बहुआयामी
व्यक्तित्व वाले रवीन्द्रनाथ का दृष्टिकोण मानवतावादी भावधारा और स्वाधीन चेतना से
ओत-प्रोत था। हिन्दी साहित्य की यह विडम्बना कही जा सकती है कि आलोचकों ने
रवीन्द्रनाथ के रचनाकर्म को अनदेखा किया। खासकर गीतांजली के अलावा उनके निबंधों
में फैले व्यापक मानवतावादी एवं प्रगतिशील विचारों को हिन्दी में रेखांकित नहीं
किया गया। रवीन्द्रनाथ ने अपने निबंधों में मनुष्य मात्र को प्रकृति के साहचर्य
में सहज एवं स्वाभाविक रूप से पूरी प्रवाहमयता और प्रभावशीलता के साथ उकेरा है। वस्तुतः
निबंधों के अध्ययन के बगैर रवीन्द्रनाथ के
व्यक्तित्व की मुकम्मल समझ नहीं बन सकती। क्योंकि रबीन्द्रनाथ का विरत सृजनकर
व्यक्तित्व साहित्य के बने बनाये नियम और परिभाषाओं का अनायास अतिक्रमण कर जाता है।
‘मानवतावाद’ शब्द लैटिन के ‘ह्यूमैनिटास’ शब्द
से निकला, जिसका अर्थ मनुष्य की शिक्षा से था। ‘मनुष्य शिक्षा’ से उन नवजागरणकालीन चिंतकों का
अभिप्रेत ऐसे ज्ञान-विज्ञान एवं कला से था जिनके जरिए मानव न केवल अपने को और अपने
परिवेश को समझ सकता है वरन् उसे बदल भी सकता है। मानववाद कोई निश्चित, सुस्पष्ट दार्शनिक पद्धति नहीं है। अमरीकी इतिहासकार प्रो. एडवर्ड चेने
मानते हैं कि मानववाद के अनेक अर्थ हैं, “यह जीवन का
विवेकसंगत संतुलन हो सकता है जिसे आरंभिक मानववादियों ने यूनान में पाया। यह केवल
मानविकी का अध्ययन हो सकता है। यह धार्मिकता से मुक्ति शेक्सपियर या गेटे द्वारा
रूपायित सभी मानवीय आवेगों के प्रति अनुकूल प्रतिचेष्टा का भाव हो सकता है या यह
एक दर्शन हो सकता है जिसका केन्द्र मनुष्य है। इस अंतिम अर्थ में मानवतावाद को
सर्वाधिक महत्त्व सोलहवीं शताब्दी में मिला।”[1]
यूरोपीय
पुनर्जागरण एवं मध्ययुगीन पश्चिमी बुद्धिजीवियों द्वारा व्यवहृत मानवतावाद एक
ऐतिहासिक औचित्य रखता है - “इसने धार्मिक तथा प्रशासकीय
बंधनों से मानव क्षमता की मुक्ति को महत्त्व दिया, प्राकृतिक
और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की पुनःस्थापना की, मनुष्य को
अज्ञान के अंधकार से मुक्त किया, प्राचीन रूढि़यों का खंडन
किया तथा बुनियादी और प्रामाणिक मानवीय अनुभव के स्रोतों के बीच आने वाले संकीर्ण
दायरों एवं धार्मिक रूढि़यों को तोड़ने पर बल दिया।”[2]
मानवतावाद एक विकासशील
चिंतनधारा है,
उसका विकास ऐतिहासिक प्रगति एवं वैज्ञानिक विकास के साथ जुड़ा हुआ
है। आधुनिक युग में मानवतावाद रेनेसां मानवतावाद के स्वस्थ एवं प्रगतिशील तत्त्वों
को ग्रहण करते हुए उसके महत्त्व एवं व्याप्ति में और प्रभावशाली हुई जो “मानवीय गौरव, मानव कल्याण, मनुष्य
के सर्वांगीण विकास और सामाजिक जीवन के अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण पर आधारित
है।” [3]
भारतीय
समाज में तर्कबुद्धि एवं मानव-मूल्यों पर आधारित मानवतावादी विचारधारा राजाराममोहन
राय,
दयानन्द से होती हुई विवेकानन्द के समय व्यापक हुई। मनुष्य की गरिमा
और उसमें अन्तर्निहित संभावना में विश्वास करते हुए विवेकानन्द आह्वान करते हैं - “सर्वस्व होम कर दो मेरे शिशुओं, उनके कल्याण के लिए
जो दरिद्रता, पाखंड और अत्याचार के पाश में बंधे हैं ... इन
जनों को अपना ईश्वर मानो।... जब तक करोड़ों जन भूख और अज्ञान से पीड़ित जीवन बिताते
रहेंगे, मैं ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही कहूंगा जो उन्हीं
के पैसों से शिक्षा प्राप्त करके उनकी ओर देखता नहीं।”[4]
मनुष्य की
स्वतंत्रता और औपनिवेशिक पराधीनता से मुक्ति दिलाने के लिए लोकमान्य तिलक ने भी
धार्मिक शब्दावली का सहारा लिया। एक तरफ़ मार्क्सवादी विचारक मानवेन्द्रनाथ राय ‘विश्वमानववाद’ में अपनी पूर्णता देखते हैं तो दूसरी
तरफ रवीन्द्रनाथ टैगोर मानुषेर धर्म में अपनी आस्था व्यक्त करते हैं - “मेरा धर्म मनुष्य का धर्म है जिसमें परम अथवा अपरिमित की व्याख्या मानवता
के अर्थों में की जाती है।”[5] वस्तुतः मानवतावादी अवधारणा
विकसित होते हुए प्रगतिवादी दौर में अत्यन्त व्यापक हो गयी। इसके अन्तर्गत
वैयक्तिक स्वातंत्र्य चेतना, आर्थिक स्वायत्तता, सामाजिक-राजनीतिक विकास के साथ-साथ मानव मात्र के प्रति प्रेम एवं मनुष्य
की आत्मिक उन्नति को बल मिला।
बहुआयामी
व्यक्तित्व वाले रवीन्द्रनाथ का दृष्टिकोण मानवतावादी भावधारा और स्वाधीन चेतना से
ओत-प्रोत था। हिन्दी साहित्य की यह विडम्बना कही जा सकती है कि आलोचकों ने
रवीन्द्रनाथ के रचनाकर्म को अनदेखा किया। खासकर गीतांजली के अलावा उनके निबंधों
में फैले व्यापक मानवतावादी एवं प्रगतिशील विचारों को हिन्दी में रेखांकित नहीं
किया गया। रवीन्द्रनाथ ने अपने निबंधों में मनुष्य मात्र को प्रकृति के साहचर्य
में सहज एवं स्वाभाविक रूप से पूरी प्रवाहमयता और प्रभावशीलता के साथ उकेरा है। वस्तुतः
निबंधों के अध्ययन के बगैर रवीन्द्रनाथ के
व्यक्तित्व की मुकम्मल समझ नहीं बन सकती। क्योंकि रबीन्द्रनाथ का विरत सृजनकर
व्यक्तित्व साहित्य के बने बनाये नियम और परिभाषाओं का अनायास अतिक्रमण कर जाता है।
‘रवीन्द्रनाथ के प्रबंध और गद्य शिल्प’ नामक आलेख में
बुद्धदेव बसु इसी बात को रेखांकित करते हैं “कोई पाठक भूलकर भी यह न सोचे कि उनकी समालोचना
चिन्हित पुस्तकों में साहित्य के विषय में उनके सब वक्तव्य आ गए हैं या उनकी ‘जीवन स्मृति’ और ‘बचपन’ के बाहर और कहीं भी उनकी
आत्मकथा नहीं है। साहित्य के विषय में उन्होंने क्या सोचा है, यह अगर पूरी तरह
जानना हो तो उनकी ‘चिठ्ठी-पत्री’,
‘आत्मकथा’ और ‘भ्रमणपंजिका’
भी पढ़नी होगी और साथ ही यदि इनकी समालोचना को न देखें तो उनके जीवन
के विषय में हम यथेष्ट न जान सकेंगे। उन्होंने भारत के पिछड़ेपन और दारिद्रय के
लिए औपनिवेशिक सत्ता को स्पष्ट रूप से जिम्मेदार बताकर यथार्थ का परिचय दिया। वह
अंग्रेज़ों की दस्युवृत्ति को तार्किक रूप से उद्घाटित करते हैं। उपनिवेशवादी लूट
का प्रतिकार करते हुए वे प्रतियोगिता की जगह सहकारिता को मानव एकता की आवश्यक शर्त
बताते हैं। रवीन्द्रनाथ ने लिखा है - “मानव-समाज का
सर्वप्रधान तत्त्व है मनुष्य मात्र का ऐक्य। सभ्यता का अर्थ है एकत्र होने का
अनुशीलन।”[6] टैगोर के गद्य लेखन में भी उनका
कवि व्यक्तित्व प्रभावी रहता है। इसीलिए किसी भी विषय-वस्तु पर लिखे होने के
बावजूद उनके निबंध आलोचनात्मक विश्लेषण के बजाय सृजनात्मक कला के अधिक निकट हैं।
आत्मपरिचय के रूप में जीवन-स्मृति के निबंध हो या अपने संबंधियों एवं परिचितों को
लिखे पत्र, चाहे पश्चिमी देशों की यात्रा हो या भाषा और साहित्य जैसा सैद्धांतिक
विषय या साहित्य और उसका स्वरूप, सब में कवि रवीन्द्रनाथ की स्वच्छंद चेतना एवं
मानवतावादी दृष्टि एक सामान्य भाव से विचरण करती है।
इसका कारण
बताते हुए सुकुमार सेन लिखते हैं - “टैगोर बहुत पढ़े-लिखे
थे और स्थायी मूल्य से युक्त हर मानवीय वस्तु में उनकी गहरी रुचि थी। वे निस्संदेह
टेरेन्स के स्वर-में-स्वर मिलाकर कह सकते थे: ‘मैं मानव हूं, कोई मानवीय वस्तु मेरे लिए पराई नहीं हो सकती।’ ....टैगोर
का काव्य जितना बंगला है उतना ही भारतीय भी है; और उसमें से
बहुत-सा जितना भारतीय है, उतना ही सार्वदेशीय है, क्योंकि वे उस गहराई तक उतरे हैं जहां शाश्वत जीवन की धारा बहती है,
जो हर रूप में जीवन की सृष्टि और निरंतरता का चरम स्रोत है।”[7]
‘रीति रिवाजों के अत्याचार’ (1892 ई.) शीर्षक से लिखे
एक निबंध में रवीन्द्रनाथ धर्माडंबरों तथा सामाजिक भेदभाव को मानवता के विकास में
बाधक मानकर समाज की प्रगति के लिए इसे त्याज्य बताते हैं - “हे
हिन्दू देवता क्या आपकी यही इच्छा है कि हम मानव न होकर केवल हिंदू रहें? हमारे देश में यही हो रहा है। सामाजिक नियम-विनियम, रीति-रिवाज
तथा पूजन-विधि को अत्यधिक महत्त्व देने के कारण स्वतंत्रता एवं मानवता की उच्च
मान्यताएं तिरस्कृत हो रही हैं।”[8]
इस मानवतावादी स्वर के प्रबल पैरोकार रवीन्द्रनाथ अपने निबंधों के
साथ-साथ उपन्यासों एवं कहानियों में भी सामाजिक-धार्मिक रूढि़यों एवं कुरीतियों को
मनुष्यता के विकास में प्रमुख बाधा के रूप में देखते हैं।
रवीन्द्रनाथ
का व्यक्तित्व परंपरावाद और नवचिंतन के तत्त्वों से मिलकर निर्मित हुआ है। उनके
जीवन के लगभग प्रारंभिक बीस वर्षों में परंपरावाद हावी रहा तो उसके बाद के लेखन
में नवचिंतन प्रमुखता प्राप्त करता गया। प्रत्येक मनुष्य यहां तक की रवीन्द्रनाथ
जैसे महापुरुषों के विचार भी समय के साथ-साथ विकसित, परिवर्तित
और परिपक्व होते रहे हैं। अतः किसी काल के किसी प्रसंग में कहे गए एक वक्तव्य को
सभी समय के लिए एक निश्चित दृष्टिकोण समझ लेना घातक होगा। वे स्वयं कहते हैं - “किसी ऐसे व्यक्ति की कृतियों को, जो दीर्घ काल तक
विचारक और लेखक रहा हो, ऐतिहासिक दृष्टि से देखना उचित है।”[9]
रवीन्द्रनाथ
का जन्म एवं पालन-पोषण बंगाल के एक प्रतिष्ठित टैगोर परिवार में हुआ था। परंपरागत
तरीके से पले-बढ़े होने के कारण वे प्राच्यवाद के पोषक बन गए। मधुसूदन दत्त के ‘मेघनाद वध’ पर तीखे प्रहार एवं राजा राममोहन राय की
आलोचना और बाल विवाह निषेध को अवैध बताना इसी
काल में दिखता है। धीरे-धीरे पैतृक देन तथा पारिवारिक प्रभाव के फलस्वरूप एक ऐसा
वातावरण निर्मित हुआ जो सक्रिय रूप से पाश्चात्य न होकर भी ब्राह्मसमाज के प्रभाव
के कारण परंपराओं एवं अनादि काल से चले आ रहे रीति-रिवाजों से मुक्त था। इसीलिए
तरुण टैगोर 1881 ई. में ‘वन साइडेड रिफार्म’ (एकांगी सुधार) शीर्षक लेख में
लिखते हैं -”यदि कोई सामाजिक नियम हमारी स्वतंत्रता प्राप्ति
में सहायक नहीं है तो उसे केवल इस कारण ही माना नहीं जा सकता कि वह एक नियम है।
.... सदा ही कुछ लोग ऐसे होते हैं जो (ऐसा न मानने पर) दुःखी होंगे। ...उन लोगों
के लिए अतीत ही स्वर्णकाल है, वर्तमान कभी नहीं।”[10] अपने निबंधों के माध्यम से जहां
वे रामायण-शकुंतला काव्य की उपेक्षित सशक्त नारियों पर विचार करते हैं वहीं अपने
समकालीन बंकिमचन्द्र पर विस्तारपूर्वक लिखते हैं।
इससे भी
आगे बढ़कर ‘पत्र व्यवहार’, 1887 में लिखते हैं - “समय बदल गया है और समय परिवर्तनशील है। हमें ऐसे परिवर्तनों के लिए तैयार
रहना चाहिए अन्यथा जीवन अर्थहीन हो जाएगा। हमें अपने घरों से बाहर आना चाहिए।
समग्र मानवता से हमें संबद्ध करने वाली जंजीर आगे की ओर खींच रही है। क्या यह नूतन
ज्ञान, यह नूतन प्रेम और यह नवजीवन हमें यथार्थ सुख नहीं
प्रदान करते ?”[11] रवीन्द्रनाथ के अन्दर परंपरा और
नवचिंतन का सहअस्तित्व भी मिलता रहा। लेकिन क्रमशः वे यूरोप के नये बौद्धिकतावाद,
ज्ञान-विज्ञान के नये आविष्कारों की तरफ आकर्षित होते चले गए। ‘रूस के पत्रों’ में उन पर पड़े समाजवाद के गहरे
प्रभाव को भी देखा जा सकता है।
उनकी
रचनात्मकता का मूल व्यक्ति स्वातंत्र्य, समाजवादी दर्शन,
वर्ग रहित समाज तथा व्यवस्था परिवर्तन में विश्वास है। किसी भी विषम
व्यवस्था को बदलने के लिए पहला और महत्त्वपूर्ण कदम है उस भ्रष्ट व्यवस्था की
विषमता को पहचानना। सामाजिक विसंगतियों और शोषण को रेखांकित करने के साथ ही
रचनाकार मनुष्य की चेतना को जागृत करता है, मानवता के धरातल पर ही नये समाज के
निर्माण की वकालत करता है। ‘साबार ऊपरे मानुष’ को अपनी रचना का लक्ष्य मानने वाले
रबीन्द्रनाथ के निबंधों में उनके हृदयगत भावों का सहज उद्गार है। गद्य रचना में
उनका कवि व्यक्तित्व अपनी पूरी प्रकृतिगत स्वच्छंदता के साथ विद्यमान है। अगर
बुद्धदेव बसु के शब्दों में कहें तो - रवीन्द्रनाथ ने गद्य
लिखा है कवि के समान...कविता जो कुछ हमें दे सकती है वही उनके गद्य की भी देन है।
यदि किसी खंड-प्रलय में उनकी सब कविता की पुस्तकें लुप्त हो जाएं और केवल नाटक, उपन्यास, प्रबंध बच रहें तो उन प्रबंध-नाटक-उपन्यासों
से ही भविष्य का पाठक समझ जायेगा कि रवीन्द्रनाथ एक महाकवि का नाम है।
संपर्क
– डॉ. अंबरीश त्रिपाठी, सहा.प्रा. हिन्दी, शास.महा.वि. जामगावं आर. जिला-दुर्ग
(छ.ग.), चलदूरभाष – 07489164100, ईमेल - amba82@gmail.com
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