कठऊपहाड़ी, विन्ध्य पर्वत की शृंखलाओं से घिरा हुआ, नदी बेतवा के तट पर बसा हुआ, मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले का छोटा सा गांव है। यह गांव कहने
के लिए तो छोटा है, लेकिन इस गांव ने
बुन्देली साहित्य को आठ-दस कवि दिए हैं। कहने का मतलब है, यह गांव साहित्यिक दृष्टि से
समृद्ध माना जा सकता है। प्रखर दलित चिंतक और कवि, डॉ. कालीचरण ‘स्नेही‘ इसी कठऊपहाड़ी गांव की
देन हैं। डॉ. स्नेही हिंदी और बुन्देली भाषा
के पहले दलित विमर्शकार हैं। जब से दलित साहित्य ने दस्तक दी है, तब से साहित्य और समाज में लोकतंत्र की संभावनाएं अधिक
बढ़ी हैं। डॉ.स्नेही द्वारा संपादित पुस्तक ‘कविता का लोकतंत्र‘, इसका
प्रमाण है। डॉ.स्नेही ने इसमें कई जाति के कवियों को स्थान दिया है। यह सब के सब, कठऊपहाड़ी के ही शब्द शिल्पी हैं।
‘कविता
का लोकतंत्र‘ दो खंडों में विभाजित
पुस्तक है। इसके प्रथम खंड में समीक्षा और दूसरे खंड में वहां के कवियों की चुनी
हुई रचनाएं हैं। दलित साहित्यकार
समता-स्वतंत्रता-बंधुता
की बात करते हुए मनुष्य को मनुष्य के रूप में स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
दलित साहित्यकार मानवतावादी समाज के निर्माण पर जोर देते हैं और जाति व्यवस्था
का प्रबल खंडन करते हैं। हिंदू समाज के तमाम महापुरूषों के विभिन्न प्रयासों के
बाद भी जाति व्यवस्था यहां अभी तक खत्म नहीं हुई है। भारत की जाति व्यवस्था समाज
की सबसे बड़ी सच्चाई बनकर हमारे सामने आई है। इसके समीक्षा खंड में डॉ. स्नेही
लिखते हैं - ‘‘भारतीय समाज विभिन्न जाति
समूहों का उलझा हुआ पुराना जाल है। इस जाल में मनुष्य मछली की तरह फंसा हुआ है।
लाख कोशिश करने के बावजूद भी इस जाल (जंजाल) से छुटकारा पाना मुश्किल है। (पृ.-11)
एक जिम्मेदार चिंतक होने के नाते डॉ. स्नेही ने दलित समाज के दर्द को गहराई से
व्यक्त किया है, क्योंकि इस जाति व्यवस्था
के कारण दलितों को अभिशप्त जीवन जीना पड़ा है। हिंदू समाज का प्रत्येक व्यक्ति
अपनी जाति से चिपका रहता है, जबकि ऊपर-ऊपर से ढिंढ़ोरा पीटता रहता है कि मैं जाति-पांति को नहीं मानता हूं। यदि
कबीर की भाषा में कहा जाए तो यहां का सवर्ण अपनी कथनी और करनी में सदा अन्तर करता
है। कहता कुछ करता कुछ और है। भारत में दलित समाज का शोषण सामाजिक, आर्थिक,
विषमता के
आधार पर हुआ है। द्विज हिंदू विचारकों ने जाति व्यवस्था का नाश करने के लिए सार्थक
उपाय नहीं किए हैं। वह ऊपर-ऊपर जोर देते रहे और अंदर से जाति व्यवस्था के समर्थक
बने रहे हैं। कांचा इलैया मानते हैं- ‘‘जब उपनिवेश विरोधी संघर्ष चलाया जा रहा था, तब ब्राह्मणवादी नेताओं, विचारकों ने जाति विरोधी समतावादी विचारधारा को निर्मित करने
के प्रयास नहीं किए। इस के विपरीत उन्होंने बर्बर हिंदू संस्कृति को बढ़ा-चढ़ाकर
प्रस्तुत किया। मुगलों और अंग्रेजों के राजनीतिक शासन के दौर में ब्राह्मणवादी
शक्तियों की पकड़ कुछ ढीली पड़ गई थी। इसलिए उन्होंने एक नई विचारधार की रचना की।
इस विचारधारा के जरिए उन्होंने अपने ‘संपूर्ण
आधिपत्य‘ को फिर से स्थापित किया, यह विचाराधारा थी-
ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद,......
इसे खड़ा
करने में ऊंची जातियों के वर्चस्व की पुनर्स्थापना
की।‘‘ (मैं हिंदू क्यों नहीं, पृ.-122)।
दलित चिंतकों की वैचारिक पृष्ठभूमि में कबीर से लेकर
डॉ. अंबेडकर की विचाराधारा और आंदोलन की ताकत है। दलित चिंतन की नींव समता, स्वतंत्रता और
लोकतांत्रिक मूल्यों पर टिकी है। मध्यकाल में कबीर दलित समाज के बहुत बड़े
चिंतक थे। उन्होंने समाज में व्याप्त वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था का प्रबल विरोध करके मानवतावादी चिंतन का
निर्माण किया था। इसीलिये डॉ. स्नेही को कबीर अपने पूर्वज जान पड़ते हैं। क्योंकि
डॉ. स्नेही कबीर और बाबा साहब के संयुक्त विचारों की उपज हैं। डॉ.स्नेही लिखते
हैं- ‘सदगुरू कबीर हमें अपने सगे- संबंधी
और पूर्वज जान पड़ते हैं जो कि सच भी है, पर
तुलसी के काव्य से मेरा कोई रिश्ता-नाता
नहीं बन सका‘। (पृ.-17) तुलसी के
काव्य से उनका रिश्ता क्यों नहीं बना। डॉ.स्नेही स्वयं बताते हैं- ‘क्या साहित्य में लोकतंत्र की पक्षधरता इन ब्राह्मण
साहित्यकारों ने अपने एजेंडे में शामिल की? उत्तर स्पष्ट है, नहीं, बिल्कुल नहीं। (पृ.-14) जहां लोकतंत्र न हो, वहां किसी भी दलित चिंतक का रिश्ता हो (ही) नहीं सकता
है। क्योंकि सभी दलित चिंतक लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थक और पोषक हैं। वैसे भी
तो तुलसी के ‘रामराज्य‘ में दलित और स्त्री को डंडों से पीटकर भगा दिया जाता
है। डॉ.स्नेही की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे किसी हिंदू के बहकावे में नहीं आते
हैं। प्रत्येक जिम्मेदार दलित चिंतक अपनी दलित परंपरा से जुड़ा रहता है। डॉ.
स्नेही, कबीर से जुड़े हुए हैं।
डॉ. स्नेही को कबीर के वैचारिक आंगन
में सुकून महशूस होता है। डॉ. स्नेही किसी
गैर दलित चिंतक से रिश्ता नहीं जोड़ना चाहते हैं, किसी कारण जुड़ भी गया तो उसकी उम्र लंबी नहीं होती है। कबीर
के वंशजों से तुलसी की रिश्तेदारी निभ भी नहीं सकती है, यदि कुछ देर के लिये मेल-मिलाप बढ़ भी जाए तो, उसकी उम्र बहुत कम होती है। दलित-ललित के दो छोर हैं, कबीर-तुलसी का एक साथ निभना नितांत असंभव है‘। (पृ.-17) दलित साहित्य के उभार से साहित्य में
लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुई हैं। दलित साहित्य के कारण कुछ मठाधीशों की मठाधीशी
पर आंच आ गयी है। डॉ.स्नेही कहते है कि मनुवादी कभी नहीं चाहेंगे कि साहित्य और
संस्कृति में लोकतंत्र का विस्तार हो। (पृ.-15)
‘कविता का लोकतंत्र‘ के समीक्षा खंड में एक शोधालेख डॉ. यशवंत वीरोदय ने
लिखा है। डॉ. यशवत वीरोदय एक युवा आलोचक हैं। वह दिखने में भले ही युवा हों, लेकिन उनकी आलोचना दृष्टि इतनी सशक्त है कि हिंदी
साहित्य की द्विज आलोचना को परत दर परत खोल के रख देती है। इस परत दर परत में
उन्होंने हिंदी साहित्य की मुख्यधारा की खोज की है। उन्होंने दलित साहित्य धारा को हिंदी की
मुख्यधारा बताया है। डॉ. यशवंत जी की यह खोज पहली परंपरा और दूसरी परंपरा से
बिल्कुल पृथक है। क्योंकि वे मानते हैं कि दलित धारा ही लोकतंत्र कायम कर सकती है-
‘भारतीय लोकतंत्र की अवधारणा तभी
फूले-फलेगी, जब सही माइने में
सांस्कृतिक लोकतंत्र आयेगा। सांस्कृतिक लोकतंत्र, साहित्य के माध्यम से ही संभव है। यह लोकतंत्र और कोई नहीं
लायेगा। हिंदी साहित्य की मुख्यधारा से जुड़े हुये चिंतक, बुद्धिजीवी साहित्यकार ही इसको साकार करेगें। (पृ.-95) यहां
मुख्यधारा से मतलब दलित चिंतन परंपरा से है।
अब ‘कविता का लोकतंत्र‘ के दूसरे खंड की बात की जाए। यह काव्य संग्रह मुख्यतः
बुन्देली कवियों का काव्य संग्रह है। लेकिन कुछ कवियों की खड़ी और बुंदेली, दोनों भाषा की कविताओं को संकलित किया गया है।
डॉ.स्नेही ने इस संकलन में अपने गांव के 12 कवियों को स्थान दिया है जिनमें भूपति
सिंह ‘कविराज लल्ला‘, जगतनारायण खरे, गजराज सिंह यादव ‘हिमकर‘, डॉ. कालीचरण ‘स्नेही‘,
रामस्वरूप
कुशवाहा, शिरोवनदास ‘विश्वबंधु‘, पुष्पेन्द्र
कुमार खरे ‘पुष्प‘, ईश्वरदास मनमौजी, मोहम्मद असगर ‘अश्क‘ आदि कवियों की कविताएं
संकलित हैं। लोक साहित्य, हमारी संस्कृति का वाहक
होता है। लोक साहित्य में हमारी सांस्कृतिक विरासत की झलक स्पष्ट दिखायी देती है।
इन कवियों की कविताओं को बुन्देली लोकगायकों ने गा कर जन-जन में लोक प्रिय बना
दिया है। प्रकाशन के अभाव में धीरे-धीरे ये कविताएं लुप्त हो रही थीं। डॉ. स्नेही
ने इन्हें काव्य संग्रह का रूप देकर लुप्त होने से बचा लिया है। इन कवियों की
कवितायें इतनी मार्मिक हैं कि सात समुंदर पार अमेरिका में बैठे श्री रामबाबू गौतम
को अपनी मीठी-मिठास से तरोताजा कर गयी हैं।
समाज में सामाजिक संबंधों का ढांचा चरमराने के कारण
सामाजिक रिश्तों में भी दरार आ गयी है। समाज में इतनी स्वार्थपरता बढ़ गयी है कि
अब सामाजिक संबंधों की कोई अहमियत नहीं रह गयी है, अगर कोई व्यक्ति किसी से जुड़ता है, तो वह केवल स्वार्थ के कारण, गजराज सिंह यादव ‘हिमकर‘ की कविता इसी ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है-
“सबनें अपनौ-अपनौ, सुख स्वारथ पहचानौ।
जनम लेत सब चीनन लागत, अपनौ और बिरानौ।
परमारथ कौ करबे बारौ, एकऊ नहीं दिखानौ।
हिमकर सब स्वारथ के मारे, तासें काम नसानौ।” (पृ.136)
समता,
स्वतंत्रता, बंधुता की नींव पर ही हम लोकतंत्र की स्थापना कर सकते
हैं। बाबा साहब डॉ. अंबेडकर जी का त्रयी सिद्धान्त, शिक्षित बनो, संगठित हो और अपने अधिकारों के प्रति संघर्ष
करो। यही मूलमंत्र उन्होंने दलित समाज को दिया था। हिमकर जी की कविता ‘डॉ.अंबेडकर को प्रणाम‘ बाबा साहेब के मूलमंत्र की ओर इशारा करती है-
धन्य-धन्य बाबा साहब को, शत् शत् कोटि प्रणाम।
दुनिया भर में
हो गया, अमर तुम्हारा नाम।
शिक्षित बनो संगठित होओ, और करो संघर्ष
बाबा साहब के जीवन का, मूल यही निष्कर्ष।
(पृ.-141)
डॉ. स्नेही का बौद्धिक चिंतन कविताओं के द्वारा प्रकट हुआ है।
डॉ. स्नेही, कविता के माध्यम से दलित
समाज की पहरेदारी कर रहे हैं। अनुभव और चिंतन के द्वारा डॉ. स्नेही की कवितायें दलित समाज की उन समस्याओं को उकेरती हैं, जिनके
कारण दलित
समाज का अस्तित्व ही मिटा दिया गया है। उनकी ‘जै-भीम’ कविता में दलित समाज का सारा दुख ही उजागर हो गया है -
“छींटा लगे खून के जिनखों, घर में डाकू पारें।
उनखों सबरे छियत जात हैं, हमें छियत छींटा डारें।
अपने मुख सें बड़े कहाबें, खूनी नदियां रोज बहाबें।
पाखंडी जे गंग नहाबें, ऊंच-नीच की खेत कर रए,
भारत देश बिगारें।” (पृ.147)
‘कविता
का लोकतंत्र‘ डॉ.स्नेही की एक लंबी
कविता है। इस कविता में डॉ. स्नेही का समस्त चिंतन प्रकट हुआ है। 1947 मे देश आजाद
हुआ, यह कहा जाने लगा कि अब दलितों की
समस्या का निवारण होगा, लेकिन उनकी समस्याओं का निवारण तो दूर, आजादी के बाद भी लोकतंत्र, दबे-कुचले तबके तक अभी नहीं पहुंचा है। दूसरी बात साहित्य में
भी लोकतंत्र अभी नहीं पहुंचा है। इसी समस्या को ध्यान में रख कर डॉ. स्नेही ने इस
कविता का ताना-बाना बुना है –
“लोकतंत्र में सत्ता के सूत्र
जनता के हाथ में होते हैं।
‘हाथ‘ हो या ‘हाथी‘
इसका निर्णय करता है- ‘लोकमत‘
जनता मजबूत हो जाती है
लोकतंत्र में।” (पृ.150)
लोकतंत्र के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा ब्राह्मणी वेद, ग्रंथ और शास्त्र बने
हुए हैं। आज भी समाज और साहित्य पर शास्त्रियों-पांखडियों का कब्जा है। डॉ.स्नेही
ने ‘कविता का लोकतंत्र‘ कविता में साहित्य का सबसे बड़ा सच उजागर कर दिया है
-
साहित्य में अभी शास्त्र और शास्त्रियों का
बोलबाला है-
अभी यहां बहुत गड़बड़ घोटाला है।
साहित्य में अभी लोकतंत्र आना शेष है,
साहित्य में भी तो एक पूरा महादेश है। (पृ.151)
साहित्य में लोकतंत्र लायेगा कौन ? प्रो.स्नेही का स्पष्ट मानना है, कि दलित चिंतक, साहित्यकार और स्त्री साहित्यकार ही लोकतंत्र कायम कर सकते
हैं-
“स्त्रियों ने साहित्य में
लोकतंत्र कायम करने की बुनियाद धर दी है
इस मुहिम ने मठाधीशों की नींद हराम कर दी
‘स्त्री‘-‘दलित‘
साहित्य
बच्चों को पढ़ाया जाए।” (पृ.153-54)
यह कविता इस ओर इशारा करती है कि इस देश में स्त्रियों
और दलितों के द्वारा ही लोकतंत्र आयेगा। दलित और स्त्री के बिना लोकतंत्र की बात
करना अधूरी है। अभी तक साहित्य में दलितों और स्त्रियों की पहुंच नहीं बन पाई है।
द्विजों ने साहित्य को मनोरंजन की वस्तु बना दिया था। प्रमाण के लिए रीतिकाल का
साहित्य देखा जा सकता है। प्रखर दलित चिंतक डॉ. धर्मवीर का मानना है कि कविता को
चार रोगों से मुक्त होना है। निठल्लों से, शाराबियों से,
जारों से और
निकम्मों से, लेकिन इधर हो क्या रहा है। डॉ. स्नेही ने हिंदी साहित्य का कड़वा सच
ही कह डाला हैं –
“सौंदर्य शास्त्र के नाम पर
छंद रचे जाते रहे औरतों के चाम पर
महफिले सजती रहीं मधुशाला के जाम पर
देश को गुमराह किया गया हर मुकाम पर।
जरूरी हो गया है एक लोकतांत्रिक देश में
सभी हलको में बदलाव लाया जाए। (पृ.-151)
प्रो. स्नेही का चिंतन, प्रत्येक क्षेत्र में बदलाव की वकालत करता है, जब प्रत्येक क्षेत्र में बदलाव होगा, तभी भारत में सच्चा लोकतंत्र स्थापित होगा। प्रख्यात
चिंतक डॉ. धर्मवीर कहते हैं कि दलित साहित्यकार कोई मर्सियां गाने वाला कवि नहीं
है, वह तो खुशिया मनाने वाला साहित्यकार है। द्विज अलोचकों ने दलित साहित्य की गलत
परिभाषा देकर दलित साहित्यकार को मर्सिया गाने वाला कवि बता दिया है। डॉ. स्नेही, द्विज आलोचकों के इस मिथक
को तोड़ देते है, श्रृंगार परक कविताएं
लिखकर –
गोरी बजा-बजा कें पायल, कर गइँ सबखों घायल।
दूरद-दूर तक डोरे डारें, घुमा-घुमा कें डायल।
पूछत हतौ न पैलां कोउ, बन बैठीं अब रायल।
बिन हथयारन डांके डारें, करत नेंक में कायल।
रीझीं कभहुं न स्नेही पै, खारिज कर दइ फायल।” (पृ.-179)
दलित समाज का प्रत्येक चिंतक अपने परिवार के साथ रहता
है। वह परिवार के सदस्यों को छोड़कर कभी नहीं जाता है। कबीर से लेकर बाबा साहब तक, सब परिवार में रहे हैं। डॉ. स्नेही भी अपने परिवार
में ही खुशियां ढूढ़ते हैं। परिवार का कोई
भी सदस्य घर से चला जाए तो वे वेसब्री से उसके लौटने की राह देखते हैं। उन्हें
उसकी चिंता होती है। एक विरह गीत में परिवार के प्रति उनका उत्कट प्रेम प्रकट हुआ
है, खासकर अपनी घरवाली के प्रति-
“घर में लगत आज न नीकौ, घरवारी बिन फीकौ।
रौनक निकर चली गइ घर सें, बुरऔ हाल भव जीकौ।
हैरन हंसन दसन की सोभा,दिखत न टुकड़ा हीकौ।
जिदना मिलैं डार गलवाहीं, दिया उजेरें घीकौ।
व्याकुल पड़े रात स्नेही, करें आसरौ कीकौ?”
(पृ.-160)
डॉ. स्नेही ने अपनी दलित परंपरा की तलाश की है। इस
तलाश में वह किसी के बहकावे में नहीं आये हैं। वीरांगना झलकारी बाई कविता इसका
प्रमाण है –
“पर गइ, अंगरेजन पै भारी, झांसी
की झलकारी।
ह्यूरोज की पिंड़रीं कंप गईं, सुनकें रन हुंकारी।
डलहौजी कौ डिगौ सिंहासन,मच गई हाहाकारी।
इतै एक कोरिन ‘स्नेही‘, बिगरी बात सम्हारी।” (पृ.- 200)
इस कविता में झांसी की सच्ची वीरांगाना झलकारी बाई की शहादत को शिद्दत से स्मरण किया
गया है कि अंग्रेजों से सन् 1857 का ऐतहासिक यु़द्ध दलित जाति की झलकारी बाई ने
लड़ा था।
इस काव्य संग्रह के सभी कवि मानवीय संवेदनाओं से जुड़े
हुए हैं। इस गांव के सभी कवि, लोकतंत्र के प्रबल समर्थक
हैं। साहित्य ऐसा हो जिससे स्वस्थ समाज का निर्माण हो और जो भावी पीढ़ी के लिए
प्रेरणादायक बने। कविता का लोकतंत्र ऐसा ही काव्य संग्रह है, जो लोकतंत्र की बुनियाद पर स्वस्थ समाज का निर्माण
करने के लिये कटिबद्ध है। इस संग्रह की
कविताएं दलित चेतना और लोक चेतना से पूरी तरह लैस हैं ।
(पुस्तक का नाम - कविता का लोकतंत्र, डॉ. कालीचरण ‘स्नेही‘, नवभारत प्रकाशन,डी-626, गली न.1 अशोक नगर, निकट
ललिता मंदिर,शाहदरा,दिल्ली-110093, संस्करण 2010, मूल्य 550)
संपर्क - सुरेश कुमार (शोधार्थी), कमरा सं.
68, बीरबल साहनी छात्रावास, लखनऊ विष्वविद्यालय, लखनऊ-226007, दूरभाष 8009824098,
ईमेल - suresh9kumar86@gmail.com
‘मूक आवाज़’ हिंदी जर्नल
अंक-5 ISSN 2320 – 835X Website:
https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
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