचीन काल
में बाल-विवाह का प्रचलन था, इसलिए गोने की रीति प्रचलित थी। आठ नौ वर्ष की अल्पायु में
बालक-बालिकाएं इस योग्य नहीं होते थें कि वे वैवाहिक जीवन की बागडोर संभाल सकें।
इसलिए विवाह के तीन, पांच, सात वर्ष या फिर और अधिक समय बाद गौने का प्रचलन था।
कविवर पद्माकर
ने भी इस रीति का वर्णन किया है। इससे कवि के लौकिक रीतिरिवाज संबंधी ज्ञान का पता
चलता है:
“आवत लेन दुरागमन रमन सुनति यह बानि।
हरष छिपावन हित भटू रही पौढ़ी पट तानि।।”[45]
कवि की नायिका वर आगमन का समाचार सुनकर अपने हर्षातिरेक को
छिपाने के लिए मुंह ढककर लेट जाती है। इस प्रकार कवि ने विवाह-संस्कार से सम्बंद्ध
रीति का वर्णन कर तत्कालीन सांस्कृतिक मूल्यों की सुन्दर अभिव्यक्ति प्रस्तुत की
है।
संपर्क – दीपा, शोध
छात्रा, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्विद्यालय, दिल्ली, दूरभाष- 09654336989, 9899910883, ईमेल - deepa_neemwal@rediffmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें