कुंवर रवीन्द्र : सामाजिक दायित्त्वबोध से उत्पन्न कला-चेतनाकुंवर रवीन्द्र : सामाजिक दायित्त्वबोध से उत्पन्न कला-चेतना - डॉ. पुखराज जांगिड़
कवि-चित्रकार कुंवर रवींद्र
की कलाचेतना गहरे सामाजिक दायित्त्वबोध से विकसित हुई है, जिसका लक्ष्य मनुष्यता
की तलाश है। प्रकृति और जीवन के रागात्मक संबंध इसे सहज, स्वाभाविक और
उद्देश्यपूर्ण बनाते हैं। इसीलिए उनमें हमारे समय की अनुगूंज मिलती है। मनुष्यता
को बचाए और बनाए रखने की सायास कोशिश। उनकी कृतियों में मौजूद कलाओँ के अंतर्गुम्फन
और अर्थबहुलताएं प्रायः विरोधी धाराओं के मध्य तमाम असम्भावनाओं के बावजूद प्रेम के लिए सम्भावनाएं
तलाश लेती हैं।
कला के विविधआयामी बिंबों और प्रतीकों के साथ-साथ
अस्मिता और अस्तित्त्व के लिए संघर्षरत हाशिए की अस्मिताओं के जीवन से भरे बिंब भी
उनकी कृतियों में खूब मिलते हैं। स्त्री और प्रकृति या प्रकृतिजीविता
उनके सृजन के मूल में है, वही उनकी कृतियों का वितान रचती हैं। उनकी रचनाएँ हमें न
केवल सपने देखना सिखाती है बल्कि उनके लिए संघर्षरत भी बनाती है। ऐसे समय में जब
पूरा देश एक फासीवादी की अगवानी में जुटा है, कुंवर रवीन्द्र की ‘दंगा और दंगे के बाद’ की कृतियों को याद किया जाना निहायत ही जरूरी हो जाता
है।
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