जनवादी
चेतना के कवि: धूमिल
-अनुराग
शर्मा
धूमिल का संपूर्ण साहित्य उनकी जनवादी चेतना (भावना) का सबल
प्रमाण है। उनकी काव्य चेतना ‘संसद से सड़क तक’ से लेकर ‘सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र’
तक आक्रोश और विद्रोह से युक्त ही प्रतीत होती है। उनकी
दृष्टि में जनवाद का अर्थ लोकतंत्र का विरोध है। उनके शहर में सूर्यास्त,
मकान एवं आदमी, शहर का व्याकरण, नगरकथा, मोचीराम, पटकथा, रोटी और संसद, मुनासिब कार्रवाई, कविता, प्रौढ़ शिक्षा, लोकतंत्र ताजा खबर,
संदर्भ, गांव, समाजवाद, देश-प्रेम मेरे लिए,
अकाल-दर्शन, किस्सा जनतंत्र, नक्सलवादी आदि ऐसी अधिकांश कविताएं हैं जिनमें धूमिल की
जनवादी चेतना स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।
साठोत्तरी
हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर कवि सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’
का जन्म वाराणसी जिले के खेवली नामक गांव में 9
नवम्बर 1936 को हुआ। धूमिल के पिता शिवनायक पाण्डेय और माता रसवंती देवी
मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती थीं। धूमिल की प्रारंभिक शिक्षा गांव में और
फिर हाईस्कूल की पढ़ाई हरहुआ बाजार में स्थित काशी इण्टर कॉलेज में हुई।
इण्टरमीडियट की पढ़ाई के लिए हरिश्चन्द्र इण्टर कॉलेज वाराणसी में विज्ञान विषय
में प्रवेश लिया, लेकिन
पिता की असमय मृत्यु के कारण पढ़ाई छोड़नी पड़ी। तकरीबन 13 वर्ष की आयु में उनकी
शादी भी हो गई। परिवार का सारा दारोमदार उन्हीं पर आ गिरा। ऐसे में भी कवि धूमिल
जरा भी हताश नहीं हुए। कुछ दिन तक लोहा मण्डी में एवं कुछ दिन तक एक लकड़ी कारोबारी
के यहां भी काम किया। इस समयावधि में परिवार का खर्च चलाने के के साथ कुछ पैसा
पढ़ाई के लिए बचाया और दो वर्ष पुनः औद्यौगिक प्रशिक्षण संस्थान (करौंदी) वाराणसी
में प्रवेश लिया। 12 जून 1958 में विद्युत डिप्लोमा हासिल करने के बाद विद्युत
अनुदेशक पद पर नियुक्त हुए। इस दरमियान कभी वाराणसी तो कभी सीतापुर,
बलिया और सहारनपुर में भी नौकरी की लेकिन उनका
मन काशी में ही रमता-बसता था।
साठोत्तरी
जनवादी कविता के केन्द्रीय कवि के रूप में धूमिल का विशेष स्थान है। डॉ. शुकदेव
सिंह का मत है ‘‘धूमिल
अपने समय का ही नहीं, हिन्दी
का सबसे महत्वपूर्ण जन कवि और जनवादी कवि था। यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि
धूमिल ने जिस जीवन की अभिव्यक्ति अपने काव्य में की, उस जीवन को उन्होंने किसी
अन्य को जीते नहीं देखा था, बल्कि
स्वयं भोगा था और जिस आदमी को पीड़ा को वह अपनी कविता में वाणी देते रहे वह कोई और
नहीं स्वयं धूमिल ही थे।’’[1]
जनवादी
कविता जन-जन की भावनाओं का दर्पण होती है। जनवादी काव्य की परिभाषा देते हुए डॉ.
नरेन्द्र सिंह ने लिखा है- ‘‘जनवादी
कविता से हमारा तात्पर्य उस कविता से है जो जनता के मानसिक परिष्कार,
उसके आदर्श और मनोरंजन से लेकर क्रान्ति-पथ की
तरफ मोड़ने वाला, प्राकृतिक
शोभा और प्रेम शोषण और सत्ता के घमंड को चूर करने वाला,
स्वतंत्रता और मुक्ति गीतों को अभिव्यक्ति देने
वाला, ये
सभी कोटियां जनवादी काव्य की हो सकती हैं। बशर्ते वह मन को मानवीय,
जन को व्यापक जन बना सके।’’[2]
धूमिल
का संपूर्ण साहित्य उनकी जनवादी चेतना (भावना) का सबल प्रमाण है। उनकी काव्य चेतना
‘संसद से
सड़क तक’ से
लेकर ‘सुदामा
पाण्डेय का प्रजातंत्र’ तक
आक्रोश और विद्रोह से युक्त ही प्रतीत होती है। उनकी दृष्टि में जनवाद का अर्थ लोकतंत्र
का विरोध है। उनके शहर में सूर्यास्त, मकान
एवं आदमी, शहर
का व्याकरण, नगरकथा,
मोचीराम,
पटकथा, रोटी
और संसद, मुनासिब
कार्रवाई, कविता,
प्रौढ़ शिक्षा,
लोकतंत्र ताजा खबर,
संदर्भ,
गांव, समाजवाद,
देश-प्रेम मेरे लिए, अकाल-दर्शन,
किस्सा जनतंत्र,
नक्सलवादी आदि ऐसी अधिकांश कविताएं हैं जिनमें
धूमिल की जनवादी चेतना स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।
‘पटकथा’
नामक कविता ‘संसद
से सड़क तक’ संग्रह
की सबसे लंबी कविता है। धूमिल की ‘पटकथा’
एक फैंटेसी के मिश्रण से राजनीतिक- सामाजिक
यथार्थ को लेकर रची गयी। इसमें वर्गीय संवेदना,
पूंजीवादी विमान की सुविधापरस्ती के आपसी
द्वन्द्व चित्रित हैं और इस कविता के माध्यम से धूमिल की जनवादी चेतना का भी जायजा
लिया जा सकता है। धूमिल ‘पटकथा’
में इस लोकतंत्र को कोसते नजर आते हैं। आपने
यहां मानवीय बेबसी, लाचारी
का और अनेक प्रकार के अत्याचार सहते लोगों के भयावह चित्र दिखलाये हैं -
‘‘यह
श्मशान है यहां की तस्वीर लेना
सख्त
मना है-
मैंने
अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे
बड़ा बौद्ध मठ/बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है।’’[3]
कवि
जनता की जनवादी चेतना को उभारने और गति देने में सहायता करना चाहता है। इसलिए कवि
जनता से संवाद करते हुए कहता है-
‘‘इसलिए
उठो और अपने भीतर
सोये
हुए जंगल को/आवाज
दो
उसे
जगाओ और देखो। कि तुम अकेले नहीं हो
और
न किसी के मुहताज हो
लाखों
हैं जो तुम्हारे इन्तजार में खड़े हैं।
वहां
चलो/उनका साथ दो
और
इस तिलस्म का जादू उतारने में
उनकी
मदद करो।’’[4]
वर्तमान
व्यवस्था से धूमिल एकदम असहमत थे। उनका आक्रोश कविता के माध्यम से विस्फोट करता
है। अपनी एक कविता ‘शहर
में सूर्यास्त’ में
धूमिल ने भाषा-विवाद तथा देश में व्याप्त चरित्रहीनता के द्वारा जनतंत्र पर कटु
व्यंग्य किया है-
‘‘हवा
में एक चमकदार गोल शब्द
फेंक
दिया है- जनतंत्र
जिसकी
रोज सैकड़ों बार हत्या होती है।’’[5]
धूमिल
की प्रथम काव्य कृति ‘संसद
से सड़क तक’ राजनीति
से मामूली आदमी के संबंध का खुला आख्यान है। साधारण एवं मामूली आदमी का आक्रोश एवं
उसकी छटपटाहट बड़े तीखे तेवरों के साथ काव्य में अभिव्यक्त हुई है। अपनी अनेक
कविताओं में कवि मानों स्वयं ही इस वर्ग का प्रतिनिधि बन गया है -
‘‘अब
कोई आदमी
कपड़ों
की लाचारी में
अपना
रंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब
कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर
नहीं मरेगा
अब
कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
अब
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब
यह जमीन है
आसमान
अपना है
जैसा
पहले हुआ करता था
मैं
इंतजार करता रहा।’’[6]
आम
आदमी के मन में छिपी संवेदनशीलता का अनुभव इससे पूर्ववर्ती कविगण कम ही कर पाये
हैं। धूमिल को तो शोषित वर्ग के चरित्रांकन में जैसे महारत हासिल है-
‘‘कुल
रोटी तीन
खाने
से पहले मुंह दुब्बर
पेट
भर पानी पीता है और लजाता है
कुल
रोटी तीन, पहले
उसे थाली खाती है
फिर
वह रोटी खाता है।’’[7]
धूमिल
ने सर्वहारा की जनवादी चेतना को ‘मोचीराम’
के माध्यम से व्यक्त किया है। ‘सुदामा
पाण्डेय का प्रजातंत्र’ नामक
संग्रह की कविताओं से यह तलखी बहुत व्यापक पैमाने पर अभिव्यक्त हुई है। इस संग्रह
के टाइटिल पृष्ठ पर उन्होंने एक मुखड़ा दिया है जो अंततः इस व्यवस्था के प्रति आशा
को निराशा में परिवर्तित करता नजर आता है -
‘‘न
कोई प्रजा है/न कोई तन्त्र है
यह
आदमी के खिलाफ।
आदमी
का खुला सा षड्यन्त्र है।’’[8]
धूमिल
जनवादी कवि हैं। वह गांव के आदमी थे, परन्तु
जीविकोपार्जन हेतु शहरों की खाक छाननी पड़ी। उन्होंने गांव की विसंगतियों को निकट
से देखा और स्वयं भोगा। बेकारी, गरीबी,
मुकदमेंबाजी,
राजनीतिक मिथ्याचार और गंदगी ने ग्रामीण जीवन को
नरक बना दिया। ‘गांव’
कविता में उन्होंने लिखा है-
‘‘मूत
और गोबर की सारी गंध उठाए
हवा
बैल के सूजे कंधे से टकराए
खाल
उतारी हुई भेड़-सी
पसरी
छाया नीम पेड़-सी।’’[9]
गांव
में उत्पीड़न, दमन,
गुड़ागर्दी और नेताओं की साजिश के अतिरिक्त कुछ
नहीं बचा है। पीड़ित आत्माओं के प्रति कवि की सहानुभूति
का भाव देखिए-
‘‘वहां
न जंगल है न जनतंत्र
भाषा
और गूंगेपन के बीच कोई दूरी नहीं
एक
ठंडी और गांठदार अंगुली माथा टटोलती है।
सोच
में डूबे हुए चेहरों और दरकी हुई जमीन में
कोई
फर्क नहीं है।’’[10]
जनता
के दमन के लिए उपयोग किए जा रहे तानाशाही नियमों से जनतंत्र की प्रतिध्वनि
व्यंग्यात्मक रूप से ध्वनित होती है। जनता गांवों में गन्दे पनालों से लेकर ‘शहर
के शिवालों तक’ फैली
हुई कथकली की अमूर्त मुद्रा है। जनतंत्र में इसकी अटूट आस्था है। जनता भोली-भाली
है। वह इस जनतंत्र की असलियत से बेखबर है। धूमिल कहते हैं कि जनता अभी भी नहीं
जानती कि -
‘‘अपने
यहां जनतंत्र
एक
ऐसा तमाशा है
जिसकी
जान मदारी की भाषा है।’’[11]
जनता
की इस पिछड़ी हुई चेतना से कवि टकराता है,
खीझता है,
तरस खाता है और भरसक उसे जनतंत्र रूपी इस
भ्रमजाल से मुक्त करवाने के लिए अपनी काव्य कृतियों के माध्यम से जनता की जनवादी
चेतना को उभारने की कोशिश करता है। जनता की खुशहाली के लिए दूसरे प्रजातंत्र की
खोज करता रहता है।
निष्कर्षतः
यह कहा जा सकता है कि धूमिल की कविता का प्रमुख स्वर जनवादी भावना ही है। जन-जीवन
की ठोस विसंगतियों का एक खुला दस्तावेज है। जन-जीवन का कोई ऐसा कोना नहीं है जिसे
कवि ने अपने खुले चक्षुओं से न देखा हो। मानवीय संवेदनाओं से संपृक्त इनकी रचनाओं
में मन को झकझोरने की अपार क्षमता है।
संदर्भ
ग्रंथ
1.डॉ.
अनिल कुमार विश्वकर्मा (सम्पादक), वाग्प्रवाह
(जुलाई-दिसम्बर 2010), सी.ओ.
कालोनी, अजीतमल,
जनपद-औरैया (उ.प्र.)
2.धूमिल,
संसद से सड़क तक, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि.,
1-बी, नेताजी
सुभाष मार्ग, नई
दिल्ली-110002, पेपरबैक्स
संस्करण, पहली
आवृत्ति, 2009
3.धूमिल,
कल सुनना मुझे, युगबोध प्रकाशन,
एस 2/364,
सिकरौल,
वाराणसी कैंट,
1977
4.रत्नशंकर
पाण्डेय(सं.), धूमिल-सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र,
वाणी प्रकाशन,
दरियागंज,
नई दिल्ली,
2001
5.डॉ.
शुकदेव सिंह, धूमिल
की कविताएं, विश्वविद्यालय
प्रकाशन, वाराणसी-221001,
द्वितीय संस्करण,
2003
6.ब्रह्मदेव
मिश्र एवं शिवकुमार मिश्र (सं.), धूमिल
की श्रेष्ठ कविताएं, लोकभारती प्रकाशन, पहली
मंजिल, दरबारी
बिल्डिंग, महात्मा
गांधी मार्ग, इलाहाबाद-211001,
प्रथम संस्करण,
2009
संपर्क - अनुराग
शर्मा, शोध छात्र, हिंदू विश्विद्यालय, बनारस, दूरभाष –
09450420054, ईमेल - nature.anurag@gmail.com
[1] डॉ. अनिल
कुमार विश्वकर्मा (सम्पादक), वाग्प्रवाह (जुलाई-दिसम्बर 2010), सी.ओ. कालोनी, अजीतमल, जनपद-औरैया (उ.प्र.), पृ. 65
[3] धूमिल, संसद से सड़क तक, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002, पेपरबैक्स संस्करण, पहली आवृत्ति, 2009, पृ. 103-04
[8] रत्नशंकर
पाण्डेय(सं.), धूमिल-सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र, वाणी
प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, 2001, पृ.21
[9] डॉ.
शुकदेव सिंह, धूमिल की कविताएं, विश्वविद्यालय प्रकाशन,
वाराणसी-221001, द्वितीय संस्करण, 2003, पृ.6
[10] ब्रह्मदेव मिश्र एवं शिवकुमार मिश्र (सं.), धूमिल की श्रेष्ठ कविताएं, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद-211001, प्रथम संस्करण, 2009, पृ.71
[11] धूमिल, संसद से सड़क तक, राजकमल
प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली-110002, पेपरबैक संस्करण, पहली आवृत्ति, 2009, पृ.105
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