बुधवार, 23 अप्रैल 2014

स्त्री: घर की राजनीति से देश की राजनीति तक - दीपक शर्मा



उल्लेखनीय है कि भारतीय समाज के साथ-साथ पूरे विश्व में महिलाओं के लिए सबसे अच्छे व्यवसाय शिक्षिका, चिकित्सक, परिचारिका के ही माने जाते रहे हैं। स्त्रियों के लिए राजनीति को तो अधिकतर लोगों ने एकमत से वर्जित-क्षेत्र माना है। इसके पीछे धारणा यह रही है कि इन व्यावसायों में रहकर भी महिलाएं अपने परिवार की ज़िम्मेदारी सरलता से उठा सकती हैं। अर्थ स्पष्ट है कि स्त्री चाहे पढ़ी-लिखी हो या नहीं, कामकाजी हो या हाऊस-वाइफ, परिवार और बच्चों का ज़िम्मा उसी के कंधों पर है और रहेगा। राजनीति और सत्ता का संबंध तो सीधे तौर पर पुरुषों से ही रहा है। इसी कारण महिलाओं को राजनीति से दूर रखा जाता रहा है।



  
‘‘रे यार! यह राजनीति, इलेक्शन वगैरह इन  औरतों के लिए नहीं है। इनका काम तो बस घर की साफ़-सफाई और अपने परिवार की देखभाल करना ही है। अगर देश को चलाने का काम भी इन औरतों ने करना शुरू कर दिया तो फिर हम आदमी लोग क्या करेंगे? घर-बार और इन बच्चों को फिर कौन देखेगा? इनके हाथों में सिर्फ बेलन ही शोभा देता है भाइयों। हम आदमियों का तो जन्म ही राजनीति और सत्ता के मज़े लेने के लिए हुआ है। इस परिवार और समाज को अपने हिसाब से चलाने के लिए हुआ है.......और वैसे भी जिस समझदारी और जिम्मेदारी की ज़रूरत राजनीति में पड़ती है, वह सब इन औरतों में कहां है भाई...यह सब तो कोई मर्द ही कर सकता है। राजनीति वैसे भी कीचड़ की तरह होती है ..औरतें इससे जितना दूर रहे उनके लिए उतना ही अच्छा है .....देश चलाना आलू की सब्जी बनाने जैसा नहीं है............  
हमारे समाज में स्त्रियों को लेकर इस तरह की बातें हर किसी ने कभी न कभी अपने घर-परिवार या गली-मोहल्ले में ज़रूर सुनी होगी। कई तो ऐसे भी होंगे जो इस तरह की बातों में पूरा रस लेते हुए स्त्री-विरोधी उपर्युक्त तर्कों को बिलकुल सही मानते होंगे। आज जो मानसिकता हमारे घरों और देश की राजनीति में महिलाओं को लेकर है, उस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए ये पंक्तियां नाकाफी नहीं हैं। आज महिलाओं द्वारा अपने घरों की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए, अपने राज्य एवं देश की राजनीति में जो भागीदारी की जा रही है उसे लेकर न केवल भारत, बल्कि विश्व के अलग-अलग देशों के लोगों को भी अनेक तरह की शंकाओं ने घेर लिया है। यह बात भी अब किसी से छुपी नहीं है कि वैश्विक स्तर पर राष्ट्रीय प्रतिनिधि राजनीति में महिलाओं की जो हिस्सेदारी पिछले कुछ वर्षों तक 12 से 15 प्रतिशत तक हुआ करती थी, वह भागीदारी अब 20 प्रतिशत के आसपास हो चुकी है। यद्यपि अभी इस प्रतिशत में अधिकतर महिलाए वे हैं जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में कोई महिला या पुरुष राष्ट्रीय राजनीति में बहुत प्रभावशाली रूप में सक्रिय रहा हो।
भारतीय परिवारों में पिछले काफी समय से जेंडर-भेदभाव को सभी लोगों ने न केवल महसूस किया है बल्कि उसके अनेक दुष्परिणामों से भी समय-समय पर परिचित होते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि हमारे भारतीय परिवारों में यह मान्यता सदियों से चली आ रही है कि लड़कियों तथा स्त्रियों का मुख्य कार्य घर संभालना ही होता है। हमारा समाज आज भी महिलाओं की क्षमताओं को कम करके आंकने का आदी है। आमतौर पर हम भारतीय लोग, भारत में स्त्री की सबल छवि को दिखाने के लिए अपने वेद-ग्रंथों की तरफ ही भागते हैं और वेद-पुराणों का हवाला दे-देकर, स्त्री की एक पारंपरिक इमेज़ को गढ़ने की कोशिश लगातार करते रहते हैं। जबकि हमारे यहां लड़की के तमाम गुण और योग्यताएं बेहतर जीवन साथी पाने तक ही सीमित हैं। संभवतः यही कारण है कि भारत में आज विश्व की सर्वाधिक ‘ग्रेजुएट महिला सर्वेंट’ हैं। कारण, हमारे भारतीय परिवारों में यह सोच बहुत प्रबल है कि लड़की को बस ग्रेजुएट करवा दीजिए ताकि उसका कोई अच्छा-सा रिश्ता आ जाये और लड़की का घर बस जाये। इसी मानसिकता के चलते अनेक लड़कियां घरों में पढ़-लिखकर, एक नौकर की तरह अपना जीवन बसर करने को मजबूर है। अब आप ही सोचिए कि ऐसे समाज में जहां एक स्त्री को अपने परिवार के अलावा कुछ और करने की अनुमति मिलना ही मुश्किल हो, साथ ही जहां यह माना जाता रहा हो कि महिलाओं का कार्य क्षेत्र ‘घर के भीतर’ और पुरुषों का ‘घर के बाहर’ है, तो इस स्थिति में महिलाओं के लिए राजनीति जैसी चीज़ तो बहुत दूर की कौड़ी नज़र आती है। हमारे समाज की मानसिकता यहां तक जा पहुंची है कि अगर स्त्री और पुरुष दोनों ही एक समान पोजीशन पर हों तब भी उनमें से स्त्री को ही कम करके देखे जाने की प्रवृति प्रबल रहती है।
भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्त्रियों से संबधित एक कहावत बहुत मशहूर है जिसको कई बार लेखक के कानों ने भी ग्रहण किया है – ‘‘अगर औरत को भगवान ने नाक नहीं दी होती तो वह गू खा लेती।’‘ यह कहावत निस्संदेह औरतों को नीचा दिखाने के साथ-साथ उनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाती है। स्त्रियों को महामूर्ख मानने पर जोर देती है। इसका यह मतलब भी है कि काम भावना के अतिरिक्त महिलाओं की बाकि सभी इन्द्रियां निष्क्रिय होती हैं और जिस तार्किक-क्षमता की राजनीति में हर क्षण ज़रूरत पड़ती है, उस से स्त्रियां शून्य हैं। यद्यपि इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि राजनीति ने महिलाओं की ऐसी स्थिति को बदलने की बहुत कोशिश भी की है। महिलाओं के राजनीति में आने से अब परिवार एवं समाज के अनेक नियमों में बदलाव भी हुआ है लेकिन अभी इस क्षेत्र में काफी सुधार होने की गुंजाइश शेष है। आरंभ से ही परिवार, समाज, दोस्त-यार एवं परिचितों द्वारा स्त्रियों के मन में इस बात को बार-बार जोर देकर भरा जाता है कि राजनीति और सत्ता का संबंध केवल पुरुषों से है। महिलाएं तो घर में हाथ बंटाने के लिए होती हैं। गौरतलब है कि इतना होने पर भी अगर कोई महिला राजनीति में आती है तो उससे हमारा समाज जिसमें अन्य स्त्रियां भी शामिल हैं, वह सबसे पहले यह सवाल करने लगता है कि वह स्त्री राजनीति और अपने परिवार को एक साथ कैसे संभालेगी। इसके विपरीत यह प्रश्न हम किसी पुरुष राजनेता से नहीं करते जबकि परिवार तो उसका भी होता है। बच्चे तो उस पुरुष नेता के भी होते हैं।
दरअसल हमारे मन में ऐसा कोई प्रश्न पुरुषों के लिए आता ही नहीं हैं क्योंकि हमारे सामाजीकरण ने, हमारे ज़हन में इस बात को ठूंस-ठूंस कर भर दिया है कि राजनीति तो पुरुषों के लिए ही बनी है, महिलाओं के लिए नहीं।  स्त्रियों के लिए सबसे सेफ जगह तो उसका घर ही है। लेकिन क्या परिवार और बच्चे अकेले केवल महिलाओं के ही होते हैं? पुरुष की अपने परिवार और बच्चों के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती? इस तरह की अनेक बातें यही बताती हैं कि महिलाओं की प्राथमिक जिम्मेदारी अपने परिवार की सार-संभाल करना है जिससे वह कभी भी मुक्त नहीं हो सकती। फिर भले ही वह किसी बड़ी कंपनी में निदेशक हो या फिर किसी राजनीतिक पार्टी की नेता। विश्व भर में हुए अनेक रिसर्च इस तथ्य को भी उजागर करते हैं कि देश-विदेशों में महिला नेताओं की राजनीतिक उम्र, पुरुष नेताओं से कम ही होती है। इसका कारण भी स्पष्ट है महिलाओं का आमतौर पर राजनीति में प्रवेश अपने घर-परिवार की देखभाल और बच्चों के बड़े होने के बाद ही हो पाता है। वर्तमान यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को भी शादी के बाद बच्चों और परिवार की देखभाल का जिम्मा दिया गया था। संभवतः राजीव गांधी की मृत्यु न हुई होती तो सोनिया गांधी राजनीति में आती ही न। इसके विपरीत राहुल गांधी को आरंभ में ही राजनीति में बहुत ज़ल्दी एक मंच उपलब्ध करवा दिया गया जबकि राहुल की बहिन प्रियंका रॉबर्ट वाड्रा को राजनीति से अभी भी दूर ही रखा गया है क्योंकि अभी प्रियंका पर अपने परिवार की ज़िम्मेदारी अधिक है। भविष्य में प्रियंका राजनीति में नहीं आएगी, इसकी संभावना भी न के बराबर है। अवश्य ही कुछ वर्षों बाद, प्रियंका भी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होकर राजनीति के रंग में नज़र आयेंगी।
महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात की जाए तो कहना होगा कि जनसाधारण की मानसिकता अब ऐसी बन चुकी है कि वह किसी महिला नेता की राजनीतिक उपलब्धियों की तुलना में उसके निजी जीवन में ज्यादा रूचि रखते हैं। कौन सी महिला-राजनीतिज्ञ का किस के साथ प्रेम-संबंध है तथा किस महिला नेता का परिवार किन कारणों से बिखरा है..??? ऐसे तमाम मुद्दों को जानने की इच्छा हमारे समाज में बनी रहती है। जो एक स्वाभाविक जिज्ञासा भी है। मगर इसी पुंसवादी जिज्ञासा और मानसिकता को सहलाते हुए विपक्षी नेताओं द्वारा महिला राजनेताओं की छवि धूमिल की जाती है। यहां तक कि किसी सशक्त और लोकप्रिय महिला राजनीतिज्ञ को चुनावों में हराने एवं उसे नीचा दिखाने के लिए पुरुष राजनेताओं द्वारा अभद्र भाषा का प्रयोग करने के साथ-साथ उसके चरित्र पर किसी न किसी तरह लांछन लगाने की कोशिश की जाती है। इसके लिए महिला नेताओं की अश्लील फ़िल्में और सी.डी. को भी जनसामान्य के बीच किसी एजेंडे की तरह प्रस्तुत किया जाता है। ऐसी ही एक घटना कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में संपन्न हुए चुनावों में भी देखने को मिली जब समाजवादी पार्टी के एक प्रभावशाली नेता ने अपने प्रतिद्वंदी महिला राजनेता की अश्लील सी.डी. को उत्तर प्रदेश में बंटवा दिया। बताना ज़रुरी है कि चुनाव में खड़ी होने वाली यह महिला राजनेता एक प्रसिद्ध अभिनेत्री थी। यहां हम इस बात पर चर्चा नहीं करेंगे कि वह सी.डी. असली थी या नकली, मगर यह बात सच है कि वह अभिनेत्री उस जगह से बाद में चुनाव नहीं लड़ी और दुष्प्रचार करने वाला नेता चुनाव जीत गया। दरअसल, एक बार फिर उस मानसिकता की जीत हो गयी जो महिलाओं को सिर्फ सुंदरता की मूरत या सेक्स-ऑब्जेक्ट के अलावा कुछ और नहीं समझती। अगर यही बात दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति के संदर्भ में करें तो कहना होगा कि यहां भी राजनीति में महिलाओं के एक खास रंग को तरजीह दी जाती है। नुपुर शर्मा (2009), अमृता धवन (2007), रागिनी नायक (2006), नीतू वर्मा (2002), शालू मालिक (1995) इत्यादि कुछ ऐसे नाम हैं जो अपने फोटोजेनिक चेहरों की वजह से राजनीति में सफल हुए। मतलब साफ़ है कि युवा-वर्ग में भी यह बात काफी गहरे से पैठ बनाये हुए है कि महिला नेता अगर सुंदर है तो वह राजनीति में सफल हो सकती है। उसे अपना वोट दिया जा सकता है। यद्यपि यह बात हर स्तर पर सही नहीं ठहरती है लेकिन यह प्रश्न अवश्य उठते हैं कि क्या महिला वर्ग से एक विशेष रंग के चेहरों को ही राजनीति में आने का पासपोर्ट मिलता है? या फिर केवल आकर्षक चेहरा होना ही राजनीति के लिए काफी नहीं है? जिस तार्किकता और जिम्मेदाराना व्यक्तित्व की राजनीति में अनिवार्यता रहती है, क्या एक आकर्षक एवं खास रंग का चेहरा ही इनके होने के प्रमाण पर अपनी मुहर लगा देता है? यदि इन प्रश्नो के जवाब ‘नहीं’ में हैं तो फिर अभी तक एक-दो को छोड़कर भारतीय राजनीति में अधिकतर महिला चेहरे उसी खास रंग में क्यों दिखाई देते हैं ?
भारत के राजनीतिक परिदृश्य का अगर गहनता से अध्ययन किया जाए तो यह तथ्य सबके सम्मुख आता है कि भारतीय राजनीति में अधिकतर उन महिलाओं का प्रतिनिधित्व रहा है जिनका पैतृक एवं पारिवारिक संबंध पहले से ही राजनीतिक पृष्ठभूमि से रहा है या जो बहुत ही कुलीन-संपन्न परिवारों से संबधित हैं। जिनके परिवारों में कभी भी किसी चीज़ का अभाव नहीं रहा है, जिसकी चर्चा हमने इस आलेख के प्रारंभ में भी की थी। इस श्रेणी में हमारे आज़ाद भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का नाम सबसे पहले आता है जो हमारे आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की बेटी थी। इसीप्रकार वर्तमान लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार भी पूर्व उप-प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम की सुपुत्री हैं। राजस्थान की नवनियुक्त मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया का भी बहुत प्रभावशाली इतिहास रहा है। दरअसल, यह मध्य भारत के सिंधिया राजघराने की बेटी हैं जो काफी अरसे से भारत में अपनी सक्रिय भूमिका निभाता आ रहा है। अगर बात तमिलनाडु की वर्तमान मुख्यमंत्री जयललिता की हो तो यह सर्वविदित है कि वे तमिल, तेलुगु और कन्नड़ फिल्मों की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री रहीं हैं, जिन्होंने लगभग 140 फिल्मों में अभिनय किया है। अपने फ़िल्मी करियर के ढलान के समय इन्होंने राजनीति में प्रवेश किया जिसमें ये सफल भी रहीं। यहां तक कि विश्व की पहली महिला प्रधानमंत्री सिरिमावो बंदारानायिके (श्रीलंका) भी श्रीलंकन प्रधानमंत्री सोलोमन दास बंदारानायिके (1956) की ही पत्नी थी। उल्लेखनीय है कि इस प्रकार की पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं की परवरिश एक स्वस्थ और अच्छे माहौल में हुई होती है जिस कारण से जीवन की वास्तविकताओं से इनकी दूरी बनी रहती है। यहां तक कि महिलाओं की वास्तविक स्थितियों से भी या तो यह अपरिचित रहती हैं या उन्हें गंभीरता से नहीं लेतीं। इसका कारण भी स्पष्ट है ऐसी महिलाएं राजनीति में अच्छा रुतबा, ऊंची शोहरत, मान-सम्मान और प्रतिष्ठा के लिए आती हैं। परिणामस्वरूप ऐसी महिलाएं भविष्य में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में विस्तार के लिए कोई विशेष सकारात्मक पहल नहीं कर पातीं और इनके साथ ही महिलाओं की राजनीति में भागीदारी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। जबकि होना चाहिए कि ये महिलाएं ऐसी प्रभावशाली नीतियों का निर्माण कर उसे लागू करें जिससे साधारण परिवार की महिलाएं भी राजनीति को समझे-बूझे और उसमें अपने प्रतिनिधित्व और भागीदारी के महत्व को जान सकें।
राजनीति और सत्ता में सक्रिय महिलाओं के इस वर्ग के अलावा, महिलाओं का एक ऐसा वर्ग भी राजनीति में सक्रिय है जिसका पारिवारिक इतिहास गैर-राजनीतिक और बहुत ही औसतन रहा है। लेकिन इतना होने पर भी इन महिलाओं ने राजनीति में अपनी एक अलग पहचान बनाई। अपना एक नया मुकाम हासिल किया है। ऐसी ही एक महिला है मायावती। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी सुश्री मायावती दलित राजनीतिक चेतना के उन्नायक और बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक श्री कांशीराम की बहुत करीबी सहयोगी रही हैं। ऐसा कहा जाता है कि जब पहली बार कांशीराम जी ने मायावती को देखा (जब मायावती जी आई.ए.एस. की तैयारी कर रही थी) तो उन्होंने बोला था कि मैं आपकी जिंदगी बदल सकता हूं और जिस आई.ए.एस. बनने की तुम सोच रही हो उनकी लाइन तुम्हारे पीछे लगी होगी। इसके बात कांशीराम ने मायावती को अपनी टीम में शामिल कर लिया और उसके बाद मायावती ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मायावती के अलावा इस श्रेणी में अन्य नाम हैं- प्रतिभा पाटिल, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज, किरण बेदी, इत्यादि का लिया जाना चाहिए जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में भारतीय महिलाओं का सक्रिय प्रतिनिधित्व किया है। यहां इतना ज़रूर कहना होगा कि भले ही कुछ महिलाओं को राजनीति में आने के लिए उनकी पृष्ठभूमि सहायक रही हो लेकिन उन्होंने अपनी काबिलियत खुद सिद्ध की है। इतने बड़े लोकतंत्र की प्रधानमंत्री के पद पर रहकर श्रीमती इंदरा गांधी ने पूरे विश्व को यह सन्देश दिया था कि अगर महिलाओं पर भरोसा करते हुए उन्हें कुछ करने का मौका दिया जाए, तो अवश्य ही महिलाऐं वे सब कार्य भी बहुत कुशलपूर्वक कर सकती हैं जो पहले तक पुरुषों के लिए आरक्षित माने जाते थे। राजनीति के खेल को स्त्रियां भी बहुत अच्छे से खेल सकती हैं। इसीप्रकार उत्तर प्रदेश जैसे बहुसंख्यक राज्य की मुख्यमंत्री बनकर मायावती ने यह सिद्ध किया कि स्त्री चाहे किसी भी समुदाय की हो, बस उसे एक मौका मिलना चाहिए।
भारत में संविधान के 73वें संशोधन, वर्ष 1992 में यह प्रावधान किया गया था कि महिलाओं को भारतीय राजनीति में कुल सीटों का 33 प्रतिशत का आरक्षण मिलेगा। मगर आज भी स्थिति यह है कि महिला आरक्षण का बिल अधर में ही लटका हुआ है। अनेक विद्वत् जन महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व करने से संबधित इस आरक्षण बिल को महिलाओं के लिए किसी संजीवनी बूटी से कम करके नहीं आंकते हैं। जबकि एक विशेष वर्ग और खास मानसिकता के लोगों द्वारा इसका विरोध कर, इसे पारित होने नहीं दिया जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ भारत सरकार ने वर्ष 2009 में गांव के पंचायती चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या को 50 प्रतिशत कर दिया है। परिणामस्वरूप यह देखने को मिला है कि ग्राम पंचायतों के चुनावों में महिलाओं की भागीदारी का प्रतिशत लगातार बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। मगर साथ ही एक नकारात्मक प्रभाव यह भी देखने में आया है कि जो सम्मान और प्रतिष्ठा राजनीति में पुरुषों को मिलती है, वह इन महिला नेताओं को नहीं मिलती। इसप्रकार की मानसिकता ने इन पंचायतों में महिला जनप्रतिनिधियों को एक रबड़-स्टैम्प में बदल कर रख दिया है जिसमें जीतती तो एक महिला है मगर अधिकार मिलता है उस पुरुष को जिस पर वह महिला निर्भर होती है। फिर वह उसका पति, भाई, बेटा या पिता कोई भी हो सकता है। सम्मान का हकदार भी वह पुरुष ही है जिससे उस जीतने वाली महिला का गहरा लगाव होता है। विजयी महिला नेता को सिर्फ रबड़ स्टैम्प की तरह ‘यूज़’ किया जाता है और अगर किसी महिला नेता द्वारा इससे इतर कुछ करने की कोशिश की जाती है तो उसे उसके परिवार द्वारा ही डरा-धमका दिया जाता है। परिवार और बच्चों का वास्ता देकर उसे घर के कार्यों में ही जकड़ दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में अब यह 33 प्रतिशत का आरक्षण वाला बिल महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में क्या विशेष परिवर्तन करेगा यह तो भविष्य ही बतायेगा जब यह पारित होकर सर्व सुलभ बनेगा। लेकिन इतना तो अवश्य कहना होगा कि इससे राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी निश्चित रूप से बढ़ेगी।
उल्लेखनीय है कि भारतीय समाज के साथ-साथ पूरे विश्व में महिलाओं के लिए सबसे अच्छे व्यवसाय शिक्षिका, चिकित्सक, परिचारिका के ही माने जाते रहे हैं। स्त्रियों के लिए राजनीति को तो अधिकतर लोगों ने एकमत से वर्जित-क्षेत्र माना है। इसके पीछे धारणा यह रही है कि इन व्यावसायों में रहकर भी महिलाएं अपने परिवार की ज़िम्मेदारी सरलता से उठा सकती हैं। अर्थ स्पष्ट है कि स्त्री चाहे पढ़ी-लिखी हो या नहीं, कामकाजी हो या हाऊस-वाइफ, परिवार और बच्चों का ज़िम्मा उसी के कंधों पर है और रहेगा। राजनीति और सत्ता का संबंध तो सीधे तौर पर पुरुषों से ही रहा है। इसी कारण महिलाओं को राजनीति से दूर रखा जाता रहा है। इससे ज्यादा और क्या कहे कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा ठोकने वाले भारत में ही किसी महिला राष्ट्रपति की नियुक्ति स्वतंत्रता-प्राप्ति के लगभग 60 सालों के बाद हो पायी। यद्यपि महिला प्रधानमंत्री के रूप में भारत में यह स्थान श्रीमती इंदरा गांधी ने आज़ादी के लगभग 33 वर्षों बाद ही प्राप्त कर लिया था। हमने अभी पीछे बताया है कि विश्व की प्रथम महिला प्रधानमंत्री होने का गौरव भी एशिया के छोटे से देश श्रीलंका को जाता है जहां श्रीमती सिरीमावो बन्दारानायिके (1960) ने तीन बार श्रीलंका के प्रधानमंत्री का पद संभाला। इस दृष्टि से श्रीमती इंदिरा गांधी को विश्व की दूसरी महिला प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त है। इसके अतिरिक्त विश्व-स्तर पर मारग्रेट थेचर (यूके), किम कैम्पबेल (कनाडा), जूलिया गिलार्ड (ऑस्ट्रेलिया), बेनज़ीर भुट्टो (पाकिस्तान), शेख हसीना (बांग्लादेश), कमला प्रसाद बिसेसर (ट्रिनिडाड और टोबागो)  इत्यादि अनेक ऐसे नाम हैं जिन्होंने विश्व भर में अपने राष्ट्र का नेतृत्व करके न केवल अपने देश बल्कि सम्पूर्ण महिला-वर्ग के गौरव का प्रचार-प्रसार किया है। कहना होगा कि वर्ष 2005 में वैश्विक स्तर पर महिलाओं की राजनीति में भागीदारी का प्रतिशत 16 प्रतिशत था जिसमें आज काफी सुधार होते हुए, विस्तार हुआ है। लेकिन इस दृष्टि से भारत की स्थिति में अब भी गिरावट ही देखने को मिली है। ‘वर्ष 2011 में, स्त्रियों की राजनीति में भागीदारी के दृष्टिकोण से भारत का स्थान चीन और बांग्लादेश से बाद 98वां है। चीन जहां 21.3 प्रतिशत की राजनीति में महिला-भागीदारी को लेकर 55वें स्थान पर है तो वहीं बांग्लादेश 18.6 प्रतिशत की महिला-भागीदारी होने की वजह से 65वें स्थान पर है। इस सूची में प्रथम स्थान पर रवांडा देश है जिसमें राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 56 प्रतिशत है। स्वीडन और साऊथ अफ्रीका क्रमशः 45 और 44.5 के साथ दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।’[1] अगर बात वर्ष 2012 की, की जाए तो कहना होगा कि भारत महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की दृष्टि से इस वर्ष और भी अधिक पिछड़ गया। 2011 में भारत इस दृष्टि से जहां चीन और बांग्लादेश से पिछड़ते हुए 98वे स्थान पर था, वहीँ अब 2012 में भारत चीन, बांग्लादेश के साथ नेपाल और पाकिस्तान से भी फिसड्डी साबित हो रहा है। इस वर्ष भारत का स्थान और पीछे खिसकते हुए 105वा हो गया, जो पाकिस्तान (53वे), चीन (60वे), बांग्लादेश (65वे) और नेपाल (85वे) से बहुत पीछे है। पडोसी देशों में इस दृष्टि से केवल श्रीलंका (129) और म्यामांर (134) ही भारत से पीछे है। रवांडा इस सूची में भी एक बार फिर से प्रथम स्थान पर है।[2] हम भारत की लोकसभा और राज्यसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेख के अंत में प्रस्तुत तालिका से समझ सकते हैं।
इस तालिका से हमें भारतीय महिलाओं का राजनीति में जो प्रतिनिधित्व बढ़ता और घटता रहा है उसे बहुत ही स्पष्ट रूप में प्रस्तुत कर रही है। चूंकि यह तालिका वर्तमान महिला प्रतिनिधित्व को नहीं दरशाती अत: यहां अलग से बताना जरूरी है कि ‘आज भारत की लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 11 प्रतिशत और राज्यसभा में 10.7 ही रह गया है।’[3] भले ही यह प्रतिनिधित्व पिछले वर्षों की तुलना में ज्यादा है लेकिन यह अभी स्त्रियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बहुत ही छोटे अंश का ही व्यंजक है। इस भागीदारी में अभी बहुत सुधार होने की ज़रूरत है। साथ ही यहां इस बात का भी उल्लेख करना ज़रुरी है कि जो और जितना भी प्रतिनिधित्व महिलाओं का राजनीति में हुआ है, उनमें भी महिलाओं को अधिक ज़िम्मेदारी वाले पदों से दूर ही रखा गया है। महिलाओं की भागीदारी शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य मंत्रालयों तक ही अधिकतर सीमित रहती है। वित्त और रक्षा विभाग में एकाध पद ही महिलाओं को मिल पाता है। ऐसे मंत्रालय अधिकतर पुरुषों को ही सौंपे जाते है। संभवतः हमारे नीति-निर्धारकों की नज़रों में इन मंत्रालयों में स्त्रियों की कोई भूमिका निकलती ही नहीं होगी। जबकि इसके विपरीत हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान द्वारा हिना रब्बानी खार को (2011) पाकिस्तानी रक्षा मंत्रालय सौंपा गया था। नेपाल ने भी अपनी महिला राजनीतिज्ञ विद्या देवी भंडारी को (2009-11) रक्षा मंत्रालय का प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया। ध्यातव्य रहे कि विश्व में सबसे पहले रक्षा मंत्रालय चिली देश ने एक महिला को सौंपा था जिनका था -विविआनी ब्लान्लो सोज़ा।
                   स्त्रियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की वर्तमान स्थिति का अध्ययन करने के लिए हम यहां पर अभी नवंबर-दिसबंर माह में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों का भी अध्ययन कर सकते हैं। यह बात तो अब किसी से छुपी नहीं है कि इस समय दिल्ली के साथ साथ राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तिसगढ़ में भाजपा एक बड़ी पार्टी के रूप में सबके सामने आई है। लेकिन प्रश्न यहां यही है कि क्या महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को लेकर भी कोई पार्टी बड़ी पार्टी बनी हैं? अगर दिल्ली की ही बात करें तो बताना होगा कि पिछली और इस बार के विधानसभा चुनावों की कुल 70 सीटों पर केवल 3 स्त्रियों को ही जीत मिली है। जबकि महिला चुनाव-प्रत्याशियों की संख्या 2013 में कुल 67 रही थी जो दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में 10 अधिक थी। यह सिर्फ 9 प्रतिशत के आसपास है जबकि हमारे यहां बातें हो रही है 33 प्रतिशत महिला आरक्षण की। उल्लेखनीय है कि इस बार जीतने वाली तीनों महिला प्रत्याशी (बंदना कुमारी, वीणा आनंद और राखी बिरला) एक सामान्य सी दिखने वाली पार्टी आप से हैं, किसी बड़ी पार्टी से नहीं। जबकि पिछले विधानसभा में पूर्ण बहुमत पाने वाली कांग्रेस पार्टी की ही महिला प्रत्याशियों (शीला दीक्षित, किरण वालिया और बरखा सिंह) ने जीत हासिल की थी। इस दृष्टि से तो इस बार के दिल्ली विधानसभा के चुनाव कुछ सकारात्मक बिंदुओं को अपने भीतर लिए हुए है किंतु अभी भी महिला-प्रत्याशियों के प्रतिनिधित्व का जो प्रतिशत पिछले वर्ष की तरह बना हुआ है उसमें बहुत ज्यादा सुधार लाने की गुंजाइश है। इसीतरह राजस्थान में भी कुल 166 महिला प्रत्याशियों में से 25 स्त्रियां ही चुनाव में सफलता हासिल कर सकी हैं जो पिछली बार की तुलना में 4 कम है।
संयुक्त राष्ट्र (UN) ने भी जेंडर की समानता और महिला-सशक्तिकरण के लिए विश्व स्तर पर दक्षिण एशिया को केन्द्र में रख कर एक खास कार्यक्रम चलाया- Promoting Women’s Political Leadership and Governance in South Asia’। संयुक्त राष्ट्र ने यह कार्यक्रम विशेष रूप से पांच देशों - भारत, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान को ध्यान में रख कर चलाया ताकि इन देशों में उन महिलाओं को एक सही मार्ग दिखाया जा सके जो राजनीति में आगे आने की इच्छुक हैं। साथ ही उन सभी महिला राजनीतिज्ञों का भी सशक्तिकरण एवं कुशल निर्देशन किया जा सके जो वर्तमान में किसी न किसी राज्य और केंद्रीय मंत्रालयों से जुडी हुई हैं। फिर भले ही वह महिला राजनीतिज्ञ क्षेत्रीय स्तर की नेता हो या फिर राष्ट्रीय स्तर पर उसकी भागीदारी हो। दरअसल इस कार्यक्रम का लक्ष्य महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रोत्साहित करना ही था जिसके मुख्य रूप से तीन उद्देश्य थे –
1.भारत एवं दक्षिण एशिया में वर्ष 2015 तक महिलाओं के लिए एक मज़बूत और सशक्त कानूनी ढांचे की स्थापना करते हुए ऐसी विभिन्न प्रकार की प्रभावशाली नीतियों का निर्माण करना जिससे कि राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाया जा सके।
2.इन पांचों देशों में वर्ष 2015 तक सभी स्थानीय विधानसभाओं में चयनित महिला एवं पुरुष राजनीतिज्ञों को उन सभी आवश्यकताओं तथा जानकारियों से परिचित करवाना जिससे इन दोनों ही जेंडरों के लोग महिलाओं से संबधित विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का संचालन करते हुए अन्य ज़रुरी संसाधनों को उपलब्ध करवा सके जिससे स्त्रियां राजनीति में आने के लिए खुद से प्रयत्न करे।
3.दक्षिण एशिया के साथ भारत में भी वर्ष 2015 तक मूलभूत संरचनाओं के साथ-साथ मीडिया जैसी संस्थानों को इतना मज़बूत करना होगा कि ये सब मिलकर मुख्यधारा की राजनीति में महिलाओं के आने के विभिन्न मार्गों को प्रशस्त करेंगे।[4] 
संयुक्त राष्ट्र का यह कार्यक्रम अब दक्षिण एशिया में क्या-क्या परिवर्तन करेगा यह तो भविष्य में ही पता चल सकेगा मगर इतना तो ज़रूर कहना होगा कि अब केवल विभिन्न राष्ट्रों की सरकारों द्वारा ही स्त्रियों की राजनीति में भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रयास नहीं हो रहे है वरन् अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थानों द्वारा भी इस क्षेत्र में लगातार प्रयास किया जा रहा है। स्पेन ने भी इस और एक कदम बढ़ाते हुए वर्ष 2007 में समानता का कानून –Principle Of  Balance Presence अपने यहां लागू कर दिया है। इस कानून ने यह प्रावधान किया है कि स्पेन में अब सभी राजनीतिक पार्टियां महिला एवं पुरुषों का 40 : 60 का अनुपात रखेंगी। यह समानता का लोकतंत्र (Parity Democracy) का ही लागू होना है।
यही कहना होगा कि जो सत्ता-संघर्ष का खेल अभी तक पुरुषों द्वारा अकेले ही खेला जा रहा था और जिसमे स्त्रियों को जाने-अनजाने अनदेखा भी किया जा रहा था – अब वह धीरे-धीरे अपने अंत की तरफ बढना शुरू हो गया है। भले ही यह कार्य अभी बहुत छोटे स्तर पर सक्रिय है लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि भविष्य में इसके विस्तार को कोई रोकने वाला नहीं होगा। लेखक का यह मानना है कि जब संसद-विधानसभा में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाने वाला बिल पास हो जाएगा तो फिर इन स्त्रियों को सत्ता के इस खेल से दूर नहीं रखा जा सकेगा। यद्यपि अप्रत्यक्ष रूप से तो स्त्रियां अभी भी इस खेल का हिस्सा हैं लेकिन भविष्य में वह एक निर्णायक स्थिति में रहकर इस खेल की सक्रिय खिलाड़ी बनेंगी। वह दिन स्त्रियों के लिए एक नया मोड़ लेकर आयेगा जो स्त्रियों के विकास से संबंधित अनेक नए रास्तों की खोज करेगा। स्त्रियों के प्रति नकारात्मक मानसिकता को तोड़ कर एक नए सकारात्मक दृष्टिकोण का निर्माण करेगा। एक बार फिर यह कहना होगा कि राजनीति में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत भागीदारी वाला यह बिल किसी संजीवनी-बूटी से कम नहीं है। और रही बात घर की राजनीति की, तो उसके लिए इतना कहना ज़रुरी है कि स्त्रियों के लिए असली अग्निपरीक्षा तो घर के भीतर से ही शुरू हो जाती है। जब आज स्त्रियां उस अग्निपरीक्षा को भी पार करके आगे बढ़ रहीं है तो यह महिला-सशक्तिकरण के लिए एक नयी पहल साबित होगा। हमें पता है कि अभी-अभी इन महिलाओं ने राजनीति में कदम रखा है, अभी इन्हें बहुत कुछ सीखना बाकी है और रास्ता भी अभी मीलों लंबा है लेकिन यह क्या छोटी उपलब्धि है कि स्त्रियों ने अपना कदम बढ़ा दिये हैं। घर की राजनीति में रच-पक कर, उसका अतिक्रमण करके अब देश की राजनीति में ये अपना योगदान देने के लिए तैयार हैं। हमें इनके साथ खड़ा होकर, इनकी हौसलाअफजाई करने की ज़रूरत है बजाय इनके आत्मविश्वास और साहस को रौंदने के। वह दिन दूर नहीं है जब स्त्रियों की गिनती देश के महत्वपूर्ण नीति-निर्धारकों में होने लगेगी।
संपर्क - दीपक शर्मा , शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दूरभाष – 09811424200,  ईमेल-s.deepaksharmaji@gmail.com, dr.deepaksharmadu@gmail.com  















                     लोकसभा                            राज्यसभा                                

वर्ष
कुल सदस्य संख्या
स्त्री प्रतिनिधित्व
प्रतिशत
कुल सदस्य संख्या
स्त्री प्रतिनिधित्व
प्रतिशत
1952-57
499
22
4.4
219
16
7.3
1957-62
500
27
5.4
237
18
7.6
1962-67
503
34
6.7
238
18
7.6
1967-71
523

31
5.9
240
20
8.3
1971-76
521
22
4.2
243
17
7.0
1977-80
544
19
3.4
244
25
10.2
1980-84
544
28
5.1
244
24
9.8
1985-90
544
44
8.1
245
28
11.4
1990-91
529
28
5.3
245
24
9.7
1991-96
509
36
7.1
245
38
15.5
1996-97
537
34
6.3
245
20
8.2
1997-98
545
40
7.3
245
19
7.8
1998-99
545
44
8.1
245
19
7.8
1999- अद्यावधि
545
48
8.8
245
20
8.2
(Source- Basline Report on Women and Political Participation in India – By NIAS & IWRAW,P 15)










[1] The Hindu- Date : 08/03/2011, p.03
[2] The Indian Express(New Delhi Edition) - Date : 08/03/2012 (www.indianexpress.com/news/_women_in_politics_India)
[3] The Indian Express(New Delhi Edition) - Date : 08/03/2012 (www.indianexpress.com/news/_women_in_politics_India)

[4] Opportunities and Challenges Of Women’s Political Participation in India (ICRW.org/files/publication/India)

मूक आवाज़ हिंदी जर्नल
अंक-5                                                                                                                 ISSN   2320 – 835X                                                   
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/

 

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