बुधवार, 23 अप्रैल 2014

दलित साहित्य का बदलता परिदृश्य - नीरज कुमार




वर्तमान दलित साहित्य की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वह गैर दलितों को दलित पीड़ा का अहसास कराने में सफल हो गया है। दलितों की पीड़ा को उसने इतना यथार्थवादी बना दिया है कि उसमें अलग-अलग जातियों की पीड़ा भी अलग अलग दिखायी देने लगी है। ब्राह्मणवाद का जो कुसंस्कार दलितों में भी जड़ जमा चुका है या जमा रहा है, उसको भी अनावृत्त करने में आज के दलित साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। दलित साहित्य के बदलते परिदृश्य पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि दलित साहित्य का जो परिवेश, वातावरण शुरू में था, उसमें समय के अनुसार परिवर्तन होता नजर आ रहा है। इसलिए दलित साहित्य में भी बदलाव अपरिहार्य है।



      लित साहित्य का उद्भव महाराष्ट्र में मराठी साहित्य में एक साहित्यिक-सामाजिक विद्रोह के रूप में हुआ है, जिसके माध्यम से दलित, शोषित समाज का विद्रोह मुखरित हुआ है जिसे अछूत कह कर सदियों तक मनुष्य जीवन की सभी आवश्यकताओं और सुविधाओं से वंचित रखा गया तथा जिसे केवल दुःख, वेदना, गुलामी, अपमान, आंसुओं से भरी जिंदगी जीने के लिए विवश किया गया है। हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था ने जातियों के कटघरों से निर्मित इस समाज व्यवस्था में दलितों को वह स्थान दिया जो गांवों, नगरों के आहातों से दूर था और जहां केवल अंधकार ही अंधकार था। उस अंधकारमय जीवन से निकालकर उनके जीवन में रोशनी लाने का कार्य बाबा साहब अंबेडकर ने किया। उन्होंने दलितों की सोयी हुई आत्मा को जगाया। मराठी दलित साहित्य मराठी साहित्य क्षेत्र में परिवर्तन की मांग को लेकर सामने आया था। वह स्वतंत्रता, समानता और न्याय पर आधारित समाज की स्थापना का स्वप्न साकार करना चाहता था जिसमें प्रत्येक मनुष्य की अस्मिता का आदर किया जाए, उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जाए और मानवीय मान-सम्मान का वह हकदार हो। इसी मराठी साहित्य को आधार मान कर दलित साहित्य का प्रसार भारत की अन्य भाषाओं में भी धीरे-धीरे हुआ। वर्तमान समय में मराठी, हिंदी, पंजाबी, तमिल, तेलगू आदि भाषाओं में दलित साहित्य का लेखन कार्य हो रहा है। हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा होने के साथ-साथ उत्तर भारत की प्रमुख भाषा है इसलिए हिंदी में दलित साहित्य का विकास होना इस क्षेत्र बहुसंख्यक दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ है। जिस दलित साहित्य का प्रारंभ मराठी में हुआ उसी से प्रेरित होकर हिंदी दलित साहित्यकारों ने हिंदी में दलित साहित्य की रचना की और हिंदी साहित्य में अपनी दस्तक दी। दलित साहित्य का जो शुरूआती स्वरूप था उसमें समय के अनुसार काफी बदलाव में आया है। पहले सिर्फ आत्मकथाओं की ही अधिक रचना होती थी, रंतु अब साहित्य की लगभग सभी विधाओं में दलित साहित्य लिखा जा रहा है।            दलित साहित्य के बदलते परिदृश्य के संबंध में विचार करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि दलित साहित्य किसे कहते है? दलित साहित्य का परिदृश्य शुरूआत में कैसा था? उसमें कोई परिवर्तन हुआ है या नहीं। और अगर हुआ है तो उसका वर्तमान परिदृश्य क्या है? उसमें आये बदलाव के क्या कारण रहे हैं? दलित साहित्य के संबंध में विद्वानों के दो दृष्टिकोण हैं, एक दृष्टिकोण दलितों का है और दूसरा गैर-दलितों का। दोनों ने अपने-अपने अनुसार दलित साहित्य को परिभाषित किया है। एक के अनुसार सिर्फ दलितों का, दलितों के लिए, दलितों के द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। इस दृष्टिकोण की प्रमुख वजह यह मानी जाती है कि निम्न वर्ग के लोगों के द्वारा जिस नारकीय जीवन को भोगा गया है उसका यथार्थ चित्रण गहन आस्था और निष्ठा के साथ सिर्फ स्वयं भोक्तादलित लेखकों के द्वारा ही किया जा सकता है अन्य के द्वारा नहीं। दूसरा दृष्टिकोण गैर-दलितों का है, जिनका मानना है कि गैर दलितों के द्वारा लिखे गये साहित्य को भी दलित साहित्य की श्रेणी में रखा जाना चाहिए, क्योंकि गैर-दलितों में से अगर किसी ने दलितों की वेदना, पीड़ा आदि को महसूस किया है तो उसके साहित्य में भी दलितों की दशा का वैसा ही चित्रण देखने को मिल सकता है जैसा एक दलित रचनाकार के साहित्य में मिलता है।
कंवल भारती का कहना है कि दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है। अपने जीवन संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उन्हीं के द्वारा उसी की अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला का नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है।[1] दलित साहित्य को स्पष्ट करते हुए डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी ने कहा है कि दलित साहित्य संवेदना से विचार की ओर की सृजनात्मक क्रांति चेतना का ऐसा साहित्य है जो मानव के लिए मानव की दासता और पराधीनता से मुक्ति के द्वार पर दस्तक देकर मानव मात्र की मानव के रूप में मानव समाज में सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए सक्रिय संकल्पना है और यही संचेतना एवं संगठन की भीम ज्योति है तथा माधुर्य दृष्टि का मंजुल पुष्पगुच्छ भी है।[2] इन दोनों परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य सदियों से सताये हुए, दबाये हुए, शोषित वर्ग की चेतना का साहित्य है। इसमें उनकी वेदना, आक्रोश, दमन, चेतना आदि का वर्णन है।
कुछ विद्वानों ने गैर-दलितों के द्वारा दलितों के बारे में लिखे गये साहित्य को भी दलित साहित्य माना है। मैनेजर पाण्डेय का मानना है कि सहृदयता, करुणा और सहानुभूति के सहारे गैर दलित लेखक भी दलितों के बारे में अच्छा लिख सकते हैं और लिखा भी है। परंतु उनका भी कहना है कि सच्चा दलित साहित्य वही है जो दलितों द्वारा अपने बारे में या सपूंर्ण समुदाय के बारे में लिखा जाता है, क्योंकि ऐसा साहित्य सहानुभूति से नहीं, बल्कि स्वानुभूति से उपजा होता है।[3] दलित साहित्य के बारे में माताप्रसाद का कहना है कि दलित साहित्य केवल दलितों का लेखन नहीं है, बल्कि जिन्होंने भी दलितों की पीड़ा का अनुभव करके उन पर साहित्य सृजन किया है वह भी दलित साहित्य की श्रेणी में आता है।[4]
दलित साहित्य के प्रारंभिक स्वरूप के बारे में कहा जा सकता है कि प्रारंभ में दलित साहित्य निम्न जाति के लोगों द्वारा लिखे गये साहित्य के रूप में स्वीकार किया गया। इसलिए दलितों का, दलितों के लिए, दलितों के द्वारा लिखे गये साहित्य के रूप में दलित साहित्य को परिभाषित किया जाता था और पहचाना जाता था। क्योंकि दलितों का मानना है कि दलितों की पीड़ा का वर्णन एक दलित ही कर सकता है। जो सदियों से सिर पर मैला ढोता आ रहा है, जो समाज के हाशिए पर रहता आ रहा है, जो मरे हुए जानवरों का मांस खाने को इस हद तक मजबूर किया जाता रहा है कि वह उसकी आदत ही बन जाए, जिसे एक ही पेशे में जो कि वंशानुगत हो, रहने को अभिशप्त बना दिया जाए, जिसे अछूत बना दिया जाए, जो खुद ही बच-बच कर सवर्णां से दूर चलता रहे, क्योंकि कहीं वह उनसे छू न जाए, ऐसी पीड़ा सहानुभूति की उपज नहीं हो सकती।
दलित साहित्य के बदले हुए परिदृश्य के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि इसका परिदृश्य जो दलित साहित्य के उद्भव के समय था, उसमें समय के अनुसार परिवर्तन देखने को मिलता है। दलित साहित्य का परिदृश्य लगातार बदलता रहा है। वर्तमान दलित साहित्य में वर्णाश्रम व्यवस्था से मुक्ति की आकांक्षा, आधुनिक जीवन मूल्यों की वकालत और अपनी स्वतंत्र अस्मिता की खोज आदि की अभिव्यक्ति हो रही है। आज अपनी अस्मिता की खोज की प्रक्रिया में यह अपने इतिहास, संस्कृति, परपंरा, महापुरुषों आदि को स्थापित करने में लगा हुआ है। साहित्य में उसकी यह अभिव्यक्ति भले ही अनगढ़ भाषा और शिल्प में हो रही हो पर इसकी उपेक्षा अब संभव ही नहीं है।
दलित साहित्य के बदलते परिदृश्य के बारे में डॉ.रामचन्द्र का कहना है कि फुले, पेरियार, नारायण गुरु, अंबेडकर ने आत्म-सम्मान और सामाजिक अस्मिता की जो भावभूमि तैयार की थी तथा संघर्ष का जो दीप प्रज्ज्वलित किया था, वह अब और भी तेजी से प्रदीप्त हो उठा है। वेदना, आक्रोश और आमूल परिवर्तन की आकांक्षा से दलितों ने अस्मिता के संघर्ष को एक आकार देना शुरू कर दिया है। सदियों से जिसे साहित्य और समाज के हाशिए पर फेंक दिया गया था तथा जिसे अछूत, अतिशूद्र, अंत्यज, चांडाल, अवर्ण, पंचम आदि नामों से विहित करके घृणा, हिकारत और दया का पात्र बना दिया गया था, वही आज प्रखर आत्म-बोध के साथ इन सारी शब्दावलियों और विशेषणों को ठुकराकर स्वयं दलित के रूप में अपनी अस्मिता का बोध साहित्य, समाज और राजनीति तीनों ही स्तरों पर कर रहा है, जबर्दस्त दस्तक दे रहा है और यही नहीं अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करा रहा है तथा अपने अधिकारों के लिए स्वयं संघर्ष कर रहा है।[5]
आज-कल जो दलित साहित्य हमारे सामने आ रहा है, उसके बारे में आम तौर पर हिंदी साहित्य के लेखक और आलोचकों का कहना है कि दलित साहित्य में कलात्मकता और सौंदर्य की कमी है इसलिए यह अच्छा साहित्य नहीं है। लेकिन इसके जबाव में यह कहा जा सकता है कि दलित लेखकों के पास कला भले ही न हो, लेकिन उनके मन में कुछ कहने की और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की बैचेनी तो है। उनकी आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा को समझे बिना इन लेखकों से कला की मांग करना उनके साथ ज्यादती ही कही जाएगी, क्योंकि जिस समाज के लोगों को सदियों से गुलामी का जीवन जीना पड़ा है, उसके लोगों ने कम से कम अपने जीवन के यथार्थ को साहित्य के माध्यम से लोगों के सामने प्रस्तुत तो किया। वर्तमान दलित साहित्य के बारे में सुधाकर कलवाडे का कहना है कि आज दलित साहित्य अनेक दृष्टियों से समृद्ध हो रहा है। उसके विविध रूप अब प्रकट होने लगे है। पहले संक्रमणावस्था के कारण अनेक कृतियों में कुछ दोष रह गये हैं, किन्तु आज की दलित कलाकृतियां शुद्ध अंबेडकरवाद के रूप में साकार हो रही है। अंबेडकरवाद को स्वीकार न करने वाली कुछ अस्पृश्य, आदिवासी तथा घुमंतू जातियों में भी आज इसप्रकार की साहित्यिक रचनाएं लिखी जाने लगी हैं। और ये रचनायें अतीत की उपेक्षाजन्य पीड़ा को नये ढंग से रख रही है और सौंदर्य के बारे में हमारी पहले से जो राय बनी हुई थी उसमें एक नयापन ला रही है। साहित्यकारों की शैली, आवाज़ और प्रस्तुति में एक नयापन आ रहा है।
दलित साहित्य के बदलते परिदृश्य को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वर्तमान दलित साहित्य अमर्यादित होकर सवर्ण मात्र या ब्राह्मणवाद के विरूद्ध गाली- गलौच का ही साहित्य नहीं रहा है, जैसा कि इसके बारे में कहा जाता है। जो दलित साहित्य आत्मकथाओं से शुरू हुआ था वह आज साहित्य की अनेक विधाओं, जैसे कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, लेख, संस्मरण आदि रूपों में लिखा जा रहा है, जिसके कारण यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य ने अपनी एक अलग विचारधारा की निर्मिति कर ली है, जो दलितों की अस्मिता, आत्म सम्मान और स्वाभिमान को अत्यधिक महत्व देती है। दलित साहित्य समानता की बात करता है और समाज में व्याप्त विषमता को समाप्त करने की अपील करता है ताकि समाज में सभी लोग अपने-अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का पालन करते हुए अपना जीवन यापन कर सकें।
इसप्रकार कहा जा सकता है कि दलित साहित्य का बहुआयामी और व्यापक फलक अब हमारे सामने आ रहा है। दलित साहित्य में शब्दों का लालित्य, प्रेम का अवसाद, कोरा रोमांस, आध्यात्मिकता के रासरंग, अलंकारों तथा छंदों की दिमागी कसरत नहीं मिलती है, अपितु यातना एवं त्रासदी से उपजे गरम सुलगते सवाल तथा एक सशक्त साहित्यिक हस्तक्षेप देखने को मिलता है। दलित साहित्य मानवीय धरातल पर रचा गया एक ऐसा मानवतावादी साहित्य है जो मानव की सपूंर्ण गरिमा लिये हुए मानव के प्रति किये गये प्रत्येक अनाचार, अत्याचार का प्रतिकार करता है और उसके निमित्त एक अहिंसक वैचारिक क्रान्ति का वाहक है। दलित साहित्य प्रत्येक दुराग्रह, पूर्वाग्रह से मुक्त है तथा समता, समरसता, समानाधिकार, समान सम्मान और सामाजिक न्याय का पक्षधर है तथा वह मानव समाज में वर्ण, वर्ग, प्रान्त, भाषा अथवा धर्म के नाम पर किसी भी विभाजन को स्वीकार नहीं करता हैं। वह आदमी को अदम्य अद्वितीय शक्तियों का उत्प्रेरक मानता है। अंधविश्वासों, अंधश्रद्धाओं, अंधभक्तियों के प्रतिकूल वास्तविकता का पथ प्रदर्शक है। मानवीय गुणों को महिमा मंडित करने वाला अहं नहीं, सम्मान की रक्षा करने वाला साहित्य हैं। दलित साहित्य युगों-युगों से अंधकार में बसने वाले कोटि -कोटि कण्ठों, मूकमानवों का स्वर हैं।
कंवल भारती ने अतीत और वर्तमान के साहित्य के बारे में लिखते हुए दलित साहित्य के वर्तमान परिदृश्य पर किंचित चिंता भी व्यक्त की है कि पहले के दलित साहित्य की एक दिशा थी, रंतु वर्तमान के दलित साहित्य की कोई एक दिशा न हो कर अनेक दिशाएं है। वह अनेक दिशाओं में अपनी राहें बना रहा है। कल के दलित साहित्य को सत्ता की चिंता नहीं थी, रंतु आज के दलित साहित्य को सत्ता की भी चिंता है। उसे सत्ता आकर्षित करने लगी है और उसकी चिंता में सत्ता के सरोकार भी दिखाई दे रहे हैं। कल का दलित साहित्य विचारपरक था, पर आज का दलित साहित्य व्यक्ति केंद्रित है और यह व्यक्ति स्वयं लेखक है। कल का दलित साहित्य दलित समाज से जुड़ा हुआ था, पर आज का दलित साहित्य काफी हद तक बाजारवाद से जुड़ रहा है। वह अपना बाजार नहीं बना रहा है, ऐसा होता तो शायद अच्छा होता। वस्तुतः वह काफी हद तक बाजार की मांग पर लिखा जा रहा है। दूसरे शब्दों में दलित साहित्य ने बाजार में प्रवेश नहीं किया है, बल्कि बाजार ने उसमें प्रवेश कर लिया है। लेकिन इस सबके बावजूद हमें यह स्वीकार करना होगा कि कल के दलित साहित्य की भूमिका सीमित थी, पर आज के दलित साहित्य की भूमिका सीमित नहीं है। आज का दलिता साहित्य न सिर्फ साहित्य की विभिन्न विधाओं में विस्तार पा रहा है, बल्कि उसने राष्ट्रीय अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से गैर दलितों के विशाल वर्ग को भी आकर्षित किया है।[6]
वर्तमान दलित साहित्य की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वह गैर दलितों को दलित पीड़ा का अहसास कराने में सफल हो गया है। दलितों की पीड़ा को उसने इतना यथार्थवादी बना दिया है कि उसमें अलग-अलग जातियों की पीड़ा भी अलग अलग दिखायी देने लगी है। ब्राह्मणवाद का जो कुसंस्कार दलितों में भी जड़ जमा चुका है या जमा रहा है, उसको भी अनावृत्त करने में आज के दलित साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। दलित साहित्य के बदलते परिदृश्य पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि दलित साहित्य का जो परिवेश, वातावरण शुरू में था, उसमें समय के अनुसार परिवर्तन होता नजर आ रहा है। इसलिए दलित साहित्य में भी बदलाव अपरिहार्य है। समाज में आये परिवर्तनों के संदर्भ में डॉ. तेजसिंह ने कहा है कि दो-तीन दशकों के सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन के पीछे महात्मा फुले और डॉ. अंबेडकर की परिवर्तनकारी विचारधारा की महत्वपूर्ण भूमिका है। दलित साहित्य और साहित्यकार उनके जीवन दर्शन से लगातार प्रेरणा ग्रहण करके सामाजिक परिवर्तन की दिशा में नई गति देने के लिए संघर्षरत हैं। सामाजिक परिवर्तन का ही परिणाम है कि दलित समाज में नयी चेतना विकसित हो रही है और वह निरंतर अपनी अस्मिता तथा पहचान की लड़ाई को धारदार बनाने की दिशा की ओर अग्रसर हो रहा है। रघुवीर सिंह का कहना है कि राष्ट्रीय एकीकरण की पक्षधरता तथा जर्जर जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, अशिक्षा आदि विषमताओं का विरोध जो बहुत पहले ही हिंदी साहित्य की मुख्यधारा के विषय होने चाहिए थे, हिंदी साहित्य जगत के उन्हीं अनछुए बिंदुओं को अपने लेखन का विषय बना रहा है दलित साहित्य।[7]
दलित साहित्य के बदलते परिदृश्य को विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाते रहने का प्रयास दलित साहित्यकारों द्वारा किया जा रहा है। इस संबंध में कहा जा सकता है कि दलित साहित्य की विकासोन्मुखी धारा समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे पर आधारित नये सामाजिक इतिहास के सूत्रपात के साथ-साथ गांवों, शहरों में जन्मे, पनपते, बढ़ते जातिवाद, विषमता, भेदभाव, अशिक्षा, कुपोषण को बौद्धिक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखती है। आधुनिक परिवेश में आर्थिक असमानता, वैश्विक बाजारवादी प्रतिस्पर्धा, वैश्वीकरण, भौगोलीकरण से उत्पन्न समस्याओं, शहरी लोगों की शिक्षा, रोजगार, सुविधाओं के क्षेत्रों में गांवों से बढ़ती दूरियों के साथ-साथ ग्रामीण भारत के अन्तर्जातीय सम्बन्धों, तनावों, द्वंद्वों को भी अब दलित साहित्य ने अपनी लेखनी का विषय बनाना आरंभ कर दिया है। उसकी यह विकासोन्मुखी धारा राष्ट्रीय एकीकरण में नव विचारों का संचार है जो समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे पर आधारित प्रजातांत्रिक मूल्य हैं।
सारांश रूप में दलित साहित्य के बदलते परिदृश्य के बारे में यह कहा जा सकता है कि आज दलित साहित्य अपने पूरे जोश के साथ उभर रहा है और अनेक दलित साहित्यकार दलित संवेदना, उत्पीड़न का अपनी रचनाओं के माध्यम से चित्रण कर रहे है, जिसकी गूंज पूरे साहित्य जगत में सुनाई दे रही है। जिस दलित साहित्य में पहले सिर्फ लेखक की ही पीड़ा, वेदना और त्रासदी दिखाई देती थी, उसमें अब पूरे दलित समुदाय के लोगों की वेदना, पीड़ा और त्रासदी दिखाई देने लगी है। बदली हुई स्थिति में दलित समाज के लोग न केवल लेखनी चला रहे हैं वरन् अपनी पीड़ा और विचारों को संप्रेषण का माध्यम बना कर सामाजिक चेतना की अलख जगा रहे हैं। शिक्षा के बढ़ते प्रचार-प्रसार से दलितों में उठ रही सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के कारण अब और नए-नए मुद्दे चर्चा-विमर्श का विषय बन रहे है। आज दलित साहित्य जड़ हो चुकी सड़ी-गली पुरानी मान्यताओं और परपंराओं को त्यागकर उन नई बातों को अपनाने की बात करता है जो तर्कसंगत हो, वक्त के सापेक्ष हो और जिसे उसका मन और बुद्धि ग्राह्य समझें। दलित साहित्य जोड़ने की बात करता है, तोड़ने की नहीं। यह कमजोर वर्गों के संरक्षण की बात करता है। महिलों के समान हकों की बात करता है, सामाजिक सुधार और धार्मिक खुलेपन की बात करता है। दलित साहित्य मनुष्य को मनुष्य समझता है न कि ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर आदि। यह मानवीय मूल्यों, आजादी, समानता, बंधुत्व एवं न्याय पर आधारित जाति एवं वर्ग रहित समाज के सृजन की बात करता है।
संपर्क - नीरज कुमार, शोधार्थी, हिंदी जे.एन.यू.नई दिल्ली-67, ईमेल - nkhjnu@gmail.com
 

[1] डॉ.श्योराज सिंह बेचैन और देवेन्द्र चौबे, चिन्तन की परपंरा और दलित साहित्य, नवलेखन प्रकाशन, हजारीबाग, बिहार, प्र.सं. 2000, पृ.सं.97
[2] वही पृ.सं. 139
[3] जयप्रकाश कर्दम(सं.), दलित वार्षिकी वर्ष 2009, साहित्य संस्थान प्रकाशन, गाजियाबाद,  पृ.सं. 37
[4] माताप्रसाद, दलित साहित्य दशा और दिशा, भारतीय दलित साहित्य अकादमी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2003, पृ.सं 149
[5] कंवल भारती, दलित साहित्य की अवधारणा, बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर, उ.प्र., प्रथम संस्करण 2006,  पृ.सं. 137
[6] कंवल भारती, दलित साहित्य की अवधारणा, बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर, उ.प्र., प्रथम संस्करण 2006,  पृ.सं. 137
[7] जयप्रकाश कर्दम (सं.), दलित वार्षिकी 2000, साहित्य संस्थान प्रकाशन, गाजियाबाद, पृ.सं.59


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