बुधवार, 23 अप्रैल 2014

मीणा आदिवासी - इतिहास के झरोख में (वह शासक-जनजाति जिस पर जरायमपेशा कानून लाद दिया गया) - हरिराम मीणा

मीणा आदिवासी - इतिहास के झरोख में (वह शासक-जनजाति जिस पर जरायमपेशा कानून लाद दिया गया) - हरिराम मीणा

मीणा आदिवासी - इतिहास के झरोख में
(वह शासक-जनजाति जिस पर जरायमपेशा कानून लाद दिया गया)
- हरिराम मीणा

7 सितम्बर 1930 के दिन राजपूताना की अन्य रियासतों के साथ जयपुर रियासत में भी आपराधिक जनजाति की सूची में मीणा जनजाति को भी शामिल कर लिया गया। मीणा आदिवासियों को कुचलने का यह व्यवस्थित दौर शुरू होता है। इस कानून के प्रावधानों के तहत 12 वर्ष की आयु से अधिक के सभी मीणा किशोरों को संबंधित थाने में उपस्थिति देने के साथ इधर-उधर आने पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये गये थे। इस काले कानून का मीणा आदिवासियों ने जमकर प्रतिरोध किया जिसमें चौकीदारी प्रथा को तिलांजली देना भी शामिल था। कांग्रेस के प्रजामंडल के अन्य नेताओं ने भी इस कानून का विरोध किया। सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने के लिये सन् 1928 में गठित मीणा सुधार समिति ने भी विरोध की इस लहर में अपनी प्रमुख भूमिका निभायी।
  

भारत की प्राचीन जनजातियों में मीणा जनजाति का उल्लेख मिलता है। नृतत्व विज्ञान की दृष्टि से भी मीणा आदिवासीजन प्रमुख आदिवासी समुदाय के रूप में जाने जाते रहे हैं। प्राचीन सोलह गणराज्यों में एक महत्वपूर्ण गणराज्य मत्स्य राज्य के रूप में था जिसकी राजधानी वर्तमान विराटनगर थी। महाभारतकालीन इस गणराज्य का संदर्भ पाण्डवों के अज्ञातवास की अवधि में मिलता है जब पाण्डवों ने वेश बदल कर मत्स्य राज्य के नरेश के यहां अज्ञातवास बिताया।
       मीणा जनजाति मूलतः राजस्थान में रहती आयी है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अरबी आक्रमणों से लेकर विशेष रूप से पूर्व मध्यकाल अर्थात् 11-12वीं शताब्दी के दौरान हुई राजनीतिक उथल पुथलों के कारण प्रथम चरण का विस्थापन इस जनजाति के लोगों का हुआ। यहां उल्लेखनीय है कि राजस्थान मीणा बाहुल्य क्षेत्रों में मीणा जनजाति एक शासक कौम के रूप में थी जिनके राज्य जयपुर अंचल के विभिन्न हिस्सों में स्थापित थे जिनमें प्रमुख राज्य खोहगंग, ढूंढाड़, माची, न्हाण, क्यारा आदि थे। जयपुर रियासत क्षेत्र से बाहर बूंदी (उषरा मीणा), मेवात (मेव मीणा), नरेठ-झरी(अलवर), करौली(टाटू मीणा), मारवाड़(चांदा मीणा), जवाहरगढ़ एवं शिवपुरी (मध्य प्रदेश-वमनावत मीणा) जैसे प्रमुख गणराज्य भी मीणा आदिवासियों द्वारा शासित थे। वास्तव में भारतीय इतिहास के उत्तर-प्राचीनकाल (गुप्तवंश की समाप्ति तक) के बाद के जिस कालखण्ड को अंधयुग कहा जाता है उस दौरान एकछत्र साम्राज्य व्यवस्था टूटती है और देश में किसी एक शासक का राजनीतिक वर्चस्व विखण्डित होकर छोटे-छोटे राज्यों या गणराज्यों में विभक्त हो जाता है। यही वह दौर था जब हम उक्तानुसार मीणा जनजाति के राजनीतिक वर्चस्व को चिन्हित करते हैं। इस अवधि से पहले मत्स्य गणराज्य के रूप में प्राचीन साम्राज्य हमारे सामने आता है।
       मीणा जनजाति की दृष्टि से 10वीं से 12वीं शताब्दी का कालखण्ड अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है जब इस जनजाति का राजनीतिक वर्चस्व समाप्त होने लगता है। इस क्रम की शुरूआत जयपुर के पूर्व-दक्षिण दिशा में अवस्थित खोहगंग जिसे वर्तमान में खोह नागौरियान कहते हैं, के चांदावंशीय मीणा आदिवासियों के राज्य के पतन से होती है। खोहगंग के प्राचीन दुर्ग, महलों व अन्य भवनों के खण्डहर अभी देखे जा सकते हैं। खोहगंग राज्य की स्थापना चांदावंशी मीणा राजा गंग के द्वारा किये जाने के उल्लेख मुनि मगनसागर रचित ग्रंथ मीणा राजवंश‘, कर्नल जेम्स टॉड के एनाल्स एण्ड एंटीक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ एवं अन्य ऐतिहासिक संदर्भों में मिलता है। सन् 1090 से 1147 की अवधि में यहां मीणा राजा आलन सिंह ने राज किया। उसके शासनकाल में कच्छावा युवराज दुल्हराय शिशु अवस्था में अपनी विधवा मां के साथ खोहगंग राज्य सीमा में प्रवेश करता है। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि वर्तमान मध्यप्रदेश के नरवर राज्य में उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष हुआ था जिसमें दुल्हराय के पिता सोढ़ाराय की मृत्यु के बाद उसके भाई ने शासन हड़प लिया था तब जान बचाकर सोढाराय की विधवा अपने एकमात्र पुत्र दुल्हराय को शिशु अवस्था में लेकर वहां से निकल गई थी और खोहगंग के मीणा राजा आलन सिंह के यहां शरण ली थी। राजस्थान के करीब-करीब सभी इतिहास ग्रंथों में इस संदर्भ का उल्लेख निर्बाध रूप से मिलता है। कर्नल टॉड ने घटना का विस्तार से वर्णन किया है। इसी दुल्हराय ने आगे चलकर खोहगंग पर आक्रमण किया और राज्य को हथिया लिया। उल्लेखनीय है कि आलन सिंह ने दुल्हराय की मां को धर्म बहन बनाया था और उसके पुत्र दुल्हराय को भानजा। इस रिश्ते के बावजूद विश्वासघात करके दुल्हराय ने खोहगंग का मीणा राज हस्तगत किया। यह घटना कर्नल टॉड के इतिहास ग्रंथ के गुजराती संस्करण में सन् 1128 की बतायी गई है।
       जयपुर से करीब 30 किलोमीटर दूर वर्तमान जमवारामगढ़ कस्बा है जिसका प्राचीन नाम माची या माच था। इसका तत्कालीन शासक मीणा राजा राव नाथू था। दुल्हराय ने अगले चरण में माच के राज्य पर आक्रमण किया और उसे विजित कर उसका नाम रामगढ़ रखा जो सूर्यवंशी भगवान श्रीराम के नाम से संबंधित था। राव नाथू सीहरा गौत्र का मीणा राजा था। डॉ. वी.एस. भार्गव के अनुसार माची के मीणा राजा का नाम मेहवास था। युद्ध के प्रथम चरण में मीणा आदिवासियों की सेना ने दुल्हराय की सेना को पराजित कर दिया था लेकिन विजयोल्लास के मद में जश्न मनाते हुए मीणा सरदारों व सैनिकों पर दुल्हराय ने अचानक हमला किया और अन्ततः विजय प्राप्त की। राव नाथू इस युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसके बाद मीणा सरदारों ने राव मेदा को अपना मुखिया चुना। राव मेदा के नेतृत्व में मीणा सेना ने दुल्हराय से युद्ध किया जिसमें दुल्हराय के दल की हार हुई और स्वयं दुल्हराय रणक्षेत्र में मारा गया। यहां एक लोक किंवदंती चली आ रही है कि जमवाय माता के आशीर्वाद से दुल्हराय अपनी सेना सहित पुनर्जीवित हुआ और उसने पुनः मीणा सेना को हराया। लेकिन ऐतिहासिक संदर्भ यही मिलते हैं कि दुल्हराय का अन्त हो गया था और दुल्हराय की पत्नी ने अजमेर जाकर शरण ली। उसका बेटा कांकिल जब बड़ा हुआ तो पुनः माची पर अधिकार किया।
       जयपुर रियासत की पूर्व राजधानी आमेर थी जिसे कच्छावा राजाओं ने स्थापित किया था। कच्छावा राजवंश से पूर्व वहां सुसावत गौत्र का मीणा राजवंश था। कांकिल के पुत्र मेकुलराव के समय महाराज सूरसिंह नामक सुसावत मीणा राजा राज करता था। उसका शासनकाल सन् 1135-1145 ई. बताया जाता है। वह धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। प्रौढ़ावस्था में ही उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह हरिद्वार चला गया और शासन व्यवस्था अपने पुत्र भानोराव को सौंप गया। कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार कांकिल के पुत्र मेदल (मेकुल राव) ने सुसावत राव भत्तो (भानोराव) से आमेर का राज छीना। इतिहासकार कनिंघम ने भी केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडियामें इस तथ्य की पुष्टि की और लिखा कि मेकुलराव कच्छावा ने सुसावत वंश के राव भानो से आमेर छीन लिया। रावल नरेन्द्र सिंह कृत ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ जयपुरमें यह उल्लेख किया है कि कांकिल देव ने आमेर पर विजय प्राप्त की।
       उक्त पृष्ठभूमि में कच्छावा और मीणाओं की संघर्ष श्रृंखला चलती है जिसका प्रथम चरणीय समाधान कच्छावा नरेश राव पजोनी के समय हुआ। यह वह दौर था जब मुस्लिम आक्रमण इस क्षेत्र में भी चल रहे थे। राव पजोनी (छठवां कच्छावा शासक) ने यह उचित समझा कि ऐसे संकट काल में मीणा सरदारों से मित्रता करना अनिवार्य है। उसने मीणा सरदारों से संधि की और मीणा आदिवासियों को कई रियायतें तथा सम्मान दिया गया जो प्रमुखतः निम्न प्रकार हैं-
1.      मीणाओं के प्राचीन राजचिन्ह, नक्कारा, पताका, छड़ी, पालकी, छत्र, चामर, घोटा, किरणी आदि उनको पुनः दे दिए गए।
2.     फौज, खजाना, शस्त्रघर और आय-व्यय का विवरण मीणाओं के हाथों में ही रखा गया।
3.     मीणा सरदारों की सम्मति के बिना किसी को राज-गद्दी पर न बिठाया जायेगा।
4.     सेना में विशेषकर मीणाओं को ही प्राथमिकता दी जायेगी।
5.     मीणाओं की स्वीकृति के बिना किसी को न तो जागीर दी जावे और न किसी से छीनी जावे।
6.     मीणा सरदारों से किस प्रकार का कर नहीं लिया जावे।
7.     मीणा जाति के किसी भी किसान से बेगार न ली जाये।
8.     मीणाओं के पैर में सोना पहनने तथा उनके राजसी ठाट-बाट पूर्ववत् बना रहे।
       यहां से आमेर-जयपुर कच्छावा राजवंश और मीणा आदिवासियों के मध्य एक हद तक सौहार्दपूर्ण संबंधों का आरम्भ होता है जो लम्बे समय तक चलता है। इस दौरान जयपुर रियासत में मीणा सरदारों को प्रमुख भूमिका दी गई, विशेष रूप से आमेर के दुर्ग एवं जयपुर परकोटे के भीतर की सुरक्षा व्यवस्था का दायित्व एवं राजकोष की चौकसी व सार-संभाल शामिल थी। महाराजा सवाई माधोसिंह तक जयपुर नगर की सुरक्षा के लिये कुल 27 चौकियां स्थापित की गई थीं और उन सभी चौकियों के माध्यम से नगर-सुरक्षा का दायित्व मीणा सरदारों को सौंपा गया था। ये सभी चौकियां शहर कोतवाल के अधीनस्थ काम करती थी।
       जयपुर और मीणा आदिवासियों के मध्य सौहार्दपूर्ण संबंध मीणाओं के उस तबका तक सीमित रहे जो प्रथम चरण में जमींदारी तथा दूसरे चरण में चौकीदारी व्यवस्था को स्वीकार कर चुके थे और राज्य को शासक वर्ग से औपचारिक-अनौपचारिक समझ के आधार पर मैत्रीपूर्ण संबंध विकसित कर चुके थे। लेकिन यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि उस दौर में भी जयपुर अंचल के मीणा आदिवासियों का एक बड़ा हिस्सा वह था जिसके मन में अभी भी वह मलाल और प्रतिरोध की भावना कायम थी जिसकी पृष्ठभूमि में राजपूतों द्वारा मीणा राजवंशों का खात्मा रहा था। निश्चित रूप से इस तबके में से काफी लोग प्रतिरोधजन्य विद्रोही बन चुके थे। नये शासकों के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती थी कि इन विद्रोहियों को नियंत्रित कैसे किया जाये। यह स्थिति और जटिल तब होने लगती है जब राजा भारमल ने अपनी बेटी जोधाबाई देकर अकबर से सम्बंध मजबूत किये और उसी ताकत के बूते मीणाओं से चले आ रहे सौहार्दपूर्ण रिश्तों में दरार डालना आरम्भ किया। उल्लेखनीय है कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत पर ब्रिटिश हुकूमत सीधी कायम हो गयी थी और देशी रियासतों से ब्रिटिश शासकों ने अनेक प्रकार की संधियां तथा जहां संभव हुआ वहां सीधे आधिपत्य की नीति अपनायी थी, यद्यपि संधियों का सिलसिला कम्पनी राज में शुरू हो गया था तथा राजपूताना क्षेत्र में कर्नल टॉड (1818.1821) के जमाने से कई रियासतों से संधियां की जा चुकी थी। इसी क्रम में जयपुर रियासत एवं ब्रिटिश हुकूमत के मध्य यह नीति तय हुई कि मीणा विद्रोहियों को कुचलने के लिये अंग्रेजों द्वारा बनाया सन् 1871 के उस काले कानून को लागू किया जाये जिसे बोम्बे प्रेसीडेंसी में आपराधिक जनजातीय अधिनियम के नाम से बनाया गया था।
7 सितम्बर 1930 के दिन राजपूताना की अन्य रियासतों के साथ जयपुर रियासत में भी आपराधिक जनजाति की सूची में मीणा जनजाति को भी शामिल कर लिया गया। मीणा आदिवासियों को कुचलने का यह व्यवस्थित दौर शुरू होता है। इस कानून के प्रावधानों के तहत 12 वर्ष की आयु से अधिक के सभी मीणा किशोरों को संबंधित थाने में उपस्थिति देने के साथ इधर-उधर आने पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये गये थे। इस काले कानून का मीणा आदिवासियों ने जमकर प्रतिरोध किया जिसमें चौकीदारी प्रथा को तिलांजली देना भी शामिल था। कांग्रेस के प्रजामंडल के अन्य नेताओं ने भी इस कानून का विरोध किया। सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने के लिये सन् 1928 में गठित मीणा सुधार समिति ने भी विरोध की इस लहर में अपनी प्रमुख भूमिका निभायी। प्रतिरोध के इस आंदोलन में जो मीणा मुखिया प्रमुखता से शामिल हुए उनमें छोटूराम झारवाल, भूरामल झारवाल (चौकी सांगानेरी गेट), सुल्ताना राम बागड़ी (चौकी डोलों का बास), धन्नाजी पबड़ी (चौकी रेल्वे स्टेशन), महादेव नारायण पबड़ी, रघुनाथ व गोपीराम बागड़ी (चौकी पानों का दरीबा), रामकरण, रघुनाथ व गोपाल झारवाल (चौकी हीदा की मोरी), श्योनारायण मानतवाल (चौकी रामंगज), बीजाराम झारवाल (चौकी फूटाखुर्रा), गंगाबक्ष चिमनाराम नायला (चौकी जौहरी बाजार), रघुनाथ प्रताप मानतवाल (चौकी किशनपोल), श्योनारायण मानतवाल (चंद्रमा की चौकी, गणगौरी बाजार), कप्तान रघुनाथ बागड़ी (चौकी ब्रह्मपुरी) आदि थे।
       मीणा सुधार समिति के तत्वाधान में सन् 1931 में जमवारामगढ़ में राव मेदा के ऐतिहासिक चबूतरे पर मीणाओं का विशाल सम्मेलन हुआ जिसमें जयपुर के अलावा अलवर व भरतपुर रियासतों के मीणा मुखियाओं ने भी भाग लिया। 13-14 मार्च सन् 1933 को नाजिम नारायण सिंह नोरावत की अध्यक्षता में शाहजहांपुर में विराट सम्मेलन हुआ जिसके मुख्य अतिथि मुनि मगनसागर थे। अक्टूबर सन् 1938 में किशनपोल बाजार स्थित आर्य समाज कार्यालय में कंवर लाल जी बाफना की अध्यक्षता में आर्य समाज का सम्मेलन हुआ जिसमें कई धर्म व जातियों के प्रतिनिधि शामिल हुए जिन्होंने काले कानून का जमकर विरोध किया। स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मीनारायण झारवाल के नेतृत्व में सन् 1940-43 की अवधि में मीणा समाज सुधारकों की नियमित बैठकें आयोजित हुई और काले कानून के विरूद्ध जनजागरण की अलख जगायी गई। नीम का थाना में अप्रैल 1944 में मुनि मगनसागर की अध्यक्षता में विराट सम्मेलन हुआ जिसके मुख्य अतिथि दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक सत्यदेव विद्यालंकार थे। 20 अक्टूबर 1945 को पंडित जवाहरलाल नेहरू के जयपुर आगमन के दौरान मीणा मुखियायों तथा प्रजामण्डल के अन्य नेताओं द्वारा काला कानून को समाप्त करने से संबंधित ज्ञापन दिया गया। जगह-जगह हो रहे विरोध को देखते हुए जयपुर रियासत तथा मीणा सुधार समिति के मध्य वार्ता हुई तथा दिनांक 18 जून 1946 को इस काले कानून की सूची से मीणा आदिवासियों को हटा दिया गया।
       मुक्ति संघर्ष के उक्त क्रम में आजादी के बाद लागू किये गये भारतीय संविधान में पिछड़ी जातियों विशेषकर अनुसूचित जाति व जनजाति के तबकों को आरक्षण का प्रावधान दिया गया था। आदिम जनजाति होते हुए भी मीणा आदिवासियों को प्रारम्भ में इसमें शामिल नहीं किया गया था। मीणा आदिवासियों के संघर्ष का यह दूसरा दौर था जब उन्होंने आरक्षण प्राप्त करने की लड़ाई लड़ी। प्रमुख रूप से आयंगर आयोग, काका कालेलकर आयोग व यू एन ढेबर आयोग के समक्ष मीणा प्रतिनिधियों ने ज्ञापनों व वार्ताओं के माध्यम से अपनी बात रखी जिसके आधार पर सन् 1956 में मीणा जनजाति को आरक्षण की सुविधा प्राप्त हुई।
       आपराधिक जनजातीय अधिनियम एवं ब्रिटिश गुलामी के विरूद्ध मीणा जाति ने जो मोर्चा खोला उसके साथ साथ मीणा सुधार समिति के झंडा तले समाज सुधार आंदोलन की शुरूआत भी हुई जिसके तहत मेलों में होने वाले अश्लील नाच-गान, भद्दी वेष-भूषा, बाल विवाह, मृत्युभोज, दहेज प्रथा, मांस-मदिरा के सेवन आदि पर पाबंदी शामिल थी। इस में प्रमुख रूप से सर्वश्री लक्ष्मी नारायण झारवाल, अड़ीसाल सिंह, राजेंद्र अजेय, सूरज पापा, किसनलाल वकील, चंदालाल बैटरीवाला, भैरूलाल कालाबादल, बद्रीप्रसाद दुखिया, कप्तान छुट्टनलाल आदि शामिल थे। 

संपर्क - हरि राम मीणा, 31 शिवशक्तिनगरए किंग्स रोड़ए अजमेर हाईवे, जयपुर.३०२०१९


मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-5                                                                                               मीणा आदिवासी - इतिहास के झरोख में ISSN   2320 – 835X                                                               
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