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प्रो.
प्रमीला के.पी.
यौनता की
भी अपना स्वनिर्णीत जैविक परिधियां होती हैं, होनी चाहिए। वह किसी धर्म या समाज के
निर्दिष्ट नियमों के अधीन नहीं हैं। वासना से लैस आंखों से स्त्री देह को देखने वाली
पुंसदुनिया को लेखिकाएं यह बताना चाहती हैं कि उनमें भी यौनता है, देह संवेदना है, जो जैविक प्रवृत्ती
है। यह बयान करती लेखिका को कोई बदचलन बताता है तो उससे उसका कोई लेना-देना नहीं
है। क्योंकि जो व्यक्ति इस विषय में गत्यात्मक नहीं है, उस पर सकारात्मक
सोचता तक नहीं है, तो उसकी किसी राय या शब्द से पेरेशान होने का कोई अर्थ नहीं
है। दांपत्य के बाहर जाने की नियति हो या कुलमहिमा से भागने की कोशिश, स्त्रियों की
यौन-यात्रा संस्थागत गुलामी से बाहर होने की नीयत रखती है। इस अर्थ में उसमें खुद
की देहमहिमा को सुरक्षित रखने की नीयत भी शामिल है। इसलिए कहानियों व उपन्यासों
में हो या कला या फिल्मों में परिवार के भीतर होनेवाले बलात्कार, माने मैरिटल रेप
(वैवाहिक बलात्कार) का वे वितृष्णापूर्वक बखान करती हैं, जिसके अतिरेकों व
आक्रमणों पर धर्म, समाज व सत्ता हमेशा मौन है।
पितृसत्ता
और पुंसवाद की समस्त कारगुजारियां देखने से यह समझना आसान है कि उनमें सबसे अधिक
निजी एवं रहस्यमय स्वभाव रखनेवाला संस्थागत स्वरूप यौनता का है। दूसरे विषयों के
समान इस पर सार्वजनिक बयान, वार्ता, चर्चा या संवाद नहीं होता। दूसरी छोर से देखा जाता है तो
यह एक ऐसी सनातन और सार्वजनिक बात है जिसके बिना प्राणिवर्ग का सांसारिक जीवन संभव
नहीं होता। यौनता जीववर्ग का नैसर्गिक या जैविक गुण है। यह पुनरूद्पादन की बुनियाद
भी है। जानवरों में यह सिर्फ स्वाभाविक देहमिलन होता है, पर विवेकी सामाजिक
जीव (मनुष्य) में यह उससे ज्यादा बहुत कुछ होता है। दो व्यक्तियों का समागम दैहिक मिलन के
अलावा उनके व्यक्तित्व, पारस्पर्य, सामाजिक-पारिवारिक रिश्ता, आपसी भरोसा, तदाकारिता, सदाचार आदि अनेकों
वैयक्तिक और सामाजिक तत्वों की पहचान भी करा देता
है। जेन रूट के मतानुसार किसी की यौनचेष्टा में इस तरह के कई सामाजिक व
सांस्कृतिक अर्थ समाहित हैं।[1]
अति-यौनेच्छा,
यौनेच्छा का अभाव, यौनापभ्रंश, यौन-उच्छृंखलता आदि सबको सामान्यता यौनता की
परिधि में लिया जाता है। यौनोन्मुखता या विमुखता के नाम पर समाजों में किसी व्यक्ति को हाशिए पर
डालने की रीतियां भी सख्त व्यवहृत होती हैं। अतः यौनता को लेकर कई बने-बनाये नियम
हर समाज में व्यवहृत हैं, जो इसको परिभाषित एवं सुनिश्चित रखने में सहायक हैं। इनका
कोई सार्वजनिक या सार्वकालिक स्वरूप नहीं है पर स्वीकृत-व्यवहृत नियमों और रीति-रिवाजों
में बड़ा परिवर्तन जल्दी आता भी नहीं है। हर समुदाय या कबील के अपने नैतिक मापदंड
होते हैं, जिनके
अनुसार उसके सदस्यों को अपनी यौनवृत्तियां संभालनी होती हैं। रूचिकर यह है कि
विविध समुदायों के इस तरह स्वीकृत यौनिक-मापदंडों में अंतर है। माने संस्थागत रूप
में यौनता विषयक संबंध विधानों और अनुशासनों के व्यवहारों में विविध समुदायों में
एकरूपता नहीं है। सबके बावजूद लोग, विविधढंगी यौनता या एक दूसरे से भिन्न यौनरूचियां दिखाते
हैं। फिर भी सामान्य रूप से यह बताना आसान है कि संसार भर में व्यवहृत पितृसत्ता
में यौनता पुंसवर्ग
की रूचियों और प्राथमिकताओं के अनुसार ही प्रवृत्त रहती है।
प्राणिवर्ग
की जैविक वृत्ति या मनुष्य के संवेदी अनुभव के रूप में यौनता का इतिहास मनुष्य के
इतिहास के बराबर है। लेकिन लैंगिकता या यौनिकता के शब्दों में उस अनुभव का आधुनिक
प्रकाशन उन्नीसवीं शती के अंतिम दशकों में ही होने लगा था।[2] यद्यपि
श्रृंगारी साहित्य में यौनता प्रमुख विषय है, सबसे पुराने
साहित्यकार कालिदास से लेकर इस विषयक प्रतिपादन की भाषिक कडियां मिलती हैं, तथापि उन सबमें
पुंसदृष्टिपूर्ण यौनता प्रकाशित हुई। एक दृष्टि से भारतीय परंपरा और इतिहास के
विविध कला-सांस्कृतिक समयों में इस विषय का आविष्कारमूलक प्रतिपादन कोई बुरी बात
नहीं थी। धीरे-धीरे आधुनिक पितृदायकता के अनुरूप यौनता, पुंसकेंद्रित होती गई। फूको की मान्यता है कि विक्टोरियन समय से लेकर
यौनता संबंधी धारणाएं रूढ़, गूढ़ एवं नियन्त्रित हो गईं।[3] इस समय
से लेकर यौनता को नैतिक नियमों के बल पर परिवार के भीतर सीमित रखा जाने लगा।
परिवार के भीतर सीमित रखी गई यौनता पर सख्त पाबंदियां थोपी गईं और उसकी परिभाषा
संतानोद्पादन तक सीमित कर दी गई।[4] परिवार
के भीतर और बाहर इस विषय पर चर्चा नहीं होती है। परिवार का स्वामी पुरूष है, इसलिए स्त्रियों पर
थोपी गई यौन-पाबंदियां पुंसानुरूप निर्णीत होती गईं। इसी समय में श्रृंगारी
साहित्य का चेहरा बदलने लगा, लोग उसे अश्लील मानने-समझने लगे।[5] राष्ट्र्ररूपायन, नवजागरण तथा
औपनिवेशिक शिक्षा के नैतिक मापदंडों के आधार पर स्त्रियां यौनता की ही नहीं, दैहिक वृत्तियों पर
भी सार्वजनिक बात करना छोड़ देती हैं। यहां से स्त्री देह ढकने और यौनता को छुपाने को
लेकर सदाचार की रीतियां बताई जाने लगी।
पर
पिछली सदी के साठ के दशक से लेकर इस पुंसदृष्टिपूर्ण यौनदृष्टि की लोकतंत्रीय
दृष्टि से टक्कर होने लगी और स्त्रीपक्षीय यौनदृष्टि पर सामाज और सांस्कृति ध्यान आकर्षित होने लगा। आरंभिक समय
से ही स्त्रीयौनता समाज एवं संसार को अचंभित करती रही क्योंकि तब तक उसपर कोई ऐसी अलग या विशिष्ट
स्त्रीपक्षीय दृष्टि मूर्त नहीं थी। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का बोलना ही
मना था। यौनता वर्जित विषय था। अर्थात् यौनता पर स्त्री का बोलना ही पुंसदायक समाज
एवं सत्ता के लिए असुविधाजनक था।
परंपरागत
समाजों में यौनाधिकार के क्षेत्र में पुरूष को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त रही है।
स्वाभाविक रूप में इसप्रकार के समाजों में स्त्रियों की यौनता दबाई जाती है, दैहिक कामनाओं पर
स्त्री का बोलना या उसे स्पष्ट सूचित करना अतिरेक माना जाता है। सामान्यतया स्त्री
के इस दुस्साहस पर असभ्य चर्चा होती है जो स्त्री के प्रति घोर सामाजिक अन्याय की
सूचक ही रही है। छोटी बच्चियों और लड़कियों द्वारा अपने यौनावयवों पर प्रकट की
जानेवाली शंकाओं पर या तो उपेक्षा की जाती है, नहीं तो उन्हें टालने का कोई ’सभ्य’ कारण ढूंढा और
बताया जाता है। अपनी इच्छा या परिभाषा के अनुसार पुरूष समाज ने उसे वंचित कर रखा
है। स्त्रीयौनता को खतरनाक घोषित करने का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रयास विविध धर्म
एवं इतिहासग्रंथों में दर्शनीय है। उसे पुरूषों को अशक्त बनाने वाला और मोक्ष से
वंचित रखनेवाला पाप बताया जाता था।[6] इतिहास
में स्त्री के लिंग-अवयवों तथा तत्संबंधी देह-संवेदनाओं को खतरनाक, अशुद्ध, अश्लील और उपहास का
विषय बनाये रखा गया है।
चिंतनीय
बात यह है कि विज्ञान एवं युक्तिपूर्ण चिंतन-मनन के आधुनिक युग में भी स्त्री
यौनता संबंधी हेय विचारों में बड़ा सुधार नहीं आया। इतिहास एवं धर्म के ग्रंथों व
निष्कर्षों के समान आधुनिक चिकित्साशास्त्र तक की किताबों ने भी कई बातों में
स्त्रीदेह की उपेक्षा की। कई समुदायों में आज भी वयसंधि, आर्तव, विवाह, प्रजनन, मातृत्व आदि संबंधी
रीतिरिवाज युक्तिहीन, निराधार एवं
स्त्रीविरोधी ही बने हुए हैं। सबसे बड़ी उलझन यह है कि स्त्रियों के देहानुभव
संबंधी विषय प्रतिपादन भी पुरूष करते रहे हैं और इन पुंसविवरणों में कई ऐसी
धारणाएं रूढ़ होती गई हैं जो कतई स्त्रीसम्मत नहीं हैं। यहां तक मानसिक अनुकूलन में
पड़ी स्त्रियों ने भी उन्हीं का अनुकरण एवं अनुसरण किया। फलस्वरूप स्त्री-यौनता गलत
बात बन गई, उसका
उद्घाटन गलत काम बन गया। यौनता का अर्थ ही हवस या वासना सूचित होता गया।
पुसंस्थापनाओं से नियन्त्रित परिवार के संस्थागत स्वरूप के भीतर प्रवृत्त यौनता ही
स्त्रीयौनता समझ ली जाती है। साहित्य और संस्कृति के रंगों में रंग मिलानेवाली
कलाओं में प्रकाशित स्त्रीयौनता इसीप्रकार तय होती रही है। खुद स्त्रियां उसे ढकती
हैं, छुपाती
हैं, जहां तक
संभव होता है,
अप्रत्यक्ष बयान करती हैं। वेन्डी फॉकनेर के मतानुसार परंपरागत समाजों में
स्त्रियां मेधावी विचारधारा से नियन्त्रित एवं अनुकूलित होकर ही खुद की यौनता को
देखती हैं। ऐसी बातें सिर्फ फिल्म या विज्ञापन जगत तक सीमित नहीं हैं, ये जीवन, साहित्य एवं
संस्कृति के हर पक्ष में प्रचलित पुंसवादी रवैए हैं। साहित्यिक परंपरा हो या
चिकित्साशास्त्रीय किताबें, सबमें स्त्री देह और उसकी संवेदनाओं का पुंस-विश्लेषण
मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से स्त्रीसंवदेनाओं का एकोन्मुखी प्रतिपादन और मेधावी
प्रतिस्थापन इनसे संभव हुआ। अर्थात् स्त्रियों की नज़र में स्त्रीसंवेदना, विशेषकर यौनता का प्रतिपादन इतिहास और
परंपरा में नगण्य रहा। पुंसदृष्टिकोण से युक्त संस्थागत यौनता के रूप में
स्त्रियों के देहकार्यों को देखने की रीतियां प्रचलित हुईं। नतीजतन वैज्ञानिक रूप
में बेमतलब व अयुक्तिपूर्ण बताए जाने पर भी, स्त्रीयौनता सीमित
है, संतुलित
है। मसलन् पुंसयौनता को अति-उत्साही बताया जाता है। तदनुसार परंपरा एवं सामाजिक
सख्तियां स्त्रियों को आदेश देती हैं कि उन्हें पुंसयौनता की वन्यता के आगे सहिष्णु
रहना चाहिए। अपनी आग्रहपूर्ति में उसे कभी कुछ नहीं करना चाहिए, निर्णय या चयन की
बात तक नहीं करनी चाहिए। यहां तक प्रजनन का भय थोपकर सार्वजनिक जगहों पर
स्वतन्त्र आवाजाही की बुनियादी स्वतन्त्रता से उन्हें वंचित रखा जाता है और
नागरिका के रूप में, उसे जीवनभर को दोहरे स्थान पर धकेला जाता है।
दुर्भाग्यपूर्ण समस्या यह है कि स्त्रीदेह
संबंधी ज्ञान और परिभाषाएं, पुंसनिर्मित एवं व्याख्यायित हैं। वात्सायन का ’कामसूत्र’ इसका मूलग्रंथ है।
फिर इसकी श्रेणीगत ऐतिहासिक कड़ियां अनन्तिम लिखी जा रही हैं। आधुनिक अणुकुटुंब
व्यवस्था के कायम होने पर यौनता संबंधी नियम फिर वर्चस्वपूर्ण नैतिक सख्तियों में
बिंध गए। पुरूष संसार को अपने खून का सही वारिस दिलाने के लिए स्त्रीयौनता को एक
पुरूष यानी पति की अधीनता में कैद करना अनिवार्य था। इस पद्धति के अनुसार स्त्री को अपने
पतिमात्र से देहमिलन रखना चाहिए। यही उसकी नैतिक शर्त है। भर्ता की प्रीति व उसकी
संतानों के उत्पादन से उसे खुश होना-रहना चाहिए। इस नैतिक विश्वास के अमल में आते
ही स्त्रियां अपनी देह पर फैसला लेने के अधिकार से वंचित रह गईं और वे अपनी ही देह
से अन्य एवं पृथक कर दी गई, उनकी देह किसी और के निर्णयों के अनुसार उपकृत व उपयुक्त
करनेवाली चीज बन गई। विपर्यय यह है कि यह नियम कभी पुरूष पर लागू नहीं किया गया।
यदि इस नियम में ऐसे सुस्वभाव की सम्मिलित दृष्टि अंतर्निहित है, तो भी सभी समाजों और
देशों में व्याप्त देह व्यापार इसका सही चित्र एवं चरित्र बताता है कि यह कितना
खोखला और आधारहीन है। देह विपणन के जगत व्यापी व्यवसाय में पुंसवादी दुनिया का
योगदान है। देह व्यापार पूर्णतः स्त्रीविरोधी व मनुष्य विरोधी है और उस दृष्टि से
उसे पुंसनिर्मित सामाजिक षड्यन्त्र मान लेना चाहिए।
इस तरह
घर के बाहर-भीतर स्त्रीयौनता संबंधी जो ज्ञान-विज्ञान मिलते हैं, सब में स्त्री की
अन्यता तय होती है। अधिकार एवं वर्चस्व के आगे अपने देहानुभवों का प्रस्तुतीकरण
स्त्री के लिए असंभव-सा हो जाता है। प्रतिकार एवं प्रतिरोध में वह कुछ लिखती भी है, तो पुंसदुनिया के
भाषा-शब्द एवं शैली-संरचना उसके पक्ष में उतर नहीं पाते। अपनी
आकांक्षाओं-उत्कंठाओं तथा आत्मनिर्णयों के लिए स्त्री जाति के प्रति मैत्रीपूर्ण
अभिव्यक्ति रूपों का अभाव पाकर, वे या तो पिछड़ बैठती हैं, नहीं तो आधे-अधूरे
प्रयोगों और शैलियों में उतरने का क्लेश भोगती हैं। पुंसभाषा प्रयोगों में वह अपने
को ठीक तरह से उतार नहीं पाती। ऊपर से स्त्री के देह-खोल वर्णनों पर आज भी मनाही
है। स्त्रीयौनता के प्रकाशन पर सदाचार, श्लीलता, मर्यादा तथा निषेध के कोड़े चलते
हैं। इसलिए जब स्त्री अपनी यौनता पर समाज स्वीकृत शब्दों में ही बोलती है, तो भी उसका बयान
पुंसरंजक और स्त्रीविरोधी हो जाता है। अभिधात्मक बोलने के बजाय अक्सर स्त्रियां
अपनी देह व यौनता के प्रकाशनार्थ व्यंजना या लक्षणा का उपयोग करती हैं। गद्यविधाओं,
जैसे उपन्यासों
और कहानियों के अभिधात्मक प्रयोगों व वर्णनों को देखा जाये तो यह स्पष्ट होता है
कि अपनी यौनता एवं देहावयवों पर उपलब्ध स्त्रीलेखन भी कई मायनों पर पुरूषोपयोगी व
पुरूषमनोरंजनकारी सिद्ध होता है। स्त्रीदेह के स्वरूप को पुरूषमुग्धकारी सज्जित व
उपयुक्त रखनेवाली दुनियादारी में स्त्रीपक्षीय देहविखंडन दूभर है। कहने का अर्थ यह
है कि स्त्री को जब यौनता एवं देहसंवेदना पर लिखना होता है तब उसे पुंस-यौनाधिपत्य
के साथ साहित्य व संस्कृतिक जगत में व्याप्त पुंस-प्रवृत्तियों तथा भाषाशैली के
विवेचनात्मक रवैयों से भी मुठभेड़ करनी पड़ती है। संदेह नहीं कि विविध आयामी उलझनों
व विपरीत स्थितियों के बीच ही स्त्री यौनता एवं देहावयवों की अभिव्यंजना का साहस
उठाती है। चारों ओर व्याप्त स्त्रीदेह संबंधी पुंसफैंटेसियों से लड़ना उसे मुश्किल
लगता है तो कोई अचरज नहीं है। अपने सच एवं संवेदना को उतारने के लिए ठान लेनेवाली
लेखिका को यह सिद्ध करना होता है कि देहव्यापार एवं यौनविपणन स्त्री स्वेच्छया
नहीं करती है,
यौनप्रसंग में स्त्री का अनुभव अलग है। पुंसदुनिया के वर्चस्व के आगे वह
अपने को छुपा कर ही प्रस्तुत कर सकती थी, जिसके लिए जिम्मेवार है यह कुटिल बुद्धि
पुंसदुनिया। युग-युगों से होनेवाले इस स्त्रीविरोधी-मनुष्यत्वविरोधी अन्याय से कोई
सामाजिक आसानी
से आंखें नहीं मूंद सकता। स्त्रीदेह विपणन को लेकर न्याय, नीति व नियम की
आंखें पुंसपोषक हैं, जो मात्र स्त्री को पापिन या बदचलन मानती हैं। अपने मन पसंद
पुरूष के ऐन बिंब के रूप में ’कृष्ण’ को प्रतिष्ठापित करती हुई साहित्यरचना में तल्लीन
स्त्रियों की पंक्ति यही बताती है कि पुसंआधिपत्य वाले संसार में उन्हें कभी ऐसा
साथी सहज सुलभ नहीं होता जो उसे समान हैसियत दे सके। इसलिए वे समान साथीपन की
कल्पना कृष्ण के रूपकीय संदर्भों में बयान करती हैं। कुंवारी हो या विधवा, पत्नी हो या
प्रेमिका, स्त्रियों
की भावना में कृष्ण के रसरंजक साथीपन की अमिट छाप बनी रहती है। जाहिर है इन
स्त्रियों में पुरूषविरोध नहीं है। जिसने सदियों से स्त्री का शोषण किया है, कल्पना के रास्ते
में ही सही, उससे
प्रेमपूर्ण मिलन, साथीपन और जीवन बांटने की आकाक्षाएं तथा कामनाएं वह प्रस्तुत
करती है। उनके मिलन के इस काल्पनिक संदर्भों पर अधिकार या यौनता की पाबंदियां नहीं
हैं। यौनता पर व्यवहृत समस्त पाबंदियों को धत्ता बताकर, स्त्री-पुरूष समागम
की समकक्षता स्थापित करने की संभावनाएं कृष्णबिंब के प्रति स्त्रियों के आकर्षण का
मूल कारण है। बताना नहीं होगा कि यथार्थ जीवन में स्त्रियों को ऐसा अवसर प्राप्त
नहीं होता है,
इसलिए वह कल्पना में ऐसी लैंगिक समता वाली दुनिया का संकल्प जुटाती है
जिसमें स्त्रैणता के साथ यौनता का भी सही आदर होता है,
लोकतंत्रीय स्वाधीनता होती है।
कृष्ण संबंधी प्रेम-मिथक के उपयोग व चित्रण
में स्त्री व पुरूष साहित्यकारों और कलाकारों में अंतर है। अतिभौतिक ईश्वरीय सत्ता
से लेकर औरतों की रक्षा करनेवाले संरक्षक एवं रक्षक के रूप में कृष्ण का वर्णन
पुंस-बयानों में मिलता है। रसरंजक एवं प्रेमी के रूप में भी कृष्ण का वर्णन है
जिसमें वही लीलाधर है। इस ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो
आधुनिक महिलालेखन में कृष्ण का रूप समस्तरीय साथी में परिणत हो जाता है। उसकी लीलाओं में
परिणीता या प्रेमिका की समान साझेदारी है। कृष्ण को आदर्श मानक मानने के बदले
यथार्थ दुनिया में जीवित पुरूष को कृष्ण स्वरूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा
प्राय: स्त्रीपक्षीय लेखिकाओं में मिलती है। माधविक्कुट्टि या कमलादास इसका उम्दा
उदाहरण है। उनकी कहानियों में स्त्री से प्रेम करनेवाला हर पुरूष उसका साथी है, कृष्ण है। उनकी लेखनी
में उस साथी से देहमिलन का ताप भी तरंगायित होता है। पारिवारिक यौनता की
यन्त्रणात्मक रीतियों पर विभक्त तथा चयनित यौनता के प्रतिपक्ष रूप में अभिभूत
भक्ति माधविक्कुट्टि के लेखन की खासियत है।
पर यह
बताना होगा कि परवर्ती स्त्रीलेखन में यह प्रवृत्ति क्षीण हो गई, जिसके कई कारण हैं।
यौनता पर बोलना ही परंपरागत समाज में हिम्मतवालों का कार्य रहा है। उस स्त्री पर
कुलच्छनी या कुलटा का आरोप लग जाता है जो अपनी या पात्र की यौनता का बयान करती है।
उसे परिवार या समाज से कटुनिंदा और देशनिकाला का सामना करना पड़ता है। उपर्युक्त
लेखिका ने इस संबंध में भुगते आत्मसंकटों का खुलासा किया भी है। किंचित अतिवादी या
अतियथार्थवादी बयानों व कलात्मक विवरणों को छोड़े तो सामान्यतया स्त्री, जीवन तथा लेखन में
पुरूष से साथीपन, स्नेह, पारस्पर्य और सहभागीपन ही चाहती है। उसके लिए यौनपूर्ति
इन सबके बाद में आनेवाली बात है। इस कारण से लेखिकाओं में, कई मायनों पर
सामान्य औरतों में भी, साहित्य या कला के साथ-साथ जीवन के अन्य अधिकाधिक संदर्भों
में यौनोन्मुखता के प्रकाशन की तुलना में यौनविमुखता निखर कर बाहर आती है। जब तक
वह खुली यौनता नहीं चाहती, वह उसकी प्राथमिकताओं में आगे नहीं आती है, उसके चयन में भी
ऐसी बात नहीं रहती। अत: इस सीमा तक उसे यौन-सदाचार एवं परंपरागत यौन-निष्कर्षों से रचनात्मक
भिड़ंत करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती है। लोग इसे कुलस्त्रियों का आचार मान
बैठते हैं। मगर यह कुलवधु का आचार-आग्रह थोड़े ही है। अपने को चयनित, स्वतन्त्र और
स्वाश्रयी रखनेवाला स्त्रीत्व यौनता के प्रसंग में भी खुद को संभाल लेता है। उसे
कोई अतिक्रमण या आक्रमण की जरूरत नहीं होती। दुनियादारी जब उसे चयन और निर्णय से
वंचित रखती है तब वह दुनियादारी से प्रतिशोध लेने का साहस जुटाती है और वह साहस
कभी-कभी खुद को दांव पर लगाने तक भी जाता है। अतः घरेलू जगह पर हो या प्रेम में, यौनता पर स्त्रियों
की चुप्पी का यह अर्थ नहीं है कि वे पुंससंस्था के नियमों के अधीन रहती हैं, न यहाँ चुप्पी
तथाकथित त्यागमहिमा को व्यंजित करती हैं। कोई स्त्री देह के साथ अपने को नष्ट करने
के आत्मपतन का रास्ता कभी नहीं चुनती। चारों ओर व्याप्त खतरों में उसका हर निर्णय
सतर्कता पर आद्धृत होता है। देह की पण्यता, जश्न और अतिक्रमणों
की खबरें वाणिज्यिक युग की मनुष्य विरोधी और अतिवादी कारामतों का परिचय देती हैं, जो पुंस दुनिया में
पलनेवालों के रतिभ्रंश का नतीजा हैं।
परंपरावादी
समाज में स्त्रियों के दैहिक व यौनिक कार्यों का प्रतिपादन सदैव अतिप्रतिपादन बन
जाता है, क्योंकि
उसमें यौनता पर मात्र अप्रत्यक्ष सूचनाएं स्वीकृत होती हैं। वहां पर यौनावयवों व
कार्यकलापों का प्रत्यक्षीकरण असभ्य या अश्लील माना जाता है जो अपराध है। इसलिए
लेखन में हो या कला में नग्नता संबंधी सभी प्रकरणों पर विवाद उठ खड़ा होता है। पाठ
से अतिपाठनिर्माण का यह कौशल, कला एवं साहित्य का गुण है। यौनता के विषय में इसका पूरा
लाभ पुंसदुनिया को मिलता है। चाहे स्त्रियों के लेखन या कलात्मक आविष्कारों को
देखें या फिल्म और
फैशन की चकाचौंध भरी दुनिया में कार्यरत अभिनेत्रियों को लें, सर्वत्र कभी-कभी बाजार
के दबाव में देहोद्घाटन की प्रवृत्ति भी मिलती है। इनमें कई की जीवनियां यही बताती
हैं कि कलात्मक जीवन के अतिप्रभावी अनुभवों के बावजूद आत्मनिंदा के मारे वे
आत्माहुति करती हैं। कला-साहित्य के अतिवादी कार्य के सिलसिले में वे दैहिक-जश्न
प्रस्तुत करती हैं, पर अंदर ही अंदर अकेलापन व असुरक्षा के अहसासों में तिल-तिल
टूटती हैं। पुंसव्यवस्था के चेहरे पर थूकती हुई वे देहत्याग भी कर देती हैं।
यौनता
की पारिवारिक परिधि टूटने का भय समाज के साथ परिवार को भी है। इसलिए कलंकबोध से
नियन्त्रित नैतिकता यौनता को विशेषत: स्त्रीयौनता को नियन्त्रित रखती है। अपनी देह पर
लगनेवाला कलंक परिवार एवं समाज में व्याप्त होता पाकर लड़की देहविरोधिन बन जाती है
और कई संदर्भों पर देहत्याग के लिए भी तैयार हो जाती है। विविध ऐतिहासिक प्रसंगों
में कलात्मक दुनिया में आत्मनिंदा के मारे प्राणत्याग करनेवाली महिलाएं मिलती हैं।
बलात्कार का पाप मिटाने के लिए ब्याह रचने की वार्ताएं सामाजिक नैतिकता को ही नहीं, न्यायव्यवस्था पर
भी प्रश्नचिह्न लगाती हैं। इन परिघटनाओं को जांचे तो समस्या यह नज़र आती है कि हर संदर्भ में स्त्रीत्व को ही समझौता करना पड़ता
है। स्त्री की समस्त संवेदनाएं वहां दांव पर लग जाती हैं। अस्तित्व, भूख और प्राणरक्षा
की खातिर उसे यौनता सहित सभी संवेदनाओं को पीछे छोड़ना पड़ता है। हिंदी फिल्मी
दुनिया से इसके ऐतिहासिक उदाहरण रेखांकित किए जा सकते हैं। साहित्य के क्षेत्र में
भी ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं।
देह पर
अत्याचार या उत्पीड़न सहनेवाली लड़की पूरे जीवन में पापबोध से ग्रस्त रहती है।
साहित्य एवं कला में इसका प्रतिपादन कई दफा एकरसतापूर्ण ढंग से मौजूद है। इसलिए
आजकल साहित्य में प्रतिपादित यौनता की आलोचना की जाती है। पर दूसरे छोर से देखा जाये
तो सामाजिक जगह पर स्त्रीत्व की देहजन्य अन्यता को रेखांकित करने में ये सफल हो रही
हैं। यहां स्त्रीलेखन का ऐतिहासिक कार्य रहा है। अमृता प्रीतम, माधविक्कुट्टि, इस्मत चुगताई, कृष्णा सोबती जैसों
का इस विषयक लेखन सीमित एवं निर्मित पापबोध से औरतों को मुक्त करने में सहायक है।
इनका लेखन स्त्रीयौनता के वैविध्यों व वैषम्यों को उजागर करने का प्रयास है, जिससे यौनता का
पितृदायक व संस्थागत स्वरूप खंडित होता है।
देह
स्त्री का अभिमान और अत्मसम्मान भी है। देह बिना न आत्मा होती है, न स्वत्व। न हैसियत
होती है, न
गरिमा। पर उसका बाहरी स्वरूप, रंग-ढंग या चमकदमक, आकार-सौष्ठव आदि पर
रूपायित-व्यवहृत पुंसमानकों के आधार पर स्त्रीदेह की व्याख्या और सौन्दर्य
प्रतिपादन किया जाता है तो फिर एक बार वह पुंसनिर्णीत ही होता है। किंतु उपर्युक्त
महिला कहानीकारों के लेखन में देहानुभवों के वर्णन द्वारा स्त्रीदेहस्थापना संपन्न
होती है। देहानुभव को ये स्त्रीदृष्टि से व्याख्यायित करती हैं। देह को मानना और
देहानुभवों की उपस्थिति दर्ज करना परंपरागत समाज में शक्तिशाली आत्मविमोचन का
कार्य है, मुक्तिचेतना
का बाह्यीकरण इससे संभव होता है। अर्थात् स्त्री देह को भोगवस्तु, पण्यवस्तु तथा
मनोरंजनवस्तु बनानेवाले समाज में कोई स्त्री जब अपनी देह से प्यार और प्रेम जाहिर
करती है तब वह स्त्रीपक्षीय देहराजनीति का कार्य बन जाता है। यह स्त्रीपक्षीयता
लेखिका का सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कर्तव्य भी है। आत्मप्रेम के विवरणों से
स्त्रीजाति की अन्यता को दूर करने की जिद मर्दवादी समाज के विरोध में ताल ठोकने का
स्त्रीवादी रवैया है। सजग स्त्री का आविष्कार स्त्रीविरोधी राजनीति को खंडित करके
जीवित स्त्री के शरीर संबंधी नवार्थों को समाज के सामने रख देता है।
देहलेखन
के महत्व को नारीवादिनों ने काफी पहले ही पहचान लिया था और उन्होंने देह से लेखन
करने का आह्वान किया था। मूक बहनें जब आवाज निकालती थीं तबसे उनकी आवाज में देह का
बोधाबोध भी प्रच्छन्न रूप में ही सही, अभिव्यक्त होता था। स्त्रैणानुभवों तथा
देहसंवेदनाओं पर जाने-अनजाने सोचती हुई स्त्रियों में देहास्तित्व का बोध जाग उठता
है। देह को सामाजिक दबाव में हेय समझा जाता था, लेखन व सोच-विचार
द्वारा स्त्री उस निराधार निष्कर्ष को पलटना चाहती है। अब तक उसकी देह की परिभाषा
एवं उसके व्यापारों की व्याख्या कोई दूसरा करता आया था किंतु अब वह खुद करने लगती
है। स्वाभाविक तौर पर उसके विश्लेषण में स्त्रीपक्षीय तथा स्त्रीविरोधी पक्ष उभरते
हैं। अर्थात् पुंससमाज में जीवित-परिपोषित जीव होने के कारण उसके कार्यों में
वर्चस्ववादी छाप लगना संभव्य है। स्त्रीवादी लेखन इस स्वाभाविकता को धीरे-धीरे ही
सही, टालने
का काम भी है। विनिर्मित वस्तु से जीवित-प्रस्फुटित आत्मा और देहयुक्त स्त्री का
विकास यहां से शुरू होता है। देह की नई व्याख्या देखकर दुनिया झुंझला जाती है।
मोली हेट ने बताया था कि ऐसी स्त्रियां पुंस संसार के लिए सरदर्द बन जाती हैं, जो स्वात्म देह के
नए अर्थों में लेखन करती हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त एवं प्रक्षेपित देहार्थ भिन्न
या अलग रहते हैं।[7]
गजब नहीं कि चालू तथा व्यवहृत परिभाषा पर प्रश्नचिह्न लगानेवाली
स्त्री-यौनाभिव्यक्ति पुंसभृकुटियों को चिढ़ा देती है। इस क्रम में परंपरागत
अर्थसंसार में नवार्थ जोड़ा जाता है, जो परंपरागत अर्थ के सामने मुक्त-अर्थ प्रसारित करता है।
हेलेन
सिसु जैसे नारीवादिनों ने स्त्रियों से शरीर को देखने-परखने-स्वीकार करने का
आह्वान इसीलिए किया था कि पितृदायक समाज, स्त्रियों की देह और दैहिक वृत्तियों से अलग
होने-रहने का अभिनिर्णय सुनाता है। दैहिक शुद्धता एवं नैतिक पवित्रता के
पुंसमापदंडों में स्त्रीदेह का घोर-अपमान किया जाता है। सिसु के मतानुसार इस अपमान
को समाप्त करने के लिए नई भाषा में अभिव्यंजना अनिवार्य है, जिसमें बेधने की
शक्ति एवं धिक्कार की ऊर्जा हो।[8] गर्भ, प्रजनन, मातृत्व आदि
देहकार्यों के सही वर्णन से दैहिक दासता व पारिवारिक गुलामी का अहसास स्त्रियों
में संक्रमित होता है। यहां तक कि शौच्य तथा प्रसाधन संबंधी कठिनाइयां उस पर
मानसिक अन्यता थोपती हैं और उसे दूसरे खेमे पर धकेलती हैं। इन मानसिक स्थितियों को
खोलकर रख देनेवाली रचनाएं स्त्रियों के लिए अनिवार्य हैं। स्वाभाविक रूप से इन पर
अश्लीलता, यौनता, असभ्यता के आरोप लग
जाएंगे। शरीर व शारीरिक अवयवों के चित्रण में खतरा इसलिए है कि सामान्य समाज में
इनके पुंस निर्मित अर्थ ही प्रचलित और स्वीकृत हैं। उदाहरणार्थ योनि शब्द सुनते या
पढ़ते ही लोग उसके पूवार्थ पर ही सोचते हैं। इसी तरह दूसरी विडम्बना यह है कि
स्त्रियों के संदर्भ में इंसान अक्सर देह मात्र रह जाता है। उसे यौनदृष्टि से देखा जाता है मानो यौनता के
अलावा उसकी कोई दूसरी उपादेयता या कर्म है ही नहीं। प्रेम में हो या मातृत्व में, स्त्रीदेह वर्णन
में हर कवि अपनी मर्दवादी फैंटेसियों में गोता लगाता है। स्त्री लेखन के संदर्भ
में सोचें तो एकाधिक पुरूषों से संपर्क रखनेवाली स्त्रीपात्रों को लेखिकाएं भी
सदाचारविरोधिनी चित्रित करती हैं। हो सकें तो कहानी व उपन्यास के अंत में
पूर्वनिश्चित सा उनका नाश प्रस्तुत करती भी है। ऐसे उदाहरणों से कुलस्त्री व
कुलच्छनी, स्वकीया
व परकीया का द्वन्द्व खड़ा करके सामाजिक सदाचार व पारिवारिक सद्भाव को निर्दिष्ट
किया जाता है। इस तरह अधीनता के परंपरागत पुरूष-मूल्यों को परोक्षतया स्त्रियां भी
स्वीकार करती हैं। स्त्रीचरित्र को अहम स्थान देनेवाली भारतीय सभ्यता कब से, क्यों और कैसे इस
तरह की स्त्रीनिंदा या सामाजिक दोहरापन लागू करने लगती है, यह देखने के बजाय अपनी परिधि से बाहर
पदार्पण करनेवालियों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष निंदा स्वीकार की जाती है। किंतु आशा
की बात यही है कि कई संदर्भों में ये रचनाएं मात्र स्त्रियों को
नैतिक नियमों की रक्षक बनानेवाली सामाजिक विडम्बना पर परोक्षता प्रश्न करती
हैं। सभी सामाजिक परिसंपत्तियों का
स्वामित्व पुरूषों को दिया जाता है, तो नैतिकता
का दायित्व भी उसे ही संभालना होगा।
यहां पर
स्त्रियों के देह विषयक आकलनों का सांस्कृतिक दखल महत्वपूर्ण होता है। भले ही
इनमें से कई यौनचित्रण
के नाम पर मशहूर रहते हैं किंतु उनका
साहित्यिक कार्य विषय को सिर्फ खोल देने में नहीं है। उन पर जीवन व मानवीय संबंधों
का बृहद् पाठविमर्श तैयार होता है जिनसे स्थापित-प्रवर्तित मापदंडों पर शंकाएं उभर
आती हैं। आधुनिकता के द्वंद्वात्मक दर्शन से अभिप्रेरित व्यवहारों के कारण पुरूष
पर जीत हासिल करने की इच्छा पालनेवाली स्त्री भी समाज में होती है। इसका कारण यह
नहीं है कि वह स्वामिनी बनना चाहती है, कारण यह है कि वह हमेशा हारी हुई रही है।
उसका प्रयास पुंसाधिपत्य की दुनिया में दुस्साहस है, कई संदर्भों पर
असंभवप्राय रहता है। समाज, संस्कृति, राजनीति व संबंधों के सभी तत्व पुरूष के साथ और हाथ में
हैं। इस कथन का यह भी अर्थ निकलता है कि उपर्युक्त सामाजिक साझेपनवाली अधिकार व्यवस्था
में ही पुरूष बलशाली है, अन्यथा वह भी अकेला और दुर्बल इंसान है। अतः पुरूष को
अधिकारी बनाने वाले सामाजिक-संजाल को विखंडित एवं विघटित करना होगा ताकि पुरूष और
स्त्री परस्पर समकक्ष प्राणी होकर जीवित रहें। अधीनत्व के जाल में हमेशा शिकार और
शिकारी का द्वन्द्व होता है, जिसे तोड़ देने में द्वन्द्व का फासला कम से कम, कम होने की उम्मीद
बनी रहती है।
द्वंद्वात्मक
दृष्टि से देखा जाय तो पुरूष को हराने या वश में करने केलिए यौनता स्त्री का सहायक
उपकरण हो सकती है। इस तरह की कहानियां पुराण व इतिहास में उपलब्ध भी हैं। इनमें
संस्थागत स्वरूप में यौनता का उपयोग होता है, जहां पर उसका
संवेदनापक्ष गौण या सीमित है। आंखों के इशारों से नायक को नियन्त्रित रखनेवाली
नायिकाएं पुरातन काल से साहित्यिक रचनाओं में आती हैं। पुंसत्व को वशीभूत करके, उससे समकक्ष
अस्तित्व स्थापित करनेवाली नायिकाएं बाद में उभरती हैं। मर्दवादी, हिंसाप्रेमी, स्त्रीशोषक खलनायक
को अपने वश में करनेवाली स्त्री का प्रतिपादन पहले सकारात्मक माना जाता था। बाद
में इस दृष्टिकोण का उतना स्वागत नहीं हुआ है। राष्ट्र या समुदाय के हित में
खलनायक को काबू में करने वाली नायिका पाठकों या दर्शकों को गहरा छू लेती थी। उसका
सम्मान किया जाता था। परवर्ती विरचना में
स्त्रीराजनीति के आख्यानों के बल पर ऐसी रचनाओं की यही व्याख्या की गई कि
ये सब सत्ता एवं संरक्षकों द्वारा किए गए स्त्रीशोषण के उदाहरण ही हैं। स्त्री
यौनता के साहित्यिक एवं कलात्मक उदाहरणों के द्वारा स्त्री व पुरूष में विद्यमान तद्विषयक
दृष्टिभेद की चर्चा संभव है। कठोर अवमानना और उपेक्षा के बावजूद बच्चे या परिवार की
खातिर त्याग सहनेवाली गृहस्थिनों व औरतों की कहानियां बहुत हैं। स्त्रियां भी इस
मानसिक अभिभूतता या सामाजिक अनुकूलन की शिकार होती है कि उन्हें आत्मत्याग व
देहत्याग करना चाहिए।
बताया
जाता है कि जहां पर स्त्री अपनी यौनता खोल रखती है वहां पर पुरूष भयभीत हो जाता
है। इस कारण से भी वह निषोधों का संस्थागत जाल बुनता है और स्त्री को परिधिबद्ध कर
देता है। अपनी इच्छा और मर्जी में विकल्पों की तलाश करनेवाला पुरूष समाज, उन स्त्रियों को
बदचलन घोषित कर देता है जिनके पास वह जाता है। प्रेम तिरस्कार के मारे एसिड अटैक, आक्रमण या हत्या कर
देनेवाले प्रसंगों में यह स्वार्थ पाशवीयता, अमानवीयता में
परिणत हो जाता है। तमाशा यह है कि सामाजिक व सांस्कृतिक जगत में स्त्री द्वारा यदि
चयन किया जाता है तो उसे तुरंत यौनकुंठित घोषित किया जाता है, भले ही यह जरूरी
नहीं कि वह यौनता संबंधी मामला हो। मतलब यहां है कि पितृदायक संसार में चालू
स्त्रीनिंदा के सभी शब्द, यौनसूचक भी हैं। विपर्यय यह भी है कि यौनता के प्रसंग
में पुरूष का वशीभूत होना स्वाभाविक माना जाता है, जहां पर स्त्री
खलनायिका है, शिकारी
है! उसका कार्य बोधनियन्त्रित है, सदाचार के खिलाफ भी। जबकि सकल बलशाली घोषित पुरूष
भोलाभाला है, जो किसी
की कनखियों में फिसल जाता है।
यहां
बताना होगा कि यौनता विषयक या सूचक रचनाएं, उस संबंधी
सदाचारवादी नियमों के उल्लंघन या अतिलंघन की प्रेरणा में ही लिखी नहीं जाती हैं।
कई प्रसंगों में स्त्रीपक्षीयता का विश्लेषण और परंपरागत यौनता के विखंडन के लिए
उन्हें उपयुक्त माना सकता है। इसलिए संदेह नहीं होना चाहिए कि ‘प्यार में डूबी हुई
मां’[9] जैसा विषय जब तक किसी एक व्यक्ति तक
की नज़र में असभ्य एवं अश्लील रहता है, तब तक उस कविता का
सृजनात्मक और वैचारिक मोल सामाजिक एवं साहित्यिक जगत में स्वीकृत बना रहता है। सच
यह है कि सभी कालों व समयों में, सभ्यता ने प्यार में डूबनेवाली माताओं व पत्नियों को सामने रखा है। उनपर, उनकी देहाकांक्षाओं
पर आंखें मूंदने से कोई विशेष लाभ नहीं होता है, बस कपटता का परिचय
हो जाता है। यह सहज ही है कि कोई मां या पत्नी, किसी आदमी या औरत
के प्यार में डूब जाये। सदाचारवादी निष्कर्ष देने में नहीं, वैचारिक उद्वेलन छेड़ने
में रचनाओं की सार्थकता होती है। यौनता को अश्लीलता या श्लीलता के परे सांस्कृतिक
एवं सृजनात्मक बनाए रखने में खुली तथा व्यावहारिक दृष्टि की महत्ती भूमिका है।
यौनता की
भी अपना स्वनिर्णीत जैविक परिधियां होती हैं, होनी चाहिए। वह किसी धर्म या समाज के
निर्दिष्ट नियमों के अधीन नहीं हैं। वासना से लैस आंखों से स्त्री देह को देखने वाली
पुंसदुनिया को लेखिकाएं यह बताना चाहती हैं कि उनमें भी यौनता है, देह संवेदना है, जो जैविक प्रवृत्ती
है। यह बयान करती लेखिका को कोई बदचलन बताता है तो उससे उसका कोई लेना-देना नहीं
है। क्योंकि जो व्यक्ति इस विषय में गत्यात्मक नहीं है, उस पर सकारात्मक
सोचता तक नहीं है, तो उसकी किसी राय या शब्द से पेरेशान होने का कोई अर्थ नहीं
है। दांपत्य के बाहर जाने की नियति हो या कुलमहिमा से भागने की कोशिश, स्त्रियों की
यौन-यात्रा संस्थागत गुलामी से बाहर होने की नीयत रखती है। इस अर्थ में उसमें खुद
की देहमहिमा को सुरक्षित रखने की नीयत भी शामिल है। इसलिए कहानियों व उपन्यासों
में हो या कला या फिल्मों में परिवार के भीतर होनेवाले बलात्कार, माने मैरिटल रेप
(वैवाहिक बलात्कार) का वे वितृष्णापूर्वक बखान करती हैं, जिसके अतिरेकों व
आक्रमणों पर धर्म, समाज व सत्ता हमेशा मौन है। धीरे-धीरे ही सही, स्त्रीपक्षीय कला व
साहित्य से वैवाहिक संस्था के भीतर चालू अतिरेकों व शोषणों का परिचय हो ही रहा है।
पति सहित समस्त पुरूषों के देहशोषण पर प्रतिकार करनेवाली औरतें, वैवाहिक यौनता के
संस्थागत अधीनत्वों को बाहर रखती हैं। बताया जाता है कि बलात्कार से पीड़ित लड़की या
स्त्री को जीवनभर उसकी खौफनाक याद सताती है। यौनता से प्रेरित समझाए जाने के कारण
उस कृत्य पर वह जुगुप्सात्मक ही सोच सकती है। असल में यौनता के साथ बलात्कार के
संबंध का पुर्नविश्लेषित करने का समय आया है। मनोवैज्ञानिकों व समाजवैज्ञानिकों का
मत है कि बलात्कार शिकारी मानसिकता से प्रेरित पाशविक आतंक है, उसमें कोई देहानंद
नहीं है। बदले में यौनता तन-तन की संवेदनात्मक स्फूर्ति है, जिससे इंसानों को आनंद
मिलता है। अतः शारीरिक हिंसा, चाहे वह घर के बाहर घटित हो या भीतर, उसे अलग-अलग देखने
की पुंसवादी कपटता को स्त्रीविमर्श खोलने का प्रयास करता है। भर्ता के सामने खुली
व त्यागमयी रहने की हठ सुनानेवाली पुंसदुनिया सार्वजनिक जगहों पर स्त्री से बंद और
अलग रहने की जिद करती है। यह देहसहित स्त्री की भी निंदा बन जाती है। फिर भी पति
के सामने ‘सबकुछ’ प्रस्तुत करने वाली कुलवधु औरत को छोड़कर पति बाहर जा सकता है, जाता भी है। पर
पत्नी का किसी भी कारण बाहर झांकना सामाजिकता के खिलाफ होने वाली यौनिक उच्छृंखलता है। अतः
जब तक उसका बदन है, तब तक उस पर घरेलू भावशुद्धि का आवरण बना रहता है।
कात्यायनी
की एक कविता है-‘देह न होना’। उस कविता में देह को स्त्री मानने की दुनियाई अतिरेकता
का बयान है – ‘’देह नहीं होती है/ एक दिन स्त्री/ और/ उलट-पुलट जाती है/ सारी
दुनिया/ अचानक!’’[10] देहजन्य यह अन्यताबोध, किसी पुरूष की कलम
से इस तरह अभिव्यक्त नहीं हो सकता है। काया कभी उसे इस प्रकार
का कचोटता अनुभव नहीं देती है। बदले में वह कर्ता एवं भोक्ता की जिस्मानी खुशी एवं
मजा व्यक्त करता है। कालबोध की नवधारा में कभी उसे अपराधबोध भी महसूस होता है कि
वह ठीक नहीं कर रहा है – ‘‘मैं उसे प्रेम नहीं करता था/ मैं उसे अब भी प्रेम नहीं
करता/ मैं उसे पसंद करता था/ मैं उसे पाना चाहता था/ दरअसल मैं उसकी देह को पाना
चाहता था।’’[11]
स्त्री का स्त्री के प्रति जो स्नेह
या प्रेम हो सकता है, होता है, उस पर मात्र यौनदृष्टि डालना सदैव ठीक नहीं होता। आपसी
साझेदारी लिंगस्तर के द्वन्द्वपूर्ण मिश्रण मात्र का कमाल नहीं है। समान
लिंगजीवियों के बीच में भी जीवन की साझेदारी हो सकती है। उनके बीच में यौनिक
साझेदारी भी है तो उसे संवेदनात्मक परिणति के रूप में देखने की उदार मानसिकता लोकतंत्रीय जगत में
होनी चाहिए। इंसानी रिश्तों को व्यापक बनाने व
मानने के लिए लोकतंत्रीय यौनदृष्टि की सख्त जरूरत है। यौनता की विभिन्न रीतियों पर
युक्तिसंगत देखना-समझना आज के समय की मांग है। शीला किटसिंजर के मतानुसार
समलिंगस्तरीय जीवों के बीच का संबंध आत्मविश्लेषण के लिए उन्हें तैयार करता है, जिससे प्रेम को
लेकर उनकी परंपरागत जानकारियों व संस्थागत सीमित अभिरूचियों में विस्तार आ जाता
है।[12] ठीक तरह
देखा जाता है तो यह मालूम होता है कि इस विषयक रचनाएं साझेदार लोगों के लिए ही
नहीं, परिवार
और समाज के सदस्यों को भी आत्मविमर्श, समाज विमर्श एवं सत्ताविमर्श का अवसर देती
हैं। पवन करण की कविता ‘मौसेरी बहनें’ की पंक्तियां इस
प्रसंग में किंचित परिचय सामने रखती हैं, जिनपर स्त्रीपक्षीय व विरोधी वाचन, दोनों संभव हो सकते हैं- ‘दरअसल उन्हें उपेक्षाओं ने मौसेरी बहनें बनाया है/ निराशा ने
बनाया है उन्हें एक-दूसरे के प्रति विश्वसनीय/ एक-दूसरे के लिए दीवार की तरह डटकर खड़े हो जाना/ उन्हें चाटने को लपलपाती जीभों ने सिखाया है।’[13] संदर्भवश यह भी जोड़ना है कि कवि की पंक्तियों में गुंफित पुरूषदृष्टिकोण की
सीमाएं दिखानेवाले पाठक-पाठिका का यह दायित्व भी है कि उसमें या उससे प्रवाहमान स्त्रीवादी
दृष्टि को अग्रेषित करे और उसे अपनी दृष्टि से मिलाकर व्यापक बनाए। पूरी प्रक्रिया
में यह ध्यान रखे कि नकारात्मक या विपरीत पक्षों पर पाठीय-जश्न संपन्न न हो, जिससे अंततः
पुंसवादी रवैए के मजबूत बनने का सामाजिक खतरा व्याप्त होता है।
परिवर्तित
दुनिया के अनुकूल, इंसानी संबंधों की विविधता एवं व्यापकता को समझाने की खातिर
ऐसे प्रसंगों का स्त्रीपक्षीय वाचन अनिवार्य है। इंसानी रूचियां और भावात्मक
संवेदनाएं स्थायी नहीं हैं, उन्हें निर्दिष्ट बताने का श्रम असंगत है। यौनता भी जीवन
भर की स्थायी संवेदना नहीं है। पुरूष दुनिया से अपनी स्नेहाकांक्षाओं की पूर्ति
नहीं होती है,
तो यह सहज संभवव्य है कि कोई इंसान उसका विकल्प तलाश करता है। घरेलू
क्षेत्र में प्रताड़नाएं और उत्पीड़न सहना
पड़ता है तो कोई स्त्री अपनी सहेली से सांत्वना खोजती है, जो उसके लिए
स्वाभाविक आसार है। पति व घर की सुरक्षा होते हुए भी यदि स्त्रियां इस तरह की
बाहरी सांत्वना चाहती हैं तो यह भी समझ लेना चाहिए कि उसकी यौनता, मात्र देह केंद्रित विलास नहीं है। संवेदनात्मक दुनिया में देह
के साथ मन की अभेद्य अनुभूतियों का समवाय है। पारस्पर्य की खोज में ही स्त्री बाहर
झांकती है। यदि उसे वह घर के भीतर मिलता है तो वह बाहर झांकने की नीयत नहीं रखती है।
सामान्यत: परिवार के बाहर झांकनेवाली स्त्रियां पुंसव्यवस्था और पुंसकेंद्रित कुटुंबव्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं। इसलिए कि उनके
घनीभूत संवेदनात्मक आदर्श में एक साथी हमेशा बने रहता है, जिसके साथ उनका साझा
है, आनंद
है। गतकालीन कवयित्रियों में कई ने उसे ’कृष्ण’ पुकारा था।
बताया जाता है कि स्त्री के लिए यौनता, मात्र लिंगावयवों
की कार्यकलापी अभिव्यंजना नहीं है। स्त्री की पूरी देह उस कर्म में उसके लिए सहायक
बनती है। तभी देह का अपमान उसे आत्म का अपमान लगता है। यौनता उसके लिए आनंद का
एकोन्मुखी कार्य नहीं है, बदले में वह उसका प्रेम विनिमय है, जीवन की समग्रता का
स्त्री-अनुभव है। लेन-देन के परे विद्यमान समग्र अनुभव के पल तभी उसे स्वायत्त
होते हैं जब वह एकाधिक से एक बन जाती है। उन पलों को वह स्थायी बनाना चाहती है।
इसलिए वह आदर्श साथी की खोज करती है। मतलब पुरूष के लिए यौनता जहां अस्थायी और
पलभर का अनुभव है, वहीं स्त्री इसके विपरीत उसे समग्र बनाना चाहती है। किंतु
स्पष्ट है कि पुंसाधिपत्य की दुनिया में वह इससे वंचित रह जाती है। दूसरे
स्त्रीसंबंधी विषयों के समान यौनता पर भी स्त्रीलेखन की परंपरा गौण है। साथ ही इस
विषयक पाठों में पुंसदृष्टिकोण मुखर है। इनकी बताई राहों पर काफी समय तक स्त्रियों
की रचनाएं भी चली हैं, अबकी स्त्रीपक्षीय रचनाएं इनसे भिन्न होकर अलग धारा पकड़ना शुरू कर रही हैं। इस धारा की रचनाएं आत्मस्नेह, वर्गप्रेम आदि के
साथ आत्मविमर्श को भी संभालने का माद्दा रखती हैं।
मलयालम
की मशहूर एवं वरिष्ठ लेखिका ललितांबिका अंतरजनम् की एक विशिष्ट कहानी (प्रतिशोध की
देवी) के जिक्र के साथ इस प्रकरण से विदा लेती हूं। एक उत्तम पत्नी अपने पति से जीवन की समग्रता में साथीपन
चाहती है। लेकिन पति अपनी मर्दवादी आज़ादी में
दूसरी स्त्रियों के पास जाता है। वह पत्नी को खाना-पीना और आवास तो देता है पर जब
भी वह उसके पास जाती है, भगा देता है। जहां पुरूष के पास यौनपूर्ति के लिए
विकल्पों की गुंजाइश है, वहीं स्त्री ब्याहे पति से भी वंचना एवं उपेक्षा सहती
है। पत्नी से वह बताता है कि उसे शयनेषु वेश्या पसंद है। पति जाता है तो उसके पास
विकल्प नहीं बचता। किंतु जब वह पति के आदेशानुसार देह की खुशी खोजती
है, वह
वेश्या बनने का प्रयास करती है, तो बदचलन घोषित होती है। उसके खाते में अपना न्याय है। वह
सोचती है कि शीलावति अपने पति की इच्छापूर्ति में शीलवति और सुचरिता घोषित हुई थी।
यहां पर वह अपने देव समान पति की इच्छापूर्ति के लिए ही वेश्या बनती है। अतः वह भी
शीलवति और सुचरिता है। सभी उसके पास आते हैं, अब वह सिर्फ उस
पुरूष की प्रतीक्षा में खड़ी हुई है, जिसके लिए वह वेश्या बन गई। प्र्रतीक्षा की परिणति में
एक दिन पति वेश्यागृह पहुंचता है, पर उसे सामने पाकर भयभीत चिल्लाता हुआ भाग जाता है। अपनी
यौनता पर फैसला करने वाली स्वाधीन स्त्री को पाकर भागने के अलावा पुरूष के पास
दूसरा चारा ही क्या बचता है? यह भी बताना उचित होगा कि यहां पर एक स्त्रीकहानीकार ने
सोच समझकर ही अपनी स्त्रीपक्षीय कहानी की परिधि से यौन-स्वार्थी पुरूष को भगा दिया
है, जो उनकी
साहित्यिक प्रतिबद्धता का सही लक्षण है।
संपर्क – प्रमीला के.पी., 7-971, कालडी – 683574, केरल, दूरभाष – 9497796733/0484-2466162, ईमेल-prami.kp@gmail.com
[1] Root, Jane.1984, Pictures
of Women, London: Pandora Press,p.10
[2] Heath,Stephen.1982,The
Sexual Fix, London:Macmillian, p11
[3] Foucault, Michel.1948, The History of Sexuality vol I,Harmondsworth:Penguin,p.3
[4]
Gupta,Charu.2012, Sexuality, Obscenity,
Community Women, Muslims, and the Hindu Public in Colonial India,
Delhi: Permanent Black, p.8
[5] Banerjee,Sumanta.1987, ‘Bogey and Bawdy.Changing concept of Obscenity,
in 19th century Bengali Literature’ in E&P Weekly, 22-29 July.p.1197-1206
[6] Kitzinger, Sheila.1983, Woman’s Experience of Sex, Newyork: G P
Putnam’s sons,p.17
[7] Hite, Molly.1988, Writing and
Reading The Body:Female Sexuality and Recent Feminist Fiction, Feminist Studies14.1,p.121
[8] Cixous, Helen.1981, The Laugh
of the Medusa in, Elain Marks & Isabelle de Courtvron (eds), New French Feminisms, Sessex: The
Harvester Press. P.246
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