बुधवार, 23 अप्रैल 2014

खुशवंत सिंह : लोकप्रियता और साहित्यिकता का सम्मिश्रण - डॉ. पुखराज जांगिड़




खुशवंत सिंह की छवि एक लोकप्रिय लेखक की रही। वे कभी गंभीर लेखक के रूप में नहीं स्वीकारे गए और न वे खुद ऐसा चाहते थे, इसीलिए साहित्यिक गंभीरता से वे हमेंशा दूर रहे। लोकप्रियता और साहित्यिकता का सम्मिश्रण उनके रचे की खासियत है। लोकप्रियता अर्जन के लिए चुटकले उनके स्तंभों की एक अनिवार्य जरूरत बन गए थे। गंभीर राजनीतिक टिप्पणियों में भी वे चुटकी लेना नहीं भूलते। सच, प्यार और शरारतें उनके जीवन और लेखन दोनों में आजीवन बनी रही। वे पॉपुलर कल्चर के लेखक थे, इसलिए यह स्वाभाविक भी था। मनोरंजक सुख के क्षणों के निर्माण उनके लेखन के मूल में है।

त्रकार, साहित्यकार और इतिहासकार खुशवंत सिंह की ख्याति प्रखर राजनीतिक विश्लेषक टिप्पणीकार की रही है। वे उस लेखन-परंपरा के प्रवर्तक रहे, जिस पर चलने में हिंदी पट्टी को गुरेज रहा है। धर्म और सेक्स जैसे दो परस्पर विरोधी विषयों पर लेखन ने उन्हें विवादित और चर्चित बनाया। शायद विवादों में बने रहना उन्हें भी पसंद था। यौन सबंधों पर उनके खुलेपन ने भले ही अंग्रेजी में ऐसे लेखकों की बाढ़ सी ला दी पर अपने पत्रकारीय जीवन में उन्होंने शिक्षा और सूचना से सबंद्ध मुद्दों को जिस ढंग से प्रस्तुत किया, उसने पत्रकारिता को एक नया तेवर प्रदान किया। हास्य का पुट लिए उनका व्यंग्य का स्वर उन्हें अपने समकालीनों से अलग करता है। अपने लेखन में वे किंवदंतियों, कहानियों, कविताओं और जनोक्तियों का भरपूर उपयोग करते और गंभीर राजनीतिक टिप्पणियों को भी इस अंदाज में लिखते कि उसमें भी बतरस का सा आनन्द आता। यह लेखन की उनकी अपनी शैली थी।
दरअसल उस दौर की पत्रकारिता में तथ्यों पर अधिक जोर देने के कारण कहने की शैली पर ध्यान कम ही जाता था। फिर समय के साथ-साथ नयी पीढ़ी की अपेक्षाएं भी बदल रही थीं। सिनेमा और टेलीविजन के प्रभाव ने भी उसे खासा प्रभावित किया। नतीतजन उन अपेक्षाओं पर खरा उतरने और ध्यान आकृष्ट करने में वह कई बार वह असफल भी रहती। कई बार बात इतनी गंभीरता से कही जाती कि लोग उससे किनारा करने लगते। बहुत से मुद्दों पर हमारा परंपरागत धर्मभीरू मन अजगरी गुंजलक मारे रहता पर भीतरी छटपटाहटें कुछ और ही कहतीं। ऐसे में खुशवंत सिंह एक नयी भाषा और नये तेवर के साथ पत्रकारिता में आए और छा गए। आज भी कितने लेखक-पत्रकार हैं जो उनकी तरह यह कहने का साहस रखते हों कि भारतीय लोग खुले में ट्रेन की पटरियों के किनारे बैठ कर कतार में निर्लज्‍ज होकर शौच करते हैं और अपनी पीठ ट्रेन की खिड़कियों की ओर करके मान लेते हैं कि हमें कोई नहीं देख रहा। मुद्दों को उनकी पूरी गंभीरता के साथ प्रस्तुत करने की उनकी ये नितांत निजी शैली थी, जो आगे चलकर खूब विकसित हुई। ऐसा नहीं है कि वे इसी को पत्रकारिता का मानक मानते। पत्रकारिता का मानक वे द हिन्दू को मानते थे और खुलकर उसकी तारीफ करते-“संपादक महोदय, आप और आपके कर्मचारीगण देश को दुनिया का सबसे पठनीय अख़बार देने के लिए बधाई के पात्र हैं।
एक पत्रकार के रूप में पंजाब में आतंकवादी घटनाओं के समय वहां शांति बहाली के लिए उनका लिखा हमेशा याद किया जाएगा। मुश्किल के उस दौर में उन्होंने अपने लेखन में इस बात को बार-बार रेखांकित किया कि पंजाब में चल रहे आतंकवाद के पीछे कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान प्रशिक्षित वे आतंकी हैं, जो पंजाब के हिंदुओं और सिक्खों के बीच के सौहार्दपूर्ण वातावरण को बर्बाद कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। विभाजन के बाद पंजाबी औरतें एक बार फिर आतंकियों का निशाना बनी। पंजाब तो लहूलुहान हुआ ही, पंजाबियत भी लहुलूहान हुई। ऐसे कठिन समय में उन्होंने पंजाबीयित की एक नयी और धर्मनिरपेक्ष परिभाषा गढ़ी- उग्रवादी यदि हिंदुओं और सिक्खो में नफरत फैलाने के लिए फिरते हैं तो हम उन्हें परास्त करने के लिए संकल्पबद्ध हैं। हिन्दू और सिक्ख दोनों पंजाबी हैं और उनमें दरार डालने वाले कभी सफल नहीं हो सकते। अकालियों ने जो तबाही अपनी मूर्खतापूर्ण नीतियों से मचाई है वह सिक्खों के ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने वाली है।
सिक्ख होने के बावजूद उन्होंने न केवल चरमपन्थी नेता जनरैल सिंह भिंडरावाला का खुलकर विरोध किया बल्कि खलिस्तान के नाम पर चल रही आतंकी कार्यवाहियों की भी कटू आलोचना की और उस पर जमकर लिखा। आगे चलकर ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान स्वर्ण मंदिर परिसर में सेना के प्रवेश के विरोध में उन्होंने 1974 में मिला पद्म भूषणसम्मान लौटा दिया। उसके बाद से वे लगातार इन्दिरा गांधी के खिलाफ रहे। इस खिलाफल में मेनका गांधी से उनके रिश्ते काफी सुधर गए थे पर वे भी अधिक दिनों तक न टिक सके। वैसे वे गांधी परिवार के हिमायती थे। आपात्काल में उन्होंने इन्दिरा गांधी का समर्थन किया। संजय गांधी से उनकी गहरी मैत्री थी (इस मित्रता के मूल में उनके भाई दलजीत सिंह की पत्नी रुखसाना सुलताना (अभिनेत्री अमृता सिंह की मां) की संजय गांधी से दोस्ती थी। इनका पूरा लाभ खुशवंत सिंह को अपने कैरियर को संभालने में मिला। पहले संपादक और बाद में राज्यसभा सांसद रहे। गांधी परिवार के करीबी होने के कारण अपने समय के महत्त्वपूर्ण समाचार संस्थानों में उनका अच्छा-खासा दबदबा था। हालांकि इस दबदबे के मूल में खुशवंत सिंह का खुशामदी रूप था और वे भी उन्हें उसी रूप में लेते थे। गोयनका और उनके रिश्ते इसके गवाह हैं। इसके बावजूद फिरकापरस्त ताकतों की खिलाफत में वे कभी पीछे न रहे। इस मामले में वे अपने वैयक्तिक मतभेदों को भी ताक पर रख दिया करते। आपात्काल के दौरान के मतभेदों के बावजूद कुलदीप नैयर यह स्वीकार करते रहे हैं कि एक संपादक के रूप में खुशवंत सिंह ने उन्हें अपने मनमाफिक लेखन की स्वतन्त्रता दी। जानकर आश्चर्य होता है कि वे लोकसभा की नयी दिल्ली सीट के लिए वे भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी के प्रस्तावक रहे पर बाबरी मंदिर विध्वंस के बाद उन्होंने उन्हें आड़े हाथों लिया। वे प्रायः दो विरोधाभासी बातों में भी संबंध तलाश लिया करते थे। यह सब उनकी जिज्ञासु-वृत्ति और जीवन के प्रति उनकी अगाध आस्था से ही संभव हो सका।
खुशवंत सिंह की प्रसिद्धि का एक बड़ा कारण उनका अंग्रेजी में लिखना था। अधिकांश भारतीय अंग्रेजी लेखन के मूल में रचनात्मकता की अपेक्षा विवादास्पदता अधिक रही है। खुद खुशवंत सिंह का व्यक्तित्व और लेखन भी इससे अछूता नहीं है। उनके खिलंदड़ेपन ने उन्हें ख्यात बनाया तो कुख्यात भी किया। प्रेम, सेक्स और शराब को लेकर मध्यवर्गीय युवाओं (विशेषकर उच्चवर्गीय और उच्चमध्यवर्गीय युवाओं) ने उनकी खूब नकल की। भले ही वे इसे स्वीकारने से डरते हों पर हकीकत यही है कि सैद्धान्तिक स्तर पर गांधी को पसंद करते हुए भी व्यावाहारिक जीवन में वे उसकी धज्जियां उड़ाने से बाज नहीं आते। अपने संपादन काल में 'इलस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इण्डिया' के आवरण पृष्ठ पर सिम्मी ग्रेवाल की अधनंगी तस्वीर छापकर उन्होंने सबको हैरत में डाल दिया था (हालांकि लोकप्रियता अर्जित करने के इस सस्ते प्रयोग के बावजूद पत्रिका के वैचारिक पक्ष पर पूरा ध्यान दिया गया, लेकिन बाद में विचार की अपेक्षा उत्तेजना की यह चाशनी बढ़ती गयी और पत्रिका अपना मूल स्वरूप खोने लगी)। ऐसे कई तरतीब-बेतरतीब प्रयोगों से परंपरागत भारतीय समाज को चौंकाया और उनका ध्यान अपनी और आकृष्ट किया। खुशवंत सिंह के इन प्रयोगों ने तत्कालीन भारतीय समाज में खासा कोहराम मचाया। उन्होंने बड़ी सहजता से हमारे मन की कई दबी परतों-गांठों को खोलने का काम किया। उस समय यह सब इतना आसान न था। पुरानी पीढ़ी अक्सर उनसे चिढी रहती पर उन्होंने नयी पीढ़ी से एक रचनात्मक रिश्ता कायम कर लिया था। सबको ढेंगा दिखाता ये मनमौजी सरदार अंग्रेजीदां युवा पीढ़ी की जीवन शैली में गहरा प्रभाव छोड़ रहा था। जाने-अनजाने ही सही पर सुरा, सुंदरी और सेक्स पर बात करने को वे युवता के जश्न के रूप में देखने लगे थे। साठ-सत्तर के दशक में युवा पत्रकारों को सामने लाने और उन्हें लेखन में नये प्रयोगों के लिए खुल्ली छूट देना अपने आप में कम महत्त्वपूर्ण न था। उन्होंने व्यावसायिक घरानों के औपचारिक तौर-तरीकों को कभी पसंद न किया और पत्रकारीय जीवन में वे हमेशा सूट-बूट वाली औपचारिकता से दूर रहे। खुद उनके लेखन में भी उनकी औपचारिक पत्रकारीय छवि कम ही दिखाई देती है। जिंदगी जीने का उनका अंदाज ही निराला था और इसमें वे अपने पाठकों को भी भागीदार बनाते चलते। वे उनका बड़ा ख्याल रखते और उनके लिखे पत्रों का जवाब भी देते।
गंभीर से गंभीर मुद्दों में भी हास्य के लिए अवसर निकाल लेना उनकी बड़ी खासियत थी, जिसे पत्रकार मार्क टुली हास्यबोध कहते हैं। उनका हास्यबोध उनके जीवन और उनकी किताबों के शीर्षकों में साफ झलकता है। अपने सर्वाधिक लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ विद मैलिस टुवर्ड्स वन एंड ऑल के साथ दिखाई देने वाले रेखांकन में वे एक लट्टू के भीतर बैठे नजर आते हैं। उनके साथी मारियो मिराण्डा के बनाए इस रेखाचित्र में उनका हास्यबोध हमें उनके लिखे को गंभीरता से लेने की चुनौती देता प्रतीत होता है। इस रेखांकन में ज्ञान का प्रकाश फैलाने की उनकी प्रतीकात्मक महत्वाकांक्षा ध्वनित होती है। उनका ये स्तंभ भारतीय पत्रकारिता का सबसे लम्बा चला स्तंभ है। न काहू से दोस्ती न काहू से बैर उनका दूसरा लंबे समय तक चला स्तंभ है। वे तगड़े लिक्खाड़ थे, कई बार बहुत अनर्गल भी लिखते। पाठक उनकी खासी लानत-मलानत भी करते पर वे डटे रहते। सिक्ख विरोधी दंगों के समय लोगों ने उनके स्तंभ न काहू से दोस्ती न काहू से बैर को बंद करवाने की काफी कोशिशें पर सब व्यर्थ रहा।
पाकिस्तानी पंजाब के खुशाब जिले के हदाली गांव में 2 फरवरी 1915 को जन्मे खुशवंत सिंह भारतीय अंग्रेजी साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण नाम है, जिसप्रकार के साहित्य के लिए भारतीय अंग्रेजी साहित्य जाना जाता है, उनका लेखन उससे अलहदा न था। इसमें उनकी पहचान अपनी बेबाक शैली के कारण है। जीवन को जिस तरह से उन्होंने जिया, वैसा ही लिख भी दिया। अभिजात्य तबके की पसंद-नापसंद उनके साहित्य में साफ दिखाई पड़ती है पर इन सबके बावजूद अपने समय की एक गहरी समझ हमें उनके साहित्य में मिलती है। उन्होंने अपनी पढ़ाई-लिखाई लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज, दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज और इंलैण्ड के किंग्स कॉलेज व इनर टेम्पल से पूरी की। पढ़ाई-लिखाई में वे बहुत अच्छे नहीं रहे, यहां तक कि कानून स्नातक में उन्हें अतिरिक्त वर्ष तक खर्च करने पड़े, लेकिन उनकी दिलचस्पी पिता के पुश्तैनी व्यवसाय में भी न थी। इसलिए 1939 में कंवल मलिक से शादी के बाद वे लाहौर उच्च न्यायालय में वकालात करने लगे। आज़ादी के बाद वे भारतीय विदेश मंत्रालय से जुड़े और वहां कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहे। विदेश सेवा के दौरान वे कनाडा, ब्रिटेन और आयरलैंड में भारतीय उच्चायोग में सूचना अधिकारी रह चुके थे। वहां के अनुभवों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया। फिर क्या था, भारत वापसी के बाद 1951 में वे आकाशवाणी से जुड़े और वहां से निकल अगले दो साल योजना के संपादन में जुटे रहे। बाद में नैशनल हैराल्ड’,‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डियाऔर 'न्यू डेल्ही' (1979-80) से होते हुए हिंदुस्तान टाइम्स(1980-83) के संपादक रहे। ऐसे संपादक जिन्होंने अंग्रेजी पत्रकारिता को नयी पहचान दी। पत्रकारिता से साहित्य में आने में उन्हें ज्यादा समय न लगा। 1956 में 'ट्रेन टू पाकिस्तान' (पाकिस्तान मेल) लिखकर मुख्यधारा के साहित्य में चर्चा के केन्द्र में आ गए। 'डेल्ही', 'दि कंपनी ऑफ़ वूमन', और आई शैल नाट हियर द नाइटिंगल उनकी अन्य चर्चित रचनाएं हैं। सिक्खों का इतिहास में हम उनके इतिहासकार रूप से मुखातिब होते हैं। 'ट्रुथ, लव एंड अ लिटिल मैलिस' (सच, प्‍यार और थोड़ी सी शरारत) (2000) और खुशवंतनामा : दि लेसन्स ऑफ माई लाइफ (2012) उनकी आत्मकथात्मक रचनाएं हैं। पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में असाधारण अवदान के लिए वे पद्मभूषण (1974) व पद्मविभूषण (2007) से नवाजे गए।
खुशवंत सिंह की छवि एक लोकप्रिय लेखक की रही। वे कभी गंभीर लेखक के रूप में नहीं स्वीकारे गए और न वे खुद ऐसा चाहते थे, इसीलिए साहित्यिक गंभीरता से वे हमेंशा दूर रहे। लोकप्रियता और साहित्यिकता का सम्मिश्रण उनके रचे की खासियत है। लोकप्रियता अर्जन के लिए चुटकले उनके स्तंभों की एक अनिवार्य जरूरत बन गए थे। गंभीर राजनीतिक टिप्पणियों में भी वे चुटकी लेना नहीं भूलते। सच, प्यार और शरारतें उनके जीवन और लेखन दोनों में आजीवन बनी रही। वे पॉपुलर कल्चर के लेखक थे, इसलिए यह स्वाभाविक भी था। मनोरंजक सुख के क्षणों के निर्माण उनके लेखन के मूल में है। ट्रेन टू पाकिस्तान और सिक्खों का इतिहास को छोड़ दिया जाए तो उनका लिखा शायद ही याद किया जाए। रामचन्द्र गुहा कहते हैं, ख़ुशवंत सिंह को सिक्खों का इतिहास लिखने के लिए याद किया जाएगा। वे बहुत उदार व्यक्ति थे। भिंडरावाले का विरोध उनका सबसे साहसिक काम था... उनका सबसे बेवकूफी भरा काम था संजय गांधी और मेनका गांधी का समर्थन करना। ...ख़ुशवंत सिंह को व्हिस्की से अपने प्यार के लिए जाना जाता था लेकिन वो प्रकृति को उससे भी ज़्यादा प्यार करते थे। वो सलीम अली और एम. कृष्णन को अपना हीरो मानते थे। वे लेखन से अधिक विवादों के लिए जाने गए पर अपने लेखन के बारे में उन्होंने दूसरों की राय की कभी परवाह न की। उन्हें अगर दूसरों की राय की परवाह होती तो वे अपने पिता के लाभप्रद व्यवसाय को अपनाते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। यहां तक कि खुद उनके पिता उनकी पढ़ाई-लिखाई को टाइमपास से अधिक नहीं समझते थे। यह अलग बात है उनके इस टाइमपास का ध्वन्यार्थ उनके अंग्रेजी तौर-तरीके सीखने से था। सिक्ख बाने में छिपा ये नास्तिक खुद का मजाक बनाने से भी न चूकता था। वह खुद को धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक सिक्ख मानता। वकालात के पेशे को छोड़ पत्रकारिता में आने के सवाल पर वे कहते हैं: मैंने सोचा कि मैं दूसरों के मामले में दखल दे देकर अपनी पूरी जिंदगी बर्बाद नहीं करूंगा। उम्र के साथ-साथ न तो उनका मसखरापन कम हुआ और न उनकी इच्छाएं-जिस्म से तो बूढ़ा हूं लेकिन आंख तो अब भी बदमाश है। अनुशासित जीवन शैली ने उनकी जीने की इच्छा को अनवरत बनाए रखा, जैसा कि वे कहते हैं- अब समय आ गया है कि अपने बूटों को टांगकर वह एक बार पीछे मुड़कर देखें और अंतिम यात्रा के लिए तैयार हो जाएं, लेकिन जिंदगी यह सिलसिला खत्म करने की इजाजत ही नहीं देती।
साहित्यकार की उनकी छवि का मूल आधार ट्रेन टू पाकिस्तान (1956) है, इसने उन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों में खासा लोकप्रिय बनाया। विभाजन की त्रासद-कथा को आधार बनाकर लिखे इस उपन्यास में दोनों देशों के लोगों की जहालत भरी जिंदगी हमारे सामने आती है। इस जहालत का बड़ा कारण उनकी गरीबी था। विभाजन की त्रासद स्थितियों ने लोगों को आपसी सौहार्द के सारे रिश्तों को ताक पर रखने के लिए मजबूर कर दिया और गंगा-जमुनी संस्कृति वाली धरती भी खून से रंगने लगी। प्रेम से भरे लोक में भी प्रेम की तमाम संभावनाएं समाप्त होने लगती हैं पर लेखक हार नहीं मानता, वह प्रेम को ही अंतिसंभावना के रूप में देखता है। इसलिए हारकर भी जीत जाता है। जब हम प्रेम में होते हैं तो एक साथ कई सकारात्मक बदलावों से होकर गुजरते हैं, हमारे भीतर का दानव लगातार अपना अस्तित्व खोता जाता है। भारत-पाकिस्तान के विभाजन की गिनती इतिहास के सबसे बुरे दौर में होती है। खुशवंत सिंह खुद इस दौर से होकर गुजरे हैं। विभाजन के दर्द को उन्होंने अपनी परिपक्व आंखों से देखा। उस समय वे बत्तीस साल के थे। इस भयावह अनुभव ने उन्हें धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के लिए संघर्षरत रहने किए प्रेरित किया। आपात्काल के दौरान अपनी भूमिका को लेकर वे खासे विवादित रहे लेकिन पंजाब में आतंकी घटनाओं और अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहाने पर वे चुप न बैठे।
उनका लेखन भारतीय जनमानस को यौनशुचिता के दानव के मुक्त करने में लगा रहा। वे किसी भी तरह यौन पवित्रता से इंकार करते और उसे मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा से जोड़कर देखते। उनकी इन बातों ने परंपरावादियों के मन पर तो गहरा आघात किया लोकिन युवाओं के बीच खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली थी। वे ओशो को बहुत पसंद करते थे। शायद इसीलिए मृत्यु के भय से निजात पाने के लिए वे अक्सर निगमबोध घाट के श्मशानघाट पर मिल जाया करते। नास्तिक होने के कारण वे पूनर्जन्म के घोर विरोधी थे और जीवन में अगाध आस्था रखते थे। बीस साल की उम्र में ही वे अपना मुत्युलेख लिख चुके थे पर 2001 में पत्नी कंवल मलिक की मृत्यु के बाद से वे काफी बीमार रहने लगे थे। इसके बावजूद उनकी प्रकृति में कोई अंतर न आया, यहां तक कि निधन से कुछ मिनट पहले तक वे सुरापान करना न भूले (खुद उनके माता-पिता भी इसके लिए कुख्यात रहे)। एक ही जीवन में वे सब कुछ जी लेना चाहते थे। प्रकृति और मनुष्यता की सुंदरता के जितने भी आयाम हो सकते हैं, वे ताउम्र उनसे जुड़ने और उनमें रमने के लिए कोशिशरत रहे। वे आजीवन घिसे-पिटे भारतीय रीति-रिवाजों के खिलाफ रहे। उनकी रचनाएं हमें उनकी अतृप्त यौनता का अहसास कराती है।
नारी सौंदर्य पर तो वे खूब रीझे हैं, फिर सुरा और सुंदरी तो उनके जीवन और लेखन के दो छोर ही है, जहां से उनका जीवन और लेखन शुरू और खत्म होता है। हालांकि जीवन के अंतिम क्षणों में औरतों के प्रति अपने नजरिए के लिए उन्होंने माफी भी मांगी। उनके पूरे लेखन में औरतों को लेकर उनका एक खास तरह का ट्रीटमेण्ट मिलता है, जिसके कारण उनके नारी चरित्रों के कई महत्त्वपूर्ण आयाम अछूते और अचिह्ने रह जाते हैं, उनका पूर्ण विकास नहीं हो पाता। हद तो तब होती है जब वे विभाजन की त्रासदी में भी यौनतृप्ति के लिए जगह तलाश लेते हैं। फिर चाहे बात 'कम्पनी ऑफ वूमेन' की हो या फिर 'पैराडाइज़' की। पाठक उमा भारती, ऋतम्भरा, प्रज्ञा ठाकुर और मायाबेन कोडनानी पर की गयी उनकी टिप्पणियों को भूले नहीं होंगे। पंजाबी जीवनदृष्टि उन्हें किसी भी तरह के दुराव-छिपाव से रोकती, फिर विवादों से तो उनका गहरा रिश्ता रहा है। कई विवादों को तो वे खुद जन्म देते, उसे हवा देते और तमाशा देखते। उनकी वैयक्तिक स्वीकारोक्तियां अत्यंत दुस्साहसी होती। अपनी मां के निधन के बारे में उन्होंने लिखा कि वे अपने अंतिम समय में शराब पीने लगी थीं। खुशवंतनामा: द लेसंस ऑफ माई लाइफ में वे लिखते हैं- ‘‘मुझे इस बात का दुख है कि मैं हमेशा अय्याश व्यक्ति रहा। चार साल की उम्र से अब तक मैंने 97 वर्ष पूरे कर लिए हैं, अय्याशी हमेशा मेरे दिमाग में रही।’’ अंग्रेजों के जमाने के मशहूर ठेकेदार और दिल्ली के वास्तुकार शोभा सिंह के बेटे होने के कारण भी उनका जीवन खासा विवादों में रहा। जब सच बोलना अपराध बन गया शीर्षक टिप्पणी में उनका यह कहते हुए अपने पिता का बचाव करना कि उन्होंने तो सिर्फ उनकी भगत सिंह और उनके साथियों की शिनाख्त की थी, और उस मामले में उन्हें फांसी नहीं हुई थी, ने भी विवादों को जन्म दिया। सच्चाई यह है कि सर शादी लाल और सर शोभा सिंह भगतसिंह और उनके साथियों के खिलाफ गवाही देने वाली शख्सियतें रही हैं।
अपने अंतिम समय तक वे समय से दो-दो हाथ करने से न चूकते और लगातार लेखनरत रहते। चीजों को देखने की उनकी अपनी एक नजर थी और उसे अभिव्यक्त करने की अपनी एक निजी भाषा और शैली, जिसके माध्यम से जो बन पड़ा उन्होंने लिख मारा। वे साधारण सी बातों या सूचनाओं में भी असाधारण प्रभाव पैदा कर दिया करते। अपने स्तंभों में वे अपने पाठकों को किसी-न-किसी तरह की क्रियाशीलता के लिए प्रेरित करते। उन्होंने जो कुछ किया या लिखा उसके लिए किसी तरह का कोई दावा नहीं किया कि फलां-फलां काम उन्होंने फलां-फलां उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये हैं। वे हमेंशा याद किए जाएंगे – जीवन के प्रति अपनी आगाध आस्था के लिए, अपने जिंदादिल और खिलंदड़ेपन से भरपूर लेखन के लिए, भारतीय जनमानस में गहरी पैठी यौन वर्जनाओं के नकार के लिए, ट्रेन यू पाकिस्तान के लिए और पत्रकारिता को सांप्रदायिक सौहार्द के एक अप्रतिम माध्यम के रूप में प्रस्तुत करने और युवा भारतीय में विश्वास व्यक्त करने के लिए...
 (टिप्पणी: अरावली की पहाड़ी पर बसने से पहले नयी दिल्ली की बसावट की पूरी तैयारियां किंग्स-वे (आज के दिल्ली विश्वविद्यालय के पास का किंग्सवे कैम्प क्षेत्र) में कर ली गयी थी, लेकिन बाद में जब उसे वहां से तुरंत स्थानान्तरित करना पड़ा तो अंग्रेज वास्तुकारों ने इसकी जिम्मेदारी शोभा सिंह को सौंपी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। अंग्रेज उनके काम से प्रसन्न थे, इसलिए वे अंग्रेजों द्वारा निर्मित कई भवनों और रेलमार्गों के निर्माण से भी जुड़े रहें। भगत सिंह, बटुकेश्वर, राजगुरु और सुखदेव मामले में भगत सिंह की शिनाख्त (जिसे खुद खुशवंत सिंह भी स्वीकारते हैं) के बाद से वे मृत्युपर्यन्त विवादों से घिरे रहे। उनके भाई उज्ज्वल सिंह पहले और दूसरे गोलमेज सम्मेलन (1930-31) के सिक्ख प्रतिनिधि तो थे ही, वे वायसराय की कंज्युलेटिव कमेटी ऑफ रिफॉर्म के भी सदस्य थे। बाद में भले ही उन्होंने सिक्खों के कम्युनल अवार्ड के विरोध में इस्तिफा दे दिया पर 1937 में वे संसदीय सचिव भी बने। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि और भारतीय संविधान समिति के सदस्य रहे। आज़ाद भारत में वे विधायक, मंत्री और सांसद रहे, वित्त आयोग के सदस्य और पंजाब तथा तमिलनाडु के राज्यपाल भी रहे। फिर खुशवंत सिंह के ससुर भी तो सी.पी.डबल्यू.डी. के प्रमुख रहे हैं। यह सब शासकीय खुशामद के बिना संभव न था, पहले अंग्रेज और फिर गांधी-नेहरू परिवार। पंजाब का कोट सुजान सिंह गांव और दिल्ली का सुजान सिंह पार्क उनके दादा सुजान सिंह के ही नाम पर बसे हैं। शोभा सिंह और उनके एक अन्य साथी सरशादी लाल को क्रान्तिकारियों की शिनाख्तगी के लिए अंग्रेज सरकार ने तो सर की उपाधि से नवाज दिया पर हमारा जनमानस अब भी उसे एक गाली के रूप में स्वीकार करता है। नयी शताब्दी में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से कनॉट प्लेस के पास जनपथ पर बने विण्डसर प्लेस नाम के चौराहे का नाम सर शोभा सिंह के नाम पर करने का अनुरोध किया तो उसे घोर विरोध का सामना करना पड़ा।)

सम्पर्क : डॉ. पुखराज जांगिड़, तदर्थ प्रवक्ता, कालिंदी महाविद्यालय, दिल्ली विश्विद्यालय, दिल्ली, दूरभाष -9968636833, ईमेल- pukhraj.jnu@gmail.com)














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