जनसामान्य
के पैरोकार कथाका काशीनाथ सिंह
- डॉ. राजेंद्र कुमार साव
कविता
से अपनी रचना यात्रा आरम्भ करने वाले काशीनाथ सिंह कहानी,
उपन्यास,
नाटक, संस्मरण
और आलोचना के क्षेत्र में एक सुपरिचित नाम है। इनका पहला कहानी संग्रह सन् 1968 ई.
में ‘लोग
बिस्तरों पर’ शीर्षक
नाम से प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘सुबह
का डर’ (1975),
‘आदमीनामा’
(1978), नयी
तारीख’ (1979),
तथा ‘सदी
का सबसे बड़ा आदमी’ (1986)
नाम से कहानी संग्रह प्रकाशित हुये हैं। ‘अपना
मोर्चा’, ‘काशी
का अस्सी’, ‘रेहन
पर रग्घू’ और
‘महुआ चरित’
इनके प्रमुख उपन्यासों में से है। संस्मरण लेखन
में तो इन्हें एक तरह से महारत हासिल है,
जिनमें ‘याद
हो कि न याद हो’, ‘आछे
दिन पाछे गए’, और
‘घर का जोगी
जोगड़ा’
विशेष रूप से शामिल हैं। कथा समीक्षा के क्षेत्र में किया गया उनका काम ‘आलोचना
भी रचना है’ शीर्षक
नाम से प्रकाशित है। ‘घोआस’
इनका प्रमुख नाट्य ग्रंथ है। प्रासिद्ध उपन्यास ‘रेहन
पर रघ्घू’ (2011)
के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और हाल ही में कोलकाता में भारतीय भाषा
परिषद के रचना समग्र पुरस्कार (2013) से इन्हें सम्मानित किया गया है,
जो कुल मिलाकर इनकी गहन अध्ययनशीलता और खोजी
प्रवृत्ति की कहानी बयां करती है। ‘काशी
का अस्सी’ उपन्यास
पर ‘मोहल्ला
अस्सी’ नाम
से फिल्म निर्माणाधीन है।
काशीनाथ
सिंह साठोत्तरी पीढ़ी के ऐसे सशक्त एवं महत्वपूर्ण कथाकार हैं,
जिन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से आधुनिक जीवन की विडंबनाओं से ग्रस्त आदमी की
मानसिक हलचलों से भ्रष्टाचार में लिपटी
जड़ शासन व्यवस्था, उस
व्यवस्था के विरुद्ध संघर्षरत आदमी के अंतर्द्वंद्व,
सामाजिक आाभिशापों से आम आदमी को बाहर निकालने
की पहल उनमें दिखती है। इनका जन्म सन् 1937 ई. में जीयनपुर (वाराणसी,
उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इन्होंने कहानी के
साथ-साथ उपन्यास में भी अपने रचनात्मक व्याक्तित्व को प्रातिफलित किया है। किंतु
इनकी प्रसिद्धि का आधार इनकी कहानियां ही हैं।
इनका
लेखन साहित्य की विभिन्न विधाओं को स्पर्श करता है। कविता से अपनी रचना यात्रा आरम्भ
करने वाले काशीनाथ सिंह कहानी, उपन्यास,
नाटक, संस्मरण
और आलोचना के क्षेत्र में एक सुपरिचित नाम है। इनका पहला कहानी संग्रह सन् 1968 ई.
में ‘लोग
बिस्तरों पर’ शीर्षक
नाम से प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘सुबह
का डर’ (1975),
‘आदमीनामा’
(1978), नयी
तारीख’ (1979),
तथा ‘सदी
का सबसे बड़ा आदमी’ (1986)
नाम से कहानी संग्रह प्रकाशित हुये हैं। ‘अपना
मोर्चा’, ‘काशी
का अस्सी’, ‘रेहन
पर रग्घू’ और
‘महुआ चरित’
इनके प्रमुख उपन्यासों में से है। संस्मरण लेखन
में तो इन्हें एक तरह से महारत हासिल है,
जिनमें ‘याद
हो कि न याद हो’, ‘आछे
दिन पाछे गए’, और
‘घर का जोगी
जोगड़ा’
विशेष रूप से शामिल हैं। कथा समीक्षा के क्षेत्र में किया गया उनका काम ‘आलोचना
भी रचना है’ शीर्षक
नाम से प्रकाशित है। ‘घोआस’
इनका प्रमुख नाट्य ग्रंथ है। प्रासिद्ध उपन्यास ‘रेहन
पर रघ्घू’ (2011)
के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और हाल ही में कोलकाता में भारतीय भाषा
परिषद के रचना समग्र पुरस्कार (2013) से इन्हें सम्मानित किया गया है,
जो कुल मिलाकर इनकी गहन अध्ययनशीलता और खोजी
प्रवृत्ति की कहानी बयां करती है। ‘काशी
का अस्सी’ उपन्यास
पर ‘मोहल्ला
अस्सी’ नाम
से फिल्म निर्माणाधीन है।
वस्तुत
इनकी लेखनी में वैविध्यता के जो आयाम है वह उसे पठनीयता प्रदान करता है। लोकजीवन
और ग्राम्य जीवन में सामंजस्य
स्थापित कर वे रचना को जीवंतता
प्रदान करते हैं। लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय इनकी विशेषता बताते हुए लिखते हैं,
‘भ्रष्ट पारिवेश
के साथ समझौता न कर
पाना। ये जीवन के विद्रूप को लुका छिपाकर पेश नहीं करते,
उस पर सीधा वार करते हैं। अपने बचाव के लिए आवरण
नहीं तलाशते। वे बड़ी सहजता से बहुत गहरी बात कह जाते हैं। यही सफलता उनकी भाषा में
भी है, जो
अपने आस-पास के जीवन से ही बेहिचक से ली गई है।’’[1]
‘नई कहानी’
की प्रशंसा करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने इसे ‘हिंदी
कहानी की एक शुरूआत कहा है।’ लेकिन
इसके बाद साहित्य में बड़े परिवर्तन की स्थिति आती है। सन् 1968-69 ई. के बाद
बंगाल के नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन ने आखिल भारतीय स्तर पर लेखकों को जन चेतना और
जनशक्ति का एहसास कराया। कहना चाहिए कि यह दूसरा मौका था जब साहित्य और राजनीति
इतने करीब हुए कि जनता के दबाव के कारण ऐसे अवसवादी लेखकों के स्वर भी जनवादी और
उग्र हो उठे जो बुनियादी तौर पर जन-विरोधी थे। प्रगतिवादी के जमाने से यह दौर इस
अर्थ में अभिन्न था कि वहां राजनीति ने अपने लिए साहित्य की जरुरत महसूस की थी और
साहित्य ने अपने लिए। फलत बदलाव की इस रूपरेखा को वे स्वयं स्पर्श करते हुए लिखते
हैं, ‘60 के बाद
अकहानी’, ‘श्मशानी
पीढ़ी’, ‘भूखी
पीढ़ी’, ‘आलोचना
की निरर्थकता’, ‘सचेतन
कहानी’, ‘समांतर
कहानी’, ‘आम
आदमी’, और
‘फालतू आदमी’
ये सारे आंदोलन,
नारे और मुहावरे उसी औपनिवेशिकता और आधुनिकतावादी
साहित्य के गर्भ से पैदा हुए और नौ महीने के पहले ही गिरे गये। इन आंतकों और
दबावों को हमारी पीढ़ी के लोग जैसे मैं और ज्ञानरंजन वगैरह झेल
रहे थे और कहीं न कहीं इसके शिकार थे लेकिन इनकी साजिशों को मैनें सातवें दशक के
अंतिम वर्षोंमें महसूस किया। इसके पीछे दो मुख्य कारण थे - कांग्रेस का असफल होकर
प्रदेशों में संविद-सरकारों का बनना। साथ ही बंगाल में नक्सलवादी आंदोलन उभरना।’’[2]
आठवें
दशक का युग जनोन्मुखी संघर्ष का युग है। वे लिखते हैं, ‘भारतीय
साहित्य में आठवें दशक का जन्म उस नारे के साथ हुआ था जो तमाम क्रांतिकारी लेखकों
का नारा रहा है – साहित्य सामाजिक परिवर्तन का हाथियार है। इस नारे के साथ ही हमने
अपनी रचनात्मक शक्ति आम जनता से ली और प्रगतिशील साहित्य की खंडित परंपरा से अपने
को जोड़ते हुए अपने लेखन को ‘जनवादी
लेखन’
का
नाम दिया। यह लेखन किसी की ‘हॉबी’
या
‘प्रोफेशन’
नहीं,
उसकी
नागरिकता का दायित्व था। हम जानते हैं कि एक राजनैतिक या नौकरशाह की नागरिकता
संदिग्ध हो सकती है, क्योंकि उसके अपने व्यक्तिगत
स्वार्थ होते हैं, और सैकड़ों तरह के गलत-सही
समझौते करने पड़ते हैं, मगर एक
लेखक अपनी धरती का सच्चा नागरिक होता है, क्योंकि
उसके जड़ें जनता में होती है।’’[3]
डॉ.
अभिज्ञात के एक प्रश्न, क्या
कोई व्याक्ति, कोई
समाज या कोई ऐसी स्थिति है जिसको आदर्श मानकर आप
सृजन करते रहे हैं, के
जबाव में काशीनाथ सिंह कहते हैं, “कोई मॉडल तो रचना
के लिए आपको प्रेरित कर सकता है लेकिन यादि वह मिल जाए तो वह रचना नहीं कर सकता।
चीजें अधूरेपन में ही पैदा होती है। ... मॉडल के रूप में समाजवाद है जिसको ध्वस्त
होते हुए हमने देखा है ... हम उस व्यवस्था की कल्पना कर रहे हैं या सपना देख रहे
हैं ... एक ऐसा लोकतंत्र हो जिसमें झूठ न हो,
मक्कारी न हो,
भ्रष्टाचार और बेईमानी व घटियापन न हो,
न जाति हो न हो वर्ग,
बराबरी हो,
एक जैसा सोचें।”[4]
दरअसल,
आज के बदलते हुए यथार्थ की सही पकड़ इनकी
कहानियों में सर्वत्र मिल जाती है। अपनी बात को बिना लाग-लपेट के बेबाक होकर कहने
की ताकत इनकी कहानियों में सर्वत्र विद्यमान है। ‘सदी
का सबसे बड़ा आदमी’ एक
नये संदर्भ को सामने लाती है। जाहिर है कि हमारे समय में यादि एक ओर बदलाव की
आकांक्षा एवं प्रक्रिया तीव्र हुई हैं, वहीं
दूसरी ओर अपनी सुख-सुाविधा व व्यक्तिगत उपलाब्धि के लिए खुशामद करने की प्रवृत्ति
भी बढ़ी है। जो बदलाव के विरोधी हैं, वे
इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। इस कहानी में लेखक का रचनात्मक निर्णय यही है कि
जहां कहीं भी व्यवस्था या समाज का स्वत्व हरण करने वाली ताकतों को चुनौति देने
वाला कोई भी व्यक्ति बचा हुआ है, वही
बदलाव की आकांक्षा वाली इस सदी का सबसे बड़ा आदमी है।
समीक्ष्य
कहानी ‘सदी का सबसे बड़ा आदमी’ मानव
मूल्यों की स्थापना पर बल प्रदान करती है। कहानी में शौक साहब उस वर्ग का
प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपनी धनाढ्यता और फूहड़ हरकतों के कारण मानव गरिमा
को लाज्जित किया करते हैं। वे अपनी कोठी में बैठकर प्राय लोगों पर पीक फेंकते हैं।
वे चाहते है कि पीक जब उनके ऊपर पड़े तो लोग उन्हें गालियों से तर कर दें ताकि वे
उनके खराब हुए कपड़ों के बदले नये कपड़े देकर अपनी धनाढ्यता का प्रदर्शन कर सकें।
लेखक उसकी इस तरह की बेतरह हरकतों के बारे में लेखक लिखता है,
‘उन्हें
ऐसे बहादुरों की तलाश रहती, जो कपड़े
खराब होते ही माँ-बहन की धुआंधार गालियां बकना शुरू करें, उछलें-कूदें,
आसमान
सिर पर उठा लें,
रो-रोकर
मुहल्ले और राह चलतों को अपने इर्द-गिर्द जुटा लें,
फिर बिलखें-बिलाबिलाएं और दया की भीख मांगते हुए, इंसाफ
का वास्ता देते हुए बताएं कि अब वे क्या पहनें, उनका
क्या होगा?’’[5]
बहरहाल
कस्बाई चेतना को छोड़ने की मजबूरी और नागरी बोध को स्वीकार करने की अनिवार्यता को
एक साथ इनके पात्रों को निभाना पड़ता है। ‘दलदल’
कहानी में काशीनाथ सिंह का नायक 20 वर्ष की लंबी
अवाधि शहर में बिताकर भी वहां का नहीं हो पाया है। यहां रहते हुए भी वह अपनी कोई पहचान
नहीं बना पाता है। कथानायक स्तरीय धरातल पर बल प्रदान करते हुए कहता है,
‘भाई, बेशक
यह धरती खूबसूरत है, बेहद
खूबसूरत है लेकिन तभी तक, जब
तक हम अपनी आंख से सोचते हैं, जब
तक हमारी आंखें हमारे हाथों के बाहर हैं और तरक्की पसंद हैं। आओ,
पहले हम अपनी आंखों की जांच करें और पक्के तौर
पर तय कर लें कि हमारे पैरों के नीचे क्या है?’’[6]
‘माननीय होम
मिनिस्टर के नाम’ में
भी देश में फैले इस भाई-भतीजावाद
की बाखिया उधेड़ी गई है। ‘जंगलजातकम’
कहानी में जातक शैली और फंतासी शिल्प में जनवादी
सोच को अनुस्यूत किया गया है। कहानी के ‘आर्य’ अपनी बेहोशी में जो गाथा बोलते हैं
उसमें व्यंजित किया गया है कि जब सामान्य आदमी अपनी जगह पर जमकर व्यवस्था को पलटने
का दृढ़ निश्चय कर लेता है तो सड़ी-गली
व्यवस्था उसके सम्मुख टिक नहीं पाती है।’’[7] ‘मीसाजातकम’
कहानी में सामान्य आदमी की उस बेबसी का चित्रण
है जब आपातकाल में उसे बिना किसी अपराध और आभियोग के मीसा में बंदी करके इस कारण
पर या उस कारण पर या किसी भी कारण पर बंदी कर लिया जाता था।
काशीनाथ
सिंह की आधिकांश कहानियां राजनीतिक चेतना से सम्पन्न है। इनमें गहरी व्यंग्यात्मकता
का पुट भी शामिल है। इन्होंने व्यंग्य को वैसे तो विविध संदर्भों में प्रस्तुत
किया है। लेकिन विशेषतः व्याक्ति और पारिवेश के संदर्भ में प्रस्तुत व्यंग्य ने
कहानी की प्रभावोत्पादकता को बढ़ाया है जिससे इनकी पठनीयता बढ़ जाती है। यही इनकी
किस्सागोई की सफलता का राज भी है।
बाढ़
के कारण आम जीवन किस प्रकार ठप्प पड़ जाता है और लोगों को किस प्रकार की यातना
सहनी पड़ती है, इसका स्पष्ट खुलासा इनकी
कहानी ‘सूचना’
करती है। लेखक लिखता है,
‘जब से बाढ़ आई है,
रिक्शे मुश्किल से मिलते हैं। हालांकि यही एक सड़क है जिसे बाढ़ ने बख्शा है।
रिक्शों, इक्कों,
तांगो, साइाकिलों,
कारों और स्कूटरों का जमघट है,
हार्न और घंटियों का गूंजता हुआ शोर है,
सवारियों की लूट है - सब है लेकिन रिक्शों के
भाड़े दोगुने हो गए हैं इसलिए सवारियां भी जहां की तहां हैं और रिक्शे भी। बाढ़ का
पानी सुस्त पड़े घड़ियाल की तरह पसरा है- न
घट रहा है, न
बढ़ रहा है। लोग इंतजार में खड़े हैं कि
आाखिर वह करता क्या है, चाहता क्या है?’’[8]
‘कहानी
सराय मोहन की’ कहानी में लेखक ने स्पष्ट किया है कि सामंती व्यवस्था के अवशेष देश में न केवल मौजूद है,
बाल्कि
अवसर मिलने पर वे फिर से साक्रिय हो सकते हैं। निम्न वर्ग के लोग शोषण के विरुद्ध
लड़ सकते हैं किंतु मानवता के नाम पर उन्हें ठगने वाली चालाकी को वे समझ नहीं
पाते। इनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि अपने लेखन के प्रत्येक दौर में
सामान्य आदमी के पक्षधर रहे हैं। नगरीय जीवन के छल छद्म से परे उनका सहज ग्रामीण
मन अपने खरे स्वभाव के साथ निरंतर उनके साथ रहा है। डॉ. पुष्पपाल सिंह की माने तो
‘काशी
की कहानियों में व्यवस्था द्वारा आदमी के शोषण को ही नहीं उगाड़ा गया है,
मनुष्य-मनुष्य
के बीच के ओछे व्यवहार पर भी खुलकर लिखा गया है।’’[9]
‘अपना
रास्ता लो बाबा’
कहानी
में काशीनाथ सिंह ने नई सभ्यता के खोखलेपन के आदर्श को बड़ी सफलता से चिन्हित करते
हैं। अपनेपन के भाव हमारे मन से किस प्रकार लुप्त हो रहे हैं - इसका सशक्त प्रमाण
है यह कहानी। अफसर द्वारा वृद्ध से किये उपेक्षित व्यवहार को गांव के प्रति
उपेक्षा का प्रतीक कहा जा सकता है। कहानी में वार्णित है - बाबा के घर पहुंचते ही
देवनाथ और उसकी पत्नी की चिंता एकाएक बढ़ जाती है। पत्नी चाहती है कि पति कहे कि वह चले जाए। इसपर देवनाथ
अपराध बोध से कहता है, ‘तुम्हे कुछ पता नहीं है गांव
का। पिता के बड़े भाई हैं ये। सगे भाई। अभी दस साल पहले अलग हुए थे। अपने बेटे से
ज्यादा मानते रहे हैं मुझे। ऐसे ही लौट जाएंगे तो लोग ताना मारेंगे -कहि। क्या हुआ
आपरेशन का?
किस हौसले से गए थे? अपना बेटा है,
आकाश-पाताल
एक कर देगा,
कुछ
उठा नहीं रखेगा। समझा ?’’[10]
‘जमीन का
आाखिरी टुकड़ा’ कहानी
में इब्राहीम शरीफ ने यह लक्षित करने का प्रयास किया है कि यह अर्थ प्रधान
दृष्टिकोण ही भाई-भाई
को दूर कर देता है। द्रोणवीर कोहली की कहानी ‘मां-जाये’
में बड़ा भाई अनंतराय इसालिए अपने छोटे भाई ओमप्रकाश
को इतनी निदर्दता से डंडों से पीटता है कि
उसने चंद रूपयों की उसकी बूट पालिश खराब कर दी थी। इस सांस्कृतिक पतन के कारणों की
शिनाख्त करते हुए उन्होंने स्वयं लिखा है,
‘मानवीय श्रम की जगह जैसे-जैसे मशीनी श्रम का विकास होता गया,
लोकसंस्कृति संकट में फंसती चली गयी। हल के अपने
गीत थे लेकिन ट्रेक्टर और थ्रेसर के अपने गीत नहीं है,
जाता और पानी
भरने के भी थे लेकिन आटाचक्की और चापाकल और बल के अपने गीत नहीं हैं। शादी
व्याह के लिए रेकार्डप्लेयर और कैसेट हैं,
गीत भी है तो फिल्मी धुनों पर।’’[11]
शोषण
के बढ़ते दबावों के बीच भी इनकी पक्षधरता आम आदमी के हितों से है और यही बड़ी बात
है। काशीनाथ सिंह ने अपनी कहानी ‘कहानी
सराय मोहन की’ में
बड़े कौशल से तीन जातीय प्रतिानिधियों (ठाकुर,
ब्राह्मण और अछूत) को एकत्र कर
उच्च जाति वालों
के पाखंड का उद्घाटन
किया है। पेट की आग सारे जातीय दर्प और विभाजन को निरर्थक बना देती है। कहानी के ब्राह्मण और ठाकुर दोनों अपनी समझ
से बड़ी चतुराई तथा धूर्तता के साथ अछूत मजदूर मोहन के उपले की आग से पकती गर्म सुस्वादु बाटियों को चटकर जाते हैं और
मजदूर मोहन चुपचाप उसे ‘समझ
हरेक राज को मगर फरेब खाए जा’ वाले
अंदाज में झेलता जाता है। और खुद झोले में बचे चनों को खाकर भूख शांत कर लेता है।
ठिठुराती रात को बर्दाश्त करने के लिए,
और किसी तरह काट देने के लिए,
उसके सवर्ण श्रद्धेय आतिाथि उसे गीत गाने के लिए
मजबूर करते हैं। ऎसी स्थिति में मोहन गीतों में अपनी व्यथा को यूं बयान करता है -
‘चूंटी
क मार चूंटा
गांड
गुह कारिया
ठूंठ
पकाडि़या
लुंज
भैसा
बानर
पदना
राजा
टेडुकाह
रानी कुबराह
सयगा
उतान।’’[12]
स्पष्ट
है, उपरोक्त
पंक्ति में लेखक ने शोषितों का पक्ष लेते हुए सवर्ण वर्गों का उपहास उड़ाया है।
‘सुधीर घोषाल’
कहानी काशीनाथ सिंह की एक चार्चित कहानी है
जिसमें एक ओर जहां जनजीवन में समाहित कठिनाइयों और संघर्ष प्रक्रिया का खुलासा है,
वहीं दूसरी ओर उनमें अतिक्रांतिकारी रोमानियत भी
मिलती है। समीक्ष्य कहानी का नायक सुधीर
अपने मजदूर भाइयों के ऊपर हो रहे अत्याचार का प्रतिकार करते हुए कहता है,
‘जानता हाय तुम कि ईशाला क्या चीज हाय?
इहां से पहले ई सिंगरेनी में था- कहीं दक्खिन में। सो,
ई दस लेबरों को जिंदा आग में भून दिया। और भी
बहोत बहोत अत्याचार किया। दो बरस पहले हम अखबार में सुना था। हमारा साथी लोग बोला
था। हम उन लोगों को जानता भी नेई। वह लोग भी हमारे को नेई जानता। बाकी हम भाई-बंद
हारा लेबर हाय! जब ई साहब बनकर इस जगह में
आया तो हमको पता
चल गिया। हम जिंदा
नेई छोड़ेगा इसको। हम जाने नेई देगा इसको। और तुम...हम तोमरा किताब देखा।
अंदर में का फोटू देखा, तब
तुमको बोला। तुम किसी को नेई बोलेगा।’’[13]
समकालीन
मनुष्य इतना व्यस्त हो गया है कि वह देश-देशान्तर की तमाम बातों की जानकरी तो रखता
है पर अपने आस-पास के वातावरण तक को महसूसने की शक्ति जैसे खो बैठा। प्रकृति के
साथ तो जैसे उसकी संबंध-विच्छेद वाली स्थिति बन गई है। उनकी कहानी ‘सुख’
अकेले पड़ गये मनुष्य की विडंबना को मार्मिकता
से रेखांकित करती है। कहानी के भोला बाबू ढलते सूर्य में अपार सुख की संभावनाओं को
देखते हैं जो मनुष्य को आह्लादित कर सकती है। जो उन्होंने अनुभव किया, जिस दिव्य
ज्योति के आज उन्होंने साक्षात्कार किये, दूसरे लोग उस बारे में क्या सोचते हैं,
उनका अनुभव क्या कहता है। यही सब जानने के लिए
वे जिलेदार साहब, मुख्या
साहब और पड़ोस में जाते हैं, लेकिन
सभी लोग औसत बात कहकर चुप हो जाते हैं जिनसे उन्हें काफी दुख होता है। वे सोचते है,
‘आाखिर लोग क्या होते जा रहे हैं ?...
हाय! दुानिया कितनी बदल गई है।...
कल शाम होगी। वे सभी लोगों को बुलायेंगे। सूरज
दिखायेंगे। और समझायेंगे कि देखो, दुनिया
में चूल्हा, योजना,
कचहरी, ऊंट
और दूध ही सब कुछ नहीं है। सूरज भी है। पहाड़ियों के ऊपर होता है। ताड़ों के बीच
में आता है। फिर कांपता है। और फिर वह क्षण भी आता है,
जब वह पहाड़ियों के पीछे जाता है। और डूबने के
पहले एक मुलायम किरण तुम्हारे गंजे सिर पर छोड़ जाता है। अचानक उन्हें याद आया। वे
अपना हाथ सिर पर ले गये। टटोला। वह हिस्सा बिलकुल ठण्डा था। उन्हें दुख होने लगा-
लेकिन कितने लोग हैं, जो
कल भी इसे समझ सकेंगे?’’[14]
काशीनाथ
सिंह की कहानी ‘कविता
की नई तारीख’ में
मानवीय संसक्ति का उदात्त रूप देखने को मिलता है। आजादी के बाद भारत में जिस तेजी
से प्रशासक समुदाय संपन्न और शक्तिशाली बना है,
उस तेजी से बौद्धिक समुदाय नहीं। बौद्धिक सुमदाय
अड़ियल समुदाय है, उसे अपनी शिक्षा तथा बौद्धिक संपदा पर नाज है,
जबकि नौकरशाह की संपदा की अवधारणा कुछ और है।
आलोच्य कहानी इन दोनों समुदायों के प्रतिनिधियों को रू-ब-रू कर देती है। पूरी कहानी दोनों के बीच इसी द्वंद्व युद्ध
की कहानी है। इस द्वंद्व युद्ध को कहानी में इतनी
प्रखरता तथा नाटकीयता से प्रस्तुत किया गया है कि लंबी होने के बावजूद वह
पाठक को इस द्वंद्व युद्ध के ऐंटिना से आंखें हटाने का भी मौका नहीं देती है। वे लगभग सांस रोके हुए दोनों के बीच होते प्रहार-प्रतिप्रहार
तथा घात-प्रतिघात को देखते रहते हैं। इस घात प्रतिघात में कथावाचक ‘मैं’
को ऎसी-ऎसी बातें सुननी पड़ती हैं,
जिससे वे
अपमानित हो उठते हैं। अपमान के इस
दंश से छुटकारा पाने के लिए वे अपनी ठोड़ी फोड़ लेते हैं। उनकी पत्नी यह सब कुछ
पीछे छिपकर देख रही थी। वह अपनी बहन को उसके पति की हरकतों के बारे में बताती हुये
कहती है, ‘रात-भर
रोती रही हूं ... सारी रात ... मेरी ये
पलकें देखो। और रात ही क्यों, जब
से आई हूं तब से रोती रही हूं। मैंने इस
मर्द के साथ सोलह साल गुजारे हैं ... सारी जवानी
गुजारी है इसके साथ और मैंने किसी नशे का असर नहीं देखा इस पर-चाहे शराब हो,
चाहे गांजा,
चाहे भांग,
चाहे दौलत! हां दौलत! यह धनी से धनी
और दबंग से दबंग आदमी के साथ ऐसे पेश आता रहा है जैसे वह कौड़ी का भी न हो!
मेरे कहने का यह अर्थ कतई मत लेना कि मैं इसके या अपने अपमान का बदला ले रही हूं।
न, ऐसा मत
सोचना। बदला मैं तुमसे क्या लूंगी जिसे यही नहीं मालूम कि उसके बाप को गुजरे कै
महीने हो गए और भाई घर पर है या जेल में ?
नहीं, पहले
पूरी बात तो सुनो! मेरी मुाश्किल यह है सिर्फ कि इसने खुद अपनी ठोड़ी क्यों फोड़ ली?
जान-बूझकर क्यों फोड़ी?
क्या इसालिए कि यह सानू का कुछ नहीं कर सकता था?
क्या इसालिए कि वह मेरा रिश्तेदार और तुम्हारा
पति था?’’[15]
कथ्य
के साथ-साथ इनकी कथा भाषा जन भाषा के अत्यंत निकट पड़ती है,
जिसमें लेखक सजगता से अर्थ समृद्धि लाने के लिए प्रयत्नशील रहा है। बच्चन सिंह के
शब्दों में,
‘काशीनाथ सिंह की भाषा ऊपर से सपाट, पर
भीतर से अर्थवान है। अपने विनोदपूर्ण व्यंग्य के कारण वह कहानी के माहौल को
जिंदादिल और संकेत को धारदार बना देती है। वे कहानी को अस्वीकार की ओर ले जाने की
दिशा में प्रयत्नशील है।’’[16]
काशीनाथ
सिंह की कहानी ‘सुख’
में संवाद शैली का अनूठापमन ध्यातव्य है -
‘‘तुम
शाम को क्या करते हो? उन्होंने
पूछा।
‘‘छनहर
जाता हूं। खली मलता हूं। सानी गोतता हूं।
दूध दुहता हूं। और ...’’
‘‘सूरज
देखते हो या नहीं?’’
‘सूरज?’’
सोहन ने विस्मय से पूछा।
‘तुमने
आज सूरज देखा था?’’
‘कौन
सूरज? सुरजा
तेली?’’
‘नहीं,
कोल्हू। बेवकूफ’’,
भोला बाबू खीझ उठे।
सोहन
हंसने लगा, ‘बाबू,
मैं गंवार आदमी,
क्या जानूं,
किसको पूछते हैं?’’
‘मैं
आसमान के सूरज की बात कर रहा हूं।’’
‘हां
बाबू, देखा
था।’’
‘मतलब?’’
सोहन ने दीनता प्रकट की।
‘कुछ
गोल-गोल, कुछ
लाल-लाल’’, भोला
बाबू ने सोहन की सहायता की।
‘तो?’’
बहरहाल,
काशीनाथ सिंह कुछ फंतासी और कुछ तथ्यों के सहारे
ऐसे आम आदमी की शोषित जिंदगी का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है,
जिसमें आम आदमी की जिंदगी तिरस्कृत और अपमानित होता रहती है। इस दृष्टि से इनकी
कहानी ‘मुसाइचा’
का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इस कहानी
का नायक मुसाइचा उस व्याक्ति का प्रतीक है,
जो हर तरह से योग्य है किंतु फिर भी नौकरी उसे
केवल इसलिए नहीं मिलती है कि उसके पास सिफारिश और देने के लिए कुछ भी नहीं है।
हालांकि कहानी के अंत का यह वाक्य आति महत्वपूर्ण है,
‘‘सच है कि मुझे गन्ने की तरह चूस कर फेंक दिया गया है लेकिन अगर तुम्हें आग की
जरुरत है तो मुझ पर यकीन करो मैं धुंआ और बदबू नही करूंगा,
मुझे उठा लो,
उठा लो मुझे।’’[18]
विजय
मोहन काशीनाथ सिंह सिंह की भाषा की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं,
‘वे मुख्यतः ठेठ बनारसी ठाठ के कहानीकार है। उनकी
कहानियों का ‘भदेसपन’
ही उन्हें अपनी पीढ़ी के साथ-साथ आधुनिक कहानी के
आधिकांश कहानीकारों की कहानियों से सर्वथा पृथक व्यक्तित्व प्रदान करता है। यह
संयोग नहीं कि उनकी कहानियों तथा उनके उपन्यासों में बनारस तथा बनारस का जनपद अपने
समस्त जीवंत आस्तित्व के साथ उपास्थित है। ‘कहानी सराय
मोहन की’ और ‘पांडे
कौन कुमाति तोहे लागी’ इस
संकलन में बनारस का प्रतिनिधित्व करने वाली दो महत्वपूर्ण कहानियां है। ‘कहानी
सराय मोहन की’ को
काशीनाथ सिंह ने बड़े पुरलुत्फ ढंग से लगभग परंपरागत शैली में प्रेमचंद की ‘पूस
की रात’ की
याद दिलाते हुए बयान किया है। इस कहानी में भी सर्दी की ठिठुरती हुई रात है,
तेज पछुआ हवाएं है,
खेत, खलिहान
और कुत्ते हैं।’’[19]
विजयमोहन
काशीनाथ सिंह सिंह की कहानी ‘पांडे
कौन कुमति तोहे लागी’ के
बारे में लिखते हैं, ‘यह
कहानी ऐसे ही एक पंडित परिवार की कहानी है,
जो अपने एक दलाल द्वारा लाई गई एक विदेशी छात्र को स्नानघर संलग्न कमरा मुहैया
कराकर हजारों रुपए कमाने के सपने देखने लगता है। इस कहानी का अंत उस विडंबनात्मक
बिंदु पर होता है कि उसके छोटे-संकरे और पुराने घर में अतिरिक्त स्थान न होने के
कारण, वह
अपने-अपने आराध्य और नगर देवता शिव के लिए निर्धारित पूजा स्थली को तोड़कर उसे
आधुनिक बाथरुम में बदल देता है।’’[20]
बहरहाल, ऐसा नहीं है कि इनके यहां सबकुछ ठीकठाक ही है। इनकी
कहानियों में भी औरों की तरह कुछ सीमाएं है। इनकी कहानियों की कुछेक कमजोरियों की
ओर संकेत करते हुए दूधनाथ सिंह लिखते हैं,
‘कभी-कभी पारिवेश से इनका
लगाव इतना आधिक आंतरिक हो जाता है कि ठीक-ठीक समझायी जा सकने वाली बात बेवजह दुरुह
बन जाती है। ‘लोग बिस्तरों पर’, ‘चाय घर में मृत्यु’,
‘आदमी का आदमी’,
‘तीन काल कथा’
आादि इसी तरह की कहानियां
है,
जो अपने कथ्य में वजनदार होते हुए भी शिल्प और
कलात्मकता के चक्कर में अपने अभीप्सित रुप में पाठकों तक संप्रेषित नहीं हो पातीं।’’[21]
फिर
भी इनकी अधिकांश कहानियां के संबंध में यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि उनमें
स्वाभाविकता, ताजगी,
सादगी और स्वस्थयता अपनी पूरी शक्ति के साथ
उपस्थित है, जो
प्रतीकात्मकता को भी प्रकट करती हैं। इस दृष्टि से ‘सदी
का सबसे बड़ा आदमी’, ‘कहानी
सराय मोहन की’, ‘अपना
रास्ता लो बाबा’ आादि
सभी महत्वपूर्ण कहानियां है। ‘अपना
रास्ता लो बाबा’ आज
के इस तथाकाथित आधुनिक युग में संबंधों के निरंतर खत्म होने की प्रक्रिया की कहानी
है।
काशीनाथ
सिंह की काहानियों से गुजरना न केवल संपन्न करता है,
बल्कि नये सवालों से भी रू-ब-रू कराता है। इनकी
कहानियां उस जरूरी लड़ाई को जारी रखती हैं,
जो किसी भी समाज में हाशिए पर रहकर लड़ी जाती है,
लेकिन केंद्र को प्रभावित और नियंत्रित करती
जाती है। आज की सबसे बड़ी विसंगति यह है कि मनुष्य असुरक्षा,
संत्रास,
मृत्युबोध और बाजारवाद से इतना तनावग्रस्त है कि
वह कहीं अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करता है। बावजूद इसके,
इनकी कहानियां समाज में व्याप्त भूख,
गरीबी, शोषण,
उत्पीड़न,
आंतक, बाजारवाद
और दमघोटू व्यवस्था की अच्छी पड़ताल करती है। इस आशा के साथ कि भविष्य में वे अपने
पाठकों को इसी तरह सशक्त और प्रेरणास्पद रचनाएं देकर उन्हें समृद्ध करते रहेंगे।
संपर्क
- डॉ. राजेंद्र कुमार साव, 31, बड़ा आएमा,
पो0
निमपुरा,
खड़गपुर,
जिला पाश्चिम मेदिनीपुर, पिन
कोड 721304.
(प.बं.), चलदूरभाष - 08609530456,
[1] लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय,
द्वितीय
महायुद्धेत्तर हिंदी साहित्य का इातिहास’, राजपाल एंड
संस,
कश्मीरी
गेट,
दिल्ली,
प्रथम
संस्करण 1996, पृष्ठ
संख्या 150
[2] काशीनाथ सिंह,
‘आलोचना
भी रचना है’,
किताबघर प्रकाशन,
नई
दिल्ली,
संशोधित
संस्करण 1996,
पृष्ठ
संख्या 139
[5] काशीनाथ
सिंह,
‘सदी
का सबसे बड़ा आदमी’, ‘काशीनाथ सिंह संकालित कहानियां’, नेशनल
बुक ट्रस्ट,
प्रथम
संस्करण 2008,
पृष्ठ
संख्या 02
[6] काशीनाथ सिंह,
‘दलदल’,
‘प्रतिननिधि
कहानियां काशीनाथ सिंह’
राजकमल
प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, प्रथम
संस्करण 1984, चौथी
आवृत्त 2008,
पृष्ठ
संख्या 84
[7] काशीनाथ सिंह,
‘आदमीनामा’
कहानी
संग्रह,
वाणी
प्रकाशन,
नई
दिल्ली 110002, प्रथम
संस्करण 2008, भूमिका
अंश से उद्धृत
[8] काशीनाथ सिंह,
‘सूचना’,
‘काशीनाथ
सिंह संकालित कहानियां’,
नेशनल
बुक ट्रस्ट,
प्रथम
संस्करण 2008, पृष्ठ
संख्या 24
[9] पुष्पपाल सिंह,
‘समकालीन
हिंदी कहानी’,
हारियाणा
साहित्य अकादमी,
चंडीगढ़,
प्रथम
संस्करण 1986,
पृष्ठ
संख्या 144
[10] काशीनाथ सिंह,
‘अपना
रास्ता लो बाबा’,
भीष्म साहनी (संपादक), ‘हिंदी कहानी संग्रह’,
साहित्य
अकादेमी,
रवीन्द्र
भवन,
नई
दिल्ली 110001,
संशोधित
संस्करण 2008,
पृष्ठ
संख्या 354
[11] काशीनाथ सिंह,
‘आलोचना
भी रचना है’,
किताबघर प्रकाशन,
नई
दिल्ली,
संशोधित
संस्करण 1996,
पृष्ठ
संख्या 96
[12] वागर्थ,संस्कृति की मासिक पात्रिका’,भारतीय
भाषा परिषद,
36/ए,
शेक्सापियर
सरणी,
कोलकाता-700017,
फरवरी-2008,
पृष्ठ
संख्या 29
[13] काशीनाथ सिंह,
‘काशीनाथ
सिंह संकालित कहानियां’,
नेशनल
बुक ट्रस्ट,
प्रथम
संस्करण 2008,
पृष्ठ
संख्या 66
[14] काशीनाथ सिंह,
‘सुख’, वागर्थ, संस्कृति की
मासिक पात्रिका’,भारतीय
भाषा परिषद,
36/ए,
शेक्सापियर
सरणी,
कोलकाता-700017,
फरवरी-2008,
पृष्ठ
संख्या 29
[15] (काशीनाथ
सिंह,
‘काविता
की नई तारीख’, ‘काशीनाथ
सिंह : संकालित कहानियां’, नेशनल बुक
ट्रस्ट,
प्रथम
संस्करण 2008,
पृष्ठ
संख्या 175
[16] बच्चन सिंह,
‘आधुनिक
हिंदी साहित्य का इातिहास’, लोकभारती प्रकाशन, संशोधित
संस्करण 2007, पृष्ठ संख्या 431
[17] काशीनाथ सिंह,
‘काविता
की नई तारीख’,
‘काशीनाथ
सिंह : संकालित कहानियां’, नेशनल बुक
ट्रस्ट,
प्रथम
संस्करण 2008,
पृष्ठ
संख्या 175
[18] काशीनाथ सिंह,
‘मुसाइचा’,
‘संकालित कहानियां काशीनाथ सिंह’,
नेशनल
बुक ट्रस्ट,
प्रथम
संस्करण 2008,
पृष्ठ
संख्या 35
[19] काशीनाथ
सिंह, ‘काशीनाथ
सिंहः संकलित कहानियां’, नेशनल
बुक ट्रस्ट, प्रथम
संस्करण 2008, भूमिका
अंश से उद्धृत, पृष्ठ
संख्या 09
[20] काशीनाथ सिंह,
‘काशीनाथ
सिंह : संकालित कहानियां’, नेशनल बुक
ट्रस्ट,
प्रथम
संस्करण 2008,
भूमिका
अंश से उद्धृत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें