बुधवार, 23 अप्रैल 2014

‘चूड़े वाली बांह’- जसबीर सिंह राणा अनुवादक - बलजीत कौर ‘अमहर्ष’

‘चूड़े वाली बांह’- जसबीर सिंह राणा अनुवादक - बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ (पंजाबी कहानी का अनुवाद)

चूड़े वाली बा- जसबीर सिंह राणा
अनुवादक - बलजीत कौर अमहर्ष
                                                                                                  (पंजाबी कहानी का अनुवाद)

पर कई बार मुझे केसर में से एक आशा की किरण नज़र आने लगती। मुझे लगने लगता कि एक दिन उसके हाथों हम दोनों का ही सेहरा बांधा जाना है। पर केसर था कि आखिर तक अपनी जिद्द पर अड़ा रहा। मुझे तो अपनी शादी की बात वो करने ही नहीं देता था। उसका पारा हाई हो जाता, ‘‘नहीं मुझे ये बताओ कि लोगों को शादी के लिए किस मुंह से कहूं!... यह बताऊं कि हमारा बाप नशेड़ी था।... भाई दुश्मनों के साथ पूरी तरह से मिला हुआ है।... साले पराई लड़की को खिलाएगा क्या?... नशे का तू खाया हुआ है!...और मेरी क्या उम्र है ये शादी कराने वाली...!!’’




 दिमाग में बन रही तस्वीर की तरफ देखते हुए मैंने माचिस की तीली छु दी। जीभ पर रखी हुई कपूर की टिक्की लप-लपाती हुई जल उठी। मैने जीभ और बाहर निकाल ली। नाक के ऊपर से फिसलती नज़र आग की लपट पर जा टिकी। टांगों में जैसे जान भर गई हो। रगों में खून दौड़ने लगा। लपट की तरह जलती हुई औरत मेरी जीभ पर नाच रही थी। मैं खुशी से झूम उठा। मन में एक तरंग सी उठी। बाजुएं हवा में लहरा उठीं। पर साला हच्चू आ गया। कपूर की टिक्की फिसल कर धरती पर जा गिरी। जीभ तालू से जा चिपकी। सांस थी कि उखड़ने लग गई। जब खांसी रुकी, मैंने धीरे-धीरे आंख खोली। दिल गा उठा, ‘‘औरत नहा कर तालाब में से निकली... सुलफे की लपट जैसी...।’’
आग की लपट में से औरत देखने की युक्ति मैंने राम आसरे से सीखी थी। बड़ा जुगाड़ू आदमी था वो। मुझे अकसर समझाता रहता, ‘‘दिमाग में तस्वीर बनाते ही जीभ पर लपट जला लिया कर। जैसे ही लपट में से नाचती हुई औरत दिखने लग जाए... तो समझ ले तुझे राम का आसरा मिल गया ...।’’
उसकी बात सुन मैं उस से भी जोर-जोर से हंसने लगता। जिस दिन बहुत उदास होता, मैं राम आसरे के पास जा बैठता जो की ढीली सी चरपाई पर लेटा रहता। चारपाई पर लेटे हुए बीड़ी पीना उसका स्टाईल था। मुझे बैठने का इशारा कर वो लंबा सुट्टा खींचता। और फिर धुआं ऊपर की तरफ छोड़ देता। जब धुआं नीम के पत्तों से टकराता, वो थूक की पिचकारी जमीन पर मारता, ‘‘दयाल... अब तो साली नीम की छांव भी कड़वी लगने लगी...।’’
‘‘हां...आ...!!’’ मुझे पकड़ाई बीड़ी का सुट्टा खींच मैं बीड़ी वापिस उसको पकड़ा देता। आखरी सुट्टा खीचंने से पहले वो मुझे जादूगर की तरह कहता,
‘‘ले अब मेरी आंखों में ध्यान से देखना।... धुआं निकलेगा...!!’’
मैं निशाना बांध लेता। राम आसरा मुझे शिवजी की तरह लगने लगता। उसके नाक में से निकलतीं धुएं की लकीरों के साथ मेरी नज़र उसकी आंखों के बीच में धंसने लगती। ठीक वही पल होता था जब वो बीड़ी का जलता सिरा मेरे हाथ को छुआ देता।
‘‘ओए... तेरी मां...!!’’ मेरी चीख गाली में बदल जाती।
‘‘ना...ना...!... गालियां मत निकाल ऐसे।... ये तो साली अपनी युक्तियां हैं।... तू तो बीड़ी के सेक से ही तड़प गया।... इधर देख!...इधर नागिन लड़ती है नागिन...!!’’ नागिन के डंकों के लिए जीभ बाहर निकालता हुआ राम आसरा नीली हुई गरदन के ऊपर हाथ फेरने लगता।
वो मेरा यार था। हमारे सुख दुःख साझा थे। मेरा बाप पक्का नशेड़ी। काली नागिन का आशिक था वो। वो सारी जमीन अफीम की भेंट चढ़ा कर मरा। जमीन के बिना हमारी कोई गत नहीं हुई। जब तक मां जिंदा रही, रोजी-रोटी चलाने के लिए मैं साझेदारों की मेढ़ों के ऊपर फिसलता रहा। जिन दिनों में गेहुं-चावल की फसल काट कर बचे ठूंठों को आग लगाई जाती, हाथों में माचिस पकड़ मैं आसमान की तरफ उठते धुएं को देखता रहता। उस वक्त मेरा ध्यान टूट जाता, जिस वक्त शहर से देहाड़ी लगा के वापिस आता हुआ राम आसरा ऊंची आवाज में गाता हुआ सड़क पर से गुजर जाता, ‘‘एक जाट के खेत को आग लगी... देखें कब आकर बुझाता है...।’’
उसकी तुकबंदी सुन मुझे घबराहट होने लगती। मेरी नज़र फटने लगती। खेतों के बीच की आग सड़क पर जा पहुंचती। फिर घरों की तरफ दौड़ने लगती। माचिस जेब में डाल कर मैं तेज कदमों से गांव की तरफ चल पड़ता। जैसे ही बस अड्डे की चौकडि़यों के पास पहुंचता, आगे से आते हुए मीत से सामना हो जाता। मुझे देखते ही वो बोलने लगता, ‘‘वहां आग लगा के अकेली छोड़ आया।... दो मिनट ठहर कर चल पड़ता!... घर जाकर क्या आग बुझानी है...!!!’’
मैं अंदर तक जल जाता। पहले तो दिल में आता कि साले के पाजामे को आग लगा कर रावण की तरह जला दूं। सीता की तरह हमारी जमीन चुरा कर ले गया था। पर दूसरा ही पल मेरे हाथ बांध देता। कितने जुल्म की बात थी मुझे मजबूर होकर मीत के उस खेत में ही काम करना पड़ता, जो कभी हमारा होता था।
‘‘नहीं दयाल!... यहां अब तेरा कुछ नहीं।...हां, एक मरजी है जो सिर्फ तेरी है।... मैं कहता यार... मार दुश्मनों को!... मज़ूरी का मालिक बन यार! आ जा चल मेरे साथ...।’’ राम आसरे की बात सुन मैं उसके साथ शहर मजदूरी करने के लिए जाने लगा था।
सूरज निकलते ही हम साइकिल उठा शहर के लेबर-चौक में जा पहुंचते। ज्यादातर तो देहाड़ी मिल जाती। पर बहुत बार हम जान-बूझ कर देहाड़ी पर ना जाते। राम आसरा तर्क देता, ‘‘ ना कोई तेरे पीछे है ना मेरे!... फिर ऐसे किसके पीछे खफ़ा-खून होते हैं!... चल आज खोखे में बैठ कर आंखें सेकते हैं...।’’ शाम तक कई बार चाय पी जाती। बीड़ी सुलगती रहती। चौक में से निकलती एक-एक औरत का चेहरा हमारे दिमाग के ऊपर छपता रहता। रोटी की भूख से ज्यादा कोई और भूख हमें तंग करती रहती। जिस दिन मैं राम आसरे के साथ फिल्म देख आता, उस दिन तो हालत अजीब हो जाती। सारी रात उसके पास ही बैठा रहता। बीती रात तक हम आग की लपट में से नाचती औरत देखते रहते। जब हर चेहरा धुंधला पड़ने लगता, राम आसरा चिलम में सुलफा भर लेता। हर सुट्टे के साथ मेरे दिमाग में नृत्य होने लगता। जब नशा हावी हो जाता, कहीं दूर से आती आवाज़ सुनाई देती, ‘‘औरत नहा कर तालाब में से निकली... सुलफे की लपट जैसी...।’’
गा तो राम आसरा रहा होता, पर आवाज़ मुझे ताऊ की लगती। वो भी बड़ा सुलफेबाज़ था। बदमाश किस्म का आदमी था। बदमाशियों के कारण जवानी में ही दादा जी ने उन्हें घर से निकाल दिया था। जब ज्यादा तंग करने लगा, दादा जी ने उनकी जमीन का हिस्सा उन्हें दे दिया। पर शादी से पहले ही उनकी अंदर अजगर पैदा हो गया। वो ज्यादा जमीन खा गया। जब औरत की कमी उसके अंदर से खलने लगी, वो घर की तलाश में भटकने लगा। राम आसरे का बाप रस्सी बनाने का काम करता था, कई बार ताऊ पीकर उनसे कहने लगता, ‘‘यार कोई ऐसी रस्सी बना जिससे घर बुना जाए...।’’
उसकी बात सुन राम आसरे का बाप रोने-जैसा हो जाता। पर ऊपर से जोर-जोर से हंसने लगता।...ओए इन रस्सियों से तो चारपाई बड़ी मुश्किल से बुनी जाती है।... घर बनाने वाली रस्सियां तो दूसरी होती हैं।
‘‘अच्छा!... ठीक है... ठीक है...!!’’ जल्दी-जल्दी सिर हिलाता हुआ ताऊ सोचने लगता, मानों उसे सारी बात समझ आ जाती थी।
पहले-पहले मुझे एक बात समझ नहीं आती थी। वो यह कि ताऊ कुत्तों के पीछे क्यों पड़ता था। जैसे ही गली में कोई कुत्ता नज़र आता, वो बेचैन हो जाता। उसकी नज़र कोई ईट-पत्थर ढूंढने लगती। उस समय तो वो पागल हो जाता, जिस समय किसी कुतिया के पीछे कुत्तों की जमात पीछे जाती देखता। बस फिर तो ताऊ का हाथ होता और छः फुटी लट्ठ होती। गली के बीच में ललकार कुत्तों की टांगें तोड़ती निकल जाती, दूर तक चऊं-चऊंहोती चली जाती। आंखें उधर रखते हुए ताऊ काफी देर तक  बोलता रहता, साला वो कुत्ता भी पक्का इन कुत्तों के बीच में ही है...!!’’
दानी को वो कुत्ता कहता था। वो कुत्ता उसकी घरवाली को भगा कर ले गया था। जमीन का आखिरी टुकड़ा बेच कर ताऊ खरीदी हुई औरतलाया था। खरीदते समय दानी भी उसके साथ गया था। पैसे तो ताऊ ने दिये पर वो औरत दानी को दिल दे बैठी थी। जिस दिन वो भागी। उस दिन से ही ताऊ बैठक के आसपास रस्सियां बांधकर कहने लग पड़ा था, ‘मेरा बुना हुआ घर खुल गया यार।... एक मिनट ठहरो!... पहले बुन लूं।... फिर देता हूं रोटी!... पर इस थाली में तो छेद हुआ पड़ा है। वो जा रहा कुत्ता।... लाना जरा मेरी लट्ठ...।’’
‘‘हां मैंने फेंका था इसे लट्ठ के साथ!... साला एक कुतिया के पीछे चलता जा रहा था।... यह जुर्म माफी लायक नहीं।... इसको सजा मिलेगी...।’’ उस दिन जख्मी कुत्ते को घसीटकर ले जाता हुआ ताऊ जोर-जोर से बोल रहा था।
मैं और राम आसरा पीछे-पीछे चले जा रहे थे। हमारे बिके हुए खेत के बीच में खड़े शीशम के पेड़ के नीचे जाकर वो रुक गया। उसकी आंख हमसे मिली। राम आसरे ने कमर से बांधी मजबूत रस्सी खोल कर ताऊ की तरफ फेंक दी। अगले ही पल फांसी के फंदे के बीच फंसा कुत्ता शीशम पेड़ के साथ लटक रहा था। उस की बाहर निकली जीभ देख-देख ताऊ जोर-जोर से हंस रहा था, ‘‘इस कुत्ते की मौत में मेरी जान छुपी हुई है...।’’
‘‘कुत्ते की मौत मर गया बेचारा...।जिस रात कुत्तों की जमात के पीछे भागता हुआ ताऊ खारे कुएं में गिर कर मर गया, मैं और राम आसरा जोर-जोर से रो रहे थे।
सब से ज्यादा मैं उस दिन रोया था जिस दिन राम आसरा मरा। उस दिन हम शहर तो गए थे पर मजदूरी करने नहीं गए। कुछ दिन पहले हम दोनों को एक घर में ही देहाड़ी मिली थी। वहां दिन-रात भवन-निर्माण का काम चल रहा था। एक रात टोंटी से पानी पीने के गए तो हमें उस घर के बाथरूम में नहाती औरत दिखाई दे गई। दरवाजे की झरोखे में से दिखी चकाचौंध ने हमारी आंखें अंधी कर गई। देहाड़ी करना भूल गए। बीच में ही काम छोड़ हम चुप-चाप गांव वापिस आ गए। मैं आग की लपट में से वो चकाचौंध देखना चाहता था। पर राम आसरा था कि दिल पकड़ कर बैठ गया। कहने लगा, ‘‘मैं तो घायल हो गया आज...।’’
दिमाग में उस औरत की तस्वीर बनाकर देखने के बाद मैं चिलम का सुट्टा खींच रहा था, मैंने धुंधली नजरों से देखा, राम आसरा नई पकड़ी नागिन को टोकरी में से निकाल रहा था। जब से उस पर हर नशा असर करना खत्म हो गया, वो जीभ के ऊपर डंक मरवाने लग पड़ा था। सारी बस्ती उस से दूरी बना कर रहने लगी। जिस जगह पर भी कोई नाग-नागिन देखे जाते वहां बंगाली की जगह राम आसरा हाजिर हो जाता। सिर्फ कुछ मिनट की ही जद्दो-जहद होती। जानवर हार जाता। उसका डंक राम आसरे का पालतू बन जाता। जब दिल भर जाता, उस को छोड़ वो नया जानवर पकड़ लाता। पर उसका डंक उस वक्त मरवाता था, जिस वक्त कोई जलवा देखना होता। देख दयाल। ... इधर देख... कंजर ऐसे ही डर रहा है!... हम उनमें से नहीं जो रस्सी को सांप समझ कर डर जाते हैं।... अरे हम तो सांप को रस्सी समझने वाले आदमी हैं। देख...देख...नागिन का पहला झटका।... ए... ए... ए... आ... ह... च... च...!!’’ नई नागिन को रस्सी की तरह पकड़ कर खड़ा राम आसरा पहले ही डंक से लड़खड़ाने लग पड़ा था।
मेरे हाथों में से चिलम छुट गई। उसके हाथों में से नागिन छुट गई।
मैं उठ कर खड़ा हो गया। राम आसरा धरती के ऊपर गिर पड़ा। मैंने उसका सिर गोदी में रख लिया। मुंह में से झाग बह निकली। उसकी जुबान लड़खड़ाने लग पड़ी, ‘‘साली नागिन में औरत से भी तीखा जहर था... एक बार तो स्वर्ग देख लिया।... हां सच में... हम प्रेत बनेंगे...।
‘‘औरत के पीछे भटकता मरा। साला पक्का प्रेत बनेगा...।’’
‘‘विष पुरुष था साला!... चिता की आग देते समय देख लेना हवा किधर की है।...इसका तो धुआं भी ज़हर से ज्यादा जहरीला होगा...।’’
पर मैं उस दिशा में खड़ा था जिधर धुआं जा रहा था।
मेरा शरीर नीला पड़ता जा रहा था।
आज दोपहर से ही गली में कुत्ते रोते हुए घूम रहे थे। धनीराम बाबा कहता है ये तब रोते हैं जब उन्हें प्रेत दिखाई देते हैं। तो क्या राम आसरा और ताऊ प्रेत बन गए थे? नहीं...नहीं...। मैं तो....।
क्या मैं तो....मैं तो कह रहा हूं।... अच्छा हम चलते हैं...।’’ आवाज तो राम आसरे और ताऊ की ही थी।
पर ये कैसे हो सकता था? मैं दुविधा मे पड़ गया। दिल में आया कि चारपाई छोड़ दूं। पर चारपाई थी कि मुझे छोड़ ही नहीं रही थी। मैंने करवट ली। चारपाई ने चर्र-चर्र की सी आवाज की। बिल्कुल यही आवाज थी। मुझे लगा जैसे अभी कोई चारपाई के किनारे पर बैठा था। और अभी उठ कर दूर चला गया। मैं डर गया। चारपाई घूमने लग पड़ी। मैं बुरी तरह दहल गया। चारपाई के चारों ओर चुड़ैलें घूमने लगी। वो मुझे बुलाने लग पड़ीं पर मैं चुपचाप पड़ा रहा। कुछ पल के लिए चुप्पी छा गई। फिर उनका नृत्य होने लगा। मेरा नाम ले कर गाना गाने लग पड़ी, ‘‘मुझे ले जा दयाल!... खींच ले तू चूड़े वाली बांह पकड़ के...!!’’
‘‘दयाल! ओ दयाल आ जा... बांह पकड़ ले मेरी...” कई चुड़ैलें मुझे आवाज़ भी लगा रही थीं।
पर मैं कुछ भी ना बोला। सांस तक रोक ली। जब दम घुटने लग पड़ा तो नृत्य दूर होता चला गया।
‘‘अच्छा हुआ बोला नहीं!... नहीं तो आज ले ही जाना था...!’’ अस्पष्ट सी आवाज़ सुन मेरा ध्यान भंग हो गया।
मैं पसीने से भीगा हुआ था। मुझे याद आया कि मरने से पहले राम आसरे और ताऊ को भी चुड़ैलें दिखने लग गईं थीं। तो क्या मैं मर रहा हूं...!!
नहीं... नहीं। मैं इस तरह नहीं मरूंगा। मैं तो...!
‘‘मैं तो बुझा हुआ दीपक हूं दयाल...।’’ वो ऐसे ही कहता था।
नाम तो उसका गुरदीप था पर कच्चा नाम दीप था। पता नहीं क्यों मुझे उसका कच्चा नाम पक्के नाम से भी पक्का लगता था। मैं उसकी दीप ही कहता, ‘‘बुझा हुआ दीप क्यों!... तू कहे तो तुझे लपट की तरह जलने लगा देते हैं...।’’
पर वो राम आसरे की युक्तियों को पसंद नहीं करता था। वैसे ही वो मेरे साथ ज्यादा खुला हुआ था। जिस बस में वो ड्राईवर था वो हमारे गांव में से निकलती, शहर जिस खोखे से हम चाय पीते थे, कई बार दीप भी वहीं आ जाता। एक दो बार जब रामआसरा देहाड़ी पर गया हुआ था, मन उदास होने कारण मैं खोखे पर ही बैठा रहा। जिस समय दीप आया, वो मुझ से भी ज्यादा उदास था। जर्दे की फक्की को बांटते हुए हमारी बातें चल निकलती। कई बाते उसकी तो कई बातें मेरी। हमारे दिलों के ऊपर असर कर गईं थीं। दुःख सांझा था। हमारी सांझेदारी पड़ गई थी। कई बार वो हमें बस में मुफ्त ले जाता। हमारी साइकिलों पर टांगों की घिसाई होने से बच जाती। वो मुझे अपनी सीट के पास बोनट पर बिठा लेता। जब बस टॉप गियर पकड़ लेती, वो मुझे ऊपर को इशारा करता। मैं उसके सिर के ऊपर लगे शीशे की तरफ देखता पीछे बैठी सवारियां दिखाई देतीं। शीशा किसी सुंदर सी सवारी के ऊपर फिट होता। मैं दीप की तरफ देखता। वो शरारती हंसी से हंसने लगता। उस की आंख बार बार शीशे से टकराती। जब शीशे के बीच कैद सवारी उतरने लगती। दीप धीरे-धीरे गाने लगता, ‘‘तेरी आंख यारा वे गगन से उड़ते पंछी उतारती...।’’
पर वैसे वो मेरा सा ही कटा पंछी था। मैं जन्मजात कुंआरावो शादी शुदा कुंआराथा।
उसकी बात सुन मेरे अंदर एक रात की ही शादी सही पर शादीशुदा होने की इच्छा पैदा होने लगती। मैं उल्टी सीधी बातें सोचने लगता। दिमाग में सवालों जवाबों की झड़ी चलने लगती। दीप की तलाकशुदा घरवाली की शादी मेरे साथ नहीं हो सकती? वो अपने बड़े भाई की घरवाली का आशिक क्यों था? उसकी शादी उसके साथ क्यों नहीं हुई? अगर पहली रात ही दीप को अपनी घरवाली में भाभी नहीं मिली तो किसका दोष था? ये जायज़ रिश्ते नाजायज़ होते हैं? मुझे कुछ समझ न आता? मैं दीप की तरह उलझ जाता। उलझन में फंसा वो अजीब किस्म की बेबसी जाहिर करने लग पड़ता, ‘‘जब कोई और बात न हो सकी।... मेरा घरवाली से तलाक हो गया।... घरवाली ने मुझे घर से निकाल दिया!... पर मैं सीना ठीक कर कहता कि उस औरत में औरत नहीं थी...।’’
‘‘आदमी तो सब कुछ छोड़ देता। पर आदमी को कुछ नहीं छोड़ता दयाल...।’’ दीप की यही बात मेरे ऊपर वजन की तरह गिर पड़ती।
मुझे सांस मुश्किल से आने लगता। मैं आंखे बंद कर लेता। दीप पैग पर पैग चढ़ाने लगता। नशा बढ़ने से मेरा दिमाग घूमने लगता। दीप की घरवाली। उसकी भाभी। ताऊ की भागी हुई घरवाली। शीशे के बीच की सवारियां। और बाथरूम में नहाती औरत। एक-एक तस्वीर आंखों में उतरने लगती। कभी लगने लगता जैसे मैं नाच रहा हूं। कभी लगने लगता जैसे भौंकने लग पड़ा हूं। जैसे सुध आती, मुझे अपने आप में से बदबू आने लगती। लंबे-लंबे सांस लेता मैं राम आसरे के साथ गांव की तरफ जाती सड़क पर चलने लगता।
दीप के गांव की ओर जाती सड़क की धूल मुझे सुरमे के जैसी लगती थी। पर खुद वो कभी-कभी ही गांव जाता। बहुत बार ढाबों पर ही रातें गुजारता। जिस दिन हुड़क उठती, वो शराब से धुत होकर उस घर चला जाता हो जो घर उसका नहीं था। घमासान लड़ाई होती। वो सुबह वाली पहली बस से ही अपनी बस की ओर चल पड़ता। पर उस दिन वो चला नहीं बल्कि भागा था। कुछ रात का नशा था, कुछ बहुत टेंशन थी। जब खड़ी बस चल पड़ी। अपनी आदत के अनुसार वो चलती बस की आगे वाली खिड़कीपकड़ने के लिए भागा। बस तेज हो गई। उसका हाथ छुट गया। जब बस रुकी, वो पिछले टायरों के नीचे से निकल सड़क के बीच बिछ गया था। खबर सुन, मैं और राम आसरा उसकी लाश देखने गए थे। बाहर निकली आंखों से वो ऐसे देख रहा था जैसे शीशे वाली सवारीकी तरफ देख रहा होता था। पता नहीं किस की आंख ने उसको अंबर से उतारा था। उस रात मुझे बड़ा डरावना सपना दिखाई दिया था।
सपने में मैं सारी रात ऐसी गाड़ी चलाता रहा जिसके टायर ही नहीं थे।
जब मेरी आंख खुली तो पहले तो दीप की घरवाली याद आई। फिर वो याद आया। मेरी आह! निकल गई, ‘‘तू भी बस यूंही चला गया यार...।’’
‘‘कुंआरे आदमी की यही गति है बच्चू...!’’ शायद ताऊ बोला था। नहीं गली में कुत्ता भौंका था। मैं द्वंद्व में पड़ गया। ध्यान से सुनने की कोशिश की। गुरुद्वारे का पाठी पाठ कर रहा था। समझ नहीं आई ये क्या हो रहा था? मैं तो अभी जि़ंदा था। फिर पहले ही मेरा चौथा क्यों किया जा रहा था? मेरा दिल बैठने लग पड़ा। सांस धौंकनी की तरह चलने लग पड़ा। अंदर से काई चीज़ मेरे गले की तरफ चल पड़ी थी। मैंने चारपाई के तकिये के नीचे हाथ मारा। कोई भी दवाई हाथ नहीं आई। नशे वाले ठेके भी खत्म हो गए थे। कपूर की टिक्की वाली युक्ति भी आखिरी टीका लगाकर खत्म हो गयी थी।
‘‘बाबुल मेरी गुडियां तेरे घर रह गईं...।’’ डोली में बैठा जाता राम आसरा फिर दिखने लग गया था।
वो गा रहा था और हाथ में पकड़ी नागिन को रस्सी की तरह मरोड़ रहा था। मेरा ताऊ और दीप डोली उठा कर ले जा रहे थे। मैं पीछे कुत्तों के साथ चला जा रहा था जैसे ही डोली शमशान घाट में प्रवेश करने लगी, मैं दूसरी ओर भाग लिया। कुत्ते मेरे पीछे पड़ गए उन्होंने मेरी टांगें और बाजू फाड़ दीं। हवा के बीच में दुर्गंध फैलने लग गई।
मैने अपनी नाक को ढक लिया। पर दुर्गंध अभी भी आ रही थीं टीके लगा-लगा कर छलनी हुई टांगे और बाजुएं साथ छोड़ रही थी। मेरा दम घुटने लग गया। मैं लंबी-लंबी सांस लेने लग गया, जिस तरह शमशानघाट में लेता था।
शमशानघाट वाली वो घटना हर तीसरे दिन घटने लगती थी। देहाड़ी लगा मैं शाम को गांव की ओर लौट पड़ता। जिस जगह दीप का एक्सीडेंट हुआ था, उस जगह मेरी साइकिल धीमी होने लग जाती। पीछे से पायलों की छनकने की आवाज उतरनेलग पड़ती। मैं साइकिल रोक लेता। हवा में से हंसने की आवाज़ आती मैं सिर घुमा पीछे को देखता लाल सूट पहने एक लड़की चली आती दिखाई देती। मेरी दिन भर की थकान उतर जाती। वो नज़दीक आकर खड़ी हो जाती। मैं बोलना भूल जाता।    
मुझे तू तरखान माजरे तक ही ले चल...।’’ वो बिना मेरे जवाब का इंतजार कर, पीछे कैरियर की जगह आगे के डंडे पर बैठ जाती।
मैं साइकिल की रेल बना देता।
सारे रास्ते कुछ नहीं बोलती। मैं उसका साथ चाहने के मारे वैसे ही कुछ ना बोलता।
तरखान माजरा दीप का गांव था। गांव आते ही उसकी गोरी-गोरी बाजू हरकत में आ जाती। चलती हुआ साइकिल अचानक की उल्टा हो जाता। सड़क पर गिरा मैं आंखें फाड़-फाड़ देखने लगता। सिर के बिना उस लड़की का धड़ अंधेरे में गायब होता चला जाता।
मेरी चीख निकल जाती। साइकिल उठा मैं भागने लगता।
‘‘भाग कर कहां जाएगा दयाल।... मैं तो सारी सड़क पर बिछा हुआ हूं...।’’ सड़क पर दीप की आवाज़ गूंजती चली जाती।
‘‘इस तरह की आवाजें और सीन दिखाई देना मानसिक बीमारी है...। ...बाकी मैं दवाई लिख देती हूं...।’’ खूबसूरत डॉक्टरनी की आवाज़ मेरे कानों में मिशरी घोलती चली जाती थी।
मन का वहम दूर करने के लिए एक दिन मैं चैकअप करवाने चला गया था। ब्लडप्रैशर चैक करने के लिए जब उसने मेरी बाजू पकड़ी, मैं घोड़े जैसा ही गया। जब वो दवाई वाली पुड़िया पकड़ाने लगी, मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘बस जी!...अब दवाई की जरूरत नहीं ...।’’
घर आ मैं सारी रात बाजु का वो हिस्सा चूमता रहा जहां से डॉक्टरनी ने पकड़ा था।
उसके स्पर्श में फूलों जैसी खुशबू थी। वो खुशबू सूंघने के लिए मैंने बाजू नाक से लगा ली। पर मेरा अंदर गहरे तक सड़ता चला गया। मैं उदास हो गया। आंगन बीच का सूनापन खाने को आने लगा।
फूल खाने के लिए नहीं... सूंघने के लिए होते हैं...।’’ मेरी समस्या सुन, बालों में फूल टांगे बैठी डॉक्टरनी मुस्कराई थी।
उसकी मुस्कुराहट की धार बड़ी तीखी थी। ज़ख्मी हुआ मैं फिर शमशानघाट जा पहुंचा। वहां मन लगता था। आदमी की आखिरी मंजिल फूलों की सेज बनी पड़ी थी। पक्के रास्ते। सीमेंट के बेंच। शैड पर फूलों से लदे पौधे। मैं एक बेंच के ऊपर बैठ मुर्दे जलाने वाले शैडों की तरफ देखने लग पड़ा। पर बहुत देर न देख सका। फटाफट उठा। जेब में से सैंट वाली शीशी निकालीं, फूलों के ऊपर सप्रे करने लग पड़ा। पर खुशबू पता नहीं किधर चली गई थी। मैंने सारी शीशी छिड़क दी। पर खुशबू की जगह दुर्गंध...। मैं पागल जैसा हो गया। सैंट की शीशी दूसरी ओर जोर से फेंक कर मारी। फूलों को तोड़-तोड़ खाने लग पड़ा...।
मुझे ऐसा लगा जैसे कोई चरपाई के नीचे पड़ा हुआ रस्सियां खोल-खोल कर खा रहा था। जैसे कुछ कुत्ते जैसा मेरे अंदर आ गया था। और जैसे सड़क की तारकोल मेरे ऊपर बिछती जा रहीं हो।
मैं बंद हो रही आंखें खोलने की कोशिश करने लगा। पर आंख थी कि...।
‘‘अरे तेरी तो आंख भी गीली न हुई कोढ़ी।... रो ले तेरा, तेरा भाई था...।’’ केसर की लाश के ऊपर गिरी पड़ी मां जोर-जोर से विलाप कर रही थी।
जिस दिन वो मरा मैं जरा भी रोया नहीं था। ऐसी बात नहीं थी कि मुझे दुःख नहीं हुआ। बहुत दुःख हुआ था। पर पता नहीं क्यों मुझे रोना नहीं आया। कोई केसर की मौत से भी बड़ा दुःख मेरे आंसुओं को पी गया था। बैठक के बीच में दीवार से टेक लगाकर बैठा मैं फ्रेम के बीच जड़ा उसका फोटो वाला अखबारी लेख देख रहा था। जिस में लिखा था - चलता-फिरता मैरिज ब्यूरो-केसर सिंह नसराली।
पर खुद वो कुंवारा ही मरा और मुझे कुंवारा मरने के लिए छोड़ गया।
बड़ा अजीब केस था। सारे गांव के अंदर शादी करवाने वाले का विवाह करवाने वाला कोई भी नहीं मिला था। वैसे केसर हर वक्त कुछ ढूंढता रहता था। अगर मैं पूछता, ‘‘ क्या खो गया तेरा...?’’
‘‘अगर कुछ खोया नहीं तो ढूंढने में क्या हरज है...।’’ वो उल्टा ही जवाब देता।
सगे भाई होकर भी हमारी पता नहीं क्यों बनती नहीं थी। पता नहीं हम किस का गुस्सा एक दूसरे पर उतारते रहते थे। अगर केसर अंदर होता तो मैं बाहर चला जाता। अगर मैं अंदर होता तो वो दरवाजे वाली सीढ़ियों के ऊपर जा बैठता था। मां पीछे बैठी कलपती रहती, ‘‘ किस्मत तो मेरी सड़ गई।...
जो कोई भी काम का न निकला...।’’
उसके कहने का मतलब जड़ से लेकर सिरे तक सब बिगड़े हुए थे। पहले पिताजी का नशा। फिर परिवार का बे-जमीन बनना। और फिर हमारा कुंवारे रह जाना। मां का तो यह ना टूटने वाला दुःख बन गया था। पहले तो वो इन दुःख से टक्कर लेती रही। पर बाद में जाकर उसके दिमाग में फरक पड़ गया था। यह फरक उसकी मौत के साथ ही मिटा था। जिस दिन वो मरी, मैं अकेला रह गया था। केसर उससे भी पहले चला गया था।
मैं अब कहां जाऊं...? मैं दिन रात सोचता रहता पर कोई राह नज़र नहीं आती थी। एक जो थी, वो भी ना हुई, जैसी बन गई थी। चांदनी का ख्याल आते ही मैं गालियां निकालने लगता, ‘‘हरामजादी साली...।’’
उसका प्यार तो पैसों के साथ था। मेरे सीने पर नागिन की तरह लहराने लगती। मेरे जैसा गरीब उसका क्या लगता था। मैं जब भी जाता वो गालियां निकालने लग जाती। अगर कभी मन में आता, तो वो फिर डस लेती। नशा तो उसमें बहुत था। पर जो वो तमाशें करती थी, उसके साथ सारा नशा ज़हर बन जाता था। अजीब किस्म की बैचैनी अंदर तक सड़ाने लगती। मैं सारी-सारी रात अपने आपको कोसता रहता, ‘हराम का होगा जो आगे से उसके घर जाएगा...।
‘‘जिसका अपना घर नहीं होता... उसको बेगाना घर भी नहीं संभालता...।’’ शराब पीने के बाद ताऊ कई बार ऐसा कहता था।
मां और बापू उसके साथ वैसी ही दुर्गति करते जैसी चांदनी मेरे साथ करती थी। हार कर मैंने राम आसरे का ही आश्रय लिया था। पर मां को मेरा उसके पास जाना अच्छा ना लगता। वो रोकती रहती, ‘‘ओ दयाल!... उसके पास मत जाया कर!... वो तो पूरा विष पुरुष है!... खत्म हो जाएगा तू भी...!’’
‘‘अगर और कुछ नहीं तो जाति-कुजाति तो देख ले साले...।’’ रोकने के लिए केसर भी मुखिया बन जाता था।
पर मुझे न रुकना था, ना ही रुका। मैं तो वहां जा पहुंचा था जहां सारी जातियों और गोत्रों का दुःख एक बन जाता। मेरे अंदर कोई चीज़ थी जो मुझे फिरकी की तरह घुमाए रखती। वो चीज़ केसर के अंदर भी घूमती रहती थी। तभी तो वो भी घर नहीं बैठता था।
‘‘घर नहीं है ये मां का सिर...।’’ परेशान होकर वो सुबह ही खन्ने को चला जाता।
मैं लोगों के खेतों में काम करता घूमता रहता। केसर को ये बात बुरी लगती थी। वो बड़-बड़ करता रहता, ‘‘साले अच्छा लगता है वहां दुश्मनों की चाकरी करता है...।’’
और मैं करता भी क्या। मेरे अंदर कोई ऐसा इंसान पैदा हो गया था जो कोई भी काम कर सकता था। जिन दिनों में घुटनों के दर्द ने मां को चारपाई में डाल दिया, मैं ही सफाई करता। कपड़े धोता। बर्तन मांजता। जिस वक्त मैं रोटी बनाने लगता तो दूसरे घरों में से बनते परांठों की महक रोटियों को टेढ़ा-मेढ़ा कर देती। दालों, सब्जियों को लग रहा छोंक मुझे दूर तक छलका जाता। चूल्हे की आग शरीर को चढ़ने लगती। मोटी-मोटी रोटियां बना कर मैं काम खत्म कर देता। ज्यादातर तो रात वाली बनाई गई रोटियों के साथ ही सुबह का काम चलता। चारपाई में पड़ी मां ताजी रोटियां बनाने के लिए कलपती रहती। पर रात की रोटी को गरम करता हुआ केसर जोर-जोर से हंसने लग पड़ता, ‘‘कहते सिक्ख को सिक्ख ने मारी आंख।... उठा कढ़ाही अंदर रख। सुबह उठके नहाएंगे।...गर्म करके खाएंगे...।’’
नमक मिर्च छिड़क कर चाय की घूंट के साथ रोटी खा वह बैठक में चला जाता। वो दीवार के साथ टंगे शीशे के आगे खड़ा हो पगड़ी बांधने लगता। मेरा हाथ सिर के चारों ओर बंधे साफे के ऊपर घूमने लगता। केसर मुंह में किनारा पकड़ कर पहला फेर लगाने के बाद एक के बाद एक फेर डालता रहता। पगड़ी इस तरह बन जाती जैसे सिर पर स्कूटर का टायर रखा होता। तिरछा सा देखता वो पता नहीं किसको सुना कर कहता, ‘‘इसको कहते हैं टोकरा स्टाईल पगड़ी...।’’
मेरी हंसी निकल जाती। मुड़ कर मैं दूसरी तरफ देखने लगता। अचानक ही फड़ाककी आवाज़ आती। मैं सिर घुमा कर देखता। सिरा छोटा रह जाने के कारण केसर सिर से पगड़ी उतार कर नीचे दे मारता था। फिर सिर पर साफा लपेटता हुआ बाहर को चला जाता था, ‘‘नहीं भई!... बनी नहीं बात! ... साला आखिरी सिरा छोटा रह गया।’’
उसके जाने के बाद मैं भी उसकी बिगड़ी मिटी हुई पगड़ी बांध-बांध कर देखता। पर उसकी तरह मुझसे भी कभी आखिरी सिरा पूरा ना आता। मैं उदास हो जाता। पर कई बार मुझे केसर में से एक आशा की किरण नज़र आने लगती। मुझे लगने लगता कि एक दिन उसके हाथों हम दोनों का ही सेहरा बांधा जाना है। पर केसर था कि आखिर तक अपनी जिद्द पर अड़ा रहा। मुझे तो अपनी शादी की बात वो करने ही नहीं देता था। उसका पारा हाई हो जाता, ‘‘नहीं मुझे ये बताओ कि लोगों को शादी के लिए किस मुंह से कहूं!... यह बताऊं कि हमारा बाप नशेड़ी था।... भाई दुश्मनों के साथ पूरी तरह से मिला हुआ है।... साले पराई लड़की को खिलाएगा क्या?... नशे का तू खाया हुआ है!...और मेरी क्या उम्र है ये शादी कराने वाली...!!’’
उसकी गर्म-ठंडी बातें सुन मैं मां की तरह चुप हो जाता था। मन में आता कि केसर की ज़ुबान खींच लूं। पर वो तो बहुत ही कड़वा आदमी था। हर वक्त शराब पीता रहता। अगर मां टोकती, ‘‘अरे दिन में तो हट जाया कर...।’’
‘‘नानक नाम चढ़दी कला।... तेरे भाणे सरबत का भला।’’ कहता हुआ वो मां के सामने लोगों की मिठाइयों का ढेर ला रखता था।
पर खुद वो बिल्कुल मीठा नहीं खाता। मैं एक-एक चीज़ अपनी शादी की मिठाई सामझ कर खा जाता था। जिस दिन किसी का रिश्ता करवा कर आता, शराबी हुआ केसर एक अजीब सा तमाशा करता था। पहले वो मुझे शराब पिलाता। फिर मीत को बेची जमीन की तरफ चल पड़ता। मोटर वाली छत के पास जा कर साफ-सी जगह देख बैठ जाता। काफी देर बैठा रहता। मैं असमंजस में खड़ा रहता। काफी देर बाद उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ती, ‘‘दयाल!... यहां से बढ़िया से तिनके चुन कर ला ज़रा।... हम घर बनायें...।’’
वो खुद भी छोटे-छोटे तिनके चुगने लग जाता। फिर एक मजबूत से तिनके के साथ धरती पर गड्ढ़ा बनाता। फिर उनमें एक सी लंबाई के चार तिनके फंसा कर पिल्लर की तरह खड़े करता। और मैं आंखों से उसकी कलाकारी देख रहा होता जब वो तीलियों जैसे बारीक तिनकों से घर की छत डाल कर हटता। अचानक ही कहां से हवा का झोंका आता। घर का तिनका-तिनका अलग हो बिखर जाता। केसर की आवाज़ दूर-दूर तक गूंजती चली जाती, ‘‘ये फूंक किसने मारी है।... किसने मारी है यह फूंक...!’’
‘‘मैंने नहीं मारी केसर।... मैंने नहीं मारी...! उसकी फनाह कर देने वाली आवाज़ सुन मैं गांव की तरफ भाग लेता।
वो काफी देर मिट्टी के ढेले मारता रहता। सुबह होते ही सब कुछ भूल जाता। उसके चेहरे के ऊपर किसी रिश्ते की तलाश होती। अगर रिश्ता नहीं मिलता, वो खन्ने बस अड्डे से सवारियों को आवाज़ें मारने लग पड़ता, ‘‘चलो! चलो! एकलाहा... ईसडू... नसराली... जरग.... रौणी... जौड़ेपुल... भुरथला... रावणां... मलेर कोटला वाले जल्दी जल्दी...!
अवाज लगाता हुआ वह अपना माथा खुजलाता रहता था। जिस दिन उसके माथे में उगे कैंसर में से खून की धारा निकली, वो फोटो खिंचवाने की जिद्द करने लग पड़ा था। अंतिम अरदास के मौके पर ईश्वर की उपस्थिति में रखी उसकी फोटो काफी पुरानी थी। टोकरा स्टाईल पगड़ी बांधे वह जबरदस्ती मुस्कुरा रहा था। उस फोटो में कोई रंग नहीं था। सारी की सारी फोटो ब्लैक एंड व्हाईट थी।
काफी देर तक मुझे उसकी मौत का यकीन ही नहीं आया था। हर पल उसकी याद सताती रहती। उसकी मौत के बाद एक अजब सी घटना घटी थी। अपने लड़के के लिए रिश्ता पूछने के लिए एक आदमी आया। दरवाजा खटखटाया। उसने आवाज़ लगाई, ‘‘केसर घर पर ही है भई...!!’’
नहीं भाई!... केसर अब यहां नहीं रहता...।’’ मां की बात में पता नहीं क्या था। मैं सुबक-सुबक कर रोने लग पड़ा। आंखों में से पानी सावन के बरसते पानी की तरह बह निकला। मन में आया कि उठ के भाग लूं। पर टांगें साथ छोड़ती जा रही थी। सूरज डूब चुका था। सारा आंगन अंधेरे से भरा पड़ा था। आकाश में से चमकती हुई चकरियां मेरी तरफ बढ़ रही थी।
मेरी नज़र आकाश से जा टकराई। एक तारा टूटा और एक और टूटा। तो फिर टूटने तारों की बारिश सी बरसने लगी। मेरा हलक सूखने लग पड़ा। ध्यान शमशानघाट में चला गया। सीमेंट के बैंचों के ऊपर चार लोग काले कपड़े पहने बैठे थे। फूलों की बेलें सांपों की तरह लटक रही थीं। मन में आया कि एक हाथ से टूट रहे तारे को पकड़ लूं और दूसरे हाथ से फूलों को उठा लूं। और फिर पूछूं कि तुममें में से केसर कौन और राम आसरा कौन? दीप कौन और मेरा ताऊ कौन?
वो हमारे बीच नहीं।... उनकी मुक्ति नहीं हुई...।’’ फूलों की आवाज़ थी या पता नहीं तारों की थी। मैं द्वंद्व में पड़ गया। केसर की अस्थियां तो मैं खुद विसर्जित कर के आया था। फिर उसकी मुक्ति क्यों नहीं हुई?
क्योंकि तूने मुझे कपड़े नहीं...।’’ किसी लड़की की आवाज़ थी।
ये आवाज़ मैंने कीरतपुर में सुनी थी। पानी में केसर की अस्थियां विसर्जित कर जब मैं गुरुद्वारे में से बाहर सड़क पर आया तो भिखारियों की भीड़ मेरी तरफ भाग ली। उनके बीच मे एक बड़ी सुंदर लड़की भी थी। मेरी नज़र उससे जा मिली। अस्पष्ट आवाज़ों के बीच फंसी वो कपड़े मांग रही थी, जाने वाले के कपड़े दे जा!... उसको मुक्ति मिलेगी...।’’
उसको कपड़े देने के लिए जैसे ही मैने थैले में हाथ डाला, कितनी ही बाजुएं मेरे ऊपर झपट पड़ी। एक घटिया सा भिखारी तो थैला ही छीन कर भाग गया। मैं भी उसके पीछे भाग लिया। पर वो रोज का खिलाड़ी मुझे मात दे गया। मैं औंधे मुंह सड़क पर गिर पड़ा। भिखारियों की भीड़ हंसने लग पड़ी। खाली हाथ मैं खड़ी लड़की की तरफ देख कर रोने लग पड़ा। वो भीड़ मे से निकल कर किनारे जा बैठी। सड़क के ऊपर पड़ा हुआ मैं उसकी तरफ देख रहा था। वह मेरे कुर्ते-पाजामे की तरफ देख रही थी।
मुझे अपना कुर्ता-पाजामा याद आ गया बॉम्बे-टेलर के यहां सिलने दिया था। पर लाने का टाईम ही नहीं मिला। कहीं वो मेरा कफ़न तो नहीं सिल रहा था?  मैं सूखे पत्ते की तरह कांप उठा। शरीर चरपाई से एक हाथ ऊंचा उभरा। किनारे पर से होता हुआ मैं धरती पर जा पड़ा। शरीर मछली की तरह तड़पने लगा। यानी कोई मेरा गला घोंट रहा था। बचने के लिए मैं दीवार के साथ लग गया। दीवार हिलने लग पड़ी। मैं हाथों-पैरों का सहारा ले दूसरी ओर घिसटने लग पड़ा। मुंह में से आवाज़ निकलने लग पड़ी ‘‘पा... नी...!!’’
‘‘हवा का डसा हुआ पानी नहीं मांगता दयाल...!’’ खोखे वाले की बात मेरे आस पास मक्खी की तरह भिन्न-भिनाने लगी।
वो कौन सी हवा की बात करता था? मेरी स्मृति चकरी की तरह घूमने लग पड़ी। सिर के आसपास होती भीं भीं के बीच बाजा बजने लग पड़ा। मैं छोटा सा बन गया। किसी का बड़ा सा हाथ हवा में लहराया। पैसों की मुट्ठी। शादी वाली कार के आगे आ गिरा। मिट्टी में पांच-दस के पैसे बिखर जाते। मैं उठाने लग पड़ा। भीड़ के बीच में खलबली मच गई। मेरा हाथ नाली में जा पड़ा। शादी वाली कार मेरे ऊपर जा चढ़ी। मैं चीखें मारने लग पड़ा।
‘‘चीखें मारने से कुछ नहीं होता भाई जी!... ये इश्तेहार बाजी का जमाना है...।’’ चाय वाले खोखे पर मिला पत्रकार मुझे यही कह कर गया था।
उस दिन मैं शहर तो गया पर देहाड़ी नहीं गया था। सारा दिन खोखे के सामने टूटे बैंच पर बैठा रहा, कभी-कभार चाय का कप पी लेता। कभी बीड़ी सुलगा लेता। मन को चैन नहीं आ रहा था। अजीब ख्याल आ रहे थे। थोड़ी-थाड़ी देर बाद पत्रकार की कही बात याद आ जाती, ‘‘एक इश्तेहार का तीन सौ के करीब लगेगा...।’’
पैसों की बात नहीं। बात और थी। मैंने महीने भर की कड़ी मेहनत के बाद पैसे इकट्ठे किये थे। सबसे पहले अपना ही नंबर लगवाया। जिस दिन इश्तेहार छपा उस दिन तो मेरी बांछे ही खिल गई थीं। गांव तक साइकिल पर हवा के साथ बातें करता आया, हैंडल में टंगे अखबार में मेरी जान बसी थी। रात को सोने से पहले कई बार इश्तेहार पढ़ा। लिखा था जाट सिक्ख लड़का, उम्र 26/5’-9’’, घर की जमीन जायदाद, खूबसूरत कन्या की ज़रूरत है। जल्दी शादी। कोई जाति बंधन नहीं।
राम आसरे का इश्तेहार पढ़ कर भी बड़ा मजा़ आया था। उसमें मैंने लिखवाया कैनेडियन रामगढि़या लड़का, 24/5’-10’’, उधर अपनी फैक्ट्री, पढ़ी-लिखी सुंदर लड़की की ज़रूरत है। फौरन शादी। कोई दान-दहेज नहीं।
थोड़े से पैसे कम पड़ जाने के कारण दीप और ताऊ का इश्तेहार मैंने इकट्ठा छपवाया। दोनों का जिक्र था दो जाट सिक्ख लड़के, बड़ा फार्म और ट्रांसपोर्ट, उम्र 38/5’-3’’, सरकारी नौकरी, बहुत ही सुंदर और सुशील कन्या की जरूरत है। कोई दहेज और जाति बंधन नहीं। बच्चे वाली, विधवा और तलाकशुदा भी संपर्क करें... केसर के इश्तेहार छपवा कर मैं जिम्मेदारी से मुक्त हो गया था। मन से मानों टनों वजन उतर गया था मन में लड्डू फूटने लगे। अखबार में से काट कर मैंने सारे इस्तेहार बैठक की दीवार पर चिपका दिए थे। आधी रात तक खड़ा पढ़ता रहता। मां कलपती रहती, ‘‘हाय रे! ये किसका शोक संदेश पढ़ता रहता है...।’’
‘‘कड़वा मन बोल मां!... बस तेरा मुंह मीठा होने वाला है...।’’
मां से बातें करता हुआ मैं कहीं दूर ख्यालों में खो जाता।
शहर में खोखे वाला शाकीन किस्म का आदमी था। उसके पास मोबाइल था। सारे इश्तेहारों में संपर्क के लिए मैंने उसका ही नंबर लिखवाया था। उसने मना भी किया था। पर मैंने चोरी से लिखवा दिया। जब रिश्ते वालों के फोन आने लग पड़े तो वो मुझ से लड़ने लग पड़ा, ‘‘साले कुत्ते तुझे रोका था!... अब मुझे भी मरवायेगा और आप भी फंसेगा...।’’
गालियां निकालता हुआ जब बताता कि किसी लड़की का फोन आया था त मैं नाचने लगता। उसकी गालियां और तेज ही जातीं। मैं गाने लग पड़ता, ‘‘जान बेच कर मिले जो तू... फिर भी चलती है...।’’
‘‘देखते जाओ!.... आप तो नाचते फिरोगे...।’’ पर एक दिन मैं मौके पर ही पकड़ा गया था।
पता नहीं किस तरह खोज-बीन कर पता निकाल लिया। एक रिश्तेवाले पूछते-पाछते खोखे पर आ पहुंचे थे। उन्होंने पुलिस बुला ली। मैं और खोखे वाला थाने में बैठे थे। वो तो सच बता कर निकल गया पर मैं फंस गया। कई दिन मार पड़ती रही। जैसे ही दारू की घूंट चढ़ती गालियां निकालते हुआ थानेदार वही सवाल पूछने लगता, क्यों ओए मेरी मां के बनौरे।... चल बता ये चार सौ बीसी की क्यों...?’’
नहीं जनाब।... आपको गलतफहमी हो रही है... चार सौ बीसी तो हमारे साथ हुई है...।’’ बैल्टों की मार सहते हुए मैं लक्स साबुन का विज्ञापन देती हीरोइन की चार सौ बीस बातें सुनाने लगता।
पुलिस वाले हंसने लगते। मेरी बातों से तंग आकर थानेदार ने एक दिन कहा, ‘‘छोड़ो इस लफंडर को, ऐसे ही हांकता है साला...।’’
उन्होंने मुझे पागल समझ छोड़ दिया। पर मेरी साइकिल थाने में ही रख ली। मैं पैदल चलके गांव पहुंचा। मेरे साथ चली आ रही परछाइयां, गांव के बाहर के रास्ते से शमशान की ओर मुड़ गई थीं। गुरुद्वारे में पाठी (पाठ करने वाला) रेरास(शाम) का पाठ कर रहा था। हमारी बैठक में से रोने की आवाजें आ रही थीं। मां मरी पड़ी थी। मेरी आह निकल गई, ‘‘ये कैसे मर गई...?’’
‘‘तेरा इंतजार करती मर गई...!!’’ जिनको कोई दुःख नहीं था, उनके शब्द मेरे कानों में पड़ रहे थे!
मां के सिरहाने बैठा मैं दीवार से चिपके इश्तहारों को देख रहा था। पर कुछ भी साफ नज़र नहीं आ रहा था। मेरी आंखों में मिट्टी पड़ गई थीं। खून में जलन हो रही थी। मुझे प्यास लगी थी। पर नल दूर था। मैंने किसी को आवाज लगाई थी। नहीं शायद नल की आवाज थी। मैंने धीरे-धीरे आंख खोली। एक चूड़े (शादी वाली लाल चूडि़यां) वाली बांह दिखाई दी। मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। हाथ में गिलास पकड़े वो मेरे मुंह में पानी डालने लगी। मुझे हच्चू छिड़ गया। सांस उखड़ गई। मैंने दोनों हाथों से गले को पकड़ लिया।
‘‘ला मेरी बांह पर सिर रख ले। तकलीफ कम होगी...।’’ मेरे सिरहाने बैठी औरत जोर-जोर से हंसने लग पड़ी।
उसकी बांह के ऊपर रखने के लिए जैसे ही मैंने अपना सिर उठाया, वो गायब हो गई। मेरा सिर धड़ाम से जमीन से टकराया। मेरी चीख निकल गई।
‘‘चुप कर दयाल!... चल अब! रास्ता बड़ा लंबा...!! चार परछाइयां मेरे पैरों की तरफ आकर खड़ी हो गईं थीं।
मैं उनकी तरफ देखने लगा। वो आसमान में से उन तारों की तरफ देख रहे थे, जिनको सारा गांव कुंवारों का रास्ताकहता था।
‘‘नहीं...।’’ अपनी तरफ से मैनें उनकी तरफ पीठ कर ली।
मेरी आंखें बंद होने लग पड़ीं। कुछ ऊपर को उठने लग पड़ा। मैं हल्का फूल जैसा बन गया। दिमाग में फूलों की क्यारी खिल उठी। मैं उस के बीच में फूल बनकर खिल गया।
मुझे तो यही फूल लेना है...।’’ एक लड़की की आवाज़ मेरे कानों के पास से होती हुई निकल गई। लड़के ने मुझे तोड़ कर उसके हाथ में पकड़ा दिया। वो सूंघने लग पड़ी। मैं पूरा महक उठा। खुशबू छोड़ती लड़की रात की रानी बन गई। मैं आसमान के बीच का तारा बन गया। वो मेरी ओर इशारा करने लग पड़ी, ‘‘मुझे वो तारा तोड़ कर ला दो...।’’
मेरी तरफ देखता हुआ लड़का, लड़की से वादाकरने लग पड़ा।
मैं अपने शांत हो रहे ध्यान को बाहर की तरफ मोड़ने लगा।
शायद कोई बाहर का दरवाजाखटखटा रहा था।

संपर्क - सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष, दूरभाष - 9019530670, ईमेल - baljit70s@gmail.com


मूक आवाज़ हिंदी जर्नल
अंक-5                                                                                                                                                                                     ‘चूड़े वाली बांह’- जसबीर सिंह राणा  ISSN   2320 – 835X
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