यह
क़िस्सागोई का ही कमाल है कि बिना किसी प्रकाशन व्यवस्था और तकनीकी संचार माध्यमों
के भी बीती सदियों में कहानियां दूर
देश की यात्रा कर चुकी हैं। पूरी दुनिया का लोकसाहित्य देखा जाए, तो इस क़िस्सागोई की
ताकत का अंदाजा होता है। क़िस्सागोई के कारण ही पंचतंत्र की कहानियां सारी दुनिया भर में न केवल प्रचलित हैं, बल्कि उनमें
स्थानीय रुचियों और परंपराओं के मुताबिक बदलाव भी दिखाई देते हैं। ईसप की कहानियां इसका मजबूत उदाहरण है। यूनान में जन्मे ईसप एक बेहतरीन
किस्सागो थे। नीति और व्यावहारिक ज्ञान को कहानियों की शक्ल देने में उनका कोई
सानी नहीं है। अपनी कई कहानियों में ईसप ने पंचतंत्रा की कहानियों का भी उपयोग
किया है। तकरीबन सत्रह शताब्दियों तक कहने-सुनने की कला के चलते ही दुनियाभर की
सैर करती रही ये कहानियां आज भी मौजूद हैं।
लू श्यून ने जिन चीनी लोकथाओं का संग्रह किया, उनमें भी हमारी
कहानियों जैसाही कुछ है और ग्रिम बंधुओं द्वारा संकलित की गई जर्मनी की लोकथाओं
में भी।
भारत
संसार का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ कथापीठ रहा है। यह देश कहानी की जन्मभूमि है। वैसे
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विश्व की समस्त अर्वाचीन, लुप्त-विलुप्त और
प्राचीनतम सभ्यताओं के नीचे से यदि कहानियों के आधार स्तंभ हटा दिये जाएं तो सारी
सभ्यताएं भरभराकर कच्ची मिट्टी की तरह गिर पड़ेंगी। सभ्यताओं के अस्तित्व और उनकी
संरचना की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण श्रोत भी कहानियां ही हैं। कहानी के बिना बड़ी
से बड़ी मानव सभ्यता के इतिहास के शुभारम्भ को नहीं जाना जा सकता। यहां तक कि
संसार के आदि ग्रन्थों की सारी संरचना कहानियों पर ही टिकी हुई है। वैदिक संहिताएं (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और
अथर्ववेद) विश्व-साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनके दौर में भी कथाओं, किंवदंतियों, मिथक प्रसंगों और
आख्यानों की कमी नहीं है। प्रत्येक वैदिक देवता कहानी से ही जन्मता है। वह किसी न
किसी कहानी की ही देन है। सभी सभ्यताओं का यह सत्य है। वह चाहे अमेरिकी आदिवासियों
की अजटेक-माया सभ्यता रही हो या चीन की, मिड्ड की, सुमेरी या अक्कादी।
भारतीय सभ्यता तो वेद, ब्राह्मण, पुराण, उपनिषद्, महाभारत, रामायण आदि की असंख्य कहानियों का खजाना है, जिनके द्वारा लौकिक
और अलौकिक जीवन के तथ्यों और सत्यों को रूपायित किया गया। धर्मग्रन्थों के जितने भी अलौकिक प्रसंग या विवरण हैं, वे तो कहानी के
बिना पूरे ही नहीं हो पाते, यहां तक कि अध्यात्म और दर्शन में भी कथा दृष्टान्तों की
महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बनी ही रहती है।[1]
हमारा जीवन ही क्या, सबका जीवन किस्सों से बना है। हमारे जीवन में कई-कई किस्से हैं जो कभी
याद आ जाते हैं, कभी विस्मृत हो जाते हैं। जितने जीवन हैं, उतने ही
किस्से हैं और उन किस्सों के भीतर कई-कई किस्से हैं। यह हमारे किस्सों का
असमाप्त जीवन है। इसलिए कहा जाता है कि कहानी की इति नहीं, कहानी मिति नहीं।
कहानी के बिना संसार नहीं।[2]
“एक था राजा एक थी रानी
दोनों मर गए खतम
कहानी।”
यह वे पंक्तियां हैं, जो बचपन में हम सभी ने कभी न कभी जरूर सुनी
हैं। आज यह पंक्तियां अपने सही अर्थों में हमारे सामने भी हैं। बचपन में जब कभी
कहानियां सुनने का जी करता और छुट्टियों में अपनी
दादी-नानी के करीब होते, तो उनसे कहानी सुनने की जिद भी किया करते थे। यह जिद आपने
भी की होगी। खुले आसमान के नीचे, सितारों की छांव में दादी-नानी से राजा-रानी, राजकुमार-राजकुमारी, राक्षसों और परियों
की कहानियां सुना करते थे हम।
जब दादी या नानी कोई कहानी सुनाती थीं, तो उसका एक-एक पात्र हमारी आंखों के सामने
जीवंत हो उठता था। कहानी कितनी ही अकल्पनीय क्यों न हो, सच ही लगती थी।
हमारे जीवन में क़िस्सागोई की शुरुआत भी यहीं से होती है। वैसे, क़िस्सागोई ठीक-ठीक
कब और कैसे शुरू हुई, इसका पता लगा पाना मुश्किल है। इतना तय है कि बचपन में मां की
लोरी के साथ हम शब्दों को पहचानना सीखते हैं और कहानियों के साथ क़िस्सागोई से
परिचित होते हैं।[3]
क़िस्सागोई की शुरूआत कब और कहां पर हुई इसके बारे में ठीक-ठीक बता पाना तो संभव नहीं है।
केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। सभ्यता के आरंभिक दौर में जब मनुष्य ने किसी
अनोखी वस्तु, प्राणी
या घटना के बारे में कुछ बढ़ा-चढ़ाकर, कतिपय रोचक अंदाज में और लोकरंजन की इच्छा
के साथ बयान करने की कोशिश की होगी, तो स्वभाविक रूप में बाकी लोगों में उसके कहने के प्रति ललक पैदा हुई होगी। परिणामतः उन अनुभवों के प्रति
सामूहिक जिज्ञासा तथा उनको रोचक अंदाज में, बार-बार सुने-कहे
जाने की परंपरा का विकास हुआ। उसमें कल्पना का अनुपात भी उत्तरोत्तर बढ़ता चला
गया। इसी से लोकसाहित्य और क़िस्सागोई की कला का विकास हुआ।[4] कुल
मिलाकर इतना कहा जा सकता है, जब से जीवन जगत प्रारंभ हुआ तब से क़िस्सागोई की कला का
जन्म हुआ।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की अधिकतर जनता गांवों में
ही निवास करती है। गांवों में रहने वाले अधिकतर लोग निरक्षर, धनहीन एवं साधनहीन हैं, किंतु उनमें परंपराओं और मान्यताओं के प्रति गहरी आस्था है। उनकी अपनी संस्कृति
है जिसके तंतु अतीत से जुड़े हुए हैं। निरक्षर अथवा अर्द्धसाक्षर होते हुए भी
कहानियां, कहावतें, लोकोक्तियां और
सूक्तियां ग्रामीण लोगों की जबान पर होती हैं। कोई
समस्या यदि उनके सामने आती हैं तो उसका समाधन वे लोकप्रचलित किस्से-कहानियों और
सूक्तियों में खोजते हैं जो उनकी मार्गदर्शिकाएं हैं। संसार का शायद ही ऐसा कोई
देश या जाति हो जहां के जन-मानस में
कहानियां प्रचलित न हों, बल्कि यह भी कहा जा
सकता है कि अनपढ़ से लेकर पढ़े-लिखे तक, मूर्ख से लेकर ज्ञानी तक अपनी बात की
प्रामाणिकता के लिए किस्से-कहानियों, सूक्तियों, लोकोक्तियों का
सहारा लेते हैं। वे ग्रामीण जनों की छोटी-बड़ी दैनिक समस्याओं का निदान बड़ी सरलता
से कर देती हैं।[5]
जनसंस्कृति में किस्से-कहानियों का बहुत ही
महत्त्व रहा है। प्रायः समाज के बड़े-बूढ़े ही किस्सागो की जिम्मेदारी को संभालते
थे। कई बार यही कला लोगों की जीविका का आधार भी बन जाती थी। पारंपरिक ग्रामीण जीवन
में नैतिक एवं सामाजिक चेतना इतनी प्रगाढ़ थी कि व्यक्ति मात्रा उनसे विचलन के
खतरों को न केवल पहचानता था, बल्कि यथासंभव उससे दूर रहने का प्रयास भी करता था।
नैतिक एवं सामाजिक मूल्यबोध से परिचित कराने के लिए उसे साहित्य जैसे किसी बाह्य
उपक्रम की आवश्यकता उतनी नहीं थी, जितनी कि आज महसूस की जाती है। तब यह कार्य धर्म
एवं लोकाचार से जुड़े विविध माध्यमों द्वारा संपन्न होता था। दूसरे शब्दों में
सहकार एवं सहअस्तित्व को समर्पित तब के ग्राम्य-जीवन में सामाजिक मूल्य, मनुष्य के साथ-साथ
विकसित होते थे तथा उनके बीच द्वैत की स्थिति कम ही उत्पन्न होती थी। निश्चय ही
जनसंवादन की कला जिसका एक रूप क़िस्सागोई भी है, का इसमें बहुत बड़ा
योगदान था। और संचार माध्यमों के अतिरेक के बीच, कम ही हो, मगर आज भी उसका
महत्व कमोबेश उसी तरह बना हुआ है।[6]
चौपाल संस्कृति कृषि समाजों की पहचान रही
है। हर गांव में एक चैपाल
होना अनिवार्य था। प्रदीप पंत ने लिखा है कि ‘’भारतीय लोक जीवन में क़िस्सागोई की अद्भुत परंपरा रही है। आज भी ग्रामीण अंचलों में चैपाल पर बैठकर सच्चे-झूठे
किस्से सुनाने या सच में थोड़ा-बहुत गप्प मिलाकर किस्से बनाने वाले मिल जाते हैं।’’[7] यही
नहीं चैपाल के क्षेत्रफल उसके निर्माण में प्रयुक्त सामग्री, वास्तु-शिल्प आदि
से गांव-भर की मान-मर्यादा का निर्धारण होता था।
इन्हीं चैपालों पर क़िस्सागोई की कला खूब फली-फूली। लेकिन किस्सागो के लिए जरूरी
नहीं था कि अपनी हुनरपेशी के लिए चैपाल को ही चुने। गर्मियों में पेड़ों की छांव तले मवेशी
चराते हुए, बरसात
में खुले आसमान के नीचे रिमझिम बूंदों का आनंद लेते हुए, सर्दी में गांव के तिराहों-चौराहों पर अलाव तापते हुए, अभावग्रस्त
झोपडि़यों में रात बिताते समय किस्से-कहानियों के अनवरत दौर चलते ही रहते थे।
क़िस्सागोई के प्रति अनुराग समाज के किसी खास वर्ग या समुदाय तक सीमित नहीं था।
बल्कि समाज के प्रायः सभी वर्ग इसमें रुचि लेते थे। कुछ लोगों की जीविका तो
राजा-महाराजाओं को किस्सा सुनाने से ही चलती थी। इसके भी कई प्रमाण हैं कि पुराने
जमाने में बादशाह के दरबार में कुछ ऐसे हुनरमंद लोग भी होते थे जो उन्हें और उनके
शहजादों को सिर्फ किस्से-कहानी सुनाया करते थे। सफल किस्सागो को अपनी जीविका के
लिए भटकना नहीं पड़ता था। सहअस्तित्व और अपरिग्रह को समर्पित लोकभावना उसकी जरूरतों की भरपाई के लिए कोई न कोई विधान गढ़
ही लेती थी। आसपास के गांवों से उनके लिए बुलावे आते ही रहते। उन दिनों दक्ष
किस्सागो दूरदराज के गांवों की सैर कर आते।
किसी मेले, पर्व-त्योहारों
अथवा विवाहादि के अवसर पर ऐसे कलाकार जब कहीं पहुंचते तो वहां धूम मच
जाती थी। दिन-भर के काम के बाद अपने अनुभव और सुख-दुख बांटने के लिए लोग उनके पास जुटने लगते। जहां मौसम, विभिन्न सामाजिक स्थितियों पर विचार-विमर्श के अलावा, मनोरंजन का ख्याल
भी रखा जाता था जिसमें गद्य और पद्य दोनों प्रकार की प्रस्तुतियां स्थान पातीं। पद्य रचनाओं में ढोला-मारू, आल्हा, रामायण आदि प्रमुख
थीं तो गद्य में मुख्यतः किस्से सुने-सुनाए जाते थे जिनमें अलिफ-लैला, किस्सा तोता-मैना, सहस्र रजनीचरित्र, दस्ताने चार दरवेश, सिंहासन बतीसी, बैताल पचीसी, कथासरित्सागर, जातक कथाएं आदि प्रमुख थे। ये किस्से जनसामान्य में बेहद लोकप्रिय थे
तथा भिन्न-भिन्न रूपों में बिना उनके मूल स्रोत को जाने, सुने-सुनाए जाते
थे। यही नहीं अवसर के अनुरूप रोचकता एवं आकर्षण बनाए रखने के लिए किस्सागो उनमें
अपनी रुचि एवं प्रतिभानुरूप बदलाव करने को भी स्वतंत्र रहते थे। कुछ किस्से गद्य
तथा पद्य दोनों ही रूप में प्रचलित थे तथा यह किस्सागो-कलाकार की योग्यता तथा
श्रोताओं की पसंद पर निर्भर करता था कि वह प्रस्तुतीकरण के लिए किस विधा का चयन
करते हैं।[8]
कहना न होगा, क़िस्सागोई की एक
लंबी और सुदीर्घ परंपरा रही है। क़िस्सागोई
की इस लंबी और सुदीर्घ परंपरा को स्वीकारते हुए
सत्यकाम विद्यालंकार कहते हैं कि ‘‘कहानी
मनुष्य के आदिम काल से और कलाओं की तरह एक विशिष्ट अभिव्यक्ति का माध्यम रही है।
जैसे मनुष्य अपने विशेष चिंतन की आकुलता को चित्रों में आंककर संतुष्ट हो जाता है, जैसे मनुष्य अपनी
उमंगों के वेग को स्वर के उतार-चढ़ाव में बांधकर
संगीत की सृष्टि कर मुग्ध हो लेता है, अपने अंतर की वैसी ही किसी अकुलाहट को सहज, सरल, मानवीय भाषा में
प्रकट कर वह कहानी की संरचना करता है।’’[9] आदिम
युग में जब मानव अपने जीवन की संभावनाओं की तलाश कर रहा था, तब से ही आम
जन-जीवन में कई तरह के किस्से, कहानियां
प्रचलित होते जा रहे थे। और यह परंपरा मौखिक ही थी। अपनी इस मौखिक या वाचिक परंपरा
से ये कहानियां पीढ़ी दर पीढ़ी
हस्तांतरित होती गयीं। बाद में इन्हें लिपिबद्ध किया गया होगा या इसकी जरूरत महसूस
की गयी होगी। इसी वाचिक परंपरा के कारण एक ही
कहानी के कई-कई रूप मिलते हैं। राजेश जोशी का यह कथन कितना सार्थक व सटीक है – ‘‘ किस्से अक्सर
दर्ज नहीं किए जाते। वो सिर्फ लोगों की स्मृति और जबान पर बने रहते हैं और एक से
दूसरे और दूसरे से तीसरे के पास आते-जाते रहते हैं। जितने मुंह और जितने कान से वो गुजरते हैं, उतनी ही उनकी
शक्लें बदलती रहती हैं।’’[10] कहानी
की प्राचीनता को चित्रित करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं- “जिसप्रकार गीत गाना और सुनना मनुष्य के
स्वभाव के अंतर्गत है, उसी प्रकार कथा कहानी कहना और सुनना भी।’’[11] अस्तु, कहानी को परिभाषित
करते हुए लोग यह भी कहते हैं - “कह नानी
कहानी’’ अर्थात्
नानी जो कुछ बच्चों को कहती अथवा सुनाती है, वही कहानी है।[12] यहां
मैथिलीशरणगुप्त जी की ‘यशोधरा’ का वह अंश उद्धृत करना
समीचीन होगा जिसमें राहुल एवं यशोधरा के बीच कहानी सुनाने की बात पर वार्तालाप हो
रहा है-
“मां, कह एक कहानी।
बेटा, समझ लिया क्या तूने
मुझको अपनी नानी?
कहती है मुझसे यह
चेटी,
तू मेरी नानी की
बेटी !
कह मां, कह, लेटी ही लेटी,
राजा था या रानी?
राजा था या रानी?
जनसंस्कृति में किस्से-कहानियों का बहुत ही
महत्त्व रहा है। प्रायः समाज के बड़े-बूढ़े ही किस्सागो की जिम्मेदारी को संभालते
थे। कई बार यही कला लोगों की जीविका का आधार भी बन जाती थी। कहने का उद्देश्य यह
है कि नानी, दादी को
कथा सुनाने का जिम्मा हमारी परंपरा ने
बहुत पहले से दे रखा है और इन कथाओं में राजा-रानी की कथा तो बहुप्रचलित और
सर्वविदित भी है। बकौल निशांतकेतु- “कहानी अपनी
कथावृत्ति के कारण संसार की प्राचीनतम विधा है। कहानी के शिल्प और शैली में भले
परिवर्तन होता रहा है। शैशव-काल से ही बोधोदय के साथ बच्चे अपने बड़े-बूढ़ों से
कहानियां सुनते हैं। नानी-दादी की पीढ़ी का तो काम
ही कहानी सुनाने में लगा रहता। गांव में
किस्सागो और कथाकोविद की अलग जाति ही होती है। वे घूम-घूमकर रात में कथा-कहानी
सुनाते और यही उनकी आजीविका भी होती।’’[14] अच्छी
कहानी के साथ सुनाने की बेहतरीन कला सोने पर सुहागे का काम करती है। ऐसे
प्रतिभावान किस्सागो भी रहे हैं जो बिना किसी पूर्व तैयारी के सिर्फ अपनी
कल्पनाशक्ति के बल पर, एक सूत्र थामकर कहना प्रारंभ करते और बात/बतकही बढ़ते-बढ़ते
मजेदार कहानी या किस्से का रूप ले लेती थी। इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का कथन उद्धृत करना प्रासंगिक होगा – “प्राचीन भारतीय साहित्य में कथा साहित्य का
अभाव नहीं है। जातक और पंचतंत्रा की कहानियों ने तो समूचे सभ्य जगत को प्रभावित
किया है। गुणाढ्य की पैशाची प्राकृत में लिखी हुई सुप्रसिद्ध बृहत्कथा ने भी इस
देश के कवियों को लौकिक कथा-रस के कथानक दिए हैं। कथा, आख्यायिका, चम्पू इत्यादि
काव्यरूपों से भारतीय साहित्य भरा पड़ा है।’’[15]
इन किस्से-कहानियों की
प्रयोजनीयता पर विचार करें तो इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि आदिम युग में जब
मानव के पास संसाधनों की कमी थी, मनोरंजन के क्षीण साधन थे तो ऐसे में जीवन को रसपूर्ण, रुचिकर, नीतिकर, मनोविनोदपूर्ण एवं
स्वस्थ बनाने के लिए ऐसी कथाओं को बनाने या गढ़ने की आवश्यकता पड़ी होगी ताकि वे
विषम परिस्थितियों से टकरा सकें, साहस का भाव अपने भीतर बनाए रख सकें, सामाजिक मूल्यों की
रक्षा कर सकें,
विषम परिस्थितियों के बीच जीवन-मूल्यों को बचाए रख सकें आदि। इसीलिए
क़िस्सागोई के उतने ही प्रकार हैं - जितने प्रकार की जीवन परिस्थितियां या जीवन की दशाएं हैं।
आरंभ में जब इसतरह की कथाओं का विकास हो रहा था तब इनके पात्रा केवल मानवप्राणी ही
नहीं होटल थे। इनके पात्र जलचर, थलचर और नभचर भी थे। ऐसा लगता है चारों तरफ बोली-बानी से
युक्त सजीवता है। यहां कौए भी बात करते हैं, चूहे भी बात करते
हैं। ये सब नीतिज्ञ हैं, विज्ञ हैं। ऐसा अनायास या आकस्मिक नहीं हुआ होगा।
कृष्णदत्त शर्मा कहते हैं- “पशु-पक्षियों
को मुख्य पात्र बनाने की वजह से इन कहानियों की लोकप्रियता बढ़ी है। इसका एक कारण
तो यह है कि बच्चे पशु-पक्षियों की कहानियां सुनना
बहुत पसंद करते हैं। दूसरे मनुष्य की तुलना में पशु-पक्षी अधिक सार्वभौम भी हैं। किंतु इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है
कि पशु-पक्षियों को पात्र बनाने से कहानीकार को अपने मूल प्रयोजन-आनंद की
निष्पत्ति में मदद मिलती है।’’[16]
ये कहानियां तो पशु-पक्षियों की हैं किंतु सर्वत्र मानव-व्यवहार केंद्र में है। पशु-पक्षियों के वार्तालाप के पीछे जब मानव-संदर्भ झांक-झांक उठते हैं तब हम
विस्मित हुए बिना नहीं रहते। उदाहरण हेतु देखिए कि कोई चूहा किसी अन्य पशु-पक्षी
से कह रहा है – “आप जैसे नीतिशास्त्राज्ञ लोग ऐसी अवस्था को
प्राप्त हो जाते हैं, यह देखकर तो मुझे शास्त्रों से बड़ी अश्रद्धा हो गई है।’’[17]
इसीप्रकार पंचतंत्र के चौथे तंत्र की
केंद्रीय कहानी ‘बंदर और मगर’ में मगर बंदर से यथाशीघ्र घर चलने का आग्रह कर रहा है – “अब बस
झटपट तैयार हो जा और मेरे साथ घर चल। तेरी भाभी (मगर की पत्नी) चौक
पूरकर, महीन
रेशमी कपड़ों और मणि-माणिक्य में सज-धजकर, दरवाजे पर बंदनवार बांधकर, बड़ी उत्कंठा से तेरा इंतजार कर रही होगी।’’[18] ऐसे
वार्तालाप सुनकर कौन भला आनंदित नहीं होगा? अपने किस्सों को
रोचकता की तमाम हदें पार करने लायक बनाने के लिए क़िस्सागोई के इस अनोखे ढंग को
अपनाया गया होगा और अपनी अद्भुत कल्पनाशीलता का परिचय दिया गया होगा। यह अकारण
नहीं है कि ये कथा-किस्से अपनी जबर्दस्त रोचकता एवं अद्भुत कल्पनाशीलता के कारण ही
एक साथ बच्चे,
किशोर,
युवा,
बूढ़े-बुजुर्ग सभी आयु-वर्ग के लोगों में कालांतर से खासे प्रचलित रहे हैं
और सब के मन में स्थायी तौर पर बैठे हुए हैं। लोकोत्तर शक्तियों से भरा हुआ यह
पूरा पुरातन संसार कथाओं के सहारे खड़ा है। यानी जहां कविता ने लौकिक को भी बहुत हद तक पारलौकिक बनाया, वहां पारलौकिकता को लौकिकता की आधार-भूमि देने में कथा ने
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। कई सभ्यताएं तो ऐसी
हैं कि उनके नीचे से यदि वृत्तान्तों की धरोहर खींच
ली जाए, तो वे
भरभराकर गिर पड़ेंगी।
पुरातन संसार देवी-देवताओं, अर्ध देवों, शक्तिमान असुरों, मन्त्र-शक्ति युक्त
नर-नारायणों और अलौकिक पक्षियों से भरा हुआ है। जादू, रहस्य, मन्त्र, शाप, वरदान, ‘कर्सेज’, आशीर्वादों
और चमत्कारों से भरी इन सभ्यताओं में देवता, देवी, नरसिंह, गरुड़, सर्प, सूर्य, इन्द्र, वज्र, वायु, नदी, हाथी, शेर, शूकर, पर्वत, जंगल, सरोवर, स्त्री, पुरुष, चींटी, खरगोश सब मौजूद हैं
और सब एक साथ ‘सृष्टि’ को
संभाले हुए हैं। चाहे वह ‘बृहत्कथा’ को लोह-जंघ हो या बेबिलोनी कथा का एतना, दोनों ही गरुड़ का
इस्तेमाल करते हैं (एक पैशाची भाषा की कथा का भारतीय पात्र है और दूसरा अक्कादी
पुराणों का एक कथा पात्र)।[19] इसी
संदर्भ में कमलेश्वर आगे कहते हैं –“इस पूरे
पुरातन संसार में जो कथाएं भी प्रचलित हुईं, वे इस बात का
प्रमाण निश्चय ही देती हैं कि सारी संस्कृतियों का मूल स्रोत एक ही रहा है, जिसका
सबसे सबल प्रमाण है जल-प्रलय की वे कथाएं, जो सब में समान हैं
(चीनी को
छोड़ कर)। वे चाहे जिउसुद्दू हों, या मनु या हजरत नूह।’’[20]
यह क़िस्सागोई का ही कमाल है कि बिना किसी
प्रकाशन व्यवस्था और तकनीकी संचार माध्यमों के भी बीती सदियों में कहानियां दूर देश की यात्रा कर चुकी हैं। पूरी दुनिया का लोकसाहित्य
देखा जाए, तो इस
क़िस्सागोई की ताकत का अंदाजा होता है। क़िस्सागोई के कारण ही पंचतंत्र की कहानियां सारी दुनिया भर में न केवल प्रचलित हैं, बल्कि उनमें
स्थानीय रुचियों और परंपराओं के मुताबिक बदलाव भी दिखाई देते हैं। ईसप की कहानियां इसका मजबूत उदाहरण है। यूनान में जन्मे ईसप एक बेहतरीन
किस्सागो थे। नीति और व्यावहारिक ज्ञान को कहानियों की शक्ल देने में उनका कोई
सानी नहीं है। अपनी कई कहानियों में ईसप ने पंचतंत्रा की कहानियों का भी उपयोग
किया है। तकरीबन सत्रह शताब्दियों तक कहने-सुनने की कला के चलते ही दुनियाभर की
सैर करती रही ये कहानियां आज भी मौजूद हैं।
लू श्यून ने जिन चीनी लोकथाओं का संग्रह किया, उनमें भी हमारी
कहानियों जैसाही कुछ है और ग्रिम बंधुओं द्वारा संकलित की गई जर्मनी की लोकथाओं
में भी। दुनिया के बनने की कथाएं भी
मिलती जुलती हैं और परियों की कहानियां भी।
दरअसल यह क़िस्सागोई का ही नतीजा है कि सारी दुनिया का लोक-साहित्य लगभग एकाकार हो
गया है।[21]
यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि
क़िस्सागोई के कलेवर में गुंथी हुई कहानियों के
कथानक प्रायः श्रोताओं के जाने-पहचाने होते थे। उनकी मौलिकता के प्रति किस्सागो का
कोई दावा भी नहीं होता था। मौलिक होता था किस्से के प्रस्तुतीकरण का अंदाज। उच्च
कल्पनाशक्ति, मौलिक
शैली, दिलकश
संप्रेषण और पात्रों की अंदरुनी जद्दोजहद को उभारने में सफल कलाकार ही जनमानस को
अपने जादुई प्रभाव में लाने में कामयाब रहते थे। उसी के आधार पर उनकी श्रेष्ठता के
दावे का निर्धारण होता। समाज में क़िस्सागोई की परंपरा के संपुष्ट होने का ही
परिणाम था कि रामचरितमानस की शुरुआत तुलसीदास काकभुशुण्डी के मुख से कराते हैं।
गीता जैसी गहन-गंभीर दार्शनिक गवेषणा का अवतरण श्रीकृष्ण के मुख से होता है, अर्जुन वहां मात्र श्रोता है। पूरा महाभारत युद्ध संजय का ‘कथन’ है। क़िस्सागोई शैली
के आधुनिक गद्यकारों में देवकीनंदन खत्री, प्रेमचंद, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, अमृतलाल
नागर, विजयदान
देथा आदि की लोकप्रियता का यही रहस्य है। मार्खेज़ के गद्य में मौजूद यथार्थवाद
दरअसल क़िस्सागोई का वह लालित्य ही है, जिसकी आज पूरी दुनिया दीवानी हो रही है।[22]
अब घर की क़िस्सागोई ही देख लीजिए। जब
दादी-नानी कहानियां सुनाती थीं, तो बडे़-बड़े दांतों
वाला राक्षस जब राजकुमारी को अपनी जादुई उड़नखटोले में बिठाकर ले जाता था, और राजा परेशान
होकर राजकुमार को ढूंढ़ लाने वाले को राजा बनाने की घोषणा करता था किंतु यह सब सच लगता था। पर जब कोई राजकुमार राक्षस के किले में जाकर उससे वीरता से
लड़कर राजकुमारी को छुड़ाने की कोशिश करता था, तब तक हम कहानी में
इतने डूब चुके होते थे कि खुद को राजकुमार की जगह रखकर हम अपनी कल्पनाओं में सारा
मंजर सजीव-सा पैदा कर लेते थे। घर की क़िस्सागोई में दादी-नानी इस मंजर को पैदा
करने के लिए हर किरदार के भावों के मुताबिक शब्दों की लंबाई, आवाज की गहराई का
बखूबी इस्तेमाल करती थीं। वैसे इन कहानियों से एक और किस्सा भी उपजता है। वह है
हमारे घर और रिश्तों की बुनावट का किस्सा। दादी-नानी के बाद कहानियां सुनाने की जिम्मेदारी होती थी हमारी मां, मौसी, चाची, मामी की। इनकी
कहानियों में भी दादी-नानी की कहानियों जैसा ही रस होता था। भले ही किसी बात पर मां और चाची के बीच अनबन हो गई हो, लेकिन हमें उससे
कभी कोई फर्क नहीं पड़ता था। कहानियों का सम्मोहन इतना होता था कि चले ही जाते थे
चाची के पास कहानियां सुनने। चाची भी
ऊपर से भले ही हमसे कह दे कि जाओ अपनी मां से सुनो
कहानी, लेकिन पर भी हमारी उत्सुकता को शांत करने के लिए कहानी सुना ही देती
थी। इन्हीं किस्से-कहानियों के बीच वह वात्सल्य और प्रेम उपजता था, जो हमेशा के लिए
हमारे दिल में घर कर जाता है। फिर परिवार में तनाव चाहे कितना भी हो, दिल के किसी कोने
में एक-दूसरे का हिस्सा होने का भाव हमेंशा बना रहता है। इस मामले में सिर्फ घर की
महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी भी सहभागी
होते हैं। तभी तो चाचा, मामा, नाना के साथ भी रिश्ते की ऐसी ही बुनावट होती है। यह एक
अलग बात है कि उनकी कहानियों में परियां नहीं
होती थी, बल्कि
वीर लड़ाके, हमारे
पुरोधे और महान व्यक्तित्व ज्यादा शामिल होते थे। गौर से देखा जाए तो ये दोनों तरह
की कहानियां हमारे कल्पना
संसार को भी विस्तृत करती थीं और ज्ञान को भी।[23]
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का कथन है
- “आधुनिक युग के आरंभ होने से पहले तक हमारे
देश में नाना श्रेणी के उपन्यास-जातीय कथा-काव्य वर्तमान थे। उनमें पौराणिक आख्यान
भी हैं, नैतिकता
और लोकचातुरी सिखानेवाली कहानियां भी हैं
और धर्म और भक्ति तत्त्व को स्पष्ट करनेवाली कथाएं भी लिखी गयी हैं।’’[24]
पंचतंत्र में भी ऐसी ही बात लिखी गई है – “अपने पराये की पहचान, नीति-ज्ञान, मित्रों की पहचान
और कर्तव्य, शत्रु-व्यवहार, संधि आदि भेदों पर
प्रकाश डालने वाला यह ग्रंथ है।’’[25] आदिम
मानव के जीवन में जब कभी दुविधा की स्थिति पैदा होती होगी, तब इन्हीं किस्सों
का सहारा लिया जाता होगा। उस युग में जीवन में आनेवाली परेशानियों को दूर करने के
लिए ऐसे किस्से या कथा किसी अचूक हथियार से कम न होते थे और ये सभी किस्से साक्ष्य
या प्रमाण के रूप में पेश किए जाते थे। किस्सागो या किस्सा कहनेवाला अन्यपुरुष के
रूप में एक तटस्थ व्यक्ति की तरह इन किस्सों को उनकी पूरी विश्वसनीयता के साथ
श्रोता के सामने रखता था। यह विश्वसनीयता उन किस्से-कहानियों या क़िस्सागोई की बहुत
बड़ी शक्ति है। अन्यपुरुष शैली भी उसकी विश्वसनीयता को और बढ़ाता है। ‘एकता में ही बल है’, इस कथन को चरितार्थ
करने के लिए कोई किस्सागो कहानी सुनाता है तो वह अपनी कहानी का ताना-बाना ऐसे बुनता
है – “बहुत पहले समय की बात है। किसी गांव में एक किसान के पांच बेटे थे। पांचों आपस में हमेशा लड़ते
रहते थे। उसने एक तरकीब सोची। सभी बेटों को बुलाकर उन्हें लकड़ी का एक मोटा गट्ठर
लाकर उसे तोड़ने को कहा...’’ यह कहानी सुनने के बाद कोई भी श्रोता दो कारणों से एकता
के मूल्य को तुरंत यह आत्मसात कर लेगा।
पहला कारण कि ‘एकता में बल है’ तथ्य को प्रमाणित
करने के लिए जो साक्ष्य या उदाहरण दिए गए हैं वे विश्वसनीय तथा व्यावहारिक ज्ञान
पर आधारित हैं। दूसरा कारण यह कि इसे कहनेवाला
कालांतर से कही गयी बात को कह रहा है। इसमें किस्सागो की भागीदारी सिर्फ कथा कहने
भर की है। ऐसा लगता है कि जो कथा कही जा रही है वह सौ फीसदी सत्य है। इस कड़ी में
इन किस्सों में दुनिया के प्रत्येक छल-प्रपंच, धोखाधड़ी, झूठ, बेईमानी की चर्चा मिलती है और उससे बचने के उपाय भी।
सूक्तियों की तो इन किस्सों में भरमार लगी रहती है। यथा-
शत्रु को तरकीब से मारना चाहिए।
मूर्ख को शिक्षा नहीं भाती।
शत्रु को कभी कमजोर न मानो।
मूर्ख मित्र से बुद्धीमान शत्रु अच्छा होता
है।
जो नौकर भूख, गर्मी, सर्दी आदि से नहीं
घबराता, वही
वफादार हो सकता है।
चाहे आग ठंडी हो जाए और शीतल किरणों वाला
चांद जलने वाला बन जाए, तो भी मनुष्य का स्वभाव नहीं बदला जा सकता।[26]
जाहिर सी बात है कि ये सूक्तियां तत्कालीन जीवन-मूल्य थे जिनकी वकालत इन कहानियों के माध्यम
से की जाती रही हैं। ये मूल्य जनता के बीच बने रहें इसीलिए इन मूल्यों को ठोस आधार
देने के ब्याज से उनसे संबंधित कथाएं गढ़ ली
गयीं होंगी ताकि ये कहानियां
प्रामाणिक रूप में जनता के बीच जायें और जनता की विश्वसनीयता की कसौटी पर खड़ी
उतरें। इस संदर्भ में कमलेश्वर के मत को उद्धृत करना
समीचीन होगा – “भारतीय कहानियों की परंपरा मात्र धार्मिक, नैतिक और
प्रचारवादी नहीं थी। उन कथाओं में हमें तत्कालीन समय के आचार-व्यवहार, शिष्टाचार, सामाजिक, सांस्कृतिक संकेत
और विवरण भी मिलते हैं, जो मात्र उपदेश या मनोरंजन तक सीमित नहीं रहते बल्कि वे
अपने समय की सभ्यतागत व्यावहारिक जानकारियों के साथ-साथ व्यावहारिक, वैचारिक और मनुष्य
के विकसित होते जीवन का प्रामाणिक परिचय भी दे रहे थे।’’[27] दूसरी
बात, कोई भी
श्रोता या पाठक किस्सागो के प्रति संदेहपूर्ण दृष्टि नहीं रख सकता। या किस्सागो की
कहानियों के प्रति अविश्वसनीयता की स्थिति पाठकों के समक्ष नहीं रह सकती। इसका
कारण किस्सागो ने इन कहानियों को नहीं रचा है। वह किसी दूसरे के द्वारा सुनी-सुनाई
कहानी को कह रहा है। किस्सागो यह नहीं कहता कि मैं यह कहानी कह रहा हूं। वह यह
कहता है-‘कि ऐसा
कहा गया है’,
‘मैंने ऐसा सुना है’।
गौरतलब है कि क़िस्सागोई की परंपरा में मूल लेखक की तलाश करना दूभर काम है। यह परंपरा से चली आ रही चीज है। और इसमें कोई लेखक नहीं होता। लेखक
होने से उसकी प्राणात्मा ही समाप्त हो जाएगी। वह तो वाचिक परंपरा का अंग है, जो अगली पीढ़ी में कहेगा, वह लेखक बन जाएगा।
क़िस्सागोई से संपृक्त कहानियां एक
पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक कही-सुनी जाने वाली लंबी कथा-परंपरा हैं। इसमें कहानी का वाचन ही ऐसे होता है - ‘ऐसा कहा गया है’। किसके द्वारा कहा
गया है इसकी खोज करना बेमानी होगा। इस विषय पर सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि
मनुष्य के विकसित होने की अवस्था के चरण के साथ-साथ क़िस्सागोई भी विकसित होती गयी।
इसकी जनक ग्रामीण जनता ही है जिसके द्वारा कही गयी मनगढ़ंत कहानियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी जनता से परिष्कृत होते-होते नए से नए रूपों
में परिवर्तित होते हुए मंजती चलीं गयीं।
मुख्तसर यह कि क़िस्सागोई की लंबी एवं
सुदीर्घ परंपरा रही है। मानव
सृष्टि के प्रादुर्भाव के साथ ही क़िस्सागोई जन्मी, पली एवं विकसित
होती गयी। मानव-जीवन की विविधताओं के फलस्वरूप क़िस्सागोई के भी अपने कई तरह के
रूपों का विकास होता गया। इसमें रंजक गुणधर्म होने के कारण यह आम जनता में काफी
लोकप्रिय रही। अपने मूल रूप में यह काल्पनिक, अवास्तविक, अतिप्राकृतिक
घटनाओं से युक्त अतार्किक, गप, जादुई होती है और पाठकों को सम्मोहित करती जाती है। इन
किस्से-कहानियों का उद्देश्य बहुत वृहत नहीं बल्कि लघु होता था। इनका उद्देश्य
जीवन में आनेवाली परेशानियों को दूर करना, कठिन परिस्थितियों
में धैर्य बनाए रखना, नीतिगत व्यवहार सीखना, नैतिक उन्नयन, जीवन-कौशलों का
विकास करना आदि होता था। प्राचीन युग में मनोरंजन के क्षीण साधन होने के कारण इन कहानियों का महत्त्व दोहरा था। पहला इन
कहानियों के द्वारा लोगों का मनोरंजन हो जाया करता था। इन्हें सुनकर वे अपना समय
आनंद के साथ बिता सकते थे। दूसरे जाने-अनजाने उनके अंदर दुनियादारी की समझ, लोकव्यवहार-ज्ञान, सदाचरण, नैतिकता की बातें
समाहित हो जाया करती थीं। क़िस्सागोई इस दोहरे उद्देश्य को पाने में बेहद सफल रही
है।
भले ही आज एकल परिवार की व्यवस्था ने
क़िस्सागोई के महत्त्व को कम कर दिया हो तथा मोबाइल, कम्प्यूटर, इंटरनेट, टी.वी. चैनल, वीडियो गेम आदि की
तकनीकी प्रगति ने दादा-दादी, नाना-नानी के किस्से-कहानियों को अपदस्थ कर दिया हो, तथापि जैसे-जैसे
मानव सभ्यता के विकास की अंधी दौड़ में तनावग्रस्त होकर भटकते-भटकते थक जाएगा, वह इन कहानियों के
पास आकर थोड़ी राहत व सुकून जरूर पाएगा। इन्तिजार हुसैन “मानव अस्मिता के लिए कहानी अब और जरूरी
क्यों हो गयी है’’-इस विषय को रेखांकित करते हुए कहते हैं – “हर कहानीकार मनुष्यता को जीवित रखने के लिए
शहरजाद (अलिफ
लैला की पात्र जो राजा को कहानियां सुना-सुनाकर
अपनी जिन्दगी के एक-एक दिन को बचा पाती है) की तरह कहानी सुनाने को प्रतिबद्ध है
ताकि अत्याचार,
शोषण,
अन्याय और मानव विभेद की यह लम्बी रात कट सके।’’[28] इस संबंध में विभा रानी का कहना है- “सिर्फ़ क़िस्सागोई आज बेशक किसी पेश के रूप
में उतनी मुखरित न हो, मगर आज भी दादी, नानी और अब एकल परिवार के कारण मां बच्चों को किस्से सुनाती ही हैं। आज के भारतीय युवाओं की
अपनी-अपनी समस्याएं हैं। फिर भी, कई युवा हैं जो आज
भी अपनी सभ्यता,
संस्कृति, कला, रीति-रिवाज से जुड़े हुए हैं। यह हमारे लिए बड़े संतोष
की बात है।’’[29] कहना न
होगा कहानियां और क़िस्सागोई
हमारी आपकी जिन्दगी के बहुत करीब रहने वाली चीज है। कहानी के बिना संसार नहीं।[30] हमारे
जीने का एक बहुत बड़ा संबल हैं ये। जब तक सृष्टि है, जब तक बालपन है, जब तक मनुष्य के
भीतर निश्छलता है, तब तक ये कहानियां और
क़िस्सागोई जीवित रहेगी।
संपर्क - राकेश
रंजन, टी.जी.टी. हिन्दी, केंद्रीय विद्यालय नगांव, पोलिटेकनीक़ कॉलेज के नज़दीक, पो.
इटाचाली, जिला-नगांव असम, पिन. 782003, चल-दूरभाष - 09401807149, ईमेल - rakesh16ranjan@yahoo.com
[1] कमलेश्वर (संपादक),
कथासंस्कृति, खंड-एक (कथाविचार), कथा संस्कृति: वैश्विक परिदृश्य-कमलेश्वर, पृ.1
[2] सिम्पी लिंगण्णा (संपादक), कन्नड़
लोक कथाएं, , साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, पृ. X
[3] रजनीश, ‘साहिल दास्तान-ए-किस्सागोई’, ब्लॉगर से
[4] किस्सागोई की कला और हिंदी
बाल साहित्य, मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से, पृ.1
[5] डॉ. रमेश प्रताप सिंह(सं.), घाघ और भड्डरी की
कहावतें (आमुख से ), पृ. I उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, हजरतगंज, लखनऊ
[15] आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी
साहित्य: उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.218
[19] कमलेश्वर (संपादन), कथासंस्कृति खंड-एक कथाविचार (विश्व-कथा यात्रा: जल-प्रलय से अणु-प्रलय तक), पृ.10
[24] आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी
साहित्य: उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.218
[28] इन्तिजार हुसैन, आधुनिक कहानी की रचना संस्कृति, (कथा संस्कृति, खंड-एक कथा विचार,
संपादन-कमलेश्वर), पृ.22
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